दिल कहो क्या करे

दिल कहो क्या करे

हों खड़े प्रश्न जब हर गली-मोड़ पे,
आस हो टूटती दिल कहो क्या करे।

सूनी आँखों हैं प्रश्न कितने छुपे,
अपनी साँसें भी तीर बन जब चुभे।
हों सभी मोड़ पर झूठ से सामना,
मन कैसे करे फिर कोई कामना।
बह रहे दर्द हों जब नयन कोर से,
व्यर्थ हों अश्रु फिर दिल कहो क्या करे।

लम्हे सदियों को जब भुलाने लगे,
लोरियाँ नींद से जब जगाने लगे।
सत्य से जब बड़ा झूठ होने लगे,
मन में सत्ता की भूख होने लगे।
झूठ जब श्रेष्ठ हो द्यूत के जोर से,
सत्य धूमिल रहा दिल कहो क्या करे।

द्रौपदी फिर खड़ी आज दरबार में,
लग रही लाज की बोली  व्यवहार में।
द्यूत का घाव फिर आज गहरा हुआ,
हर गली-मोड़ पर धुंध पसरा हुआ।
हो उजाला न दिखता किसी छोर पे,
मौन हों श्रेष्ठ जन दिल कहो क्या करे।

तंत्र हो जब विफल आस किससे करे,
मंत्र हों जब कुफल बाँह किसकी धरे।
कौन है अब यहाँ जो पढ़े मौन को,
और पूछे सफर में कि तुम कौन हो।
जब हवा ने किनारा किया मौज से,
बीच मँझधार में दिल कहो क्या करे।

शीर्ष ही जब स्वयं निम्न बनने लगे,
शीर्ष का दंभ बन शूल चुभने लगे।
जब स्याही ही तकदीर लिखने लगे,
जब हृदय को सभी प्रश्न चुभने लगे।
शीर्ष के नेत्र में प्रश्न जब गौड़ हों,
और उत्तर न हो दिल कहो क्या करे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31 जुलाई, 2025

पीर से पत्थरों को पिघलते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये

पीर से पत्थरों को पिघलते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये

रह गयी कुछ कहानी कही अनकही,
पृष्ठ पर कुछ लिखे कुछ लिखे ही नहीं।
उम्र अपनी कहानी छुपाती रही,
कुछ कहे शब्द ने कुछ कहे ही नहीं।

उम्र भर आह को मौन हँसते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये।

रक्त बहता रहा नैन के कोर से,
लोग अनगिन कहानी बनाते रहे।
ताने कितने सहे हर गली मोड़ पे,
आह में द्वंद हर पल मिटाते रहे।

अश्रु से रक्त को मौन रिसते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये।

किंतु हर पल हृदय को सताती रही,
मौन न बन सकी कोई जादूछड़ी।
हर घड़ी पीर आँचल छुपाती रही,
जिसे कहते रहे लोग जादूगरी।

मन अखय पात्र में दर्द रखते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये।

घिर गई नाव जब बीच मँझधार में,
लहर की धार ने जब किनारा किया।
छोड़ कर चल दिये जब सभी राह में,
दर्द ने ही मुझे तब सहारा दिया।

पीर में प्रीत को यूँ महकते हुए, देख पलकों के अश्रु वहीं रुक गये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19 जुलाई, 2025

भरत चले चित्रकूट

भरत चले चित्रकूट

देख अवध की सूनी धरती वह कोमल मन अकुलाता है।।
प्रभु राम बिना भोर न होगी मन अंधकार गहराता है।।1।।

जिस भाई का हाथ पकड़ कर अब तक ये जीवन बीता है।।
उसके वन जाने से मेरा ये जीवन घट सब रीता है।।2।।

बिना राम के राज महल ये सब सूना-सूना लगता है।।
अपनी ही परछाईं रूठी अब दर्पण मुझ पर हँसता है।।3।।

ऐसा लगता आज भरत को ये जीवन छूटा जाता है।।
अपनी ही साँसों से तन का हर बंधन टूटा जाता है।।4।।

जो ऐसे ही यदि मौन रहा तो टूट बिखर मन जाता है।।
ये साँस अलग हो जाती है बस निष्क्रिय तन रह जाता है।।5।।

मन ही मन में किया सुनिश्चित अब चित्रकूट वो जायेंगे।।
पाँव पकड़कर मिन्नत करके आराध्य को अवध लायेंगे।।6।।

गये कक्ष माँ कौशल्या के उनको मन का हाल सुनाया।।
अपने मन की बात बताई और प्रयोजन भी समझाया।।7।।

ले आशीष सुमित्रा माँ का गुरुजन से मन की बात कही।।
सब प्रातः चित्रकूट जाएंगे रहते हैं मेरे नाथ वहीं।।8।।

माँ कैकेई भी चली साथ में प्रभु को आज मनाने को।।
भूल हुई जो क्षमा माँगने अरु पश्चाताप जताने को।।9।।

हाथ जोड़ सब जतन करूँगा मैं चरणों मे
गिर जाऊँगा।।
जिस विधि मेरे प्रभु मानेंगे मैं उस विधि वहाँ मनाऊँगा।।10।।

आज अवध की रात बड़ी थी कब चित्रकूट भी सोता था।।
हूक हृदय में उठती प्रभु के अंदर-अंदर मन रोता था।।11।।

हो रात भले ही लंबी कितनी आँखों में कट जाती है।।
अपनापन हो मृदुल भाव हो तो दूरी सब मिट जाती है।।12।।

संबंधों का गणित जटिल है पर जोड़ नेक ही होता है।।
दो अरु दो मिल चार भले हों पर यहाँ एक ही होता है।।13।।

नवप्रभात की नव किरणों में नव आशाओं का मंथन है।।
आज हमारे राम मिलेंगे हर एक हृदय में गुंजन है।।14।।

टूट गये सारे जग बंधन सम्मुख आये जब दो भाई।।
शुष्क धरा पर बूँदें बरसीं पत्थर पर कलियाँ मुसकाई।।15।।

देख भरत को सम्मुख अपने प्रभु सुध बुध अपनी भूल गये।।
नेत्र सजल यूँ हुए राम के बस भ्रातृ प्रेम में झूल गये।।16।।

दोनों मुख पर भाव एक था झर-झर अश्रु बहे जाते थे।।
मौन अधर थे दोनों के पर नेत्र तो सब कहे जाते थे।।17।।

भाई से भाई का रिश्ता सबसे पावन कहलाता है।।
तन दूर रहे चाहे जितना मन दूर कहाँ रह पाता है।।18।।

क्षमा करें हम सबको भैया जो ऐसा अपराध हुआ है।।
प्रभु माता की नादानी से आज अवध बर्बाद हुआ है।।19।।

आत्म ग्लानि से पीड़ित हूँ प्रभु कैसे मुख दिखलाऊँ मैं।।
अंतर्मन की क्लांत व्यथा को प्रभु कैसे यहाँ बताऊँ मैं।।20।।

शब्द नहीं है पास मेरे किस मुख से करूँ क्षमा याचना।।
अवध लौट कर राज्य सँभालें करता हूँ मैं यही प्रार्थना।।21।।

सुनी भरत की करुण याचना प्रभु नेत्र अश्रु से भींग गये।।
देख भरत के भोलेपन को मन ही मन प्रभु रीझ गये।।22।।

उठा भरत को गले लगाया हाथों से आँसू को पोंछा।।
आसन देकर पास बिठाया मंगल कुशल अवध का पूछा।।23।।

धरा अवध की सूनी-सूनी जन मन में भी होश नहीं है।।
बेमन बहती पौन अवध में सूरज में भी जोश नहीं है।।24।।

सरयू का पानी मद्धम है चंचलता सब खोई-खोई।।
तट सरिता का सूना-सूना लहरें भी हैं खोई-खोई।।25।।

उपवन में अब पुष्प न खिलते पंछी कलरव भूल चुके हैं।।
सुबह सांध्य के अंतर सारे अवध निवासी भूल चुके हैं।।26।।

इतने दिन तक वचन निभाया अब घर को लौट चलें भगवन।।
बिना आपके शून्य भरत है ज्यूँ बिना प्राण के होता तन।।27।।

जो अपराध किया है माँ ने तो मैं भी तो अपराधी हूँ।।
मात-पिता से हुई भूल है मैं बड़े दंड का भागी हूँ।।28।।

लखन कहो तुम ही भैया से क्यूँ बात नहीं मेरी सुनते।।
मैं भी तो छोटा भाई हूँ विनय नहीं क्यूँ मेरी सुनते।।29।।

इन चरणों की सेवा के बिन दूजा मेरा काम नहीं है।।
मेरे इष्ट जहाँ जायेंगे मेरे चारों धाम वहीं हैं।।30।।

शीश नहीं है हाथ पिता का आप हमारे पिता तुल्य हो।।
जो साँसों का मूल्य देह में प्रभु जीवन का वही मूल्य हो।।31।।

बस एक बार विनय सुनो प्रभु मैं और नहीं कुछ माँगूँगा।।
मुझे क्षमा यदि नहीं किया तो मैं ये प्राण चरण में त्यागूँगा।।32।।

उठा भरत को गले लगाये बोले प्रभु ये स्थान नहीं है।।
मात-पिता का वचन न मानूँ ऐसा स्वार्थी राम नहीं है।।33।।

क्या ये जगत कहेगा मुझको अपने सुख के लिया जिया हूँ।।
मान वचन का रखने का बस मैं ये केवल स्वांग किया हूँ।।34।।

चौदह बरस बीत जायेंगे यूँ चुटकी में प्रिय क्लांत न हो।।
विधना ने ये लेख लिखा है प्रिय अपने मन को शांत रखो।।35।।

कितना अच्छा अवसर है जो मेरे जीवन में आया है।।
जन-जन के मन की जानूँ मैं विधना ने पंथ सुझाया है।।36।।

यूँ अधीर क्यूँ होते हो प्रिय अपने मन को तुम समझाओ।।
मुझको धर्म निभाने दो प्रिय तुम भी अपना धर्म निभाओ।।37।।

सुन रघुवीर भरत जी बोले आदेश मुझे शिरोधार्य है।।
अपना धर्म निभाने को प्रभु सहर्ष भरत अब तैयार है।।38।।

बस मेरी विनती मानें प्रभु मैं और नहीं कुछ माँगूँगा।।
आप अवध को लौट चलें वन में चौदह बरस बिताऊँगा।।39।।

लखन भ्रात तुम ही कुछ बोलो भैया को कैसे समझाऊँ।।
कोई जतन उपाय बताओ किस विधि प्रभु को आज मनाऊँ।।40।।

मान वचन का रखना है तो प्रभु मैं ये वचन निभाऊँगा।।
इतने दिन तक रहे आप अब मैं वन में बरस बिताऊँगा।।41।।

ऐसा जीवन व्यर्थ है भाई जो विपत से मुड़कर भागे।।
धिक्कार उसे इस जीवन में जो भाई का दुख ना बाँटे।।42।।

प्रभु छोटा भाई होने का मुझको कर्तव्य निभाने दें।।
प्रभु आप अवध को लौट चले अब मुझको वन में जाने दें।।43।।

सोचो जगत कहेगा क्या-क्या सुख की खातिर सब झुठलाया।।
वचन पिता का तोड़ दिया है पुत्र धर्म का मान गिराया।।44।।

चौदह बरस नहीं ज्यादा है पलक झपकते कट जायेंगे।।
चंद दिनों की बातें हैं ये हँसते-हँसते कट जायेंगे।।45।।

तुम सब मुझको प्रिय हो भाई कहने को बस राम ज्येष्ठ है।।
तुम सबसे मेरी हिम्मत है तुम सब कारण राम श्रेष्ठ है।।46।।

भाग्यवान है राम जगत में तुमसे भाई मुझे मिला है।।
पूर्व जन्म के सब कर्मों का फल है जो ये आज खिला है।।47।।

हम चारों में श्रेष्ठ भरत हो धर्म न्याय के तुम ज्ञानी हो।।
सूर्य सम है शौर्य तुम्हारा दयावान हो तुम दानी हो।।48।।

ऐसे मत बहलायें मुझको मेरी ये विनती सुन ली जे।।
यदि आप नहीं चल सकते हैं प्रभु सेवा का अवसर दी जें।।49।।

मैं भी प्रभु के साथ चलूँगा साया बनकर साथ रहूँगा।।
धूप ताप गरमी बरखा को मैं भी प्रभु के साथ सहूँगा।।50।।

प्रिय लखन अवध का राज सँभालो आगे अब मैं जाऊँगा।।
छोटे भाई होने का मैं सारा कर्तव्य निभाऊँगा।।51।।

बड़े भ्रात के होने पर भी छोटा भाई कष्ट सहेगा।।
त्याग धर्म सब झूठे होंगे युगों-युगों तक जगत हँसेगा।।52।।

सुनकर बात लखन जी बोले प्रभु के साथ मुझे जाने दें।।
छोटा भाई होने का प्रभु मुझको कर्तव्य निभाने दें।।53।।

मैंने माँ को वचन दिया है भैया के मैं साथ रहूँगा।।
चौदह बरस करूँगा सेवा भ्रात धरम का मान धरूँगा।।54।।

आप श्रेष्ठ हैं वहाँ अवध में सिंहासन अब आप सँभालें।।
अनुज शत्रुधन साथ रहेंगे मुझे न संशय में यूँ डालें।।55।।

त्याग समर्पण प्रेम देख कर विह्वल सब के हृदय हो गये।।
ऐसा अद्भुत दृश्य देखकर सुध-बुध अपने होश खो गये।।56।।

वचन बद्ध हैं आप पिता से मुझे कोई उपाय बताएँ।।
खाली अवध नहीं जाऊँगा मुझको कोई राह सुझाएँ।।57।।

जब तक आप रहेंगे वन में अपनी मुझे निशानी दे दें।।
चौदह बरस करूँगा सेवा अपनी एक निशानी दे दें।।58।।

चरण पादुका मुझको दे दें सिंहासन पर इसे रखूँगा।।
जब तक अवध नहीं आयेंगे चरण पादुका शीश धरूँगा।।59।।

सरयू तट पर कुटी बनाकर मैं भी अब वनवास करूँगा।।
जब तक आप नहीं आयेंगे नहीं अवध में पाँव धरूँगा।।60।।

अपना वचन निभाएं रघुवर मैं भी कर्तव्य निभाऊँगा।।
सिंहासन पर रखूँ पादुका मैं अपना धर्म निभाऊँगा।।61।।

चौदह बरस बीतने पर भी यदि आप नहीं आ पायेंगे।।
सौगंध आपकी है मुझको प्रभु मुझे न जीवित पायेंगे।।62।।

मिली निशानी चरण पादुका उसे भरत ने शीश लगाया।।
एक ने मान पिता का रखा दूजे ने भी धर्म निभाया।।63।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17 जुलाई, 2025

पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते

यदि पीड़ा को वरदान न मिलता गीत अधूरे रह जाते

पीड़ा को वरदान न मिलता सब गीत अधूरे रह जाते

कितना पाया यहाँ जगत में कुछ भोगा कुछ छूट गया,
कुछ ने मन को मन से जोड़ा कुछ से मन ये टूट गया।
टूटे मन को जुड़वाने को कितना संदेश भिजाया,
साँसों से मिन्नत कर के आहों को हर बार मनाया।

यदि साँसों का वरदान न मिलता गीत अधूरे रह जाते।

सबको एक बराबर समझा सबका पग-पग मान बढ़ाया,
जग के सारे अनुमानों पे मन ने खुद को भेंट चढ़ाया।
अधरों पे जो गीत सजे हैं साँसों ने सत्कार किया है,
नहीं शिकायत करी भाग्य से जो पाया स्वीकार किया है।

यदि रेखों का अनुमान न मिलता गीत अधूरे रह जाते।

मन की सरहद पर साँसों ने हर पल इक नवगीत सजाया,
अधरों का आभार किया है हर इक आँसू को अपनाया।
सभी दर्द को शब्द दिया है आहों का आभार जताया,
साँसों के घुटने से पहले आहों को सम्मान दिलाया।

यदि आँसू को सम्मान न मिलता गीत अधूरे रह जाते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04 जुलाई, 2025

सपनों का उपहार

सपनों का उपहार

मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये,
मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये।

मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ तुम खुशियों की शहजादी हो,
मैं उपवन का एक भ्रमर हूँ औ तुम फूलों की वादी हो।
मैं हूँ पथ की तपती भूमी तुम राहों की शीतलता हो,
मैं लहरों की तेज धार हूँ तुम नदिया की कोमलता हो।

मेरे हर असहज भावों में जब भरती हो श्रृंगार प्रिये,
मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये।

मैं शब्दों की पंखुरियों से मृदु कोरों को सहलाता हूँ,
न शिलालेख कहीं बन जाऊँ अपना अंतस दहलाता हूँ।
मेरा अपना क्या है जिसपर ये मेरा दिल अभिमान करे,
बस यही कामना है अधरों से हर गीतों का सम्मान करे।

अधरों से छू कर गीतों को जब देती हो आकार प्रिये,
मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये।

दूर क्षितिज के प्रेमांगन में कुछ सपनों का आलिंगन है,
इस जीवन की गोधूली में और नहीं इक अनुबंधन है।
साँसों के महके सुवास में कुछ पुष्पित भाव हमारे हैं,
अंतर्मन में भाव सजे जो मैं कैसे कहूँ बिचारे हैं।

अंतर्मन को आलिंगन से जब करती हो मनुहार प्रिये,
मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 जुलाई, 2025

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद

देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।।
अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।।

जिस गली गुजरते भरत आज हर गलियाँ सूनी लगती थीं।।
आज अवध की सारी नजरें उस कोमल मन को चुभती थीं।।2।।

क्या हुआ शत्रुघन आज अवध को क्यूँ ऐसे हमको तकते हैं।।
कुशल क्षेम की बातें छोड़ो मुख फेर सभी क्यूँ चलते हैं।।3।।

देख घृणा के भाव नजर में दोनों का मन अकुलाता है।।
अनहोनी कुछ हुई अवध में मन भय से बैठा जाता है।।4।।

सूनी-सूनी गलियाँ सारी सरयू में भी जोश नहीं था।।
बेसुध लगी अयोध्या नगरी खग मृग तक को होश नहीं था।।5।।

राज महल के द्वार पहुँच कर जब देखा उजड़े उपवन को।।
मन आशंकित हुआ भरत का खलने लगी शांति तन मन को।।6।।

देख रहे जिस ओर भरत सब नेत्र अश्रु जल से भारी थे।।
बेचैनी से लगे पूछने द्वार-पाल से दरबारी से।।7।।

देख भरत को राज महल में माता दौड़ी थाल सजाकर।।
करूँ आरती राज कुँवर की मुँहमाँगी इच्छा को पाकर।।8।।

राज महल का कोना-कोना सब बिखरा-बिखरा लगता था।।
कैकेई को छोड़ सभी का मुख उतरा-उतरा लगता था।।9।।

गुरु के सम्मुख गये भरत फिर जब हाल सुना उनके मुख से।।
क्षोभ नयन में उतरा ऐसे और कलेजा बैठा दुख से।।10।।

गये कक्ष में माता के फिर सब देख बहुत अफसोस हुआ।।
झर-झर अश्रु बहे नयनों से मुख माँ का देखा क्रोध हुआ।।11।।

सूनी-सूनी राज महल है इक बस तुमको शोक नहीं है।।
अपने इस कुकृत्य पे बोलो तनिक कहो अफसोस नहीं है।।12।।

माँ कितना भरत अभागा है जो तुमने मुझको जाया है।।
अपने इस व्यवहार से कहो माँ क्या-क्या तुमने पाया है।।13।।

अपने ही पुत्रों में माता ये कैसा तुमने भेद किया।।
भाई-भाई को अलग किया अरु प्रभु को वन में भेज दिया।।14।।

कैसा माँगा वर माँ तुमने लाज नहीं क्यूँ तुमको आई।।
ऐसा घाव दिया है तुमने आज जगत में कोख लजाई।।15।।

क्षमा करूँगा कैसे खुद को मैं कैसे सम्मुख जाऊँगा।।
क्या बोलूँ कौशल्या माँ से मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा।।16।।

अपराधी हूँ आज अवध का मुझको न कहीं का छोड़ा है।।
दूषित रिश्ते कर डाले हैं माँ मान भरत का तोड़ा है।।17।।

क्या अपराध हुआ है बोलो मैंने बस प्रण याद दिलाया।।
अपने सुत को राज मिले बस राजन को इतना समझाया।।18।।

हाय तुमने क्या किया है ये अक्षम्य है अपराध सारा।।
प्रभु राम को वनवास देकर जीते जी मुझको है मारा।।19।।

प्रभु राम के बिन देह ये मृत क्या तिलक और क्या सिंहासन।।
जब देह ही मृत हो चुकी हो कहो करेगी कैसे शासन।।20।।

हे माँ तुम्हें क्या कहूँ मुझपर कैसा कलंक लगाया है।।
पुत्रमोह में पड़कर माता ये कैसा धर्म निभाया है।।21।।

हे तात-तात कहते-कहते बेसुध भरत हुए जाते थे।।
झर-झर अश्रु नेत्र से बहते मन ही मन कुढ़ते जाते थे।।22।।

जो ना जाता छोड़ अवध को ऐसा कोई पाप न होता।।
हाथ पिता का रहता सिर पर भाई को वनवास न होता।।23।।

सारा दोष विधाता मेरा क्यूँ माँ ने मुझको जाया है।।
मुझसे मेरा प्राण छीनकर तुम कहो मात क्या पाया है।।24।।

कैसे मुख दिखलाऊँ बोलो आज अवध का अपराधी हूँ।।
अब जीने का अधिकार नहीं मैं मृत्यु दंड का भागी हूँ।।25।।

माता होकर के माता का क्यूँ तुमने कोख उजाड़ा है।।
इससे अच्छा बंध्या रहती क्यूँ मेरा जन्म बिगाड़ा है।।26।।

जी करता है तुझे त्याग दूँ सारे रिश्ते नाते तोड़ूँ।।
लेकिन तूने मुझे जना है इस सच से कैसे मुख मोडूँ।।27।।

रिश्तों की मर्यादा तोड़ी रघुकुल का अपमान किया है।।
जीवन भर अफसोस रहेगा तुमने ऐसा काम किया है।।28।।

जी करता है तुझे मृत्यु दूँ पर मन ही मन मैं डरता हूँ।।
मेरे प्रभु ना मुझे त्याग दें जा क्षमा तुझे मैं करता हूँ।।29।।

स्वयं तुझे मालूम नहीं है तुमने कैसा पाप किया है।।
हुआ कलंकित भरत अवध में तुमने ऐसा शाप दिया है।।30।।

तोड़ रहा हूँ तुमसे रिश्ता अब पास नहीं मैं आऊँगा।।
यही सजा है तेरी अब मैं न माता कहकर बुलाऊँगा।।31।।

राजपाट तुमको प्यारा है सब तुझे समर्पित करता हूँ।।
तेरे इस कुकृत्य पे माता मैं खुद को दंडित करता हूँ।।32।।

है सौगंध विधाता मुझको कुछ और नहीं मैं माँगूँगा।।
अब जब तक प्रभु ना आयेंगे सब सुख जीवन का त्यागूँगा।।33।।

वनवास नहीं केवल प्रभु का मुझको भी वनवास दिया है।।
कलंक लगा मेरे माथ पर मेरा ही उपहास किया है।।34।।

त्यागूँगा मैं राज महल को अब वल्कल मैं भी धारूँगा।।
अब जब तक प्रभु ना आयेंगे इस चौखट में ना आऊँगा।।35।।

इतना कहकर भरत चल दिये नेत्र अश्रु जल से भारी थे।।
भाई का भाई से रिश्ता सारे रिश्तों पर भारी थे।।36।।

✍️ अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
    10 जुलाई, 2025

राम वनगमन व दशरथ विलाप

श्री राम वनगमन व श्री दशरथ विलाप

माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया।
युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।।

जब स्वार्थ हृदय में छाता है संबंध बिखरने लगते हैं।
खुशियों से पहले अंतस को संताप जकड़ने लगते हैं।।2।।

दो वचनों का प्रण उधार है ये वक्त उचित है माँगूँगी।
पुत्र बने युवराज न जब तक मैं अन्न और जल त्यागूँगी।।3।।

हठ सुनकर के कैकेयी का दशरथ जी का मन डोल गया।
पैरों से धरती निकल गयी सर से भी अंबर डोल गया।।4।।

ऐसा स्वांग रचा विधना ने पल भर में उत्सव बिखर गया।
जो नभ खुशियों से गुंजित था पल भर में मातम पसर गया।।5।।

मान वचन का रखा पिता के सब आदेशों को मान लिया।
चौदह वर्ष रहूँगा वन में रघुवर ने मन में ठान लिया।।6।।

मनमाफिक वचन मिला जैसे कैकेयी मन में फूल गयी।
भरत के भ्रातृ प्रेम भाव को कैकेयी उस पल भूल गयी।।7।।

राजमहल में कुछ पल पहले खुशियों का पग-पग डेरा था।
यूँ वज्रपात सा हुआ वहाँ मातम का पसरा फेरा था।।8।।

सूनी हुई अयोध्या नगरी सूने-सूने आकाश गगन।
मद्धम हुआ दिवस का फेरा अरु मौन हो गयी आज पवन।।9।।

वल्कल वेश देख राघव का श्री दशरथ मन में क्षोभ हुआ।
क्यूँ ऐसा वचन दिया पत्नी को खुद पर इतना क्रोध हुआ।।10।।

व्यर्थ क्षोभ करते हैं राजन सौभाग्य मेरा वापस आया।
रघुकुल की है रीत सदा के प्राण त्याग कर वचन निभाया।।11।।

मात-पिता की आज्ञा पालन यही इस जीवन का मूल है।
अपने प्रण का धर्म निभाना यही धर्म ग्रन्थ का मूल है।।12।।

माता का आदेश पिताश्री किस विधि मैं अब करूँ अनसुना।
राम बड़ा किस्मत वाला है जो विधना ने है उसे चुना।।13।।

राम बिन जीवन व्यर्थ मेरा अब इसका है कुछ मोल नहीं।
बिना प्राण के देह रहेगी इन साँसों का कुछ मोल नहीं।।14।।

कितनी तप कितनी पूजा की तब जाकर तुमको पाया है।
बदनसीब दशरथ कितना जो विधना ने दिन दिखलाया है।।15।।

अपने पुत्रों में भेद किया इतिहास सदा धिक्कारेगा।
युगों-युगों तक हुई भूल पे जग मुझको ताना मारेगा।।16।।

अब उम्र के इस सांध्य पल ने ये कैसा दिन दिखलाया है।
कि पुत्र वियोग की इस पीड़ा ने मेरा दिल दहलाया है।।17।।

किधर जा रहे छोड़ मुझे यूँ राम दिखाओ मुझको सूरत।
तुम बिन अब पाषाण देह है निर्जीव शिला की है मूरत।।18।।

कौन मेघ में छुपे हुए हो अब पास पुत्र तुम आ जाओ।
तपती धरती है जीवन की कुछ बूँदें तो बरसा जाओ।।19।।

जीवन के इस अंतिम क्षण में मुझ पर बस इतनी दया करो।
तोड़ो वंश की सभी परंपरा आकर मेरी बाँह धरो।।20।।

पुत्र वियोग की इस पीर को मैं और नहीं सह पाऊँगा।
यदि मुख राम का न देख सका तो प्राण यहीं तज जाऊँगा।।21।।

कौन सा वन मुझे बतलाओ गया जहाँ राम पियारा है।
सूना करके अवध धरा को अब किस वन राम सिधारा है।।22।।

राम अकेले नहीं गया है संग-संग सीता प्यारी है।
जीवन के अंतिम बसंत में ये किस्मत मुझपर भारी है।।23।।

क्या सोचेंगे जब जानेंगे जनक मिरे निर्णय को सुनकर।
जिस घर ब्याही जनक नंदिनी कैसे घर वो हुआ भयंकर।।24।।

गया लक्ष्मण प्रिय भी साथ में धिक्कार मुझे इस जीवन पे।
निर्जीव हो चुका गात मेरा अब प्राण नहीं है इस तन में।।25।।

मेरे नयनों की पुतली से ज्योति कहीं खोती जाती है।
भोर दिवस हो सांध्य रात हो बेचैनी बस तड़पाती है।।26।।

कितना बेबस हुआ आज मैं अब मेरा कुछ आधार नहीं।
कहने को बस मैं नरेश हूँ पर मेरा कुछ अधिकार नहीं।।27।।

कौन जनम की सजा मिली हाय विधना ने क्या खेल खेला।
इतने बड़े जगत में दशरथ हाय हो गया आज अकेला।।28।।

इक त्रिया के जाल में फँसकर अपनी साँसों को त्यागा है।
कोई कहे ब्रह्याण्ड में मुझसा भारी कौन अभागा है।।29।।

नहीं पता था मुझको मेरा बड़बोलापन तड़पायेगा।
ये पत्नि मोह का अंधापन ऐसा दिन भी दिखलायेगा।।30।।

मुझसे मेरा सबकुछ लूटा यूँ बेबस कर मुझको मारा।
जाने किसकी नजर लगी है किसने मेरा मान उजाड़ा।।31।।

राम बिना अब कैसा जीना क्यूँ धरा नहीं फट जाती है।
हाय अभागा कितना हूँ मैं कि मृत्यु भी मुझे सताती है।।32।।

जिसके चलने से देव दनुज नर किन्नर शीश झुकाते हैं।
किन कर्मों की सजा मिली है सब मुझसे मार्ग बराते हैं।।33।।

इन नैनों से कह दो कोई जग और न अब मैं देखूँगा।
काल कोठरी ही जीवन है अब अंधकार ही भोगूँगा।।34।।

ऊब चुका हूँ इस जीवन से अब बिना राम के क्या जीना।
जब जीवन ही विष बन जाये फिर घूँट-घूँट क्यूँ कर पीना।35।।

फूलों पर जो पाँव चले हैं क्या काँटों पर चल पायेंगे।
मखमल बिस्तर पर सोते थे वो कैसे रात बितायेंगे।।36।।

मखमली बिछौने राजमहल के सब बिना राम के चुभते हैं।
किसे दिखाऊँ घाव यहाँ मैं साँसें भी मन को दुखते हैं।।37।।

लाड़ प्यार से पली महल में जनक दुलारी प्यारी सीता,
धिक्कार मुझे आज स्वयं से तोड़ा मैंने मान सभी का।।38।।

बड़ी बेहया देह हुई है अब बिना प्राण के ये तन है।
बड़ी बेशरम जान हुई ये जो बिना राम के अब तक है।।39।।

रात दिवस अब नहीं सुहाते अब वक्त नहीं ये कटता है।
कितना पत्थर दिल है मेरा इस दर्द पे भी न फटता है।।40।।

चाह नहीं जीने की मुझको है मेरा जीवन घट रीता।
मुझे बता दो कहाँ छुपे हैं राम लखन मेरी प्रिय सीता।।41।।

अंतिम पल है इस जीवन का अब मुखड़ा तो दिखला जाओ।
अंतिम इच्छा इस जीवन की विधना इतना मत तड़पाओ।।42।।

मेरा जीवन मेरा सबकुछ हो साँस-साँस तुम प्राण-प्राण।
अंतिम दरस दिखा दो मुझको राम तुम्हीं मेरे भगवान।।43।।

कहाँ छोड़ कर दूर जा बसे अब तो आओ राम पियारे,
यूँ कहते-कहते राम-राम दशरथ जी सुरधाम सिधारे।।44।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01 जुलाई, 2025

 







प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

एक दूजे को हम इतना अधिकार दें,
के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें।

एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं,
बात अधरों पे आये तो हम बोल दें।
मन के चौखट पे जब दर्द याचक बने,
मन के चौखट का हर द्वार हम खोल दें।

दिल के हर दर्द को इतना अधिकार दें,
के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें।

मुझमें मेरा न कहने को बाकी रहे,
मैं साँस से आस तक सब समर्पित करूँ।
ऐसे बैठूँ तुम्हारे गगन के तले,
अपना आकार तुम में मैं अर्पित करूँ।

अपने आकार को इतना अधिकार दें,
के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें।

कल खो न जायें कहीं गीत ये पृष्ठ में,
इसे अधरों से छूकर के आवाज दें।
यूँ भाव अमरत्व के गीत में जग उठे,
अपनी साँसों से हर पंक्ति को साज दें।

गीतों की पंक्तियों को यूँ आकार दें,
के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें।

मौन कितना भी हम दोनों रह लें मगर,
ये भावनाएं हृदय की रुकेंगी नहीं।
हम गीत लिखकर हृदय में छुपा लें मगर,
ये नैन के कोर में अब रुकेंगी नहीं।

भावनाओं को हम ऐसी पतवार दें,
के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें।

✍️ अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      15 जून, 2025





प्यार की इक निशानी

प्यार की इक निशानी

फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी
ढूँढता है दिल जिसे वो प्यार की है इक निशानी।

भीड़ है लेकिन हृदय का कोर सूना है कहीं पर,
श्वास की हर मौन गति में गीत सूना है कहीं पर।
बाँवरा मन ढूँढता है रिक्तियों में राजधानी,
फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी।

जाने किन-किन रास्तों पे शूल बन बैठी हवाएँ,
ढूँढती है शून्य में खो चाँदनी अपनी दिशाएँ।
फिर हुईं रातें कलंकित घुट रही है रात रानी,
फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी।

लालसा इतनी जटिल थी काँच को कंचन बनाया,
हर महकती चीज को गात का चंदन बताया।
जब हुईं साँसें सशंकित तब किया क्या सावधानी,
फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी।

रिक्तियों के भाव ले कब तक हृदय जीता रहेगा,
अंक रीता है यहाँ जो कब तलक रीता रहेगा।
कब तलक अंतस करेगी शून्यता की बागवानी,
फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी।

है प्रतीक्षा उस घड़ी की आगमन हमसे कहेगी,
द्वार हो आहट तिहारी आचमन साँसें करेंगी।
कब तलक कोरी रहेगी पृष्ठ पे दे दो निशानी,
फिर नयन के द्वार ठहरी मौन व्याकुल बन कहानी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 जून, 2025

मन पलाश वन

मन पलाश वन

मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा,
कैसे छूटा नेह जगत का तन उदास मन कैसे रूठा।
मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा।

सोचा था मन ने जीवन में निज आहों का धर्म बहुत है,
समझा था के तन मधुवन में निज साँसों का मर्म बहुत है।
लेकिन शब्दों की माया में उलझा जीवन ऐसे रूठा,
बड़ी दूर तक समझ न पाये मन का बंधन कैसे टूटा।

मत पूछो के पर्णकुटी से मन सुवास घन कैसे छूटा,
कैसे छूटा प्रेम जगत का तन उदास मन कैसे रूठा।

स्वर्णजड़ित सपनों के पीछे सच्चाई मन देख न पाया,
सुख निद्रा में ऐसे उलझे पीड़ा का मन देख न पाया।
सूखे होठों पर है आयी एक प्यास जब कहीं अभय की,
तब जाकर के हमने जाना होती है क्या चाह हृदय की।

मत पूछो के स्वर्णकुटी से मदिर आस धन कैसे छूटा,
कैसे छूटा मोह स्वर्ण का धन विलास मन कैसे रूठा।

बाहर का रण जीता हर पल भीतर का दुख समझ न पाये,
पुष्पक रथ पर बैठे ऐसे धूलों का सुख समझ न पाये।
दिशाहीन हो गयी जिंदगी ऐसे झंझाओं में उलझे,
मौन अकेले सरिता तट पर अपनी लहरों में ही उलझे।

मत पूछो के सरिता तट से लहर प्रेम मन कैसे छूटा,
कैसे छूटा मोह सरित का मन हताश प्रण कैसे छूटा।
मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11जून, 2025

वादा करो

वादा करो

मैं सौ-सौ जनम राहें तेरी तकूँ,
तुम मिलन का जो मुझसे वादा करो।

नैन की पंखुरी मैं बिछाऊँ सदा।
मैं पलकों से कंटक हटाऊँ सदा।
अश्रु बूँदों से सींचूं मैं ये चरण,
और फिर माथ से मैं लगाऊँ सदा।

मैं सौ-सौ जनम सपने तेरी गुहूँ,
तुम मिलन का जो मुझसे वादा करो।

रात भर सिलवटों में उलझती रहे।
चाँदनी रात करवट बदलती रहे।
चाँद का ये सफर भी अधूरा रहे,
रात रानी भले ही मचलते रहे।

उम्र भर सिलवटों को मनाती रहूँ,
तुम मिलन का जो मुझसे वादा करो।

यूँ प्रतिक्षा में कब तक गुजरती रहूँ।
कुछ कहो मौन कब तक सुलगती रहूँ।
ये उम्र क्या यूँ ही गुजर जायेगी,
कुछ कहो मौन कब तक पिघलती रहूँ।

उम्र भर जो कहो तो सुलगती रहूँ,
तुम छुवन का जो मुझसे वादा करो।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11 जून, 2025

किसकी बाट निहारूँ

किसकी बाट निहारूँ

जब पलकों की पंखुरियों से, यादें घन बन झर-झर बरसें,
इतना तो बतला दो मुझको, उस पल किसकी बाट निहारूँ।

अपने-अपने आँचल में सब, अपनी दुनिया ले खोये हैं,
आसमान के चाँद सितारे, मेरी रातों के सोये हैं।
हर सिलवट में चीख रही है, मेरे सपनों की आवाजें,
मौन हुए अरमान सभी यूँ, अधरों पर अब किसको साजें।

जब आँचल से अरमानों की प्यास बूँद बन झर-झर बरसे,
इतना तो बतला दे मुझको, उस पल किसका नाम पुकारूँ।

गाऊँ कैसा गीत कि जिससे, पत्थर दिल विह्वल हो जाये,
कैसे कहो मनाऊँ जिससे, साँसों को संबल मिल जाये।
गली-गली घूमूँ बंजारा, बैरन अपनी परछाईं है,
किसे दिखाऊँ पीर हृदय की, सूनी मन की अँगनाई है।

जब परछाईं स्वयं विलग हो, अपनी ही छाया में झुलसे,
इतना तो बतला दे मुझको, उस पल किसकी छाँव निहारूँ।

टूट गया दर्पण अंतस का, जाने किसकी नजर लगी है,
होगी सबकी रात चाँदनी, अपने आँगन धूप जगी है।
रात चाँदनी लिपट नयन से, आँसू से पग धोये कब तक,
सूने सपनों की आहों को, नयन कोर ये ढोये कब तक।

छोटे से जीवन के सपने, कहो हृदय में जब-जब हुलसें,
इतना तो बतला दे मुझको, उस पल किसको बाँह पसारूं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10 जून, 2025

आज के आगोश में खुद को न देखा

आज के आगोश में खुद को न देखा

एक अनुमानित हृदय की कामना बन
आस के अनुप्रास के अहसास में हम
भूत की पगडंडियों में मात देखा
अंक में जो प्राप्त था उसको न देखा
मौन कल की भीड़ में खुद को तलाशा
मौन सम्मुख भीड़ में वो था सुना सा
जो नजर के सामने उसको न देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

हाथ से जाने लगा अपना समर्पण
जब हृदय में रह सका न मन का दर्पण
शून्य में भटकी इरादों को कियारी
जब समय के अंक तड़पी मन बिचारी
स्वयं को हमने दिया झूठा दिलासा
बंद था लेकिन लगा हमको खुला सा
स्वयं के अहसास में खुद को न देखा।
आज के आगोश में खुद को न देखा।

जब वो हथेली से कहीं झरने लगी 
बन बूँद बारिश कोर से गिरने लगी 
मौन पलकों को वहाँ कितना सँभाला
दर्द के आभास को पल-पल निकाला
हम खोजते रह गये कितनी हताशा
चल रहा लेकिन लगा कुछ-कुछ रुका सा
स्वयं के दर्पण में खुद को ना देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

थम गये सभी रास्ते मंजिल न आई
उम्र भर चलते रहे पर मिल न पाई
अब प्रतीक्षा बन गयी मन की उदासी
भोर को भी अब लगी आने उबासी
अब करे किससे शिकायत मन यहाँ पर
कौन जाने मन गिरा जाने कहाँ पर
यूँ वक्त में उलझे कि न फिर उम्र देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06 जून, 2025

हम सपनों का संसार बनायें

हम सपनों का संसार बनायें

नजरों के उस पार गगन में जहाँ रश्मियों में विचलन हो,
वहाँ गीतिका के बोलों को दीपों का आधार बनायें।
हम गीतों का संसार बनायें।

फूलों की पंखुरियों से हम रंग गुलाबी ले आयें,
सभी युगों में प्रासंगिक हो भाव प्रभावी ले आयें।
साँसों की आहट को सुनकर भावों का विस्तार करें,
नयन कोर के नव सपनों के आगत का मनुहार करें।
सपनों की उस नयन कोर से कहीं अधूरी अनबन हो,
वहाँ प्रीत के मृदु बोलों को सपनों का आधार बनायें।
हम सपनों का संसार बनायें।

एक दर्पण जो हृदय के भाव चित्रों को उकेरे,
राग के संवेग के मन प्राण गीतों को उकेरे।
मन बने शिल्पी हृदय के चित्त को विस्तार दे दे,
हो चुके अव्यक्त निर्गुण को गुणों का सार दे दे।
जोड़ने में यदि हृदय के कोर में कहीं उलझन हो,
चित्त में अनुराग घोलें गीत में मनुहार गायें।
हम सपनों का संसार बनायें।

मन बने शिल्पी कि जिसका भाव हो कोणार्क सारा,
मन सोचता है हो सृजन में नेह में परमार्थ सारा।
रेत में लिख दें लहर से हो अमिट जो कामनाएँ,
और सदियों तक छुवन हो गीत की हर भावनाएँ।
भावनाओं की छुवन में थोड़ी सी फिसलन भी हो,
साँच को स्वीकार कर हम साँस में व्यवहार गायें।
हम सपनों का संसार बनायें।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05 जून, 2024

कामनाओं का गीत

कामनाओं का गीत

यूँ ही कोई गीत मेरे भाव को छुए नहीं,
एक तेरे गीत ने ही भावों को सँजो दिया।

छप रहे हैं भाव कितने रोज ही किताबों में,
पढ़ रहे हैं चाहतों को रोज हम हिसाबों में।
कि भावनाओं की तपिश में राहतें बिखर गईं,
ये उम्र देखती रही के चाहतें किधर गईं।

भावनाओं की तपिश से मुझको कुछ गिला नहीं,
एक तेरे भाव ने ही नैनों को भिंगो दिया।

ये उम्र दौड़ती रही है उम्र की तलाश में,
और खुद को तौलते रहे आस में पलाश में।
के एक रंग में कहाँ ये उम्र ढल सकी कहो,
जो सात रंग ना सजे क्या उम्र सज सकी कहो।

कि एक रंग की कशिश से रंगों को गिला नहीं,
एक तेरे चाह ने हर रंगों को सँजो दिया।

है क्या जगत की रीत ये मुझको कुछ पता नहीं,
हार क्या है जीत क्या है मुझको कुछ पता नहीं।
क्या जगत की वेदना का अंत है ना छोर है,
क्यूँ हृदय पे चेतना पे वासना का शोर है।

मेरी हार से यहाँ पे किसी को कुछ मिला नहीं,
पर तेरी जीत ने मेरी हार को सँजो दिया।

जो लिख रहा हूँ गीत मैं तेरा ही प्रभाव है,
हर पंक्ति-पंक्ति प्रेम है हर गीत-गीत भाव है।
हर छंद-छंद कामना हर बंध-बंध प्रार्थना,
हर शब्द-शब्द से हृदय के भाव-भाव साजना।

कि मेरी प्रार्थनाओं को नगर कभी मिला नहीं,
तेरी प्रार्थना ने मेरी कामना सँजो दिया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28 मई, 2025

गीत पूरे हो गए

गीत पूरे हो गए

यूँ तो चाहतों के गीत हमने हैं लिखे बहुत,
तूने जो छुआ तो मिरे गीत पूरे हो गए।

के शब्द-शब्द में हृदय के भाव टांकते रहे,
कि पंक्तियों के साथ-साथ हम भी जागते रहे।
ये छंद जब मुखर हुए तो प्रीत नाचने लगी,
सब मौन तोड़ कर अधर पे गीत साजने लगी।

यूँ तो भावनाओं के ये गीत हैं लिखे बहुत,
कि तूने जो छुआ तो मिरे गीत पूरे हो गये।

हमने पंक्ति में सदा लिखी उम्र की कहानियाँ,
प्यार-प्रेम के, बिछोह के, स्वभाव की निशानियाँ।
शब्द-शब्द धड़कनों के बोल में समा गये,
जो नैन कोर से मिले तो कोर को सजा गये।

हमने नैन कोरों के वो गीत हैं लिखे बहुत,
तेरी कोर से मिले तो गीत पूरे हो गये।

ना छू सकें अधर को तो पंक्तियाँ अधूरी हैं,
स्वभाव के बिना हृदय की वृत्तियाँ अधूरी हैं।
दिल में हो न भाव तो श्रृंगार सारे व्यर्थ हैं,
जो नेह का अभाव हो तो ज्ञान का न अर्थ है।

नेह और श्रृंगार के यूँ गीत हैं लिखे बहुत,
तेरे नेह में मिले तो गीत पूरे हो गये।

व्याकरण अधूरे सारे छंद भी न पूरे हैं,
स्पर्श के बिना तुम्हारे गीत ये अधूरे हैं।
हैं भाव-भाव छंद बद्ध साँस-साँस प्रीत है,
मन के भाव साजना ही व्याकरण की रीत है

के साँस के स्वभाव के यूँ गीत हैं लिखे बहुत,
तेरे साँस से मिले तो गीत पूरे हो गये।

कि उम्र भर कदम मेरे ये राह नापते सदा,
तुम न मिलते जो यहाँ तो राहें ताकते सदा।
इक तुम्हारे आने से हजार राह खुल गयी,
हम साथ-साथ चल दिये तो राह-राह मिल गयी।

हमने राह के निबाह के गीत हैं लिखे बहुत,
कि राह-राह तुम चले तो गीत पूरे हो गये।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27 मई, 2025

व्यंग्य- अभी भी जवान हैं

व्यंग्य- अभी भी जवान हैं

खत के बालों से 
सफेदी क्या झाँकने लगी
युवतियाँ छोड़ो 
आंटियाँ भी बगले ताकने लगीं।
अजीब तो तब लगता है 
जब कोई बुजुर्ग महिला 
अंकल बुला देती है
युवा होने के दंभ को
धीरे से सुला देती है।
इससे भी अजीब तब होता है
जब उन्हें हम बेटी कह के बुलाते हैं
तो नाक सिकोड़ कर 
हमें भौंहें दिखाते हैं।
हमारे सारे संस्कार 
उन्हें बौने नजर आते हैं
उन्हें हम महज
खिलौने नजर आते हैं।
कुछ देर के लिए 
खेलते हैं छोड़ देते हैं,
हम जब खेलते हैं तो 
नजरों को मोड़ लेते हैं।
अब इन्हें कौन समझाए
हमें अंकल कह कर 
जवान हो नहीं जायेंगी,
लाख छुपाएं 
झुर्रियों को मेकअप से 
वो निशान 
छुपा नहीं पायेंगी।
अपना क्या 
हम तो सदाबहार रहते हैं,
उम्र के हर दौर में 
हम तैयार रहते हैं।
उम्र भले ढले
पर दिल तो जवान है,
सारे खंडहरों के बीच
अपना ही सुंदर मकान है।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
     

मुक्तक

भाव बन गीत नयनों से बहने लगे।
सभी कहे-अनकहे भाव कहने लगे।
किसी और साथ की फिर जरूरत नहीं,
भाव और गीत जब साथ रहने लगे।

जब मिला साथ तेरा महकने लगे।
मौन जो भाव थे वो चहकने लगे।
अब नशे की मुझे कुछ जरूरत नहीं,
बिन पिये ही कदम ये बहकने लगे।

दर्द को प्रेम ने ऐसा जीवन दिया।
प्रेम को दर्द ने अपना मन जब दिया।
प्रेम का दर्द से ऐसा रिश्ता रहा,
छोड़ कर तन यहाँ दोनों ने मन जिया।

दूरियों को खतम साथ ने कर दिया।
शाम को सुरमई आपने कर दिया।
इक कसक सी कहीं रह गयी जो यहाँ,
दूर सब आपकी बात ने कर दिया।

मोहब्बत की कहानी के ये पन्ने कम नहीं होंगे।
दिलों की राजधानी में दीवाने कम नहीं होंगे।
मिलेंगे चाहने वाले हजारों इस कहानी में,



अधूरे गीत

अधूरे गीत

कैसे लिखते यहाँ गीत हम प्यार के,
शब्द बिन आपके सब अधूरे रहे।

जोड़ कर लम्हों की एक चादर बुनी,
कोर में जिसके सपने सजाए सदा।
कोरों में टांक कर चाहतों की लड़ी,
साँसों को आस से हम मिलाये सदा।

टांकते कैसे हम कोर में प्यार को,
आपकी चाह के बिन अधूरे रहे।

उम्र ढलती रही अपनी रफ्तार से,
एक प्रतीक्षा हृदय में दबी रह गयी।
एक कसक से रही जीत में हार की,
खुल ना पाई हृदय में दबी रह गयी।

कैसे लिखते यहाँ गीत मनुहार के,
आपके साथ के बिन अधूरे रहे।

पास गीतों की कुछ पंक्तियाँ हैं बचीं,
तुम जो छू लो अधर से सहारा मिले।
छंद फिर खिल पड़ें गीत में चाहों के,
फिर जो वो ही पुराना इशारा मिले।

कैसे गाता हृदय गीत इकरार के,
आपके स्पर्श बिन वो अधूरे रहे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22 मई, 2025

आँसुओं के बोध में घुल गीत ये मुस्का रहे हैं

आँसुओं के बोध में घुल गीत ये मुस्का रहे हैं

रह न पाया एक दिन भी भाव को अपने छुपाकर,
रह न पाया दर्द के अहसास को दिल में दबाकर।
रिस रहा है जो हृदय से भाव बन अनुरोध मेरा,
साँस जो छूती रगों को नेह का है बोध मेरा।

साँस में अनुरोध भी घुल गीत को महका रहे हैं।

कब ढल गयी ये जिंदगी कब सजा आकार मेरा,
चाहा पर न जान पाया प्रीत का आधार मेरा।
फाँस सी चुभती रही पर देखने में कुछ नहीं थी,
आँख सब लिखती रही पर बाँचने में कुछ नहीं थी।

मौन मन में मोह घुलकर प्रीत को दहका रहे हैं।

उम्र प्रतिपल ढूँढती थी जीत में मुस्कान मेरी,
मखमली पैबंद में पर खो गयी पहचान मेरी।
उम्र भर पाया बहुत पर खो गयी मणिदीप भाषा,
अब सशंकित क्या करेंगी मेरे हृदय को ये निराशा।

उम्र अब मनबोध में घुल जीत को महका रहे हैं।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21 मई, 2025


साँसों का सुमधुर गान

साँसों का सुमधुर गान 

पलकों की चौखट पर सपने तब तक हैं अनजान प्रिये,
अधरों पर जब तक ना आये स्नेहिल मृदु मुस्कान प्रिये।

सारे गान अधूरे तब तक अधरों पर जब तक ना आये,
साँसों की मुस्कान अधूरी जब तक अंतर्मन ना गाये।
अंतस के भावों से जीवन ये तब तक है अनजान प्रिये,
अंतस में जब तक ना आये स्मृतियों का मृदु गान प्रिये।

दृग गागर से बूँद छलक कर जब तक मन को ना मदमाये,
खुशियों का सागर नयनों से निज कमल कपोलों पर छाये।
नयन बूँद के नम भावों से पलकें तब तक अनजान प्रिये,
नयनों की बूँदों को जब तक ना मिल जाये पहचान प्रिये।

जब तक प्रीत अधर ना छू ले तब तक मन मधुमास न होता,
व्याकुल रहता हिय का कोना यादों में आकाश पिरोता।
अहसासों के पुण्य भाव से मन तब तक है अनजान प्रिये,
हिय में जब तक गुंजित ना हो साँसों का सुमधुर गान प्रिये।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16 मई, 2025

अपने राम को ध्याऊँ

अपने राम को ध्याऊँ

इस जीवन के सब पुण्य फलित हों ऐसा मन बन जाऊँ,
त्याग दूँ सारे मोह जगत के बस मैं राम को ध्याऊँ।

साँस-साँस में नाम जपूँ मैं अब और न कुछ मैं सोचूँ,
नैन तिहारा रूप सजाऊँ अब और न कुछ मैं देखूँ।
कण-कण में प्रभु रूप बसत है तिन में ही शीश झुकाऊँ,
त्याग दूँ सारे मोह जगत के बस मैं राम को ध्याऊँ।

जीवन एक समंदर अपना है तेज बड़ी ये धारा,
जीवन के इस महा सिंधु में बस राम हि खेवनहारा।
धार-धार में प्रभु को पूजूँ मैं पग-पग शीश नवाऊँ,
त्याग दूँ सारे मोह जगत के बस मैं राम को ध्याऊँ।

लोभ मोह से मुक्त बने मन प्रभु भीतर हो उजियारा,
ज्ञान-ध्यान की ज्योति जला दो चहुँओर मिटे अँधियारा।
वेद पुराण ग्रन्थ हो जीवन मैं तिन में ही रम जाऊँ,
त्याग दूँ सारे मोह जगत के बस मैं राम को ध्याऊँ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12 मई, 2025

चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते

चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते

खण्ड-खण्ड हो रही सभी शिलाएँ मार्ग की,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

क्या सकेंगे रोक रिपू पार्थ के प्रवाह को,
चल पड़ा है सूर्य आज रोकने गुनाह को।
हर कदम के शूल आज पुष्प बन रहे यहाँ,
कंटकों से रास्तों में गीत लिख रहे यहाँ।
शूल-शूल गीत की हर पंक्ति-पंक्ति बींधते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

आ गया है वक्त आज शत्रु के विनाश का,
हो चला वक्त देखो फिर से नव प्रकाश का।
रश्मियाँ भी व्योम में अल्पनाएं रच रहीं,
वीरता के माथ की कामनाएं जँच रहीं।
अल्पना की पंक्ति को रिपु लहू से सींचते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

व्यूह में यहाँ न अभिमन्यु फिर फंसेगा अब,
क्रूरता का फल यहाँ कुरु वंश चखेगा अब।
शंखनाद हो चुका है युद्ध ये प्रचंड है,
मात्र मृत्यु ही यहाँ पे दंभी का दंड है।
शत्रु के शिविर में हर शत्रुओं को चीखते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

युद्ध ही अंत हो तो युद्ध का निर्वाह हो,
शत्रुओं के स्वप्न में पार्थ का प्रभाव हो।
कि मुक्त कंठ से कहो प्रचंड सिंधु धार हो,
कि जयद्रथ न उठ सके ऐसा खड्ग वार हो।
भागवत की पंक्ति से इस सदी को सींचते,
चल पड़ा पार्थ देखो आँधियों को चीरते।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 मई, 2025

पीर का परबत हृदय ने पार अब तो कर लिया है

पीर का परबत हृदय ने पार अब तो कर लिया है

क्या रुकेंगे पाँव मेरे अब किसी अवरोध से,
अब क्या थमेंगी भावनाएँ मोह से अनुरोध से।
जो मिला हँसकर लिया आभार सबका कर लिया है,
पीर का परबत हृदय ने पार अब तो कर लिया है।

चार पल की जिंदगी के हर पलों की चेतनाएं,
अब क्या करेंगे शूल पथ के क्या करेंगी वेदनाएं।
शून्यता के भाव से भी अब कहीं विचलन नहीं है,
शांत स्थिर है हृदय ये अब कहीं फिसलन नहीं है।

हर उफनते सिंधु को स्वीकार मन से कर लिया है।

लिख रहे हैं पाँव मेरे राह में नूतन कहानी,
दे रहे हैं शौर्य को आकाश से ऊँची निशानी।
जब हुए गहरे कुहासे पाँव ने खुद को सँभाला,
हर घनेरी रात के अहसास से खुद को निकाला।

हर घनेरी रात का प्रतिकार मन ने कर लिया है।

अब नहीं है भय मुझे इस सिंधु की कठिनाइयों से,
अब नहीं अवरोध एकाकी से रुसवाईयों से।
इष्ट ने जो पथ चुना है वो पथ मुझे स्वीकार है,
कर्म के इस मौन पथ में अब कर्म ही व्यवहार है।

सिंधु के हर ज्वार का आभार मन ने कर लिया है।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 मई, 2025


किस पर भरोसा करे आदमी

किस पर भरोसा कर आदमी

कागज़ के फूलों से चेहरे यहाँ जब,
किसपर भरोसा करे आदमी अब।

जिधर देखिये लोग धुन में मगन हैं,
मिले कैसे कितना यही बस जतन है।
उन्हें दर्द का कुछ पता ही नहीं है,
लगता जिन्हें कुछ खता ही नहीं है।
जख्मों पे मरहम है मुश्किल यहाँ अब,
अपनों से छलनी हुआ आदमी जब।

दिल को दुखाना है आसान अब तो,
कह कर भुलाना है आसान अब तो।
नहीं बात की कोई कीमत रही तब,
कह कर मुकरने की नीयत रही जब।
कह कर मुकरना न मुश्किल यहाँ जब,
क्या फिर किसी से कहे आदमी अब।

महफ़िल हो झूठी तो किससे मिले दिल,
दिल की शिकायत किससे कहे दिल।
लगता है दिल अब जहर घोलता है,
के सोचे बिना ही ये सच बोलता है।
झूठी हो महफ़िल तो सच क्या करे अब,
दर्पण से कैसे मिले आदमी अब।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05 मई, 2025




ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता

ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता

साथ अपना यहाँ का घड़ी दो घड़ी,
ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता।

लिख रही है पवन इक नई गीतिका,
चाँदनी में घुला रंग है प्रीत का।
इक कहानी नई द्वार पर है खड़ी,
राहतें आस की प्यार से फिर जुड़ीं।
चाँदनी का सफर है घड़ी दो घड़ी,
ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता।

ये पुरवाई भी गीत कुछ बुन रही,
बूँद की थाप भी धुन नई बुन रही।
आज मचली सभी गीत की रागिनी,
मौसमों में घुली प्रीत की चाशनी।
गीत की गीत से जुड़ रही है लड़ी,
ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता।

इक दूजे पे फिर से न इल्जाम हो,
राग की रागिनी में सजा नाम हो।
गीत की पंक्तियाँ यूँ महकती रहे,
कोर पे आधरों के चहकती रहे।
नैन की नैन से बात फिर है छिड़ी,
ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता।

ज हम तुम यहाँ कल न जाने कहाँ,
हम रहेंगे कहीं तुम रहोगे कहाँ।
आज का है जो पल कल रहे न रहे,
क्या पता गीत अधरों पे फिर न रहे।
साँस से साँस की जुड़ रही है कड़ी,
ये तुम्हें भी पता ये हमें भी पता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04 मई, 2025

विवेक, ज्ञान व बुद्धि में अंतर

विवेक, ज्ञान व बुद्धि में अंतर

ज्ञान निरपेक्ष हो सकता है और बुद्धि में तार्किकता का समावेश होता है यदि उसमें नैतिकता और सद्गुणों का समावेश कर दिया जाये तो वह विवेक बन जाता है।

गीत भरी आँख का

गीत भरी आँख का

दर्द कैसे लिखूँ उस भरी आँख का,
जिसकी खुशियों के आगे अँधेरा हुआ।

एक उम्मीद का दीप लेकर चले,
स्वप्न के गीत पलकों में जैसे पले।
एक आँधी कहीं से आ ऐसी चली,
लुट गईं चाहतें जो थीं मन में पलीं।
आह कैसे लिखूँ उस घुटी चीख का,
जिसकी साँसों के आगे अँधेरा हुआ।

चल रही थी पवन मस्त थी चाहतें,
दिल के आँगन में होने लगी राहतें।
फिर अचानक कहाँ से अँधेरा हुआ,
लुट गयी रोशनी गुम सवेरा हुआ।
चीख कैसे लिखूँ उस घुटी सांझ का,
जिसके ढलने से पहले अँधेरा हुआ।

अब तो सूनी हैं गलियाँ नहीं राह है,
लुट गयी चाँदनी ना बची चाह है।
शब्द पलकों से आकर छलकने लगे,
गीत अधरों पे खोकर बहकने लगे।
भाव कैसे लिखूँ चाँद की प्रीत का,
जिसके सजने से पहले अँधेरा हुआ।

आज हैं हम यहाँ कल न जाने कहाँ,
हम रहेंगे कहीं तुम रहोगे कहाँ।
एक लम्हा हूँ मैं तो गुजर जाऊँगा,
राह में, याद में मैं न फिर आऊँगा।
गीत कैसे लिखूँ वक्त की रीत का,
रीत लिखने से पहले अँधेरा हुआ।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25 अप्रैल, 2025

केसर की पीड़ा

केसर की पीड़ा

दो चार शब्द की कड़ी भर्त्सना क्या घावों को भर पायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

क्यूँ लहुलुहान है धरती सारी आँखों मे अंगारे हैं,
स्वर्ग धरा पर कहते जिसको क्यूँ आज वहाँ अँधियारे हैं।
संविधान की धाराओं पर कैसी अड़चन आयी है,
टेसू की धरती पर छाई कैसी ये काली परछाई है।
जहाँ धरा पर सूर्य प्रथम आ नया उजाला देता है,
उसी धरा पर मानवता का किसने गला लपेटा है।
टेसू के फूलों का क्रंदन कब तक दिल दहलायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

वो कश्मीर जहाँ की वादी में खुशियाँ खन-खन करती है,
क्यूँ आज वहाँ की वादी में मानवता पल-पल मरती है।
कश्मीर जहाँ के नदियों का पानी कल-कल बहता है,
आज वहाँ की धरती पर आतंकी मनमानी करता है।
जब तक ऋषियों की धरती पर इक भी आतंकी जिंदा है,
तब तक भारत संविधान की सभी धारायें शर्मिंदा है।
ऋषि मुनियों की तपो भूमि ये कब तक अश्रु बहायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

आखिर कब तक कायरता की ये खेती बोई जायेगी,
निर्दोषों के खूँ से कब तक ये होली खेली जायेगी।
आखिर कब तक कश्मीर हमारा ये मनमानी झेलेगा,
ए के छप्पन की गोली का ये घाव कहाँ तक झेलेगा।
क्या निर्दोषों के जीवन का सचमुच अब कोई मोल नहीं,
पोंछ सके जो अश्रु यहाँ पर क्या ऐसा कोई बोल नहीं।
भारत माँ के आँचल को चीखें कब तक यूँ दहलायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

अब मैं घाटी के आँसू से जन गण मन गाने निकला हूँ,
मैं उठा कलम को आज यहाँ पर अलख जगाने निकला हूँ।
कब तक केसर की क्यारी में बंदूक उगाया जायेगा,
अरु कब तक झेलम की लहरों में लहू बहाया जायेगा।
कब तक वोटों की फसलों से संसद को आबाद करेंगे,
आतंकी से मानवता कर भारत को बर्बाद करेंगे।
जो लहू बहेगा झेलम में तो खुशियाँ भी बह जायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

भारत के टुकड़े के नारे जब तक गलियों में गूंजेंगे,
चौराहों पर हत्यारों को वोटों की खातिर पूजेंगे।
कब तक घाटी की गलियाँ यहाँ खून की होली देखेगी,
कब तक मासूमों के सपनों को बंदूकें ये रौँदेंगी।
कब तक यूँ ही बिरयानी देकर आतंकी को झेलेंगे,
कब तक भीतरघाती को यूँ ही मुफ्त खिला कर झेलेंगे।
क्या मासूमों की चीखें यूँ ही अंतस को तड़पायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।

बहुत हो चुका खेल मेज का अब तो सम्मुख आना होगा,
न हो प्रतीक्षा परशुराम की अब राष्ट्र धर्म निभाना होगा।
पास बुलाकर साथ बिठाया लेकिन कुछ भी परिणाम नहीं,
अब तो कुछ ऐसा हो जिसका हो उनको भी अनुमान नहीं।
समझौतों के संग-संग अब अलग मार्ग अपनाना होगा,
जैसी भाषा में जो समझे वैसा ही समझाना होगा।
युद्ध जीत कर समझौते की यदि मेज सजाई जायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा तब तक मन को यूँ तड़पायेगी।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24 अप्रैल, 2025

शब्द जो निकले हृदय से, क्या शून्य में खो जायेंगे

शब्द जो निकले हृदय से, क्या शून्य में खो जायेंगे

क्या मौन ही रह जायेंगी इस हृदय की कामनाएँ,
क्या शून्य में खो जायेंगी क्लांत मन की याचनायें।
जोड़ कर के भाव दिल के एक कहानी लिख रहे हैं,
शब्दों से अनुरोध करते भाव मन के दिख रहे हैं।
जो भाव अन्तस में उठे क्या व्यूह में खो जायेंगे।

शोर में रह जाये ना, दबकर हृदय की मौन भाषा,
भीड़ में खो जाये ना, घिरकर यहाँ मणिदीप आशा।
आँधियों में पल रहे हैं दीप अंतर्मन के जितने,
क्या अलंकृत हो सकेंगे मौन पलकों के वो सपने।
क्या मृदु नयन के मौन सपने अश्रु में खो जायेंगे।

सांध्य के अंतिम प्रहर का गीत हृदय को मोहता है,
आस के मधुमास में मनमीत विलय को सोचता है।
ये सोचती है रात कैसा भोर का प्रकाश होगा,
धुंध होगी रास्तों में या के खुला आकाश होगा।
जो बने अनुबंध अब तक क्या मुक्त हो खो जायेंगे।

कहीं खो गये यदि शब्द तो फिर गीत का औचित्य क्या,
कहीं तेज धूमिल हो गया तो सूर्य का लालित्य क्या।
चलो ढूँढ़ लें अपने हृदय की आज सारी रिक्तियाँ,
और पूर्ण कर लें हम चलो हर गीत की वो पंक्तियाँ।
हम आज यदि चेते नहीं कल सुप्त हो सो जायेंगे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 अप्रैल, 2025

रस्ता दूर निकल जाये

रस्ता दूर निकल जाये

जीवन के इस पुण्य पंथ में दो चार कदम आ चलो चलें,
कौन मोड़ पर कब जाने कोई रस्ता दूर निकल जाये।

कौन अकेला चला डगर में साथ चली है परछाईं,
मंजिल की आहट पर देखा निज सपनों की पुरवाई।
अपनों का आलोड़न पाकर सपने मन के खूब खिले हैं,
साथ चले जब यहाँ डगर में अंतर्मन भी खूब मिले हैं।
नयनों में सपनों को लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के नयन कोर का कोई सपना कब छल जाये।

दो स्नेह शब्द अधरों पर आये उम्मीदों को पंख दे गये,
संबंधों के महा जलधि में नूतन इक अनुबंध दे गये।
लेकिन जो पग चले नहीं हैं साथ डगर में इस जीवन के,
क्या जानेंगे पग के रिश्ते कैसे पनपे मन उपवन के।
स्नेह शब्द अधरों पे लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के शब्द चयन में कौन भाव मन को खल जाये।

पुरवा के झोंकों में घुलकर सपनों को वरदान मिला है,
सपने जब होठों पर आये गीतों को सम्मान मिला है।
शब्द-शब्द जब बाँधा हमने गीत सुनहरे रचे यहाँ पर,
छंद भंग जो हुए कहीं तो भाव न जाने गिरे कहाँ पर।
गीतों को सम्मानित करने दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के कौन बंध में गीतों की मात्रा गिर जाये।

हम माना साथ नहीं चल पाये पर सूनी कब ये हुई डगर,
बिछड़े संगी साथी कितने ये राह मगर हो गईं अमर।
कुछ दूरी तक साथ चले जो उन्हें मिला जीवन का स्वाद,
जिनसे छाँव मिली है पथ में हर उस राही को धन्यवाद।
कुछ पल को छाया बन जायें दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के कहाँ छाँव में खोया जीवन पथ मिल जाये।
       
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10 अप्रैल, 2025

ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

चीखती है रात सारी भोर का पता नहीं,
खो गए हैं रास्ते अब ठौर का पता नहीं।
आँधियों के शोर में खो गया प्रकाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

पंछियों के घोसलों में चीखती है जिंदगी,
जंगलों में रास्तों में टूटती है बन्दगी।
पंछियों के आँसुओं में दिख रहा विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

मूक दर्द रास्तों पे कर रही है याचना,
भर के अश्रु नैन में कर रही है प्रार्थना।
बेजुबां की जिंदगी में कैसा ये विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

शोर है गली-गली मौन पर नगर यहाँ,
साँस-साँस रो रही हादसों का डर यहाँ।
ज़िंदगी यूँ जल रही है मौत भी उदास है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 अप्रैल, 2025

गीत हम लिखते रहेंगे

गीत हम लिखते रहेंगे

भोर की पहली किरण से रात के अंतिम प्रहर तक,
वाहिनी के तीव्र पथ से मौन उस अंतिम लहर तक।
व्याकरण से शब्द चुनकर लेखनी प्रतिबद्धकर के,
भाव को आकार देकर गीत हम लिखते रहेंगे।

जो नजर गमगीन होगी भाव हम उसके लिखेंगे,
हर होठ के अनुरोध को शब्द हम देकर रहेंगे।
हम नहीं उस ओर जो वक्त संग-संग साज बदलें,
देख रुख बहती हवा का मौसमों के साथ चल लें।
भाव को आकार देकर होठ से अनुबंध कर के,
साज में ढलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

जो गली वीरान होगी रोशनी गमगीन होगी,
आँधियों में दीपिका की लौ उलझकर हीन होगी।
रश्मियों की जब अँधेरों से कहीं होगी लड़ाई,
सत्य को अवरुद्ध कर के झूठ की होगी बड़ाई।
झूठ पर प्रतिबंध करके सत्य से अनुबंध कर के,
दीप बन जलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

चाहता है कौन आना शौक से दुख के नगर में,
कौन चलना चाहता है कंटकों के इस सफर में।
चाहता हूँ लौट जाऊँ छोड़ कर सब कुछ यहाँ से,
किंतु कैसे लौट जाऊँ गीत गाये बिन यहाँ से।
तोड़ कर के बंध सारे नेह से संबन्ध कर के,
प्रेम से मिलते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

कुरु सभा की साजिशों से मौन हो जो जा चुके हैं,
द्यूत में भी चोट खाकर धर्म जो पछता चुके हैं।
ढूँढकर उनको यहाँ पर मुख्य पथ से जोड़ना है,
झूठ के आडंबरों को आज हमको तोड़ना है।
साजिशों से द्वंद्व करके द्यूत को प्रतिबंध करके,
जीत हम लिखते रहेंगे गीत हम लिखते रहेंगे।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        04 अप्रैल, 2025
        हैदराबाद

वाहिनी- नदी

गीत की भावना

गीत की भावना

शब्द दिल से चुने पंक्तियों में बुने,
गीत की भावनाएं निखरने लगीं।
कुछ कहे अनकहे शब्द अहसास थे,
गीत की कामनाएं निखरने लगीं।

द्वंद्व कोई नहीं अब हृदय कोर में,
स्वयं से भी नहीं अब करूँ याचना।
रीझता भी नहीं देख दर्पण कहीं,
फिर किसी से कहो क्या करूँ प्रार्थना।
जब प्रकाशित हृदय भक्ति के पुंज से,
भक्तिमय भावनाएं सँवरने लगीं।

लोभ धन से नहीं लोभ तन से नहीं,
जो मिला पथ में मुझको स्वीकार है।
अब हलाहल मिले या मिले सोमरस,
अब अमरत्व भी मुझको बेकार है।
जब सुवासित हृदय सत्य के पुंज से,
सत्य की दीपिकाएँ निखरने लगीं।

भाव निकले हृदय के लिखा गीत में,
रीत कोई जगत की नहीं जानता।
जोड़ने को चला हूँ सदा मार्ग में,
और कोई गणित मैं नहीं जानता।
मन हो भाषित जब प्रेम विश्वास से,
प्रार्थनाएँ हृदय में उमड़ने लगीं।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03 अप्रैल, 2025


माँ

माँ

खुशियों की जब कभी बात आती है माँ
याद में तेरी तस्वीर आती है माँ

गीत लिखता हूँ मैं जब कभी स्नेह के
छंद में पंक्ति में गुनगुनाती है माँ

छाती हैं जब कभी नैन में बदलियाँ
आज भी दूर से चुप कराती है माँ

धूप में थक के जब बैठ जाता हूँ मैं
छाँव आँचल का अब भी ओढाती है माँ

आँख होती है जब नम किसी बात पे
दिलासा हृदय को दिलाती है माँ

मिल रही हो भले सारी खुशियाँ यहाँ
अब भी गोदी तेरी याद आती है माँ

कैसे कह दूँ कि तू अब नहीं साथ है
मेरी साँसों में तू मुस्कुराती है माँ

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02 अप्रैल, 2025






रोते-रोते मुस्काता हूँ

रोते-रोते मुस्काता हूँ

उर पीड़ा के मौन अंश जो, नयन कोर में रहते प्रतिपल,
जो स्थापित मन के भावों को, चुभते बनकर अभिशापित दल।
बूँद नयन से चरण पखारूं, मैं आहों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

साँसों से साँसों का बंधन, है आह-आह का अनुबन्धन,
निज हृदय सृजित स्मित भावों का, हिय पीड़ा का कैसा क्रंदन।
आँसू के दो चार कणों से, मैं तप्त हृदय नहलाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

दुर्बल मन के कुछ सपनों का, जाने कैसा ये चढ़ाव है,
बिखरे मोती मनके सारे, कैसा मन का ये दुराव है।
बिखरे मनके मोती चुनता, मन ही मन को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

कुछ सपनों के मर जाने से, रिश्तों में कैसी परवशता,
एक कोख से जन्मे मन में, कैसी लघुता कैसी गुरुता।
अंतर्मन के कोर में बसे, पाषाणों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

राम का नाम मन में बसा लीजिये

राम का नाम मन में बसा लीजिये

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।

कंटकों से भटकने लगे मन कभी,
मुश्किलों में उचटने लगे मन कभी।
जब किसी बात से क्षोभ होने लगे,
मौन मन में कभी क्रोध होने लगे।
जब हृदय क्लांत होकर भटकने लगे,
भक्ति का भाव मन में जगा लीजिये।

धर्म का मार्ग हो सत्य का मार्ग हो,
राम प्रतिपल चले लडखडाये नहीं।
लोभ हो मोह हो या कभी द्रोह हो,
पाँव उनके कभी डगमगाए नहीं।
मुश्किलें शूल बन राह रोकें कभी,
मुश्किलों को गले से लगा लीजिये।

हो पिता का कथन मात का हो वचन,
माथ हरदम वचन को लगाया सदा।
भ्रात हो शत्रु हो या कोई मित्र हो,
प्रण किया जो उसे तो निभाया सदा।
शब्द के घाव से मन तड़पने लगे,
मौन को ढाल अपनी बना लीजिये।

जब हुआ क्रोध तो स्वयं पर वश किया,
ज्ञान का ध्यान का मंत्र जग को दिया।
बेर शबरी के जूठे कुछ गम नहीँ,
प्रेम मन में जो है तो कुछ कम नहीं।
भेद मन में कभी जब पनपने लगे,
मन को शबरी, अपने बना लीजिये।

राम हो जाये जग ये संभव नहीं,
जो चले धर्म पथ पर वही राम है।
राम का पथ चुने आज संभव नहीं,
कर्म पथ पर चले जो वही राम है।
पंथ में पाँव जब लड़खड़ाने लगे,
राम का दीप मन में जला लीजिये।

मुश्किलों में कभी मन भटकने लगे,
राम का नाम मन में बसा लीजिये।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

बस इतना वरदान रहे

बस इतना वरदान रहे

और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे,
जीवन के इस महापरिधि में और न कुछ व्यवधान रहे।
हर कर्तव्यों की त्रिज्या हो जो चारों ओर बराबर हो,
उम्मीदों के महासिंधु में पावनता न्योछावर हो।
अधिकारों की पृष्ठभूमि पर जीवन का कुछ मान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

स्वप्न सरीखी पगडंडी पर पदचिन्हों का आवाहन,
पुण्य भाव के श्रेष्ठ कलश से जीवन बने नहावन।
वेद ग्रन्थ की वाणी गुंजित गंगाजल पावन अमृत,
गीता और पुराणों से हो रोम-रोम जीवन पुलकित।
जिह्वा से आवाहन हो जब मंत्रों का संज्ञान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

शिक्षा संस्कृति और ज्ञान से राष्ट्र मार्ग आलोकित हो,
स्वस्थ आचरण और सभ्यता से जीवन अनुमोदित हो।
स्वार्थ रहित हो भाव हृदय के सबसे सबका अपनापन,
सत्य धर्म के ज्योति पुंज से मिट जाये सारा सूनापन।
पुण्य पंथ में इस जीवन के नहीं कभी व्यवधान रहे,
और नहीं कुछ चाह हृदय की बस इतना वरदान रहे।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29 मार्च, 2025
तुम पूछते हैं मेरी आँखों में समंदर कैसा है
क्या बताऊँ जो देखा वो मंजर कैसा है

जरा हवा क्या चली जो छुपने लगे ओट में
क्या बताऊँ उन्हें जो बीती बवंडर कैसा है

जिनको चाहा यहाँ स्वयं को भूलकर
हाथों में उनके ये खंजर कैसा है

जीतने को जीत लेते हम हर एक युद्ध को
पर दिल जो न जीते वो सिकन्दर कैसा है

माना उन्हें अब मेरी जरूरत नहीं है देव
पर ये बेचैनियों का समंदर कैसा है

✍️अजय कुमार पाण्डेय



फागुन

फागुन

नैनों से नैन मिले जबही तब नैन से नेह जता गयी गोरी।
अधर खुले अधखुले ही रहे पर अधरों से प्रेम जता गयी गोरी।
रंग फागुन ऐसो चढो तन-मन पे और कहीं कुछ सूझत नाहीं,
के रंग-अबीर बिना नैनन से नैनों को रंग लगा गयी गोरी।

हृदय के भाव अधरों पर कभी जब गीत बन जायें।
मचलती भावनाएं जब कभी अधरों पे ठन जायें।
फागुन रंग है ऐसा अछूता कोई हो नहीं सकता,
छुये जब रंग तन-मन को हृदय बरसने बन जायें।

नेह स्नेह के भाव खिले जब नैन से नैन मिले फागुन में।
आवत-जावत राह तके सब चाह से चाह मिले फागुन में।
रंग-बिरंगी धरा भयी और फूल ही फूल खिले अईसन, 
मस्त मलंग हुआ जीवन जब तन-मन रंग रंगा फागुन में।

न जुड़ता नाम तेरे संग तो यूँ बदनाम ना होता।
न जुड़ता साथ में तेरे कहीं यूँ नाम ना होता।
न मिलता मैं अगर तुमसे तो ऐसा हाल न होता,
न लिखता गीत कविता मैं भी किसी काम का होता।

हमारी चाहतों का रंग कभी फीका नहीं होगा।
हमारी आशिकी का ढंग कभी फीका नहीं होगा।
खुमारी ये तुम्हारी जो नहीं तो और फिर क्या है,
कि तुम्हारी खुश्बुओं का संग कभी फीका नहीं होगा



क्या फायदा

क्या फायदा

शब्द मेरे मुखर हो न पाये कभी, दिल किसी से लगाने का क्या फायदा।

कितने आये-गये नेह की राह में, पर किसी को हृदय ने पुकारा नहीं,
गीत कितने लिखे प्रेम की चाह के, पर किसी को हृदय में उतारा नहीं।
बाद उनके हृदय को न भाया कोई, और से दिल लगाने का क्या फायदा।

करते क्या कामना हम खुशी की यहाँ, दर्द ने जब हृदय को सहारा दिया,
पास रहकर भी जब पास हो ना सके, अश्रु ने तब हृदय को सहारा दिया।
अश्रु जब गिर पड़े नैन के कोर से, नैन से दिल लगाने का क्या फायदा।

लोग कहते रहे प्रेम इक रोग है, दिल ने लेकिन कभी इसको माना नहीं,
जिसने छोड़ा हमें ये वही लोग हैं, कौन अपना पराया ये जाना नहीं।
प्रेम ही रोग जब बन गया हो यहाँ, गैर को दोष देने का क्या फायदा।

जीतता क्या किसी से यहाँ युद्ध में, जब किसी को हराना नहीं चाहता,
ऐसे बरसे नयन प्रेम की राह में, दिल किसी से लगाना नहीं चाहता।
हार में जीत की आस जगने लगे, जीत कर हार जाने का क्या फायदा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 मार्च, 2025

पहचान

पहचान

नैन अधखुले सपन अधूरे
उलझन सारी रात रही,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

चूल्हे पर जो धूम्र उठा था
पता ठिकाना क्या जाने,
कितना मिटा कोयला जलकर
कौन राख अब पहचाने।
कितनी सिमटी आग रात भर
बरतन को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

पगडंडी की धूल लिपटकर
क्या जाने के कहाँ चली,
कितनी मंजिल नापी पग ने
कितनी राहें सदा छलीं।
कितने कुचले दूब राह में
पैरों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

टुकड़े-टुकड़े सपने जोड़े
पलकों पर रखकर पाला,
नयन कोर की हर बूँदों को
आँचल कोरों में पाला।
सपने पलकों के क्यूँ बिखरे
कोरों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

मुट्ठी से उस गिरे समय को
जाने कब से ढूँढ़ रहा,
यादों के आँचल में अपने
सपनों को मन ढूँढ़ रहा।
हाथों से क्यूँ आँचल छूटा
हाथों को अनुमान नहीं,
वीथी पर जो अश्रु गिरे थे
उनकी क्यूँ पहचान नहीं।

✍️अजय कुमार पाण्डेय

श्री लक्ष्मण मूर्छा एवं प्रभु की मनोदशा

श्री लक्ष्मण मूर्छा एवं प्रभु की मनोदशा

चहुँओर अंधेरा फैल गया ऋषि ध्वनियाँ सारी बंद हुईं,
पुलकित होकर बहती थी जो पौन अचानक मंद हुई।

कुछ नहीं सूझता जब मन को अँधियार पसरने लगता है,
शंका मन में जब उमड़ पड़े संसार बिखरने लगता है।

समय पूर्व सूरज संध्या के आँचल में जा मंद हुआ,
यूँ लगा हृदय के किसी कोर की धमनी का बल तंग हुआ।

विचलित मन विचलित तन ले साँस उखड़ती जाती थी,
अपने ही हाथों से अपनी हर आस उजड़ती जाती थी।

तभी अचानक कहीं कर्ण में स्वर का स्पंदन तंग हुआ,
शक्ति लगी श्री लक्ष्मण को सुनकर के क्रंदन भंग हुआ।

युद्धभूमि में मूर्छित पाकर सब स्वप्न नयन का बिखर गया,
बसने से पहले यूँ लगा आज संसार हृदय का उजड़ गया।

देख धरा पर तेजोमय को सूर्य गगन का बिखर गया,
धैर्यवान बल शीलवान बल उस पल जाने किधर गया।

क्या क्षमा कभी कर पाऊँगा खुद को इस अपराध पे मैं,
प्राणों को क्षति पहुंचाई अपने ही आराध्य के मैं।

शिला बन गए स्वयं प्रभू जो कभी शिला को तारे थे,
लगा समय से हार गये हैं कभी नहीं जो हारे थे।

विधना के खुद आज भाग में कैसी विपदा आयी है,
किस विधि चली लेखनी अब ये कैसी निठुर सियाही है।

हाय अवध का भाग्य धरा पर मौन हुआ क्यूँ खोया है,
लगता बरसों से जागा था धरा गोद में सोया है।

कैसे मुख दिखलाऊँगा मैं आकर वहाँ अयोध्या में,
वशीभूत हो निजता में कैसा अपराधी योद्धा मैं।

कैसे बोलूँगा माँ से मैं कि धर्म निभा नहीं पाया,
रक्षा को जो वचन दिया था उसको निभा नहीं पाया।

बड़ा अभागा राम जगत में जीवनभर बस खोया है,
मात-पिता से दूर हुआ अब भ्रात मौन हो सोया है।

हे पेड़ रूख खग मृग सारे कैसे व्यथा सुनाऊँ मैं,
व्यथा राम के मन की क्या है कैसे यहाँ बताऊँ मैं।

मात-पिता का वचन निभाना कैसे ये अपराध हुआ,
कौन जनम की सजा मिली है कैसे मैं अभिशाप हुआ।

मात सुमित्रा के सम्मुख राम वचन सब झूठ हुआ,
जो विश्वास दिलाया माँ को हाय अभागा झूठ हुआ।

उर्मिला से क्या कहूँगा मैं कैसे सम्मुख जाऊँगा,
लक्ष्मण बिन कैसे जाऊँ मैं यहीं डूब मर जाऊँगा।

आज जगत में कौन यहाँ पर मुझसे बड़ा अभागा है,
जीवन भर मैंने विधना से अपना सुख बस माँगा है।

क्या बोलूँगा भ्रात भरत से विश्वास यहाँ जो टूटा है,
हाथ पकड़ बचपन में खेला हाथ आज जो छूटा है।

क्यूँ काल कहीं पर सोया है क्यूँ मृत्यु नहीं आ जाती,
क्यूँ प्रलय नहीं आता है क्यूँ ये धरा नहीं फट जाती।

क्यूँ लखन नहीं कुछ कहते हो क्या अपराध हुआ मुझसे,
क्यूँ ऐसे पड़े अंक में हो कुछ तो कहो अनुज मुझसे।

तुम बिन मेरा जगत अँधेरा सूर्य नहीं उग पायेगा,
पंछी कलरव नहीं करेंगे जग सूना हो जायेगा।

नहीं दिखोगे साथ अगर सीता को क्या बतलाऊँगा,
कैसे सम्मुख जाऊँगा मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा।

क्या अंतर है रात दिवस में तुम बिन जगत अँधेरा है,
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण बस मातम का घेरा है।

बिना लखन के शून्य राम हैं इस जीवन ने जान लिया,
प्राण तजूँ इस युद्ध भूमि में मैंने भी प्रण ठान लिया।

तुम बिन जीवित रहा अगर जनम अधूरा रह जायेगा,
सृष्टि का कुछ पता नहीं पर राम न पूरा हो पायेगा।

मुझसे स्वार्थी कौन यहाँ पर अपने खातिर यहाँ जिया,
पत्नी वियोग में हो अंधा भाई का बलिदान दिया।

भाई खातिर जीवन अर्पण कौन यहाँ करता ऐसा,
धूर्त कहेगा जग मुझको क्या भाई होता है ऐसा।

बिन तेरे यदि जीत गया सीता प्राणों को तज देगी,
गया अकेला अगर अवध तो मायें जीवन तज देंगी।

होगा उचित यही के संग-संग प्राण यहाँ मैं त्यागूँ,
भ्रात मुझे लौटा दे विधना और न तुझसे कुछ माँगूँ।

लगता कभी कि बहुत हुआ अब कोई वरदान न माँगूँ,
बनूँ काल का महाकाल मैं धैर्य त्याग सब कुछ त्यागूँ।

अपने अन्तस् की ज्वाला को असुर रक्त से शांत करूँ,
जब तक अंतिम रिपु जीवित है नीर बूँद ना ग्रहण करूँ।

जग ने मेरा धैर्य देखकर मुझको बस कायर समझा,
मेरे नम्र निवेदन को देव दनुज ने कायर समझा।

धूल धूसरित करूँ लंक को करूँ क्षुधा को शांत यहाँ,
टूट पडूँ बन प्रलय यहाँ करूँ हृदय को शांत यहाँ।

कोदण्ड धरूँ न तब तक मैं अंतिम असुर मिटा न दूँ,
काल अवध के नभ पे छाया उसकी मूल मिटा ना दूँ।

यदि लखन नहीं बचेगा तो समस्त सृष्टि का क्या करना,
जब जीवन ही कलुषित हो तो मृत्यू से कैसा डरना।

कैसे मिली वेदना मुझको हाय काल क्यूँ हँसता है,
जिस स्वार्थ दंश ने डँसा लखन मुझे नहीं क्यूँ डँसता है।

कहो विभीषण इस विपदा को कैसे मैं अब टारूँगा,
बिना लखन के यहाँ युद्ध में शस्त्र न अब मैं धारूँगा।

खुले नहीं यदि नैन लखन के युद्ध यहाँ मैं हारूँगा,
बिना लखन यदि रात ढल गयी कल ना सूर्य निहारूँगा,

हे हनुमत ये रात बीतती बोलो कब तक आओगे,
समय पूर्व यदि तुम ना आये मुझे न जीवित पाओगे।

मेरे खातिर जिसने अपने जीवन का अब सुख त्यागा,
मौन धरा पर पड़ा हुआ मुझसा है अब कौन अभागा।

मात-पिता पत्नी को त्यागा तुमसा कोई धीर नहीं,
भाई खातिर सब कुछ वारे तुमसा कोई वीर नहीं।

बिना लखन के इस जीवन का है कोई अस्तित्व नहीं,
राम शून्य हो जायेगा अब और बचा व्यक्तित्व नहीं।

हे हनुमत विनती है तुमसे शीघ्र यहाँ पर आ जाओ,
और विलंब न सह पाऊँगा जीवन मुझको दे जाओ।

रुदन देख राघव के मन का धरती अंबर डोल गया,
राम काज में विलंब न होगा पवन पुत्र मन बोल गया।

धीर धरें है रघुकुल नन्दन क्षण में दुख कट जायेगा,
मेरे आने से पहले ना सूरज ये उग पायेगा।

रोक सकेगा कौन मुझे अब किसमें इतना जोर नहीं,
राम नाम की महिमा हो यदि तिनका भी कमजोर नहीं।

राम काज को पूर्ण हुए बिन दूजा काज नहीं होगा,
जब तक मैं ना आऊँगा ये दिन आगाज नहीं होगा।

पलक झपकते बूटी लेकर हनुमत जब वापस आये,
आनंदित हो रघुनंदन फिर अंतर्मन में मुस्काये।

बूटी का पाकर प्रभाव जब लक्ष्मण ने आँखें खोली,
जीवन के सब श्रेष्ठ सुखों से राघव ने भर ली झोली।

लगा हृदय से लक्ष्मण को तब राघव ने जीवन पाया,
खग मृग सब जो भूल चुके थे आनंदित जीवन गाया।

तन मन जीवन ऋणी रहूँगा सोई किस्मत जागी है,
हनुमत तुम सा सखा मिला है राम यहाँ बड़भागी है।

हर्षित कण-कण हुआ धरा का प्रकृति ने जीवन पाया,
राम काज सम्पूर्ण किया हनुमत ने भी वचन निभाया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जून, 2025


 


माँ

भले हो दूर माँ मुझसे मगर इतना भरोसा है।
रहेगी पास माँ हरपल मुझे इतना भरोसा है।
मेरी नादानियों को देवताओं माफ कर देना,
सभी देवों से भी ज्यादा मुझे माँ पर भरोसा है।


मुक्तक

लड़कपन में लिखी जो भी कहानी याद है हमको।
किताबों में छिपाई जो निशानी याद है हमको।
वही हम हैं वही तुम हो भले ये वक्त बदला है,
बिताए संग में जो-जो जवानी याद है हमको।

लिखेंगे गीत वादों के बना मनमीत यादों को।
दिलों की भावनाओं को निगाहों के इरादों को।
न पूछो कैसे बीते हैं वो लम्हे बिन कहानी के,
डुबोये आंसुओं ने जिनमें चाहत की निशानी को।

के दिल में है मेरे क्या-क्या मेरी धड़कन बताएगी।
तुम्हारी चाह कितनी है मेरी हिचकी बताएगी।
सुनाऊँ कैसे मैं तुमको गुजारे कैसे सावन ये,
मेरी पलकों की हालत को ये बरसातें बतायेंगी।

तुम्हारे बाद गीतों के वो सारे शब्द खोये हैं।
लिखे जो व्याकरण में प्रेम के सारे शब्द खोये हैं।
बहुत मुश्किल से ढूँढा हूँ तुम्हारी इक निशानी को,
औ गाया जब इसे मैंने वो सारे शब्द रोये हैं।

आँसू की सियाही से लिखे जो गीत अब खोये।
यादों की रिहाई से जो निकले गीत सब खोये।
भूली हर कहानी अब कहाँ तक याद रहती है,
गिरे जब बूँद पलकों से कपोलों पर सभी खोये।

कभी कुछ खो दिया हमने कभी कुछ पा लिया हमने।
कि आयी याद जब उनकी दिलासा दे दिया हमने।
सिमट कर बूँद को कोरों पे आकर सूखने से पूर्व,
पलकों की सियाही से उन्हें फिर गा लिया हमने।

तुम्हारा साथ यदि हो तो खिलेंगे फूल राहों में।
के कंटक हों भले कितने चलेंगे दूर राहों में।
बहुत मुश्किल सफर ये जिंदगी का हमको लगता है,
चलेंगे संग-संग जब हम हँसेंगे धूल राहों में।

यही चाहत है इस दिल की तुम्हारे गीत मैं गाऊँ।
तुम्हारा दर्द हर पाऊँ तुम्हारी प्रीत मैं पाऊँ।
अब नहीं कुछ चाह इस दिल की यही बस कामना बाकी,
के तुम्ही से हार कर के मैं खुद से जीत मैं जाऊँ।

तुम्हारे बिन सुबह कोई न कोई शाम होती है।
करूँ जब बात कोई भी तुम्हारी बात होती है।
गुजरने को गुजरती हैं ये रातें हर घड़ी हर पल,
तुम्हारे साथ जो बीती नहीं वो रात होती है।

हजारों गीत लिखे पर कोई भी गा नहीं पाये।
अपने दिल की चाहत को कभी दिखला नहीं पाये।
यूँ मजबूरियों ने बाँध रक्खा मेरे कदमों को,
मिले अवसर कई लेकिन कभी हम आ नहीं पाये।

तुम्हारे पास आता हूँ तो खुद को हार जाता हूँ।
के नयनों की नजाकत में मैं दिल को हार जाता हूँ।
नहीं रहता नियंत्रण जब कभी तुम पास आ जाओ,
मैं सबसे जीत जाता हूँ तुम्हीं से हार जाता हूँ।

गुजरते शाम के आँचल में कुछ बाकी निशानी है।
मचलते कामनाओं की महकती रातरानी है।
हैं माना दूर हम लेकिन मगर इक डोर ऐसी है,
बँधी जिससे गुजारे वक्त की सारी कहानी है।


अधर पर नाम जब आया नयन गीले हुए होंगे।
हमारी चाहतों में पुष्प सभी पीले हुए होंगे।

हमारी याद में उनके नयन गीले हुए होंगे।

खयाल तेरी तरफ गया

खयाल तेरी तरफ गया

हुई उदास शाम तो खयाल तेरी तरफ गया
बात हुई आम तो खयाल तेरी तरफ गया

इक आह सी दबी रही दिल के कोर में कहीं
टीस जब उठी खभी खयाल तेरी तरफ गया

कदम-कदम पे जिंदगी ये जंग सी रही सदा
जब कभी ये दिल डरा खयाल तेरी तरफ गया

के उम्र भर सफर मेरा हादसों से था भरा
बेचैन जब हुआ कभी खयाल तेरी तरफ गया

दिल पे किसका जोर है देव कब तेरा हुआ
बात इश्क की चली खयाल तेरी तरफ़ गया

✍️ अजय कुमार पाण्डेय

चाहत

चाहत

ये जीवन एक रस्ता है तो इसकी चाहतें तुम हो,
जो साँसों की जरूरत है तो इसकी राहतें तुम हो।

नहीं तुम बिन कोई मंजिल नहीं कोई किनारा है
जो भाये इन किनारों को वो इसकी आदतें तुम हो

नहीं मुमकिन गुजारूँ जिंदगी तन्हा मैं आहों में
ये तन्हाई मिटा दे जो वो इसकी आहटें तुम हो

बिछे हैं हर कदम जो फूल मेरे गीतों की राहों में
जो मेरे गीत साँसें हैं तो इनकी राहतें तुम हो

कहाँ जाऊँ छुड़ाकर हाथ नहीं कोई सहारा है
बसे हो देव पलकों में अब इसकी आदतें तुम हो

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 फरवरी, 2024

अनकही एक कहानी

अनकही एक कहानी

एक संशय हृदय में पनपता रहा इक कहानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

उम्र लिखती रही रेत पर गीतिका छंद फिर भी अधूरे सिसकते रहे,
मोम बन साँस पल-पल पिघलती रही रोशनी के लिए मन मचलते रहे।
एक संशय अधूरा सिसकता रहा इक जवानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

एक वादा न खुद से सँभाला गया साथ हो कर भी मधुरात हो न सकी,
चाँद का हर सफर ये अधूरा रहा ऊँघती ही रही रातें सो न सकी।
चाँदनी संशयों में उलझती रही रातरानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

रात दिन याद के मेघ छलते रहे इक तमन्ना हृदय में पिघलती रही,
चाहतों को नजर कुछ लगी इस तरह हर तमन्ना कलेजा मसलती रही।
कोर को रात दिन मेघ छलते रहे हर निशानी अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

भोर की आस में रात सो ना सकी जब हुई भोर तो नींद ही छल गयी,
याद के पृष्ठ पर चित्र उभरे मगर कैसे कहते के प्रीत ही छल गयी।
पृष्ठ के चित्र सारे बिछड़ते रहे तूलिका ही अधूरी कहीं रह गयी,
चाह कर बात अधरों पे आ न सकी रात भी मौन हो अनकही रह गयी।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14 फरवरी, 2025

रुक ना जाना तुम मुसाफिर

रुक ना जाना तुम मुसाफिर।  

शून्य से निकला सफर ये मौन इन पगडंडियों पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

चलते चलते खो ना जायें परछाईयाँ रास्तों पर
और विस्मृत हो न जायें यादें मन के रास्तों पर
हो चले जब तोड़ कर सब मोह माया बंधनों को
फिर पलट कर देखना क्या बीती को इन रास्तों पर।।

स्मृतियों के पदचिन्हों से दूर तू निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

द्वार से कितनी दफा तुम लौट कर आये वहाँ से
खटखटाये तुम न जाने द्वार अपनी भावना से
जब हो मरुस्थल सी दशा अंक में कुछ भी नहीं हो
खिलखिला कर पूछना प्रश्न स्वयं अपनी आत्मा से।।

आशियाँ तुझसे यहाँ फिर खोजता किसको यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

जान ले इस पंथ पर पीछे जाने का ना रास्ता
है साथ ना तेरे कोई फिर क्या किसी से वास्ता
तू अकेला कब यहाँ पगडंडियाँ तेरी मीत हैं
झूम कर फिर चल यहाँ अपना ढूँढ़ ले तू रास्ता।।

लौट कर आता कहाँ वो वक्त जो निकला यहाँ पर
सफर लंबा ये माना रुक ना जाना तुम मुसाफिर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद

विधना का लेख

विधना का लेख

दो कड़ियाँ जोड़ सकूँ जीवन की इतनी सी बस चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

तिनका-तिनका जोड़ा प्रति पल लाखों जतन यहाँ कर डाले,
अपने मन को मार-मार कर औरों के बस सपने पाले।
कुछ चाहा लेकिन किया नहीं अरु अपने मन की जिया नहीं,
उलझे ऐसे यहाँ जगत में के पैबंदों को सिया नहीं।

दो पैबंद लगा लूँ मन में बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कितना चाहा दूर हो सके मन विचलन की हर राहों से,
कितना चाहा मुक्त हो सके मन फिसलन से हर आहों से।
हों कंटक कितने भले तने में पुष्प खिला ही करता है,
दूर रहें कितने भी अपने पर हृदय मिला ही करता है।

मन से मन को पुनः मिला लूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

कुरुवंशों के सभी पाप को संवादों से धोना चाहा,
श्रेष्ठ जनों की पुण्य छाँव में दो पल को बस सोना चाहा।
लेकिन मन में दुर्योधन हो असत्य सदैव ही पलता है,
अधम पाप मन में बैठा हो तो प्रथम स्वयं को छलता है।

संबंधों के भाव सँभालूँ बस इतनी सी ही चाहत थी,
लेकिन विधना के लिखे लेख को चाहा बदल नहीं पाया।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09 फरवरी, 2024

मुक्तक

जब-जब भी तू बढ़ेगा तेरे पास आऊँगा।
मैं रास्तों से तेरे सभी काँटे हटाऊँगा।
यहाँ जिंदगी की दौड़ में जब दोनों हों खड़े,
फिर तुझसे हार कर भी मैं तो जीत जाऊँगा।

जो मैं हूँ इक पतंग तो तू डोर है मेरी।
एक छोर मैं खड़ा तो दूजी छोर तू खड़ी।
अब बिन तेरे ये जिंदगी की जंग है कठिन,
जो हर कदम तू साथ है तो जीत है मेरी।

गीत में तू बसी प्रार्थना में बसी।
चाहतों में सजी कामना में सजी।
साँस की आस तुझसे जुड़ी इस तरह,
कल्पना में सजी भावना में बसी।

तुम्हारे वास्ते माँगूँ कहो तुम ही मैं क्या माँगूँ।
काँटे राह के चुन लूँ दुआयें जीत की माँगूँ।
करो गर तुम इशारा तो बनूँ परछाइयाँ तेरी,
तुम्हारी नींद मैं सोऊँ तुम्हारी नींद मैं जागूँ।

तब जाकर बनती है कविता

तब जाकर बनती है कविता

भावों का सागर उमड़े जब तब जाकर बनती है कविता
आहों में भी प्रेम सजे जब तब जाकर बनती है कविता।

कहीं हृदय के प्रेमांगन में भावों का सागर लहराये,
जब कोई साँसों का बंधन मन के भावों को छू जाये।
कभी अधर पर मुस्कानों की हल्की रेख कहीं खिंच जाये,
जब पलकों के किसी कोर पर आँसू धीरे से मुस्काये।
साँसें जब अल्हड़ हो जायें तब जाकर बनती है कविता।

जब लोगों से भरी भीड़ में सूना कोना मन को भाये,
पलकों के द्वारे पर अकसर कोई पल-पल आये जाये।
एकाकीपन मन तड़पाये गीत विरह का मन को भाये,
मन का बोझ सँभल ना पाये आँसू पलकों में भर जाये।
छन से सपना जब गिर जाये तब जाकर बनती है कविता।

मन के पावन नीलगगन में जब यादों की बदली छाये,
खुली पलक का कोई सपना रातों में करवट दे जाये।
तकिये की सिलवट में जब-जब चिट्ठी की वो खुशबू आये,
जब पुस्तक के किसी पृष्ठ में सूखा हुआ पुष्प मिल जाये।
सूखी पंखुरियाँ जब महके तब जाकर बनती है कविता।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05 फरवरी, 2024


दिल कहो क्या करे

दिल कहो क्या करे हों खड़े प्रश्न  जब हर गली-मोड़ पे, आस हो टूटती दिल कहो क्या करे। सूनी आँखों हैं प्रश्न कितने छुपे, अपनी साँसें भी तीर बन जब ...