मील के पत्थरों का मर्म
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।
चाह मन में है प्रबल तो क्या कहो मुश्किल यहाँ है,
प्रण प्रबल हो यदि यहाँ तो मुश्किलों का हल यहाँ है।
राह का जो मर्म समझा है इसे वो जान पाया,
तैरते उन पत्थरों के भाष्य को पहचान पाया।
प्रेम का ले भाव मन में राह को जो जान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।
देख पाया सत्य वो ही स्वयं से जो मिल सका है,
सह सका जो भी समय को पुष्प सा वो खिल सका है।
हर घड़ी जिसके हृदय में सीखने की चाह होती,
कंटको में भी हमेशा कुछ न कुछ तो राह होती।
सत्य को जिसने जिया है कंटको से मान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।
जीतने की चाह लेकर चल रहे सारे यहाँ पर,
पुण्य जिसकी साधना है वो सफल होता यहाँ पर।
वासना से है परे वो स्वयं को जो बाँध पाया,
पार्थ वो ही बन सका है स्वयं को जो साध पाया।
है मिला आशीष पथ का पंथ जो पहचान पाया,
दूर वो ही चल सका जो मर्म इनका जान पाया।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04 जनवरी, 2024
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