बहलाते रहे

बहलाते रहे

भूख संसद से सड़क तक मुद्दे दहलाते रहे
और अबकी बार कहकर हमको बहलाते रहे

वो पिलाते ही रहे हैं वादों की घुट्टी सदा
वादों के हर ताप से लम्हे झुलसाते रहे

लिख रही है मुफ्तखोरी मुल्क की वो दास्ताँ
बोझ में जिसके कुचल बस जेब सहलाते रहे

हम इधर आँचल का अपने रोज करते हैं रफू
खींच कर आँचल हमारा हमको फुसलाते रहे

शर्म भी हैरान है देख कर मंजर यहाँ का
मासूमियत को रौंद जब मन को बहलाते रहे

जोड़ने की बात कहकर तोड़ डाला रास्तों को
देव बस वो दूर से ही हाथ दिखलाते रहे

और एक तोहमत हमेशा हम पे ये लगती रही
देख कर उनका सुखन हम यूँ ही चिल्लाते रहे

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14 फरवरी, 2024

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