नगरवधू।
सामान्य विषय से अलग आज मैं एक अलग विषय चुनकर चंद पंक्तियां प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस रचना से मैं समाज के उस अंधेरी सच्चाई को उजागर करने का प्रयास कर रहा हूँ जिस पर नजर तो सबकी जाती है पर उसे प्रस्तुत करने में शायद हिचकिचाहट होती है। मैं आधुनिकता और मजबूरी पर अपनी चार पंक्तियां प्रस्तुत कर इस रचना की शुरुआत करना चाहूंगा--
कितना दोहरा चरित्र जीते हैं
हम,ये तब पता चला
जब कटे कपड़ों को फैशनेबल
फ़टे कपड़ों को बदचलन कहा गया।।
मेरी रचना नगरवधू आपके सभी के ध्यानार्थ प्रस्तुत है--
*************************
तंग गलियों में सिमटती
रेत के मानिंद बिखरती
पल में रोती, मुस्कुराती
गुमनाम ज़िंदगी भटकती।
उस मोड़ पे इक चीख है
ज़िंदगी नही ये भीख है
वक्त की काई पर फिसलती
घुटी हुई इक चीख है।
है जिंदगी घुटनभरी
सिसकती, बंद कोठरी
बेचैन अकुलाती हुई
पैबंद अपने सी रही।
शर्मो-हया की ओढ़ चादर
कितने ही तलबगार बनकर
छिपते हैं इनकी ओट में
सफेदपोश गुमनाम बनकर।
उतार कर लज्जा को वो
निर्लज्जता ढंकती है वो
बेरंग सी ज़िंदगी में
कुछ रंग भरती है वो।
नकाबपोश कितने ही आये
और कितने चले गए
कुछ दर्द लेकर आये थे
कुछ दर्द देकर चले गए।
निश्चित नही है राह उसकी
बस दर्द उसका, चीख उसकी
फिर भोर की तलाश में
आंखों में कटती रात उसकी।
अर्थी कोई जब भी निकली
गुमनाम गलियों से कभी
यूँ लगे सजधज के कोई
दुल्हन चली पी की गली।
है आंकड़ों का शब्द सब
भाव हैं निःशब्द सब
अफसोस दर्द न पढ़ सका
आध्यात्म हैं क्यों शून्य सब।
ये दोष है व्यवहार का
समाज के अंधकर का
कुंठा का, व्यभिचार का
दोयम चरित्र व्यवहार का।
वसंतसेना या आम्रपाली
ये चंद केवल नाम हैं
कितनी ही चीखें दफ्न हुईं
जो आज भी गुमनाम हैं।
नग्नता अश्लीलता का
दोष इनपर क्यूँ मढूं
दोष जो व्यापार वृत्ति का
वो दोष इनपर क्यूँ गढूं।
लाज का सौदा यहां
कब किसी को भाया है
इक बेसहारा अबला को
निःस्वार्थ कौन अपनाया है।
अनैतिकता का परिणाम है ये
मानवता का अपमान है ये
वैश्या, गणिका या नगरवधू
क्षुब्ध वासना का परिणाम है ये।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️ 14 मई, 2020✍️
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें