आज के आगोश में खुद को न देखा

आज के आगोश में खुद को न देखा

एक अनुमानित हृदय की कामना बन
आस के अनुप्रास के अहसास में हम
भूत की पगडंडियों में मात देखा
अंक में जो प्राप्त था उसको न देखा
मौन कल की भीड़ में खुद को तलाशा
मौन सम्मुख भीड़ में वो था सुना सा
जो नजर के सामने उसको न देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

हाथ से जाने लगा अपना समर्पण
जब हृदय में रह सका न मन का दर्पण
शून्य में भटकी इरादों को कियारी
जब समय के अंक तड़पी मन बिचारी
स्वयं को हमने दिया झूठा दिलासा
बंद था लेकिन लगा हमको खुला सा
स्वयं के अहसास में खुद को न देखा।
आज के आगोश में खुद को न देखा।

जब वो हथेली से कहीं झरने लगी 
बन बूँद बारिश कोर से गिरने लगी 
मौन पलकों को वहाँ कितना सँभाला
दर्द के आभास को पल-पल निकाला
हम खोजते रह गये कितनी हताशा
चल रहा लेकिन लगा कुछ-कुछ रुका सा
स्वयं के दर्पण में खुद को ना देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

थम गये सभी रास्ते मंजिल न आई
उम्र भर चलते रहे पर मिल न पाई
अब प्रतीक्षा बन गयी मन की उदासी
भोर को भी अब लगी आने उबासी
अब करे किससे शिकायत मन यहाँ पर
कौन जाने मन गिरा जाने कहाँ पर
यूँ वक्त में उलझे कि न फिर उम्र देखा
आज के आगोश में खुद को न देखा।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06 जून, 2025

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