साँसें हारी हैं
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।
तार-तार अनुमान सभी हैं, ये चुभती हुई हवायें क्यूँ,
बिखरे-बिखरे सपने सारे, हैं घायल सभी फिजायें क्यूँ।
कौन सुनेगा किससे मन के, अपने सारे भाव उचारें,
दूर-दूर तक नहीं दिख रहा, किसको मन अब आज पुकारे।
भावों में सूनापन गहरा, आशायें मन पर भारी हैं,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।
महँगे हैं सपने आँखों के, पलकों पे अब नींद नहीं है,
बाजारू हो चुकी व्यवस्था, बदलेगी उम्मीद नहीं है।
जाड़े की सिलवट में सिमटे, साँसों के अरमान बिचारे,
बाट जोहते कंबल के हैं, रातों के आगे सब हारे।
बाजारू जब हुई व्यवस्था, पलकों के सपने भारी हैं,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।
सोचा कितनी बार कहूँ मैं मुद्दे सारे सरकारों से,
लेकिन मन की बात लौट कर, आयी कितने दरबारों से।
खड़े द्वार पर तकते-तकते, उम्मीदें सारी उलझीं हैं,
उम्मीदों के महा युद्ध में, ये साँस कहो कब सुलझी है।
उम्मीदों के घने युद्ध में, सब बाजी मन पे भारी है,
चुभती हैं आहें साँसों में, ये साँसें फिर भी हारी हैं।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03फरवरी, 2024
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