केसर की पीड़ा
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
क्यूँ लहुलुहान है धरती सारी आँखों मे अंगारे हैं,
स्वर्ग धरा पर कहते जिसको क्यूँ आज वहाँ अँधियारे हैं।
संविधान की धाराओं पर कैसी अड़चन आयी है,
टेसू की धरती पर छाई कैसी ये काली परछाई है।
जहाँ धरा पर सूर्य प्रथम आ नया उजाला देता है,
उसी धरा पर मानवता का किसने गला लपेटा है।
टेसू के फूलों का क्रंदन कब तक दिल दहलायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
वो कश्मीर जहाँ की वादी में खुशियाँ खन-खन करती है,
क्यूँ आज वहाँ की वादी में मानवता पल-पल मरती है।
कश्मीर जहाँ के नदियों का पानी कल-कल बहता है,
आज वहाँ की धरती पर आतंकी मनमानी करता है।
जब तक ऋषियों की धरती पर इक भी आतंकी जिंदा है,
तब तक भारत संविधान की सभी धारायें शर्मिंदा है।
ऋषि मुनियों की तपो भूमि ये कब तक अश्रु बहायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
आखिर कब तक कायरता की ये खेती बोई जायेगी,
निर्दोषों के खूँ से कब तक ये होली खेली जायेगी।
आखिर कब तक कश्मीर हमारा ये मनमानी झेलेगा,
ए के छप्पन की गोली का ये घाव कहाँ तक झेलेगा।
क्या निर्दोषों के जीवन का सचमुच अब कोई मोल नहीं,
पोंछ सके जो अश्रु यहाँ पर क्या ऐसा कोई बोल नहीं।
भारत माँ के आँचल को चीखें कब तक यूँ दहलायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
अब मैं घाटी के आँसू से जन गण मन गाने निकला हूँ,
मैं उठा कलम को आज यहाँ पर अलख जगाने निकला हूँ।
कब तक केसर की क्यारी में बंदूक उगाया जायेगा,
अरु कब तक झेलम की लहरों में लहू बहाया जायेगा।
कब तक वोटों की फसलों से संसद को आबाद करेंगे,
आतंकी से मानवता कर भारत को बर्बाद करेंगे।
जो लहू बहेगा झेलम में तो खुशियाँ भी बह जायेंगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
भारत के टुकड़े के नारे जब तक गलियों में गूंजेंगे,
चौराहों पर हत्यारों को वोटों की खातिर पूजेंगे।
कब तक घाटी की गलियाँ यहाँ खून की होली देखेगी,
कब तक मासूमों के सपनों को बंदूकें ये रौँदेंगी।
कब तक यूँ ही बिरयानी देकर आतंकी को झेलेंगे,
कब तक भीतरघाती को यूँ ही मुफ्त खिला कर झेलेंगे।
क्या मासूमों की चीखें यूँ ही अंतस को तड़पायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा कब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
बहुत हो चुका खेल मेज का अब तो सम्मुख आना होगा,
न हो प्रतीक्षा परशुराम की अब राष्ट्र धर्म निभाना होगा।
पास बुलाकर साथ बिठाया लेकिन कुछ भी परिणाम नहीं,
अब तो कुछ ऐसा हो जिसका हो उनको भी अनुमान नहीं।
समझौतों के संग-संग अब अलग मार्ग अपनाना होगा,
जैसी भाषा में जो समझे वैसा ही समझाना होगा।
युद्ध जीत कर समझौते की यदि मेज सजाई जायेगी,
केसर की क्यारी की पीड़ा तब तक मन को यूँ तड़पायेगी।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24 अप्रैल, 2025
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