रस्ता दूर निकल जाये
जीवन के इस पुण्य पंथ में दो चार कदम आ चलो चलें,
कौन मोड़ पर कब जाने कोई रस्ता दूर निकल जाये।
कौन अकेला चला डगर में साथ चली है परछाईं,
मंजिल की आहट पर देखा निज सपनों की पुरवाई।
अपनों का आलोड़न पाकर सपने मन के खूब खिले हैं,
साथ चले जब यहाँ डगर में अंतर्मन भी खूब मिले हैं।
नयनों में सपनों को लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के नयन कोर का कोई सपना कब छल जाये।
दो स्नेह शब्द अधरों पर आये उम्मीदों को पंख दे गये,
संबंधों के महा जलधि में नूतन इक अनुबंध दे गये।
लेकिन जो पग चले नहीं हैं साथ डगर में इस जीवन के,
क्या जानेंगे पग के रिश्ते कैसे पनपे मन उपवन के।
स्नेह शब्द अधरों पे लेकर दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के शब्द चयन में कौन भाव मन को खल जाये।
पुरवा के झोंकों में घुलकर सपनों को वरदान मिला है,
सपने जब होठों पर आये गीतों को सम्मान मिला है।
शब्द-शब्द जब बाँधा हमने गीत सुनहरे रचे यहाँ पर,
छंद भंग जो हुए कहीं तो भाव न जाने गिरे कहाँ पर।
गीतों को सम्मानित करने दो चार कदम आ चलो चलें,
क्या जाने के कौन बंध में गीतों की मात्रा गिर जाये।
हम माना साथ नहीं चल पाये पर सूनी कब ये हुई डगर,
बिछड़े संगी साथी कितने ये राह मगर हो गईं अमर।
कुछ दूरी तक साथ चले जो उन्हें मिला जीवन का स्वाद,
जिनसे छाँव मिली है पथ में हर उस राही को धन्यवाद।
कुछ पल को छाया बन जायें दो चार कदम आ चलो चलें,
कब जाने के कहाँ छाँव में खोया जीवन पथ मिल जाये।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10 अप्रैल, 2025
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