शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली
जैसे पतझड़ के मौसम में, दौर बहारें आयी हैं।
सूना-सूना था ये उपवन, अभी खिली है यहाँ कली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।
सदी मिलन का बाट जोहती, तब जाकर ये दिन आया,
पुलकित मन के मृदु भावों ने, दिन ये हमको दिखलाया।
आज समर्पण के भावों से, जीवन को खिल जाने दो,
सदियों के इस पुण्य गान में, साँसों को मिल जाने दो।
सदियों से जो भाव मौन थे, चाहत उनकी आज फली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।
दूर क्षितिज पर धरती अंबर, देखो कितने पास मिले,
जैसे सावन की बूँदों से, पपिहे का मधुमास खिले।
ऐसे मृदुल भाव जब मन के, रहे नहीं शंका किंचित
संग-संग जब समय चल रहा, वृथा हृदय क्यूँ है चिंतित।
जग के भरम जाल यदि घेरे, कैसे होगी प्रीत भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।
बरस रही हैं नेह रश्मियाँ, आज चाँदनी के आँगन,
चलो समेटें प्रेम सुधा रस, भर जाये अपना दामन।
लिखें प्रेम का गीत नया हम, प्रकृति जिसके साथ चले,
गूँजे जिसके बोल युगों तक, जहाँ प्रणय की बात चले।
मन के पृष्ठभूमि पर लिख दें, रीत वही जो सदा भली,
शेष अभी है सांध्य यहाँ पर, कहो अभी तुम कहाँ चली।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04जनवरी, 2024
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