चीखती है रात सारी भोर का पता नहीं,
खो गए हैं रास्ते अब ठौर का पता नहीं।
आँधियों के शोर में खो गया प्रकाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।
पंछियों के घोसलों में चीखती है जिंदगी,
जंगलों में रास्तों में टूटती है बन्दगी।
पंछियों के आँसुओं में दिख रहा विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।
मूक दर्द रास्तों पे कर रही है याचना,
भर के अश्रु नैन में कर रही है प्रार्थना।
बेजुबां की जिंदगी में कैसा ये विनाश है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।
शोर है गली-गली मौन पर नगर यहाँ,
साँस-साँस रो रही हादसों का डर यहाँ।
ज़िंदगी यूँ जल रही है मौत भी उदास है,
ये कौन सा विकास है, ये कौन सा विकास।
©✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08 अप्रैल, 2025
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