भारत के आगे तड़पेगा।

भारत के आगे तड़पेगा 

चीन हों या पाकिस्तान
कभी भी भारी न होते,
यदि भारत की भूमि में
छुपे हुए गद्दार न होते।

राष्ट्रवाद व राष्ट्रभक्ति का
जो भी मजाक  बनाते हैं
वो अपना परिचय देते हैं
खुद  का  मान गिराते हैं।

भारत की विदेश नीति  पर 
जो  आज  प्रश्न   उठाते  हैं
उनसे  बस इतना कहना है
वो भारत का पक्ष घटाते हैं।

युद्ध भूमि में हरदम भारत
मजबूती   से   डटा    रहा
पर मेजों और समझौतों में
धोखेबाजी  से  छला  रहा।

दुश्मन छाती पर बैठा हो
उसे  गीत  नहीं सुनाते हैं
जो  जैसी  भाषा  समझे 
तब वैसा ही समझाते हैं।

पीठ पे जिसने खंजर  घोंपा
वो  पंचशील क्या  समझेगा
दुश्मन ताकतवर कितना हो
भारत   के   आगे  तड़पेगा।

भारत का भूगोल अटल है
कोई  इसे क्या  छू  पायेगा
इसकी  सरहद जो लांघेगा
वो      पाछे     पछतायेगा।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
            हैदराबाद
            18जून,2020

जैसा कर्म वैसा फल।

जैसा कर्म वैसा फल।  

क्यूँ रूठते हैं लोग जो हरदम पास रहते हैं
छोड़कर दामन अलग क्यूँ जा निकलते हैं।।

जिंदगी की राह में धूप भी है छांव भी
छांव में दिखते सभी धूप में क्यूँ बिखरते हैं।।

हार-जीत का सिलसिला निर्बाध चलता है 
फिर हार पर अपनी, कोई क्यूँ बिफरता है।।

जीवन के खेल में नित नए खिलाड़ी मिलते हैं
कुछ छूट जाते बीच में, कुछ दूर तक चलते हैं।।

शब्दों के है मोल यहां, शब्द ही प्रतिमान हैं
फिर जाने लोग क्यूँ, कह कहकर मुकरते हैं।।

दौलत-शोहरत सभी, ताउम्र कब चले यहां
चाह में इनकी फिर कैसे अपने बिछड़ते हैं।।

जीवन ये मंचन है, हम सभी किरदार हैं
जैसी जिसकी भूमिका, वैसे फल मिलते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17जून,2020

उचित न्याय सबका अधिकार।

उचित न्याय सबका अधिकार।   

अत्याचार  जब  भी  बढ़ता  है
अन्याय जब सिर पर चढ़ता है
नैतिकता  के  उचित  पंथ  की
तब  न्याय  ही  रक्षण करता है।

जब बेमानी बढ़ जाती है
जब मानवता घट जाती है
शोषण जब बढ़ जाता है
कानून  सहारा  होता  है।

न्यायालय  के  चौखट  पर 
वकील का आश्रय मिलता है
उसकी  उचित  दलीलों  से
न्याय  सुनिश्चित  होता  है।

विवाद कहीं बढ़ जाता है
सुलह सभी रुक जाता है
जब और हल नहीं मिलता है
तब द्वार कोर्ट का दिखता है।

तब कोर्ट फैसला करता है
अधिकार सुरक्षित करता है
झूठ व सच के कुरुक्षेत्र में
सत पक्ष सुरक्षित करता है।

जब कानून फैसला करता है
निष्पक्ष भाव वो रखता है
न्यायालय  के  प्राँगढ़  में
तब न्याय बराबर मिलता है।

लोकतंत्र   के    स्तंभों   में
इसकी  अहम  भूमिका  है
कानून व्यवस्था निर्भर इसपर
ये लोकतांत्रिक व्यवस्था है।

न्याय सही हो, पुण्य  मार्ग हो
सुदृढ  व्यवस्था  समभाव  हो
न्यायालय  की   चौखट  पर
शीघ्र, प्रभावी, उचित न्याय हो।

न्याय सभी के लिए जरूरी
लोकतंत्र  की  आशा  पूरी
ये सभी की आवश्यकता है
जरूरी विधिक साक्षरता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जून, 2020

तुमको लेकिन खबर नहीं थी

तुमको लेकिन खबर नहीं थी।

अब क्या बतलाऊँ मैं तुमको
तुम  बिन  कैसे  रहती  थी
याद तुम्हें करती थी पल पल
ना  सोती  ना  जगती  थी।
तेरी  ही  बातें  करती  थी
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

गीत  न  जाने  कितने  बुनती
खुद ही पढ़ती, खुद ही सुनती
कैसे  अब  बतलाऊं  तुमको
तुझमें  ही  खोई  रहती  थी।
तुझसे ही खुशियां सारी थीं
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

आंखों  के  पैमाने  छलके
मोती बनकर हरपल ढलके
तेरी  ही  राहें  तकती  थीं
तुझको ही खोजा करती थीं।
देख  तुझे  मैं  जीती  थी
तुमको लेकिन खबर नहीं थी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद।   
       13जून,2020


नन्हें पांव।


नन्हें पांव।   

नन्हें-नन्हें पांवों की आहट
कितने स्वप्न नए जगाती है
अंतः आह्लादित हो जाता
एहसास नए जगाती है।।।

जीवन का सुनापन भरता
घर-आंगन उपवन सा खिलता
उसके आने की हलचल से
नया रूप, नया जीवन मिलता।

नन्हें-मुन्ने की किलकारी
खुशियां नई जगाती है
पीड़ामुक्त लगता तब जीवन
अंतरतम तक महकाती है।

देखे उसका रूप सलोना
अवसाद सभी छंट जाते हैं
नन्हें-नन्हें पांवों की आहट
जीवन में जब आते हैं ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जून,2020

मुखर सत्य।

        मुखर सत्य।

तुम ही थे क्या कुछ कहे थे
शब्द सुविधा के गुहे थे
खुद तुम्हें नहीं याद शायद
घाव कितने हम सहे थे।।

मात्र सुविधा के लिए यहां
आरोप था तुमने मढ़ा
झूठ का घेरा बनाकर
फिर भाव था उसमें गढ़ा।

झूठ तुम्हारी हर बात में
झूठ था हर व्यवहार में
झूठ की थी चादर बुनी
झूठ था हर जज्बात में।

पर सत्य के होते मुखर
आरोप गए सारे बिखर
दृष्टांत एकदम साफ था
दृश्य गए तब सारे निखर।

जो सत हो तो अटल रहो
मार्ग पर तुम अविचल रहो
अवरोध अगणित और हैं
निर्बाध तुम चलते रहो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09जून, 2020



फिर नई शुरुआत कर देंगे।

फिर नई शुरुआत कर देंगे।   

रुक गयी है सब ज़िंदगी
बंद हो गयी सब बंदगी
टूटता है अब सब्र सारा
थम गई है सब ज़िंदगी।

ज़िंदगी की राह को हम
सब रोशन पुनः कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

माना हैं सब बंद गलियां
कैद उपवन, कैद कलियाँ
जल्द ही सब मुक्त होगा
खिलखिलायेंगी ये गलियाँ।

गली के हर इक मोड़ को
फिर आबाद हम कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

नियति का है खेल सारा
दनुजता का दोष सारा
हो किसी की भूल चाहे
या अधम व्यवहार सारा।

यदि हमारी भूल है तो
फिर हम सुधार कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

माना के तम घनघोर है
दिखता न कोई छोर है
खो रहे हैं धीरज सभी
पर तू नहीं कमज़ोर है।

निराशा की इस रात को
हम रोशन पुनः कर लेंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

फिर से चहकेंगी ये गलियां
मुस्कुराएँगी सारी कलियाँ
फिर छटेंगे अवसाद सारे
फिर मिलेंगे दोस्त, सखियां।

हम उस आशा के दीपक
को कभी बुझने न देंगे
न तनिक घबराओ प्यारे
फिर नई शुरुआत कर देंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जून,2020




दोहे व छंद

दोहे व छंद

🕉️🚩🌸🌸🌸🚩🕉️
राम नाम की धुन लगा, राम नाम की प्यास।
माया-मोह बिसराई, कर राम नाम की आस।।1।।

संकट का है ये समय, धैर्य का है मान।
शांत चित्त बर्ताव से,बनेंगे बिगड़े काम।।2।।

 आपद के इस काल में, वचन बड़े अनमोल,
 भावों को शीतल करे, ऐसी बोली बोल।।3।।
 
बिखरी किरणें भोर की, दूर सब अंधकार।
मन में सुगढ़ भाव जगे, सुंदर सब  व्यवहार।।4।।

मन से सब कटुता मिटे, सुंदर जग परिवार।
राग-द्वेष भाव छंटे, मिले ज्ञान आधार।।5।।

जीवन इक संग्राम है, चलता रहता युद्ध।
सुगम इसको करना है, कर ले मन को शुद्ध।।6।।

भांति भांति के लोग हैं, भांति भांति के  भाव
जैसा जिसका भाव है, मिलती वैसी  छांव।।7।।

बादल से बारिश गिरे, बन कर के संगीत
रिमझिम बारिश बूंद ने, भर दी दिल में प्रीत।।8।।

भींगा भींगा मन यहां, भींगा गया है तन
नदिया, नाले सब भरे, हर्षाया जन गण मन।।9।।

बादल से बिजली गिरे, खूब मचाये शोर
मौसम का रुख देख के, नाचन लागे मोर।।10।।

सावन आया झूम के, बरसी प्रेम फुहार
बारिश की हर बूंद से, स्वर्णिम वंदनवार।।11।।     

झूठा धन का मोह है, झूठा सब अभिमान
झूठा पद  से नेह  है, झूठा  है  अतिमान।।12।।

राम बनाई देह है, ना करो साभिमान
अंत समय मिट जाएगा, रहता बस सम्मान।।13।।

मात-पितु की सेवा से, बनते बिगड़े काम,
जो करते अपमान वो, ना पाते सम्मान।।14।।

चक्की चलती जाये है, नहि करती आराम,
निःस्वार्थ सबहि तारती, तब पाती सम्मान।।15।।

है यही अरज हमारी ,हँसता रहे जहान
अपने नेक कामों से, सब जन पाएं सम्मान।।16।।

बैर भाव सब खतम हो, खतम सारे अवसाद,
मिलजुल कर के सब रहें,जीवन बने महान।।17।।

धीरे धीरे सुबह हुई, जग गयी जिंदगी,
अंधकार सब दूर हुए,शुरू हुई बंदगी।।18।।

तुम भी सब आलस्य त्यजो, सुमिरो प्रभु का नाम
जीवन है इक पुण्यपंथ, पूरन कर सब काम।।19।।

सूरज से सीखो सदा, रहना तुम गतिमान।
जीवन की इस दौड़ में,गढो नए प्रतिमान।।20।।

जीवन इक संगीत है, मिल सब गाओ गान।
एक दूजे में प्रेम हो, कहीं न हो अभिमान।।21।।

चलती रहती जिंदगी, चलता रहता काम।
इक पल जो भी रुक गया, रुक जाते सब काम।।22।।

जीवन चक्की जांत की, हर पल चलती जाए।
जैसी मुटठी कर्म की, वैसी पिसती जाए।।23।।

मनवा प्यासा प्रेम का, घट घट भटकत जाय।
जिस ठौर पर प्रेम मिले, वो ही का हो जाय।।24।।

मनवा में जो बैर हो,स्थिर नहिं हो पाए।
प्रेम भाव मन में बसे,जनम सुफल हो जाय।।25।।

सब जन हैं शंकित यहां,मन में है संताप।
प्रेम भाव से सब मिलो, घटे त्रास अभिषाप।।26।।

जीवन है गुरुकुल यहां,नित नव पाठ पढ़ाए।
जैसा जो भी देखता, वैसी राह दिखाए।।27।।

मनवा का सब खेल है, मनवा का अनुबंध।
मनवा से ही प्रीत है, मनवा से संबंध।।28।।

प्रेम प्यार की लौ जले, मन में हो विश्वास।
सबमें सौहार्द्र भरें, आओ रचें इतिहास।।29।।

मन में कभी न राखिए, लोभ क्रोध मद मोह।
ज्ञानी जन सब कह गए, इनसे बाढ़े द्रोह।।30।।

बुद्धि, विवेक, धैर्य, बल, जीवन के हथियार।
इनसे ही सम्मान है, होता जग उजियार।।31।।

शब्द सभी अनमोल हैं, धरो शब्द का ध्यान।
शब्दों से ही होत हैं, मान और अपमान।।32।।

हिल मिल कर यदि सब रहे, बढ़े प्रेम व्यवहार।
घर में तब सुख शांति हो, फैले कीर्ति अपार।।33।।

है छोटी सी बात ये, कहे सभी ऋषि राज।
इन्द्रिय जो वश में करे, करे जगत पर राज।।34।।

अपने मन विश्वास भर, शुरू करो सब काम।
हर मुश्किल आसान हो, बढ़े जगत में नाम।।35।।

मेहनत से न भागिए, इसके बिन सब व्यर्थ।
नहीं कहीं सम्मान मिले, मिट जाते सब अर्थ।।36।।

निश्चय से जो प्रीत है, निश्चित हरपल जीत।
निश्चय से सबकुछ मिले, निश्चित मन का मीत।।37।।

सुंदर जग संसार है, सुंदर जग का रूप।
खिली कहीं पे छांव तो, कहीं खिली है धूप।।38।।

घट घट बसता प्रेम जब, सजता तब संसार।
प्रेम बिना कब चल सके , कोई भी व्यापार।।39।।

भटका मन संसार में, पाता कभी न चैन।
ज्यूँ आंँखों में नींद बिन, कटे नहीं ये  रैन।।40।।

भटका मन संसार में, पाता कब अधिकार।
जो मन को वश में करे, पाए सिद्धि अपार।।41।।

✍️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      

गुलमोहर


        गुलमोहर।      

गुलमोहर की छांव तले
एक गीत सुनाने आया हूँ
भूली बिसरी उन यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

दिन माना कितने बीत गए
पर याद तुम्हारी बनी रही
इक दूजे से हुए दूर भले
पर छाँह तुम्हारी बनी रही।

उन छाहों की अंगनाई में
फिर सुस्ताने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

लिखना था पर शेष रह गये
कहना था संवाद खो गए
अतृप्त तृष्णा भावों में भर
इक दूजे से दूर हो गए।

शेष उन्हीं संवादों को
फिर आज सुनाने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज जगाने आया हूँ।

दबी थी जो मन में तू कह ले
खुल कर आज खुद से मिल ले
पुनः आज फिर चूक गयी तो
न जाने कब ये पुष्प खिलेंगे।

फिर गुलमोहर की शाखों को
मैं दहकाने आया हूँ
भूली बिसरी यादों को
फिर आज सुनाने आया हूँ।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून,2020

इंसानों सा जीना होगा।

इंसानों सा जीना होगा।  

कैसी दुनिया, कैसा शहर है
मन में कैसे इतना जहर है
मामूली परिहास की खातिर
किसने मचाया इतना कहर है।।

मानवता कब कहाँ खो गयी
शिक्षा-संस्कृति सब खो गयी
कैसा विष भर आया मन में
नैतिकता सब कहां खो गयी।।

इक बेजुबान भटका बस्ती में
बिन पतवार जैसे कश्ती में
लहरें पर घनघोर वहां थी
सुराख बने अगणित कश्ती में।

फल में भर बारूद खिलाया
वहशीपन का रूप दिखाया
बिन अपराध सजा पाई वो
मानवता का मान घटाया।

राग-द्वेष कुछ नहीं जानते
अपना-पराया नहीं मानते
इंसानों का सम्मान करते
सबको अपना दोस्त मानते।

कैसी ये दानवता आई
देख खुद दनुजता शरमाई
क्षत-विक्षत देखा होगा जब
उसकी भी आंखें भर आयी।

बेजुबान को खुले काटते
फल में भर बारूद खिलाते
मन में कितना पाप भरा है
दानवी व्यवहार दिखलाते।

सो रही  मनुजता सारी
सो गए शायद नर नारी
सो चुके संस्कार हैं सारे
भटक रही मनुष्यता बिचारी।

ऊपर बैठ देखता होगा
खुद से ही पूछता होगा
कैसे कैसे इंसान बनाये
अंतर्मन में सोचता होगा।

खुद से हमें पूछना होगा
मनुजता को खोजना होगा
आज अजय बनना है यदि
इंसानों सा जीना होगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जून,2020







मन को साफ करो।

मन को साफ करो।  

अपनी ताकत को पहचानो
नवनिर्माण की बात करो
टी आर पी का फेरा छोड़ो
भावनाओं का सम्मान करो।

आधुनिकता के नाम पर
नँगा बदन दिखाते हो
जनता की मांग बताकर
क्यों सबको भरमाते हो।

लाज कहां खो जाती है
जब भ्रम फैलाया जाता है
संस्कार और परंपरा का
उपहास उड़ाया जाता है।

कितनी कुंठा है मन में
जो ऐसा दिखलाते हो
भारत के इतिहासों को
तोड़ मोड़ बतलाते हो।

अश्लीलता नथुनों में बैठी
गंध नहीं क्या आती है
ऐसी लापरवाही से क्या
लाज नहीं तुमको आती है।

सस्ते साहित्यों की फंतासी
अनुचित व्यवहार जगाती है
मलिन विचार पनपता है
सुगढ़ता दफन हो जाती है।

गांव मुहल्ले की महिला को
कामुक तुम दिखलाते हो
कितनी गन्दी सोच तुम्हारी
ये सबको जतलाते हो।

वेब सिरीज के नाम पे 
ऐसा जाल बिछाया है
नैतिकता  तोड़ मोड़ के
कामुकता  फैलाया है।

क्या फूहड़ नग्नता में सबको
अभिव्यक्ति स्वतंत्रता दिखती है
धनलोलुपता में झुकते हो 
संस्कृति बर्बादी न दिखती है।

परिवार तुम्हारे भी अपने हैं
क्या तुम ये सब अपनाते हो
जो दिखलाते हो पर्दे पर
क्या घर में भी दिखलाते हो।

भारत के इतिहासों में
नारी हरपल पूज्य रही
स्थान बराबर था उसका
मिला कदम वो साथ चली।

नारी का योगदान तुम
कभी नहीं दिखलाते हो
धन-पिपासा इतनी क्यों
उसको भोग्या बतलाते हो।

बंद करो कुचक्र ये सारे
भ्रांतियां, अनैतिकता सारे
ऐसे बस व्यभिचार बढ़ेगा
टूटेंगी  नैतिकता  सारे।

यदि सच्चे हमदर्द हो तो
पहले मन को साफ करो
अश्लील प्रदर्शन को त्यागो
शालीन सोच स्वीकार करो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जून,2020









बाल कविता- इन्द्रधनुष से बचपन


इन्द्रधनुष सा बचपन।   

दूर गगन में मौसम न्यारा
इन्द्रधनुष निकला है प्यारा
रंग-बिरंगी छटा निराली
सतरंगी मोरों की आला।

आओ हिलमिल सारे आओ
सुन नन्हें, मुन्ने, प्यारे आओ
नभ का देखो रूप संलोना
रंग-बिरंगा जीवन पाओ।

ऊंच नीच की बेड़ी टूटे
राग-द्वेष सब पीछे छूटे
फूलों सा महके ये बचपन
प्रेम-प्यार की कोंपल फूटें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       02जून,2020

पलट जाई पासा

           पलट जाई पासा।                

काहें को भटके मनवा
काहें भरल बा निराशा,
चार दिन के जिंदगानी
फिर त पलट जाई पासा।

माटी के खोता में हौ
व्याकुल पंछी के बसेरा
दिन रात भटके इ सगरो
ढूँढे नया इक सवेरा।

दिनवा सिमटते सिमटते
आई सांझ ले बुढापा
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।

प्रीत के रस्ता पे चलि के 
आपन जिंदगी सुधार ल
हमर, तोहर चक्कर छोड़ा
सगरो के तू अपना ला।

चार कदम के हौ रास्ता
संगे कुछ नाही जा ला
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।

माया, मोह, लोभ में पड़ि
तू भटक रहे हो काहें
यहीं सारा रह जायेगा
तू अटक रहे हो काहें।

मनवा के निखार ला तू
छंट जाई सब कुहासा
राम नाम जप ले बंदे
फिर त पलट जाई पासा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जून,2020

राम नाम आश्वासन है।

राम नाम आश्वासन है।  

राम नाम अभिनंदन है
राम नाम अभिवंदन है
राम नाम अनुरंजन है
राम नाम अभिवादन है।

राम नाम संताप मिटाए
राम नाम सम्मान दिलाये
राम नाम श्वासों में समाए
जीवन का अभिप्राय बताए।

श्रद्धा हैं व्यवहार राम हैं
ऊर्जा के प्रवाह राम हैं
सारा जग निर्भर है जिनपर
आदर, निष्ठा, पर्याय राम हैं।

राजधर्म का सम्मान किया
सबकी इच्छा का मान किया
वचनों के मर्यादा खातिर
निज स्वप्नों का बलिदान किया।

सदा सत्य के मार्ग चले
सिद्धांतों के प्रतिमान चले
प्रेम-भाव, त्याग, समर्पण
निष्ठा और सद्भाव चले।

दुर्गम पथ पर सदा चले
वनवास में भी गए छले
कितनी ही बाधाएं आयीं
सत पथ से अपनी नहीं टले।

आंखों के सारे स्वप्न चले
पुण्य, प्रताप, सत्कर्म चले
युग-युग की सीमाएं तोड़ीं
रामपथ पर बस राम चले।

कितनी ही चिंताएं झेलीं
पग-पग पर विपदाएं झेलीं
कर्तव्य मार्ग पर चले सदा
लाख भले शंकाएं झेलीं।

पथराई अहिल्या को तारा
अत्याचारी असुर संहारा
वचन दिया जो उसे निभाया
शरणागत का जीवन उद्धारा।

राम नाम ही ज्ञान योग है
बुद्धि, विवेक है, कर्म योग है
राम नाम है संकटहारी
राम नाम ही भक्ति योग है।

अंधकर जब जब बढ़ता है
व्योम पटल को ढंकता है
राम नाम आश्वासन देता
आशा का सूरज जगता है।

राम नाम ही पूजन है
राम नाम ही सृजन है
जीवन के घनघोर सिंधु में
राम नाम आश्वासन है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31मई,2020

मीडिया

मीडिया।   

लोकतंत्र की ताकत है ये
जन जन की चाहत है ये
सोता कभी नहीं ये इकपल
राष्ट्र जागृति का वाहक है।

सत्य, समर्पण और निडरता
मीडिया में खूब फलते हैं
यूँ ही नहीं लोकतंत्र का
इसे चौथा खंभा कहते हैं।

अन्याय कहीं होता है
तुरंत वहां आ जाते हैं
अपनी प्रखर भूमिका से
न्याय उचित दिलवाते हैं।

चाहे जैसा भी मौसम हो
आंधी, तूफां या भूकंप हो
जान हथेली पर रखकर ये
सबतक खबर पहुंचाते हैं।

क्या नेता क्या अभिनेता
इसके आगे शीश नवाते हैं
इनके मन की बातों को
जन-जन तक पहुंचाते हैं।

जनता हो या पुलिस प्रशासन
सब करते इनका अभिवादन
इनकी पहुंच सुलभ है सब तक
मीडिया का करते अभिनंदन।

मीडिया व सरकार का रिश्ता
सिक्के के पहलू जैसा है
साथ साथ चलते हैं दोनों
हाल दीवानों जैसा है।

कुछ नवीन करने से पहले
इसको बुलवाया जाता है
सहज, सुलभ, माध्यम है इससे
जनता को समझाया जाता है।

जनता के प्रति जिम्मेदारी
अपनी खूब निभाते हैं
सरकारों के दरवाजों तक
जन पुकार सहज पहुंचाते हैं।

सत्य निडरता शस्त्र हैं इसके
मूल्यों पर अविचल रहते हैं
लोकतंत्रीय व्यवस्था में इसको
इसीलिए चौथा खंभा कहते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मई,2020










मन ठहरा, मन बहता




मन ठहरा, मन बहता।   

नज़रों में जबसे तुम आये 
खुद को ही हम भूल चले
और नहीं कुछ याद हमें 
सुध बुध सब अपनी भूल चले।

तुझमें मैने अपना देखा
मैंने सुंदर सपना देखा
उन सपनों की अँगनाई में
जीवन गीत निखरते देखा।

उन गीतों के छंदों में ही
मन मेरा कुछ यूं भटक गया
अब तक ठहरा यहीं कहीं पे
और कभी फिर बहक गया।

मुश्किल है तुम बिन चल पाना
बिन तेरे मेरा जी पाना
हैं चुनौतियां माना पथ में
 कठिन मगर मेरा रुक पाना।

पथरीली राहों का हमदम
साथी अब तुमको बना लिया
तूफानों की परवाह किसे 
जब मन ने तुझे अपना लिया।

तुम आशंकाओं की सुलझन 
मेरे गीतों की झंझन हो
और नहीं अब भाता मुझको
तुम ही जीवन का मधुबन हो।

तेरे नैनों के काजल में
मेरा मन अब उलझ गया
उलझ रहा था बहुत मगर
अब तुझमें ही सुलझ गया।।
***


सच है ये मैंने माना।

सच है ये मैंने माना    

सच है ये मैंने माना
जब सच को खुद पहचाना
जग में यदि जीना है तो
अवसादों से न घबराना।।

फूल भी हैं और कांटे भी
मेले भी हैं, सन्नाटे भी
कहीं बारिश, कहीं धूप खिली
कहीं उजाले, कहीं रातें भी।

सुख-दुःख का है ताना बाना
खुशियों को पर, घर ले आना
दुनिया में यदि जीना है तो
मुश्किल से न घबराना।।

सत पथ पर चलना संभलकर
मिलना सबसे सँभल संभलकर
पग में  शूल बिछे हैं लाखों
बिखर न जाना कहीं भटककर।

हर दिल में है प्यार जगाना
सबको है मनमीत बनाना
दुनिया में जीना है तो
मुश्किल से न घबराना।।

तू राही है उस पथ का
अंत नहीं है जिस पथ का
दीप आस का सदा जलाना
आधार बना अपने मन का।

थक कर कहीं बैठ न जाना
अपने मन को तू समझाना
दुनिया में यदि जीना है तो
मुश्किल से न घबराना।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
          हैदराबाद
          30मई, 2020

जन गण के गीत सुनाता हूँ।

जन गण के गीत सुनाता हूँ।    

सत्ता अभिनंदन का 
गीत नहीं मैं गाता हूँ
दरबारों के वंदन का 
गीत नहीं मैं गाता हूँ।

मैं भारत की बातें करता
जन-जन तक पहुंचाता हूँ
मैं भारत का कलमकार हूँ
जन गण के गीत सुनाता हूँ।

जिनकी बातों में  भारत 
की तस्वीर दिखाई देती है
नवभारत के स्वप्न की 
ताबीर दिखाई देती है।

जिनके जज्बातों में मुझको
राष्ट्रवाद दिखाई देता है
जिनके व्यवहारों में मुझको
राष्ट्र प्रथम दिखाई देता है।

जिनकी आंखों में गांधी 
का स्वप्न दिखाई देता है
जिनके इच्छाओं में नायक
का यत्न दिखाई देता है।

ऐसे रणवीरों के कौशल 
पर पग-पग शीश नवाता हूँ
मैं भारत का कलमकार हूँ
मैं गीत उसी के गाता हूँ।

जिनके खेतों में चलने से
धरती भी इतराती है
जिनकी मेहनतकश हाथों
से हरियाली लहराती है।

अपने खून-पसीने से
जो धरती सींचा करते हैं
तपती जेठ दुपहरी में जो
जिस्म जलाया करते हैं।

ये सच्चे अधिनायक हैं इनकी 
पीड़ा जन-जन तक पहुंचाता हूँ
मैं भारत का कलमकार हूँ
मैं गीत इन्हीं के गाता हूँ।

ये जन-गण-मन का गायक हैं
वसुधैव कुटुंबकम के नायक हैं
जाति, धर्म, मजहब से ऊपर
सच्चे, राष्ट्रगान के गायक हैं।

मैं भारत की माटी में मिलकर
अपनी पहचान बनाता हूँ
मैं भारत का कलमकार हूँ
जन-गण के गीत सुनाता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मई, 2020

पास उतना ही पाओगे

     मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र पर चिंतन करती मेरी रचना

          पास उतना ही पाओगे

चले अकेले जिस पथ पर तुम
मुश्किल है चल पाओगे
जाओगे जितना दूर तुम मुझसे
उतना ही पास मुझे तुम पाओगे।।

जीवन है अनमोल यहां
नित गीत नए सुनाता है
सात जनम की बातें करता
नित स्वप्न नए सजाता है।
इन सपनों की कड़ियों से
तुम कैसे बच पाओगे,
जाओगे जितना दूर तुम मुझसे
 उतना ही पास मुझे तुम पाओगे।।

प्रेम मेरा अनमोल खजाना
मुझसा कोई क्या पाओगे
जो प्रेम समर्पण पाया मुझसे
नहीं और कहीं तुम पाओगे।
मेरी साँसों की लड़ियों से
दूर नहीं जा पाओगे
जाओगे जितना दूर तुम मुझसे
उतना ही पास मुझे तुम पाओगे।।

जीवन पथ पर चलते चलते
कहीं कभी थक जाओगे
याद आएंगी तब बाहें मेरी
क्षण भर को रुक जाओगे।
मेरी जैसी सहगामिनी
नहीं कभी फिर पाओगे
जाओ कितना दूर तुम मुझसे
उतना ही पास मुझे तुम पाओगे।। 

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
           हैदराबाद
           28मई,2020

मैं तुमको सुनूं

       मैं तुमको सुनूं       

आओ के चांदनी रात बाकी है
अपने मिलन की बात बाकी है
ये रश्मियां पुकारती हैं तुम्हें
वो अधूरी हर बात बाकी है।

रेशमी स्मृतियों की चादर है
समर्पण का अकुल आग्रह है
इंतजार तुम्हें भी है जिसका
मेरे आँचल में वो प्रेम सागर है।

कितना सुंदर रूप तुम्हारा
करता आह्लादित अंतः सारा
आज नहीं रोको तुम मुझको
तुमसे है मधुमास हमारा।

पास आओ और मैं तुमको सुनूं
चांद की छांव में सपने बुनूँ
कट जाये रात सारी आगोश में
तुम कहते रहो, मैं तुमको सुनूं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मई, 2020

रिसते घाव

रिसते घाव।        

दर्द आंखों में था जो निकलता रहा
कतरा कतरा वो बन के बिखरता रहा
सारी दुनिया ने था जिसको पत्थर कहा
टूट कर आंसुओं में पिघलता रहा।

कहना चाहा बहुत पर वो कह न सका
साथ चलना तो था, मगर चल न सका
लोगों ने जाने कितनी कहानी बुनी
जो सच्ची कहानी थी कह न सका।

रिश्तों की डोर थामे चलता रहा
कभी बनता रहा, फिर बिगड़ता रहा
तमाशबीन बन के सब देखा किये
फर्ज की राह में,  चलता रहा।

प्रीत की मोतियाँ जब बिखरने लगे
डोर विश्वास की जब चिटकने लगे
ऐसे रिश्तों के होने का क्या फायेदा
जब अपने ही अपनों को खटकने लगे।

दोष मेरा तुम्हारा चलेगा पता
किसने किसको ठगा चलेगा पता
बात निकलेगी महफ़िल में जब कभी
दांव किसने चला फिर चलेगा पता।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई,2020

बुद्धपुर्णिमा


            बुद्धिपूर्णिमा।   

बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि।
अनुशीलन  मार्ग उचित 
धर्म मोक्ष का पथगामी।

वेद, पुराण, उपनिषद, ऋचाएं
चंहु दिश ज्ञान प्रकाश फैलाएं
अंधकार जब बढ़ा पाप का
धर्म, सत्कर्म की राह दिखाएं।

प्राणियों में सद्भाव है भरना
इक दूजे संग जीना मरना
राग द्वेष न बढ़े कहीं भी
आपस मे हिल मिल सब रहना।

धन वैभव सब रह जायेगा
श्रृंगार धरा सब रह जायेगा
सत्कर्मों की  गणना होगी
सद्विचार तेरा तब काम आएगा।

संयम ही सच्चा बल है
जितेंद्रिय है तू, संबल है
मानव वही मानव कहलाता
मन, कर्म, वचन से जो निर्मल है।

जीवन वही जो राह दिखाए
मनुजता का अभिप्राय बताए
एक बनें सब, नेक बनें सब
प्रतिपल नैतिकता का पाठ पढ़ाये।

परम् ज्ञान ही मोक्ष धाम है
त्याग, समर्पण गीता कुरान है
सम्यक की ताकत अपना लो
जीवन अपना ये परम् धाम है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2020


भोलाभाला डमरूवाला

         मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र

भोला भाला डमरुवाला।   

सर्प गले में, जटा में गंगा
नीलकंठ मतवाला है,
कर में थामे त्रिशूल सदा
शिव सबका रखवाला है।।

हे अचलेश्वर, हे विश्लेश्वर
हे सकल जगत के स्वामी
हे पातालेश्वर, हे सर्वेश्वर
हैं नीलेश्वर, प्रभु मेरे अंतर्यामी।।

नाथ ये जग के त्रिलोकनाथ हैं
प्रेम, समर्पण, सत्य सनात हैं
रहते इनके कोई अनाथ हो कैसे
ये त्रिपुरारी हैं, विश्वनाथ हैं।।

पीड़ा सब हरते पीड़ाहारी
नटराज मेरे हैं, संकटहारी
अंधियारे में जो राह दिखाए
त्रिलोकदर्शी है मेरे चन्द्रधारी।।

भस्म रमा करें नंदी की सवारी
मेरे शंकर मेरे त्रिनेत्रधारी
संस्कृति, सभ्यता का आधार हैं ये
मेरे उमापति ,मेरे डमरूधारी।।

शरणागत जो भी आया
सबका है उद्धार किया
सत्य की जिसने सीमा लांघी
उन सबका संहार किया।।

सरिता की निर्मलता  तुमसे
जीवन की स्थिरता तुमसे
तुम ही जगत का मूल सत्य हो
सृष्टि की निर्भरता तुमसे।।

ध्यान धरो जहां कहीं भी
स्थान पवित्र है शिवाला है
दिल खोल जो चाहो मांगो
डमरुवाला बड़ा भोलाभाला है।।

मैं जड़मति हूँ, मूढ़ अज्ञानी
दीनानाथ तुम हो महादानी
 प्रभु मेरा उद्धार करो
हे घृष्णेश्वर हे शिवदानी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26मई, 2020

रात जागूँ सदा


    रात जागूँ सदा।    

संग संग मेरे फिर रात जागी है
चाहतों की वो सारी बात जागी है
हसरतों की सेज सजाए हुए
पलकों में सारी रात काटी है।

चांद तो राह अपनी चलता रहा
अपना सफर खत्म करता रहा
दीपक की लौ टिमटिमाती रही
रात ढलती रही मन मचलता रहा।

मखमली छुअन का ही एहसास है
यूँ तो है दूर मुझसे, मगर पास है
साँसों में साँसों की खुशबू बसी
यादों में भी तेरी मधुमास है।

है यही कामना रात जागूँ सदा
प्रेमपाश में खुद को बाँधूँ सदा
रात गहरीहो, कितनी भी घनघोर हो
छुप के पलकों में तेरे रात जागूँ सदा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मई, 2020




मंज़िलों से प्यार मुझको






मंजिलों से प्यार मुझको। 

इतिहास में जो घट चुका
फिर से नहीं स्वीकार मुझको
राह जो जग चल चुका है 
चलना नहीं स्वीकार मुझको।

लक्ष्य की है चाह मुझको
उद्यम से है लगाव मुझको
विश्राम का अभी वक्त नहीं
थकना नहीं स्वीकार मुझको।

आंधी में, तूफानों  में
संभालता रहा हूँ खुदको
गलाता हूँ ताप से कंटक 
जो चुभे राह में मुझको।

कर्मयोगी बन खड़ा मैं
विश्राम नहीं स्वीकार मुझको
बीच में कैसे रुकूं मैं 
मंज़िलों से प्यार मुझको।।
***

आजकल मैं सोचता हूँ








आजकल मैं सोचता हूँ।   

आजकल मैं सोचता हूँ
खुद को पहले खोजता हूँ
है कई उलझन मगर 
ठहराव के पल खोजता हूँ।।

राह दुर्गम हो, अगम हो
व्यंजनाएँ ना सुगम हो
अवरोध कितना भी बड़ा हो
मार्ग निश्चित खोजता हूँ।।

कर्म के सब भाव हैं ये 
या नियति का कहीं प्रभाव है
इसको क्या कैसे मैं समझूं
क्या वक्त का ठहराव है।।

ठहराव जो हो सोचता हूँ
शब्दों के अर्थ खोजता हूँ
एक कदम चलने से पहले 
आजकल खूब सोचता हूँ।।

अभिमन्यु फिर नहीं फंसेगा


अभिमन्यु फिर नहीं फंसेगा।   

चक्रव्यूह है समग्र रचा
प्रभाव से इसके कौन बचा
छल, स्वार्थ विस्तृत हो रहा
क्रंदन है, कोहराम है मचा।

अनंत चुनौती राह में खड़ी
मुश्किल निर्णय की है घड़ी
पग पग पर व्यूह हैं लाखों
मात्र विजय पर आंख है गड़ी।

लोभ, मोह, अपराध बढ़ रहा
नैतिकता का अभिप्राय घट रहा
जित देखो है क्षीण प्रतिज्ञा
अवसरवादी व्यूह रच रहा।

कितनी ही विपदाएं आएं
आंधी अपनों की या
गैरों की कुंठाएं आएं
ध्यानमग्न हो युद्धरत हो
विजित करो जो बाधाएं आएं।

हूँ निहत्था पर असहाय नहीं
संघर्ष का कोई पर्याय नहीं
विजय सुनिश्चित न हो जब तक
रुकने का अभिप्राय नहीं।

अभिमन्यु फिर आज है घिरा
मिथ्याचारी व्यवहार से घिरा
विचलन नहीं रहा है मन में
चाहे निज संसार में घिरा।

व्यूह कितना ही घना है
रक्त हाथों में सना है
न तब डरा, न अब डरेगा
अभिमन्यु नहीं अब रुकेगा।

दुर्व्यवहारों को निःशब्द करेगा
कुटिलता को निःशक्त करेगा
कितना ही घना व्यूह हो
अभिमन्यु अब नहीं फंसेगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मई,2020


शापित होने से संभलो


शापित होने से संभलो।   

शापित हो रहा व्यवहार है शायद
शापित मनोविचार है शायद
पीड़ित हैं सब भाव हमारे
कलुषित नित्याचार है शायद।

कूटनीति का व्यवहार बढा है, 
रिश्तों में व्यापार बढा है
प्रभावशाली देहरी पर शायद
संस्कारों की कातर कतार बढा है।

हर कोई अनुकंपित लगता
नींद उसी की सोता जगता
विष व्याप्त हो रहा जगत में
विषय प्रभावित जीवन लगता।

व्यक्तिवाद से सब ग्रसित हैं लगते
निज आंखों में द्विज सपने सजते
स्वार्थी होते व्यवहारों से
तन, मन, भाव, बदन सब ढंकते।

हर कोने में क्रंदन है अगणित
सत्यकाम है घायल शापित
देख के पीड़ित व्यवहारों से
नीर, अवनि, अंबर है विचलित।

दनुज कर्मों का साम्राज्य बढा है
अतृप्त कामना का प्रभाव बढा है
हाथ जोड़ भटक रही प्रतिज्ञा
लगता सब निर्जीव खड़ा है।

अपनी सब परिभाषा बदलो
आहार, विचार, व्यवहार सब बदलो
मनुज हो तो मनुजता अपनाओ
हित-लाभ की परिभाषा बदलो।

अग्निपथ है जीवन सुन लो
अपना उचित मार्ग तुम चुन लो
शापित न हो मार्ग सत्य का
कुंठित व्यवहारों से संभलो।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         23मई,2020



संघर्ष


संघर्ष।  

संघर्ष जीवन में प्रमुख है
संघर्षों से नहीं भागना
धैर्य, संयम, त्याग, तप का
संग तुम न त्यागना।

हैं कोटि कंटक मार्ग में
अवरोध कोटिशः मार्ग में
कर्मयोगी बन तू डटा रह
विश्वास न कभी त्यागना।

संग तेरे है धरा
गगन तेरे साथ है
सत्य का अनुगामी बन
वक्त तेरे साथ है।

अटल बन विचल नहीं
भयभीत हो किंचित नहीं
अंबर तेरा साम्राज्य है
संघर्ष कभी ना त्यागना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई, 2020

मैं तेरी परछाईं हूँ


मैं माँ की परछाईं हूँ।  

मैं माँ की परछाईं हूँ
माँ से जीवन पाई हूँ
माँ ही मेरी भोर है
मैं उसकी तरुणाई हूँ।

मुश्किल राहों की
मेरी है हमराही तू
साथ रहे जो साथ चले
वो मेरी परछाईं तू।

संघर्ष भरे अग्निपथ की
तू राहत है, गहराई है
जीवन रूपी उपवन की
खुशियों की अंगनाई है।

बेटी हूँ ताकत हूँ तेरी
इक दिन मैं दिखलाऊँगी
बेटे जो न निभा सकेंगे
वो सारे फ़र्ज़ निभाऊंगी।

तुझसे ही है जीवन पाया
संस्कार सभी तुझसे ही पाया
स्थिरता, ठहराव, तपस्या
भाव सभी तेरा अपनाया।

तू ही मेरी शक्ति सुधा है
तू मेरी सच्चाई है
तू ही वो वटवृक्ष है माँ
मैं जिसकी परछाईं हूँ।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई,2020


मानवता का एहसास उसे दो


 मानवता का एहसास दो।  

फिर आज सड़क को चलते देखा
रक्त फफोलों से रिसते देखा
भरे विषाद हज़ारों मन में
पग-पग उनको सिलते देखा।

नवजातों को तड़पते देखा
भूख-प्यास से मचलते देखा
हाथों की अमिट लकीरों को
तड़प-तड़प कर मिटते देखा।

गठरी देखी, कथरी देखी
हाथों में टूटी छतरी देखी
भीड़ भरे सुनसान सड़क पर
मौन तड़पता जीवन देखा।

गुड्डे-गुड़ियों का क्रंदन देखा
संघर्षों से आलिंगन देखा
पल-पल आस का दीप जलाए
जीवन का अभिनंदन देखा।

छांह सघन की आस लिए
सूरज को पथ पर चलते देखा
आज राह के अंधियारों को
रोशनी के लिए तरसते देखा।

जो मनुजता है आज अगर तो
मनुजता का एहसास उसे दो
आशाओं के दीप जलाकर
मानवता का प्रकाश उसे दो।

आंखों के आंसू थम जाए
ऐसी प्रखर पुकार उसे दो
मानव हो तो आज उठो फिर
मानवता का एहसास उसे दो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मई, 2020

प्यास

         
             प्यास        

प्यासा मन क्या ढूंढ रहा
पनघट तो तेरे आस पास है
ज्ञान योग के भाव जगा
सागर विद्या का आस पास है।

विक्षिप्त न हो ये मौन समर है
पग-पग जीवन कांटों का सफर है
विचलित न हो तनिक मात्र भी
कर्मयोगी है, तू ही उद्धरण है।

हाड़-मांस का यंत्र नहीं है
तुझ जैसा अन्यत्र नहीं है
तुझमें गुम्फित कोटिश सपने
तू मात्र रूप, प्रतिबिंब नही है।

क्यूँ व्यथित घट-घट भटक रहा
प्यासा बन इत उत भटक रहा
भाग्य तेरा तेरे कर्म से जुड़ा
अन्यत्र कहीं क्यूँ भटक रहा।

हो सजग सुनिश्चित ग्रहण करो
अपने अवयव का वरण करो
व्योम ज्ञान का सकल, विशाल
प्यासे मन का उद्धरण करो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
          हैदराबाद 
          20मई, 2020

मुस्कान

            मुस्कान।                  

बेकदरी के आलम में
इतनी सी पहचान बहुत है
नहीं जरूरी सब कुछ बोलो
इक हल्की मुस्कान बहुत है।

मासूमियत से भरी हुई
आंखों में चाहत भरी हुई
इक नज़र प्यार से देखो
बस इतनी सी पहचान बहुत है।

जीवन के पथ में नित-नित
ऐसे पल भी आते हैं
जब दर्द गुजर कर हद से
बन आंसू ढल जाते हैं।

तब अंतस की पीड़ा खातिर
अनुशीलन का ज्ञान बहुत है
पुनः चेतना अनुपालन को
इक मधुर मुस्कान बहुत है।

पीड़ा का साम्राज्य वृहद हो
अंतस को जब ढंक लेता है
जब मर्माहत मन व्यथित हो
स्वयं समर्पण कर देता है।

तब जीवन के शोक सिंधु में
इक हलचल अम्लान बहुत है
पुनः चेतना अनुपालन को
इक मधुर मुस्कान बहुत है।

हर इच्छा पूरी हो सबकी
परिमाण नही कोई हो सकता
हर कहानी पूरी लिख जाए
ऐसा कम ही हो सकता।

ऐसे में जो पूरे हो जाएं
उतने ही अरमान बहुत हैं
पुनः चेतना अनुपालन को
हल्की सी मुस्कान बहुत है।।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         20मई,2020

तड़प जाती नहीं

            तड़प जाती नहीं           

चांद छूने की चाहत में चलता रहा
संग-संग लहरों के चलता रहा
मिलन की तड़प है कि जाती नहीं
तेरी आगोश को दिल मचलता रहा।।

जतन कितनी हुई खुद को समझाने की
मनाने की, दिल को बहलाने की
चाहत तेरी है कि जाती नहीं
सूरत कोई दिल को भाती नहीं।।

लहरों के जैसे मैं चलता रहा
चाह में तेरी पल-पल मैं जलता रहा
राह तेरी मैं चलता रहा हर घड़ी
चोट खा खा के लेकिन संभलता रहा।।

माना कि तुम बहुत दूर हो
चांद की चांदनी, रात का नूर हो
कुछ तो कहो, कुछ तो संकेत दो
है समर्पित मेरी सृष्टि तेरी राह में
दो कदम साथ चलने का वादा करो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19मई, 2020

कैसे तेरा दर्द लिखूं


कैसे दर्द लिखूं।        

नारी कैसे तेरा दर्द लिखूँ
त्याग, समर्पण, प्रेम, दया
संत्रास, तपन, पीड़ा या व्यथा
उर का अलिखित दर्द लिखूँ
कैसे मैं तेरा दर्द लिखूँ।।

सदियों से आशंकाएं झेलीं
निज नैतिक परिभाषा झेलीं
पग-पग अगणित बंदिश झेली
निज स्वभाव वश कुछ न बोली।

श्रृंगार लिखूं, अंगार लिखूं
वात्सल्य हृदय व्यवहार लिखूं
सिमटे-बिखरे हालातों का
या स्नेहिल प्रभात लिखूं।।

संघर्षों की जीत लिखूं
छांव लिखूं या धूप लिखूं
प्रति पग साथ चले जो हरपल
ऐसा कुछ मनमीत लिखूं।।

अगणित तूने घाव हैं झेले
पर ममता न हुई परायी
अपनों के संत्रास हैं झेले
धैर्य, समर्पण नहीं गंवाई।

त्याग, तप का अध्याय लिखूं
गीता, बाईबल कुरान लिखूं
शब्द नहीं हैं पास मेरे 
क्या तेरा गुणगान लिखूं।।

✍️©️ अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
 ✍️18 मई, 2020✍️

मौन हूँ अनिभिज्ञ नहीं


मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।  

मैं मौन हूँ अनिभिज्ञ नहीं
साक्षात हूँ प्रतिबिंब नहीं
महसूस कर सकता हूँ 
मैं दर्द की अनुभूतियां
अब तुम्हें कैसे बताऊँ 
बहुज्ञ हूँ, अल्पज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

सब देख सकता हूँ मैं
महसूस कर सकता हूँ मैं
शुष्क वादों की धरा को
बींध तक सकता हूँ मैं।
मेरे सब्र की सीमा सुनिश्चित
मर्मज्ञ हूँ, अल्पज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

मैं त्रस्त गर्दभ व्यवहार से
दूषित अचार से, विचार से
अनैतिकता से, भृष्टाचार से
अनैतिक व्यापार के प्रसार से
वैमनस्य से, व्यभिचार से
सब विज्ञ मुझको, अविज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

जो आज तेरे साथ हूँ
सद्विचारों का परिणाम हूँ
इक वोट जो मानोगे तुम
गांडीव की टंकार हूँ।
है शाश्वत के तेरे साथ हूँ
पर द्रोह पर प्रतिज्ञ नहीं
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 मई, 2020


कोंपल


                  कोंपल।                    

*कोंपल*                

आस की बूंदें मचलकर
धरा पर जब पड़ी
मचल उठा मन का मयूरा
अवनी भी खिल पड़ी।

इक बीज भटका था पड़ा
स्पर्श से ही खिल पड़ा
फूटीं उनमें कोंपलें
खिलखिलाकर हंस पड़ा।

सूखी धरा तब नम हुई
इक मौन भी जीवित हुआ
लहलहा उठे उपवन सभी
श्रृंगार अवनी का हुआ।

ये कोंपलें अनमोल हैं
इनका सब स्वागत करो
सत्कर्म का परिणाम है
धैर्य जीवन में धरो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
✍️17 मई, 2020

नीड़ कहां, नींव किधर


      नीड़ कहां,नींव किधर।  

बोझिल सांसें, अभावुक चेहरा
पथराई आंखें, उदासी का पहरा
लाखों दर्द भरे भरे सीने में
तड़प रहा दिल, घाव है गहरा।

अस्थिर कदमों से चला जा रहा
आंखों के आंसू पिये जा रहा
कदम-कदम पर टीस है उठती
उन टीसों को सहे जा रहा।

सिर पे रखे जीवन की गठरी
हाथ में टूटे सपनों की छतरी
आस-निराश के द्वंद से घिरी
फिसल रही सड़क की पटरी।

सपने सारे टूटे जा रहे
झोले-गठरी चले जा रहे
झर-झर आंसू बहे जा रहे
फफोले बनकर फूटे जा रहे।

महानगरों से भीड़ चली है
नीड़ टूट फिर, नींव चली है
आस बंधी जो कभी किसी पर
बिछड़ी रोटी नींव चली है।

पैर दर्द से फटा जा रहा
बदन ताप से तपा जा रहा
चोट मगर इतनी गहरी है
बिना रुके वो चला जा रहा।

थकान उसे न थका पायेगा
भूख-प्यास न भटका पायेगा
विश्राम मिलेगा उस पल शायद
जब नींव में वापस आ जायेगा।

दर्द छोड़ फिर दर्द जियेगा
वही पुराना कर्ज जियेगा
चंद कदम सुस्ताकर शायद
पुनः पुरानी राह चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
    ✍️16 मई, 2020✍️





मिल गयी

     
               मिल गयी।  

तुम मुझे मिल गए
ज़िंदगी मिल गयी,
ख्वाब पूरे हुए
हर खुशी मिल गयी।।

दिल चुराने की अदा
सीखे तुमसे कोई,
लूट गए हम मगर
ज़िंदगी मिल गयी।।

इक पल की दूरी
अब सही जाए न,
हो कि तुमसे अलग
अब जिया जाए न।।

खुशनसीबी मेरी मुझको
तुम मिल गयी,
तेरी बाहों में मुझे
हर खुशी मिल गयी।।

अंधेरों से कह दो
अब मुझे डर नही,
तेरे रूप में 
रोशनी मिल गयी।।

तुम मुझे मिल गए
ज़िंदगी मिल गयी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
   ✍️15 मई, 2020✍️


महिमा खिचड़ी की


महिमा खिचड़ी की।  

खिचड़ी के महिमा है अपार
नहीं कउनो इसका पारावार
लरिका-बच्चा संग परिवार
करें विनीत सब बारंबार।।

अमीर-गरीब सबके प्यारी
वैद्य-हकीम सबके दुलारी
हर रोगन के रामबाण है
खिचड़ी है जन-जन की प्यारी।।

प्रभू राम के मन को भाया
पाण्डव के वनवास बिताया
इक दाना चावल का खाकर
पाण्डव को वरदान दिलाया।।

विदुर घरे पतरी पर आई
तब माधव के मन को भाई
सत्य धरम का पाठ पढ़ाया
विदुर नीति जन जन अपनाई।।

बिरबल के हथियार बनू तब
अकबर के तू पाठ पढ़ायू
इक प्रतिभागी, अधिकारी को
न्याय उचित सम्मान दिलायू।।

राणा प्रताप या लक्ष्मीबाई
क्रांती के जब अलख जगाई
तोहइँ से बलवान बने सब
मन, वचन मा शुद्धता पाई।।

आज़ादी की छिड़ी लड़ाई
तुहीं बनू तब जीवनदायी
आज़ाद, भगत, गुरु अरु बिस्मिल
सब करें खिचड़ी के बड़ाई।।

तुलसी कबीर रसखान सूर
कितने ही प्रतिमान खिलायू
गीता, वाणी, वेद, उपनिषद
संस्कृति के सम्मान दिलायू।।

नहीं केहू से भेद करियू
सब संग हिल-मिल रहा करियू
कदम कदम पे राह दिखायू
जीवन के अभिप्राय बतायू।।

अमीर गरीब तोहे चाहे
केहू से ना भेद मनायू
समाजवाद तोहसे सीखे
मिलजुल सबके रहे सिखायू।।

छल कपट से दूर रहियू तू
सबके अपनाईयु अँजुरी मां
लालबहादुर संगे आयू
तू संसद तक के पतरी मां।।

काऊ कही तोहरे खातिर
कछु शब्द नहीं है गठरी मां
जीवन भर आशीष दिहा तू
खुशहाल रहें सब नगरी मां।।

महिमा अब न जाये बखानी
निरमल यूँ गंगा के पानी
धन्य-धन्य हैं, नमन करें हम 
ज्ञान तोहइँ तुहीं जीवनदानी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2020


नगरवधू

                नगरवधू।   

सामान्य विषय से अलग आज मैं एक अलग विषय चुनकर चंद पंक्तियां प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस रचना से मैं समाज के उस अंधेरी सच्चाई को उजागर करने का प्रयास कर रहा हूँ जिस पर नजर तो सबकी जाती है पर उसे प्रस्तुत करने में शायद हिचकिचाहट होती है। मैं आधुनिकता और मजबूरी पर अपनी चार पंक्तियां प्रस्तुत कर इस रचना की शुरुआत करना चाहूंगा--

कितना दोहरा चरित्र जीते हैं
हम,ये तब पता चला
जब कटे कपड़ों को फैशनेबल
फ़टे कपड़ों को बदचलन कहा गया।।

मेरी रचना नगरवधू आपके सभी के ध्यानार्थ प्रस्तुत है--
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तंग गलियों में सिमटती
रेत के मानिंद बिखरती
पल में रोती, मुस्कुराती
गुमनाम ज़िंदगी भटकती।

उस मोड़ पे इक चीख है
ज़िंदगी नही ये भीख है
वक्त की काई पर फिसलती
घुटी हुई इक चीख है।

है जिंदगी घुटनभरी
सिसकती, बंद कोठरी
बेचैन अकुलाती हुई
पैबंद अपने सी रही।

शर्मो-हया की ओढ़ चादर
कितने ही तलबगार बनकर
छिपते हैं इनकी ओट में
सफेदपोश गुमनाम बनकर।

उतार कर लज्जा को वो
निर्लज्जता ढंकती है वो
बेरंग सी ज़िंदगी में
कुछ रंग भरती है वो।

नकाबपोश कितने ही आये
और कितने चले गए
कुछ दर्द लेकर आये थे
कुछ दर्द देकर चले गए।

निश्चित नही है राह उसकी
बस दर्द उसका, चीख उसकी
फिर भोर की तलाश में
आंखों में कटती रात उसकी।

अर्थी कोई जब भी निकली
गुमनाम गलियों से कभी
यूँ लगे सजधज के कोई
दुल्हन चली पी की गली।

है आंकड़ों का शब्द सब
भाव हैं निःशब्द सब
अफसोस दर्द न पढ़ सका
आध्यात्म हैं क्यों शून्य सब।

ये दोष है व्यवहार का
समाज के अंधकर का
कुंठा का, व्यभिचार का
दोयम चरित्र व्यवहार का।

वसंतसेना या आम्रपाली
ये चंद केवल नाम हैं
कितनी ही चीखें दफ्न हुईं
जो आज भी गुमनाम हैं।

नग्नता अश्लीलता का
दोष इनपर क्यूँ मढूं
दोष जो व्यापार वृत्ति का
वो दोष इनपर क्यूँ गढूं।

लाज का सौदा यहां
कब किसी को भाया है
इक बेसहारा अबला को
निःस्वार्थ कौन अपनाया है।

अनैतिकता का परिणाम है ये 
मानवता का अपमान है ये
वैश्या, गणिका या नगरवधू
क्षुब्ध वासना का परिणाम है ये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
 ✍️ 14 मई, 2020✍️




कुछ गुनगुनाऊँ


      कुछ गुनगुनाऊँ।  

दिल आज कहता है 
कुछ गुनगुनाऊँ
मिलन के सुहाने 
तराने सुनाऊं
मेरे गीतों में सजने 
का वादा करो
सपनों से सुंदर 
मैं दुनिया बनाऊं।।

रूप तेरा सलोना, 
चमन को सजाए
कैसे कोई दिल को 
अपने बचाये
जरा प्यार से 
जिसको तुम देख लो
मदहोश होने से 
कैसे बचाये।।

चाहत यही तेरी 
बाहों में आऊं
उलझी तुम्हारी 
लटें सुलझाऊँ
लवों पे तेरे गीत 
अपने सजाऊँ
तू गाये जिन्हें, 
संग मैं गुनगुनाऊँ।।

बताओ तुम्हीं 
तुमको कैसे मनाऊं
दिल में है जो, 
तुमको कैसे दिखाऊं
इक जरा सी नज़र 
जो इधर तुम करो
चाहत का अपने 
समंदर दिखाऊँ।।

दिल आज कहता है 
कुछ गुनगुनाऊँ
मिलन के सुहाने 
तराने सुनाऊं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️13 मई , 2020


सोना है भारत की भूमि


भारत की भूमि।  

सोना है भारत की भूमि
कण-कण देवों की तपोभूमि
बुद्धि, विवेक का सागर है ये
प्रेम, समर्पण की है भूमि।

शस्य श्यामला हैं इसके ग्राम
त्याग-तप का है परिणाम
भाव प्रवण हैं, मन निष्काम
हर शरीर इक पावन धाम।

जहां का जल गंगा सा निर्मल
हृदय विशाल हैं, भाव हैं कोमल
जहां कर्म ही पूजा है
ज्ञान यही मिलता है पल पल।

जहां वेद, कुरान, गुरुवाणी, गीता
शिक्षाओं से अगणित दिल जीता
हर बालक में राम हैं बसते
हर नारी में बसती सीता।

रातों को माँ जब लोरी गाती
नैतिकता के पाठ पढ़ाती
जहाँ रिश्ते व मर्यादा ही 
प्रमुख पूंजी हैं ये समझाती।

आदर्शों व संस्कारों की भूमि
न्यायोचित व्यवहारों को भूमि
वसुधैव कुटुंबकम पहचान यही है
सोना है भारत की भूमि।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13 मई, 2020



मुश्किल है वापस आना

मुश्किल है वापस आना

अब इतना आसान नहीं है
प्रिये  पुनः वापस आना,
ये भी अब आसान नही 
वो बात पुरानी दोहराना।।

कितने गीत लिखे थे मैंने
इक दूजे के तराने के
खुद से भी मैं दूर हुआ 
पास तुम्हारे आने को।।

कितना कुछ बिन कहे, सुने थे
प्रथम बार जब दोनों मिले थे
सुध-बुध अपनी भूल प्रिये
मिलन के कितने स्वप्न बुने थे।।

उस दिन, थी छाई  बदली
दोनों पर कौंधी बिजली
नैनों में ले अश्रु मिली जब
कितने विवश लगे थे  तब।।

जब कहा तुम्हें जाना होगा
बिछोह हमें अपनाना होगा
अश्रु हमें अब पीना होगा
हो विवश हमें जीना होगा।।

स्मृतियों के घाव अभी हैं
बातें सारी याद अभी हैं
तुम शायद सब भूल चुकी हो
यादों को मिलों छोड़ चुकी हो।।

लेकिन तब कुछ घाव मिले थे
वो घाव अभी तक ताजे हैं
क्या बतलाऊँ अब  तुमको
कितनी रातें आंखों में काटे हैं।।

उन घावों से उबर चुका हूँ 
अब नहीं उन्हें दुहराना है
भूल के भी आवाज़ न देना
मुश्किल वापस आना है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11मई, 2020

मन कवि कब बनता है

मन कवि कब बनता है।  

मन, मन ही मन मुस्काता है
जब शब्दों में छवि बनाता है
जब स्वयं को समझ जाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

जब खुद से बातें करता है
खुद हंसता है, खुद रोता है
जब दुनिया नई बनाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

मनचाहा प्यार जो पाता है
या जब ठुकराया जाता है
कोई राह नहीं जब पाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

जब चोट कहीं भी लगती हो
पर दर्द हृदय में होता है
जब अपना कोई ठुकराता है
तब मन कवि बन जाता है।।

दुर्बलता पे नियंत्रण पाता है
जब अश्रु छिपाना आता है
जब जीवन समझ वो जाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11मई, 2020



प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...