श्री लक्ष्मण मूर्छा एवं प्रभु की मनोदशा
चहुँओर अंधेरा फैल गया ऋषि ध्वनियाँ सारी बंद हुईं,
पुलकित होकर बहती थी जो पौन अचानक मंद हुई।
कुछ नहीं सूझता जब मन को अँधियार पसरने लगता है,
शंका मन में जब उमड़ पड़े संसार बिखरने लगता है।
समय पूर्व सूरज संध्या के आँचल में जा मंद हुआ,
यूँ लगा हृदय के किसी कोर की धमनी का बल तंग हुआ।
विचलित मन विचलित तन ले साँस उखड़ती जाती थी,
अपने ही हाथों से अपनी हर आस उजड़ती जाती थी।
तभी अचानक कहीं कर्ण में स्वर का स्पंदन तंग हुआ,
शक्ति लगी श्री लक्ष्मण को सुनकर के क्रंदन भंग हुआ।
युद्धभूमि में मूर्छित पाकर सब स्वप्न नयन का बिखर गया,
बसने से पहले यूँ लगा आज संसार हृदय का उजड़ गया।
देख धरा पर तेजोमय को सूर्य गगन का बिखर गया,
धैर्यवान बल शीलवान बल उस पल जाने किधर गया।
क्या क्षमा कभी कर पाऊँगा खुद को इस अपराध पे मैं,
प्राणों को क्षति पहुंचाई अपने ही आराध्य के मैं।
शिला बन गए स्वयं प्रभू जो कभी शिला को तारे थे,
लगा समय से हार गये हैं कभी नहीं जो हारे थे।
विधना के खुद आज भाग में कैसी विपदा आयी है,
किस विधि चली लेखनी अब ये कैसी निठुर सियाही है।
हाय अवध का भाग्य धरा पर मौन हुआ क्यूँ खोया है,
लगता बरसों से जागा था धरा गोद में सोया है।
कैसे मुख दिखलाऊँगा मैं आकर वहाँ अयोध्या में,
वशीभूत हो निजता में कैसा अपराधी योद्धा मैं।
कैसे बोलूँगा माँ से मैं कि धर्म निभा नहीं पाया,
रक्षा को जो वचन दिया था उसको निभा नहीं पाया।
बड़ा अभागा राम जगत में जीवनभर बस खोया है,
मात-पिता से दूर हुआ अब भ्रात मौन हो सोया है।
हे पेड़ रूख खग मृग सारे कैसे व्यथा सुनाऊँ मैं,
व्यथा राम के मन की क्या है कैसे यहाँ बताऊँ मैं।
मात-पिता का वचन निभाना कैसे ये अपराध हुआ,
कौन जनम की सजा मिली है कैसे मैं अभिशाप हुआ।
मात सुमित्रा के सम्मुख राम वचन सब झूठ हुआ,
जो विश्वास दिलाया माँ को हाय अभागा झूठ हुआ।
उर्मिला से क्या कहूँगा मैं कैसे सम्मुख जाऊँगा,
लक्ष्मण बिन कैसे जाऊँ मैं यहीं डूब मर जाऊँगा।
आज जगत में कौन यहाँ पर मुझसे बड़ा अभागा है,
जीवन भर मैंने विधना से अपना सुख बस माँगा है।
क्या बोलूँगा भ्रात भरत से विश्वास यहाँ जो टूटा है,
हाथ पकड़ बचपन में खेला हाथ आज जो छूटा है।
क्यूँ काल कहीं पर सोया है क्यूँ मृत्यु नहीं आ जाती,
क्यूँ प्रलय नहीं आता है क्यूँ ये धरा नहीं फट जाती।
क्यूँ लखन नहीं कुछ कहते हो क्या अपराध हुआ मुझसे,
क्यूँ ऐसे पड़े अंक में हो कुछ तो कहो अनुज मुझसे।
तुम बिन मेरा जगत अँधेरा सूर्य नहीं उग पायेगा,
पंछी कलरव नहीं करेंगे जग सूना हो जायेगा।
नहीं दिखोगे साथ अगर सीता को क्या बतलाऊँगा,
कैसे सम्मुख जाऊँगा मैं कैसे मुख दिखलाऊँगा।
क्या अंतर है रात दिवस में तुम बिन जगत अँधेरा है,
पूरब पश्चिम उत्तर दक्षिण बस मातम का घेरा है।
बिना लखन के शून्य राम हैं इस जीवन ने जान लिया,
प्राण तजूँ इस युद्ध भूमि में मैंने भी प्रण ठान लिया।
तुम बिन जीवित रहा अगर जनम अधूरा रह जायेगा,
सृष्टि का कुछ पता नहीं पर राम न पूरा हो पायेगा।
मुझसे स्वार्थी कौन यहाँ पर अपने खातिर यहाँ जिया,
पत्नी वियोग में हो अंधा भाई का बलिदान दिया।
भाई खातिर जीवन अर्पण कौन यहाँ करता ऐसा,
धूर्त कहेगा जग मुझको क्या भाई होता है ऐसा।
बिन तेरे यदि जीत गया सीता प्राणों को तज देगी,
गया अकेला अगर अवध तो मायें जीवन तज देंगी।
होगा उचित यही के संग-संग प्राण यहाँ मैं त्यागूँ,
भ्रात मुझे लौटा दे विधना और न तुझसे कुछ माँगूँ।
लगता कभी कि बहुत हुआ अब कोई वरदान न माँगूँ,
बनूँ काल का महाकाल मैं धैर्य त्याग सब कुछ त्यागूँ।
अपने अन्तस् की ज्वाला को असुर रक्त से शांत करूँ,
जब तक अंतिम रिपु जीवित है नीर बूँद ना ग्रहण करूँ।
जग ने मेरा धैर्य देखकर मुझको बस कायर समझा,
मेरे नम्र निवेदन को देव दनुज ने कायर समझा।
धूल धूसरित करूँ लंक को करूँ क्षुधा को शांत यहाँ,
टूट पडूँ बन प्रलय यहाँ करूँ हृदय को शांत यहाँ।
कोदण्ड धरूँ न तब तक मैं अंतिम असुर मिटा न दूँ,
काल अवध के नभ पे छाया उसकी मूल मिटा ना दूँ।
यदि लखन नहीं बचेगा तो समस्त सृष्टि का क्या करना,
जब जीवन ही कलुषित हो तो मृत्यू से कैसा डरना।
कैसे मिली वेदना मुझको हाय काल क्यूँ हँसता है,
जिस स्वार्थ दंश ने डँसा लखन मुझे नहीं क्यूँ डँसता है।
कहो विभीषण इस विपदा को कैसे मैं अब टारूँगा,
बिना लखन के यहाँ युद्ध में शस्त्र न अब मैं धारूँगा।
खुले नहीं यदि नैन लखन के युद्ध यहाँ मैं हारूँगा,
बिना लखन यदि रात ढल गयी कल ना सूर्य निहारूँगा,
हे हनुमत ये रात बीतती बोलो कब तक आओगे,
समय पूर्व यदि तुम ना आये मुझे न जीवित पाओगे।
मेरे खातिर जिसने अपने जीवन का अब सुख त्यागा,
मौन धरा पर पड़ा हुआ मुझसा है अब कौन अभागा।
मात-पिता पत्नी को त्यागा तुमसा कोई धीर नहीं,
भाई खातिर सब कुछ वारे तुमसा कोई वीर नहीं।
बिना लखन के इस जीवन का है कोई अस्तित्व नहीं,
राम शून्य हो जायेगा अब और बचा व्यक्तित्व नहीं।
हे हनुमत विनती है तुमसे शीघ्र यहाँ पर आ जाओ,
और विलंब न सह पाऊँगा जीवन मुझको दे जाओ।
रुदन देख राघव के मन का धरती अंबर डोल गया,
राम काज में विलंब न होगा पवन पुत्र मन बोल गया।
धीर धरें है रघुकुल नन्दन क्षण में दुख कट जायेगा,
मेरे आने से पहले ना सूरज ये उग पायेगा।
रोक सकेगा कौन मुझे अब किसमें इतना जोर नहीं,
राम नाम की महिमा हो यदि तिनका भी कमजोर नहीं।
राम काज को पूर्ण हुए बिन दूजा काज नहीं होगा,
जब तक मैं ना आऊँगा ये दिन आगाज नहीं होगा।
पलक झपकते बूटी लेकर हनुमत जब वापस आये,
आनंदित हो रघुनंदन फिर अंतर्मन में मुस्काये।
बूटी का पाकर प्रभाव जब लक्ष्मण ने आँखें खोली,
जीवन के सब श्रेष्ठ सुखों से राघव ने भर ली झोली।
लगा हृदय से लक्ष्मण को तब राघव ने जीवन पाया,
खग मृग सब जो भूल चुके थे आनंदित जीवन गाया।
तन मन जीवन ऋणी रहूँगा सोई किस्मत जागी है,
हनुमत तुम सा सखा मिला है राम यहाँ बड़भागी है।
हर्षित कण-कण हुआ धरा का प्रकृति ने जीवन पाया,
राम काज सम्पूर्ण किया हनुमत ने भी वचन निभाया।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07जून, 2025