अभिमन्यु फिर नहीं फंसेगा।
चक्रव्यूह है समग्र रचा
प्रभाव से इसके कौन बचा
छल, स्वार्थ विस्तृत हो रहा
क्रंदन है, कोहराम है मचा।
अनंत चुनौती राह में खड़ी
मुश्किल निर्णय की है घड़ी
पग पग पर व्यूह हैं लाखों
मात्र विजय पर आंख है गड़ी।
लोभ, मोह, अपराध बढ़ रहा
नैतिकता का अभिप्राय घट रहा
जित देखो है क्षीण प्रतिज्ञा
अवसरवादी व्यूह रच रहा।
कितनी ही विपदाएं आएं
आंधी अपनों की या
गैरों की कुंठाएं आएं
ध्यानमग्न हो युद्धरत हो
विजित करो जो बाधाएं आएं।
हूँ निहत्था पर असहाय नहीं
संघर्ष का कोई पर्याय नहीं
विजय सुनिश्चित न हो जब तक
रुकने का अभिप्राय नहीं।
अभिमन्यु फिर आज है घिरा
मिथ्याचारी व्यवहार से घिरा
विचलन नहीं रहा है मन में
चाहे निज संसार में घिरा।
व्यूह कितना ही घना है
रक्त हाथों में सना है
न तब डरा, न अब डरेगा
अभिमन्यु नहीं अब रुकेगा।
दुर्व्यवहारों को निःशब्द करेगा
कुटिलता को निःशक्त करेगा
कितना ही घना व्यूह हो
अभिमन्यु अब नहीं फंसेगा।।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
23मई,2020
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