प्रभु राम बिना भोर न होगी मन अंधकार गहराता है।।1।।
जिस भाई का हाथ पकड़ कर अब तक ये जीवन बीता है।।
उसके वन जाने से मेरा ये जीवन घट सब रीता है।।2।।
बिना राम के राज महल ये सब सूना-सूना लगता है।।
अपनी ही परछाईं रूठी अब दर्पण मुझ पर हँसता है।।3।।
ऐसा लगता आज भरत को ये जीवन छूटा जाता है।।
अपनी ही साँसों से तन का हर बंधन टूटा जाता है।।4।।
जो ऐसे ही यदि मौन रहा तो टूट बिखर मन जाता है।।
ये साँस अलग हो जाती है बस निष्क्रिय तन रह जाता है।।5।।
मन ही मन में किया सुनिश्चित अब चित्रकूट वो जायेंगे।।
पाँव पकड़कर मिन्नत करके आराध्य को अवध लायेंगे।।6।।
गये कक्ष माँ कौशल्या के उनको मन का हाल सुनाया।।
अपने मन की बात बताई और प्रयोजन भी समझाया।।7।।
ले आशीष सुमित्रा माँ का गुरुजन से मन की बात कही।।
सब प्रातः चित्रकूट जाएंगे रहते हैं मेरे नाथ वहीं।।8।।
माँ कैकेई भी चली साथ में प्रभु को आज मनाने को।।
भूल हुई जो क्षमा माँगने अरु पश्चाताप जताने को।।9।।
हाथ जोड़ सब जतन करूँगा मैं चरणों मे
गिर जाऊँगा।।
जिस विधि मेरे प्रभु मानेंगे मैं उस विधि वहाँ मनाऊँगा।।10।।
आज अवध की रात बड़ी थी कब चित्रकूट भी सोता था।।
हूक हृदय में उठती प्रभु के अंदर-अंदर मन रोता था।।10।।
हो रात भले ही लंबी कितनी आँखों में कट जाती है।।
अपनापन हो मृदुल भाव हो तो दूरी सब मिट जाती है।।11।।
संबंधों के गणित जटिल है पर जोड़ नेक ही होता है।।
दो अरु दो मिल चार भले हों पर यहाँ एक ही होता है।।12।।
नवप्रभात की नव किरणों में नव आशाओं का मंथन है।।
आज हमारे राम मिलेंगे हर एक हृदय में गुंजन है।।13।।
टूट गये सारे जग बंधन सम्मुख आये जब दो भाई।।
शुष्क धरा पर बूँदें बरसीं पतझड़ में कलियाँ मुसकाई।।14।।
देख भरत को सम्मुख अपने प्रभु सुध बुध अपनी भूल गये।।
नेत्र सजल यूँ हुए राम के बस भ्रातृ प्रेम में झूल गये।।15।।
दोनों मुख पर भाव एक था झर-झर अश्रु बहे जाते थे।।
मौन अधर थे दोनों के पर नेत्र से सब कहे जाते थे।।16।।
भाई से भाई का रिश्ता सबसे पावन कहलाता है।।
तन दूर रहे चाहे जितना मन दूर कहाँ रह पाता है।।17।।
क्षमा करें हम सबको भैया जो ऐसा अपराध हुआ है।।
प्रभु मेरी इक नादानी से आज अवध बर्बाद हुआ है।।18।।
आत्म ग्लानि से पीड़ित हूँ प्रभु कैसे मुख दिखलाऊँ मैं।।
अंतर्मन की क्लांत व्यथा को प्रभु कैसे यहाँ बताऊँ मैं।।19।।
शब्द नहीं है पास मेरे किस मुख से करूँ क्षमा याचना।।
अवध लौट कर राज्य सँभालें करता हूँ मैं यही प्रार्थना।।20।।
सुनी भरत की करुण याचना प्रभु नेत्र अश्रु से भींग गये।।
देख भरत के भोलेपन को मन ही मन प्रभु रीझ गये।।21।।
उठा भरत को गले लगाया हाथों से आँसू को पोंछा।।
आसन देकर पास बिठाया मंगल कुशल अवध का पूछा।।22।।
धरा अवध की सूनी-सूनी जन मन में भी होश नहीं है।।
बेमन बहती पौन अवध में सूरज में भी जोश नहीं है।।23।।
सरयू का पानी मद्धम है चंचलता सब खोई-खोई।।
तट सरिता का सूना-सूना लहरें भी हैं खोई-खोई।।24।।
उपवन में अब पुष्प न खिलते पंछी कलरव भूल चुके हैं।।
सुबह सांध्य के अंतर सारे अवध निवासी भूल चुके हैं।।25।।
इतने दिन तक वचन निभाया अब घर को लौट चलें भगवन।।
बिना आपके शून्य भरत है ज्यूँ बिना प्राण के होता तन।।26।।
जो अपराध किया है माँ ने तो मैं भी तो अपराधी हूँ।।
मात-पिता से हुई भूल है मैं बड़े दंड का भागी हूँ।।27।।
लखन कहो तुम ही भैया से क्यूँ बात नहीं मेरी सुनते।।
मैं भी तो छोटा भाई हूँ विनय नहीं क्यूँ मेरी सुनते।।28।।
इन चरणों की सेवा के बिन दूजा मेरा काम नहीं है।।
मेरे इष्ट जहाँ जायेंगे मेरे चारों धाम वहीं हैं।।29।।
शीश नहीं है हाथ पिता का आप हमारे पिता तुल्य हो।।
जो साँसों का मूल्य देह में प्रभु जीवन का वही मूल्य हो।।30।।
बस एक बार विनय सुनो प्रभु मैं और नहीं कुछ माँगूँगा।।
मुझे क्षमा यदि नहीं किया तो मैं ये प्राण चरण में त्यागूँगा।।31।।
उठा भरत को गले लगाये बोले प्रभु ये स्थान नहीं है।।
मात-पिता का वचन न मानूँ ऐसा स्वार्थी राम नहीं है।।32।।
क्या ये जगत कहेगा मुझको अपने सुख के लिया जिया हूँ।।
मान वचन का रखने का बस मैं ये केवल स्वांग किया हूँ।।33।।
चौदह बरस बीत जायेंगे यूँ चुटकी में प्रिय क्लांत न हो।।
विधना ने ये लेख लिखा है प्रिय अपने मन को शांत रखो।।34।।
कितना अच्छा अवसर है जो मेरे जीवन में आया है।।
जन-जन के मन की जानूँ मैं विधना ने पंथ सुझाया है।।35।।
यूँ अधीर क्यूँ होते हो प्रिय अपने मन को तुम समझाओ।।
मुझको धर्म निभाने दो प्रिय तुम भी अपना धर्म निभाओ।।36।।
सुन रघुवीर भरत जी बोले आदेश मुझे शिरोधार्य है।।
अपना धर्म निभाने को अब सहर्ष भरत अब तैयार है।।37।।
बस मेरी विनती मानें प्रभु मैं और नहीं कुछ माँगूँगा।।
आप अवध को लौट चलें वन में चौदह बरस बिताऊँगा।।38।।
लखन भ्रात तुम ही कुछ बोलो भैया को कैसे समझाऊँ।।
कोई जतन उपाय बताओ किस विधि प्रभु को आज मनाऊँ।।39।।
जो आदेश पिता का है तो प्रिय लखन बात मेरी मानो।।
आप अवध के राजा हैं सिंहासन पर अधिकार आपका।।
चौदह बरस रहूँगा वन में
मत समझो कि सजा मिली है कहो मुझे सौभाग्य मिला है।।
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