राम वनगमन व दशरथ विलाप
युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।।
जब स्वार्थ हृदय में छाता है संबंध बिखरने लगते हैं।
खुशियों से पहले अंतस को संताप जकड़ने लगते हैं।।2।।
दो वचनों का प्रण उधार है ये वक्त उचित है माँगूँगी।
पुत्र बने युवराज न जब तक मैं अन्न और जल त्यागूँगी।।3।।
हठ सुनकर के कैकेयी का दशरथ जी का मन डोल गया।
पैरों से धरती निकल गयी सर से भी अंबर डोल गया।।4।।
ऐसा स्वांग रचा विधना ने पल भर में उत्सव बिखर गया।
जो नभ खुशियों से गुंजित था पल भर में मातम पसर गया।।5।।
मान वचन का रखा पिता के सब आदेशों को मान लिया।
चौदह वर्ष रहूँगा वन में रघुवर ने मन में ठान लिया।।6।।
मनमाफिक वचन मिला जैसे कैकेयी मन में फूल गयी।
भरत के भ्रातृ प्रेम भाव को कैकेयी उस पल भूल गयी।।7।।
राजमहल में कुछ पल पहले खुशियों का पग-पग डेरा था।
यूँ वज्रपात सा हुआ वहाँ मातम का पसरा फेरा था।।8।।
सूनी हुई अयोध्या नगरी सूने-सूने आकाश गगन।
मद्धम हुआ दिवस का फेरा अरु मौन हो गयी आज पवन।।9।।
वल्कल वेश देख राघव का श्री दशरथ मन में क्षोभ हुआ।
क्यूँ ऐसा वचन दिया पत्नी को खुद पर इतना क्रोध हुआ।।10।।
व्यर्थ क्षोभ करते हैं राजन सौभाग्य मेरा वापस आया।
रघुकुल की है रीत सदा के प्राण त्याग कर वचन निभाया।।11।।
मात-पिता की आज्ञा पालन यही इस जीवन का मूल है।
अपने प्रण का धर्म निभाना यही धर्म ग्रन्थ का मूल है।।12।।
माता का आदेश पिताश्री किस विधि मैं अब करूँ अनसुना।
राम बड़ा किस्मत वाला है जो विधना ने है उसे चुना।।13।।
राम बिन जीवन व्यर्थ मेरा अब इसका है कुछ मोल नहीं।
बिना प्राण के देह रहेगी इन साँसों का कुछ मोल नहीं।।14।।
कितनी तप कितनी पूजा की तब जाकर तुमको पाया है।
बदनसीब दशरथ कितना जो विधना ने दिन दिखलाया है।।15।।
अपने पुत्रों में भेद किया इतिहास सदा धिक्कारेगा।
युगों-युगों तक हुई भूल पे जग मुझको ताना मारेगा।।16।।
अब उम्र के इस सांध्य पल ने ये कैसा दिन दिखलाया है।
कि पुत्र वियोग की इस पीड़ा ने मेरा दिल दहलाया है।।17।।
किधर जा रहे छोड़ मुझे यूँ राम दिखाओ मुझको सूरत।
तुम बिन अब पाषाण देह है निर्जीव शिला की है मूरत।।18।।
कौन मेघ में छुपे हुए हो अब पास पुत्र तुम आ जाओ।
तपती धरती है जीवन की कुछ बूँदें तो बरसा जाओ।।19।।
जीवन के इस अंतिम क्षण में मुझ पर बस इतनी दया करो।
तोड़ो वंश की सभी परंपरा आकर मेरी बाँह धरो।।20।।
पुत्र वियोग की इस पीर को मैं और नहीं सह पाऊँगा।
यदि मुख राम का न देख सका तो प्राण यहीं तज जाऊँगा।।21।।
कौन सा वन मुझे बतलाओ गया जहाँ राम पियारा है।
सूना करके अवध धरा को अब किस वन राम सिधारा है।।22।।
राम अकेले नहीं गया है संग-संग सीता प्यारी है।
जीवन के अंतिम बसंत में ये किस्मत मुझपर भारी है।।23।।
क्या सोचेंगे जब जानेंगे जनक मिरे निर्णय को सुनकर।
जिस घर ब्याही जनक नंदिनी कैसे घर वो हुआ भयंकर।।24।।
गया लक्ष्मण प्रिय भी साथ में धिक्कार मुझे इस जीवन पे।
निर्जीव हो चुका गात मेरा अब प्राण नहीं है इस तन में।।25।।
मेरे नयनों की पुतली से ज्योति कहीं खोती जाती है।
भोर दिवस हो सांध्य रात हो बेचैनी बस तड़पाती है।।26।।
कितना बेबस हुआ आज मैं अब मेरा कुछ आधार नहीं।
कहने को बस मैं नरेश हूँ पर मेरा कुछ अधिकार नहीं।।27।।
कौन जनम की सजा मिली हाय विधना ने क्या खेल खेला।
इतने बड़े जगत में दशरथ हाय हो गया आज अकेला।।28।।
इक त्रिया के जाल में फँसकर अपनी साँसों को त्यागा है।
कोई कहे ब्रह्याण्ड में मुझसा भारी कौन अभागा है।।29।।
नहीं पता था मुझको मेरा बड़बोलापन तड़पायेगा।
ये पत्नि मोह का अंधापन ऐसा दिन भी दिखलायेगा।।30।।
मुझसे मेरा सबकुछ लूटा यूँ बेबस कर मुझको मारा।
जाने किसकी नजर लगी है किसने मेरा मान उजाड़ा।।31।।
राम बिना अब कैसा जीना क्यूँ धरा नहीं फट जाती है।
हाय अभागा कितना हूँ मैं कि मृत्यु भी मुझे सताती है।।32।।
जिसके चलने से देव दनुज नर किन्नर शीश झुकाते हैं।
किन कर्मों की सजा मिली है सब मुझसे मार्ग बराते हैं।।33।।
इन नैनों से कह दो कोई जग और न अब मैं देखूँगा।
काल कोठरी ही जीवन है अब अंधकार ही भोगूँगा।।34।।
ऊब चुका हूँ इस जीवन से अब बिना राम के क्या जीना।
जब जीवन ही विष बन जाये फिर घूँट-घूँट क्यूँ कर पीना।35।।
फूलों पर जो पाँव चले हैं क्या काँटों पर चल पायेंगे।
मखमल बिस्तर पर सोते थे वो कैसे रात बितायेंगे।।36।।
मखमली बिछौने राजमहल के सब बिना राम के चुभते हैं।
किसे दिखाऊँ घाव यहाँ मैं साँसें भी मन को दुखते हैं।।37।।
लाड़ प्यार से पली महल में जनक दुलारी प्यारी सीता,
धिक्कार मुझे आज स्वयं से तोड़ा मैंने मान सभी का।।38।।
बड़ी बेहया देह हुई है अब बिना प्राण के ये तन है,
बड़ी बेशरम जान हुई ये जो बिना राम के अब तक है।।39।।
रात दिवस अब नहीं सुहाते अब वक्त नहीं ये कटता है,
कितना पत्थर दिल है मेरा इस दर्द पे भी न फटता है।।40।।
चाह नहीं जीने की मुझको है मेरा जीवन घट रीता,
मुझे बता दो कहाँ छुपे हैं राम लखन मेरी प्रिय सीता।।41।।
अंतिम पल है इस जीवन का अब मुखड़ा तो दिखला जाओ,
अंतिम इच्छा इस जीवन की विधना इतना मत तड़पाओ।।42।।
मेरा जीवन मेरा सबकुछ हो साँस-साँस तुम प्राण-प्राण,
अंतिम दरस दिखा दो मुझको राम तुम्हीं मेरे भगवान।।43।।
कहाँ छोड़ कर दूर जा बसे अब तो आओ राम पियारे,
यूँ कहते-कहते राम-राम दशरथ जी सुरधाम सिधारे।।44।।
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