भूली बिसरी यादें
नहीं खौफ थी चिंता थी।
कल के दिन की किसे खबर थी,
उम्मीदें सब जिंदा थीं।
एक हाथ में चाय का प्याला,
दूजे में अखबार का पर्चा।
देश-विदेश की सभी समस्या,
पर हम मिल करते थे चर्चा।
खर्चा वो करता था सारा,
जो मुद्दों पे हार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।
आधी रात सड़क पर जाना,
दूर बहुत हम जाते थे।
दोस्त यार संग कितने किस्से,
सुनते और सुनाते थे।
सूनी सड़क पर राजा बनते,
अपना राज चलाते थे।
इक दूजे की करी खिंचाई,
अपना मन बहलाते थे।
अपनी बारी जब आती तो,
कहते अब बेकार हुआ।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।
राजनीति की कितनी चर्चा,
चुटकी में कर जाते थे।
सत्ता पर हम कभी बिठाते,
कभी सरकार गिराते थे।
दिल्ली से बंगाल की चर्चा,
चाय समोसे संग होती थी।
राजनीति पर कोई चर्चा
बिन कश्मीर कहाँ होती थी।
जिम्मेदारी के आते ही,
रातों पर अधिकार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।
दस रुपये था पॉकेट खर्चा,
कितना कुछ कर जाते थे।
इक-इक पैसा जोड़-जोड़ कर,
सारे पिकनिक जाते थे।
साईकल की दौड़ सड़क पर,
बस से बाजी लगती थी।
थक जाते थे पैर हमारे,
उम्मीदें कब थकती थीं।
अल्हड़पन की उन बातों का,
जाने सब व्यवहार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।
सुबह-शाम बस दौड़ रहे हैं,
उम्मीदों के रेले में।
ढूँढ़ रहे हैं अपने मन को,
भीड़ भरे हर मेले में।
शिकन माथ पर जब आती है,
हर पल उसे छुपाते हैं,
यादों की ड्योढ़ी पर कितने,
आँसू मौन छुपाते हैं।
इस भीड़ भरी तन्हाई में,
क्यूँ वो बचपन हार गया।
मिली नौकरी तो अब जाना,
मन को कितना मार गया।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10 फरवरी, 2024
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