रिसते घाव

रिसते घाव।        

दर्द आंखों में था जो निकलता रहा
कतरा कतरा वो बन के बिखरता रहा
सारी दुनिया ने था जिसको पत्थर कहा
टूट कर आंसुओं में पिघलता रहा।

कहना चाहा बहुत पर वो कह न सका
साथ चलना तो था, मगर चल न सका
लोगों ने जाने कितनी कहानी बुनी
जो सच्ची कहानी थी कह न सका।

रिश्तों की डोर थामे चलता रहा
कभी बनता रहा, फिर बिगड़ता रहा
तमाशबीन बन के सब देखा किये
फर्ज की राह में,  चलता रहा।

प्रीत की मोतियाँ जब बिखरने लगे
डोर विश्वास की जब चिटकने लगे
ऐसे रिश्तों के होने का क्या फायेदा
जब अपने ही अपनों को खटकने लगे।

दोष मेरा तुम्हारा चलेगा पता
किसने किसको ठगा चलेगा पता
बात निकलेगी महफ़िल में जब कभी
दांव किसने चला फिर चलेगा पता।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई,2020

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