सारी रात नहीं सोया था
उगता कभी-कभी छुपता है,
कभी सरकता धीरे-धीरे,
सागर के उस तीरे-तीरे,
दूर क्षितिज जब वो ढलता है,
क्यूँ जाने मन को खलता है,
दूर कहीं ये मन खोया था,
सारी रात नहीं सोया था।
सरिता के पनघट पर जाकर,
छलकाई यादों की गागर,
नैन मूँद कर उपवन घूमा,
यादों के हर पट को चूमा,
सन्नाटे में बहुत पुकारा,
अपने प्रतिशब्दों से हारा,
यादों को हर पल ढोया था,
सारी रात नहीं सोया था।
आँसू का हर मौन छुपाकर,
पलकों का हर कोर सजाकर,
गिरी बूँद में कलम डुबोया,
हृदय पटल पर उसे सँजोया,
अधरों पर छुपकर ले आया,
साँसों ने तब गीत सुनाया,
पहली बार नहीं रोया था,
सारी रात नहीं सोया था।
कभी याद तो आती होगी,
आहों को सहलाती होगी,
किसी मोड़ पर जब सोचोगे,
पीछे मुड़ कर जब देखोगे,
तुमको गीत सुनाई देगा,
बिछड़ा मीत दिखाई देगा,
बस उधेड़बुन में खोया था
सारी रात नहीं सोया था।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13 फरवरी, 2024
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