मन पलाश वन

मन पलाश वन

मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा,
कैसे छूटा नेह जगत का तन उदास मन कैसे रूठा।
मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा।

सोचा था मन ने जीवन में निज आहों का धर्म बहुत है,
समझा था के तन मधुवन में निज साँसों का मर्म बहुत है।
लेकिन शब्दों की माया में उलझा जीवन ऐसे रूठा,
बड़ी दूर तक समझ न पाये मन का बंधन कैसे टूटा।

मत पूछो के पर्णकुटी से मन सुवास घन कैसे छूटा,
कैसे छूटा प्रेम जगत का तन उदास मन कैसे रूठा।

स्वर्णजड़ित सपनों के पीछे सच्चाई मन देख न पाया,
सुख निद्रा में ऐसे उलझे पीड़ा का मन देख न पाया।
सूखे होठों पर है आयी एक प्यास जब कहीं अभय की,
तब जाकर के हमने जाना होती है क्या चाह हृदय की।

मत पूछो के स्वर्णकुटी से मदिर आस धन कैसे छूटा,
कैसे छूटा मोह स्वर्ण का धन विलास मन कैसे रूठा।

बाहर का रण जीता हर पल भीतर का दुख समझ न पाये,
पुष्पक रथ पर बैठे ऐसे धूलों का सुख समझ न पाये।
दिशाहीन हो गयी जिंदगी ऐसे झंझाओं में उलझे,
मौन अकेले सरिता तट पर अपनी लहरों में ही उलझे।

मत पूछो के सरिता तट से लहर प्रेम मन कैसे छूटा,
कैसे छूटा मोह सरित का मन हताश प्रण कैसे छूटा।
मत पूछो के पंचवटी से मन पलाश वन कैसे छूटा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11जून, 2025

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