रोते-रोते मुस्काता हूँ
उर पीड़ा के मौन अंश जो, नयन कोर में रहते प्रतिपल,
जो स्थापित मन के भावों को, चुभते बनकर अभिशापित दल।
बूँद नयन से चरण पखारूं, मैं आहों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।
साँसों से साँसों का बंधन, है आह-आह का अनुबन्धन,
निज हृदय सृजित स्मित भावों का, हिय पीड़ा का कैसा क्रंदन।
आँसू के दो चार कणों से, मैं तप्त हृदय नहलाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।
दुर्बल मन के कुछ सपनों का, जाने कैसा ये चढ़ाव है,
बिखरे मोती मनके सारे, कैसा मन का ये दुराव है।
बिखरे मनके मोती चुनता, मन ही मन को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।
कुछ सपनों के मर जाने से, रिश्तों में कैसी परवशता,
एक कोख से जन्मे मन में, कैसी लघुता कैसी गुरुता।
अंतर्मन के कोर में बसे, पाषाणों को समझाता हूँ,
रोते-रोते मुस्काता हूँ।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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