कोंपल।
*कोंपल*
आस की बूंदें मचलकर
धरा पर जब पड़ी
मचल उठा मन का मयूरा
अवनी भी खिल पड़ी।
इक बीज भटका था पड़ा
स्पर्श से ही खिल पड़ा
फूटीं उनमें कोंपलें
खिलखिलाकर हंस पड़ा।
सूखी धरा तब नम हुई
इक मौन भी जीवित हुआ
लहलहा उठे उपवन सभी
श्रृंगार अवनी का हुआ।
ये कोंपलें अनमोल हैं
इनका सब स्वागत करो
सत्कर्म का परिणाम है
धैर्य जीवन में धरो।।
✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️17 मई, 2020
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