नीड़ कहां, नींव किधर


      नीड़ कहां,नींव किधर।  

बोझिल सांसें, अभावुक चेहरा
पथराई आंखें, उदासी का पहरा
लाखों दर्द भरे भरे सीने में
तड़प रहा दिल, घाव है गहरा।

अस्थिर कदमों से चला जा रहा
आंखों के आंसू पिये जा रहा
कदम-कदम पर टीस है उठती
उन टीसों को सहे जा रहा।

सिर पे रखे जीवन की गठरी
हाथ में टूटे सपनों की छतरी
आस-निराश के द्वंद से घिरी
फिसल रही सड़क की पटरी।

सपने सारे टूटे जा रहे
झोले-गठरी चले जा रहे
झर-झर आंसू बहे जा रहे
फफोले बनकर फूटे जा रहे।

महानगरों से भीड़ चली है
नीड़ टूट फिर, नींव चली है
आस बंधी जो कभी किसी पर
बिछड़ी रोटी नींव चली है।

पैर दर्द से फटा जा रहा
बदन ताप से तपा जा रहा
चोट मगर इतनी गहरी है
बिना रुके वो चला जा रहा।

थकान उसे न थका पायेगा
भूख-प्यास न भटका पायेगा
विश्राम मिलेगा उस पल शायद
जब नींव में वापस आ जायेगा।

दर्द छोड़ फिर दर्द जियेगा
वही पुराना कर्ज जियेगा
चंद कदम सुस्ताकर शायद
पुनः पुरानी राह चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
    ✍️16 मई, 2020✍️





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