कैसी दुनिया, कैसा शहर है
मन में कैसे इतना जहर है
मामूली परिहास की खातिर
किसने मचाया इतना कहर है।।
मानवता कब कहाँ खो गयी
शिक्षा-संस्कृति सब खो गयी
कैसा विष भर आया मन में
नैतिकता सब कहां खो गयी।।
इक बेजुबान भटका बस्ती में
बिन पतवार जैसे कश्ती में
लहरें पर घनघोर वहां थी
सुराख बने अगणित कश्ती में।
फल में भर बारूद खिलाया
वहशीपन का रूप दिखाया
बिन अपराध सजा पाई वो
मानवता का मान घटाया।
राग-द्वेष कुछ नहीं जानते
अपना-पराया नहीं मानते
इंसानों का सम्मान करते
सबको अपना दोस्त मानते।
कैसी ये दानवता आई
देख खुद दनुजता शरमाई
क्षत-विक्षत देखा होगा जब
उसकी भी आंखें भर आयी।
बेजुबान को खुले काटते
फल में भर बारूद खिलाते
मन में कितना पाप भरा है
दानवी व्यवहार दिखलाते।
सो रही मनुजता सारी
सो गए शायद नर नारी
सो चुके संस्कार हैं सारे
भटक रही मनुष्यता बिचारी।
ऊपर बैठ देखता होगा
खुद से ही पूछता होगा
कैसे कैसे इंसान बनाये
अंतर्मन में सोचता होगा।
खुद से हमें पूछना होगा
मनुजता को खोजना होगा
आज अजय बनना है यदि
इंसानों सा जीना होगा।।
✍️©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04जून,2020
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