प्रणाम मैं अजय कुमार पाण्डेय आप सबके समक्ष एक ऐतिहासिक महाभारत कालीन योद्धा कर्ण पर अपने भाव प्रस्तुत कर रहा हूँ। इतिहास के किसी
पात्र को शब्दों में लिखना हमेशा से दुष्कर रहा है अतः मेरे लिए भी मुश्किल ही रहा, क्योंकि इससे कइयों की भावनाएं जुड़ी रहती हैं। परन्तु फिर भी मैंने उपलब्ध साक्ष्यों, धारावाहिकों में दिखाए गए वृत्तांत के अनुसार, विभिन्न पुस्तकों, गूगल पर उपलब्ध सामग्री, इतिहास व कहानियों एवं जनमानस के लिए उपलब्ध काव्य संग्रहों का अध्ययन कर के इसे लिखने का प्रयास किया है। इसका उद्देश्य न तो किसी व्यक्तित्व का महिमामंडन करना है और न ही किसी को नीचा दिखाना है। अपितु ये के कोई कितना भी दानवीर हो, शूरवीर हो, सहृदयी हो, प्रतापी हो परन्तु यदि वो असत्य, अधर्म,अन्याय,अमानवीयता, अपराधी,अनैतिकता, दुराग्रही, दुराचारी का साथ देता है तो वो भी अपराधी व अधर्म का सहयोगी ही माना जायेगा और उसके लिए वही दंड का विधान सुनिश्चित होगा जो अपराधी के लिए है।
पात्र को शब्दों में लिखना हमेशा से दुष्कर रहा है अतः मेरे लिए भी मुश्किल ही रहा, क्योंकि इससे कइयों की भावनाएं जुड़ी रहती हैं। परन्तु फिर भी मैंने उपलब्ध साक्ष्यों, धारावाहिकों में दिखाए गए वृत्तांत के अनुसार, विभिन्न पुस्तकों, गूगल पर उपलब्ध सामग्री, इतिहास व कहानियों एवं जनमानस के लिए उपलब्ध काव्य संग्रहों का अध्ययन कर के इसे लिखने का प्रयास किया है। इसका उद्देश्य न तो किसी व्यक्तित्व का महिमामंडन करना है और न ही किसी को नीचा दिखाना है। अपितु ये के कोई कितना भी दानवीर हो, शूरवीर हो, सहृदयी हो, प्रतापी हो परन्तु यदि वो असत्य, अधर्म,अन्याय,अमानवीयता, अपराधी,अनैतिकता, दुराग्रही, दुराचारी का साथ देता है तो वो भी अपराधी व अधर्म का सहयोगी ही माना जायेगा और उसके लिए वही दंड का विधान सुनिश्चित होगा जो अपराधी के लिए है।
यह मेरी मौलिक रचना है इसका सर्वाधिकार ©️ सुरक्षित है।
इसका उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं है और न ही किसी ऐतिहासिक पात्र का उपहास करना, मेरा निवेदन है कि इसे भूतकाल, वर्तमान अथवा भविष्य की किसी व्यक्तिगत घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाए, यह एक ऐतिहासिक प्रकरण है ,फिर भी यदि इससे किसी की भावना आहत होती है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
इसका उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं है और न ही किसी ऐतिहासिक पात्र का उपहास करना, मेरा निवेदन है कि इसे भूतकाल, वर्तमान अथवा भविष्य की किसी व्यक्तिगत घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाए, यह एक ऐतिहासिक प्रकरण है ,फिर भी यदि इससे किसी की भावना आहत होती है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।
अजय कुमार पाण्डेय
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भाग-1
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय।
यदुवंशी नृप शूरसेन सुुता
कुंती जब सयानी भई
यदुवंशी नृप शूरसेन सुुता
कुंती जब सयानी भई
महात्माओं की सेवा में
थी फिर वो रम गई।।1।।
आतिथ्य गृह में ऋषियों
की मन से सेवा करती
उसके सेवा से प्रसन्न
ऋषि सभी रहा करते।।2।।
एक दिन आतिथ्य गृह में
ऋषि दुर्वासा आ पहुंचे
कुंती की सेवा से विह्वल
एक मंत्र उसे वो दे बैठे।।3।।
जिस भी देव का स्मरण कर
उनका तुम आवाहन करोगी
उनके जैसा ही तेजस्वी
पुत्र बेटी तुम प्राप्त करोगी।4।।
कौतूहल वश एक दिन कुंती ने
उस मन्त्र का जाप किया
सूर्यदेव का स्मरण करके
फिर उनका आह्वान किया।।5।।
सूर्यदेव प्रकट हो पूछे
क्यों मेरा आवाहन किया
पूर्ण होगा मन्तव्य तुम्हारा
जिसका तुमने संधान किया।।6।।
इस वरदान से विवश हो
खाली नहीं मैं जा सकता हूँ
मेरे जैसा पुत्र प्राप्त तुम्हे हो
वरदान तुम्हे मैं देता हूँ।।7।।
वक्त आने पर सूर्यदेव सा
तेजस्वी ने जन्म लिया
कवच-कुंडल देह धरे
नया अध्याय प्रारंभ हुआ ।।8।।
वो कुंती का कानीन पुत्र था
लोक लज्जा से भयभीत हुई
रख पिटारी में उसको फिर
गंगा धार में बहा गयी।।9।।
भाग 1 समाप्त
©️ अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
--------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग 2
गतांक से आगे.......
बहता बहता वह बालक
उस स्थान पर जा पहुंचा
धृतराष्ट्र का सारथी अधीरथ
अश्व को जल पिला रहा था।।10।।
निस्संतान दंपत्ति था अधीरथ
उसने बालक को गले लगाया
पालन पोषण किया दोनों ने
राधेय उसको नाम दिया।।11।।
सूत वंश में पला बढा वो
पग पग पर छला गया वो
तन से जितना शूरवीर था
मन से उतना ही भावुक था।।12।।
सूतवंशी के कारण गुरु द्रोण ने
जब शिक्षा देने से इनकार किया
परशुराम से पहचान छिपा कर
शिक्षा उनसे प्राप्त किया।।13।।
था स्वभाव से दानी लेकिन
पौरुष का अभिमानी था वो
हठ उसके स्वभाव में था, पर
लक्ष्य का सदा आकांक्षी था वो।।14।।
पर तेज कहां किसी पौरुष का
कब तक यहां कहाँ छिपता है
शूरवीर पौरुष हैं जो भी
वो तिरस्कार कब कहाँ सहता है।।15।।
नहीं शिक्षा पे अधिकार किसी का
ये तो है अभ्यास पे निर्भर
युद्ध कला व ज्ञान योग का
कर्मठता से स्वविकास किया।।16।।
अपनी कर्मठता से जग को
आगे बढ़कर ये दृष्टान्त दिया
शिक्षा कुलीन का ही अधिकार नही
है सबका इसपर अधिकार सही।।17।।
भाग 2 समाप्त
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
-------------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग 3
गतांक से आगे......
शस्त्र-शास्त्र की दीक्षा लेकर
राजकुंवर सब महल को आये
कौशल दिखलाने की खातिर
नियत दिन रंगभूमि सब आये।।18।।
रंगभूमि में योद्धा सारे
इक इक कर पौरुष दिखलाये
अर्जुन ने जब प्रत्यंचा साधा
राधेय ने तब उसको साधा।।19।।
इतना गर्व न कर तू खुद पर
इस क्षण कर तू मेरा सामना
जो इतना अभिमान है खुद पर
तो रंगभूमि से नहीं भागना।।20।।
कहकर लक्ष्यों का सारे
उसने भी संधान किया
इक इक कर सारी विद्या का
फिर उसने परिणाम दिया।।21।।
देख के रणकौशल उसका
जनता सारी दंग रह गयी
गूंजी जब टंकार धनुष की
आंखे सब स्तब्ध रह गयी।।22।।
सुनकर ललकार कर्ण की
शूरवीर सब हतप्रभ हुए
डगमग हुआ तब सिंहासन
राजवंश निःशब्द हुए।।23।।
कृपाचार्य फिर आगे बढ़कर
उससे उसका परिचय पूछा
अर्जुन तो है राजवंश का
उसके कुल का वैशिष्ट्य पूछा।।24।।
रंगभूमि है उन योद्धा की
राजवंश से संबंध जो रखते
जो तुम ठहरे राजवंश के
भागीदार यहां तब हो सकते।।25।।
सूतपुत्र हूँ मैं लेकिन
इसमें मेरा दोष नहीं
शिक्षा तो स्वाभाविक है
इसका कुल से मेल नहीं।।26।।
जो अर्जुन है वीर यहां तो
पास क्यूं नहीं फिर आता
जो भुजबल पर विश्वास उसे है
विश्वास नहीं क्यूं दिखलाता।।27।।
भाग 3 समाप्त
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
---------------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग 4
गतांक से आगे.....
कृपाचार्य फिर उठकर बोले
व्यर्थ न अपना रक्त जलाओ
ये रंगभूमि है राजवंशी की
व्यर्थ न सबका वक्त गंवाओ।।28।।
जात-पांत की बातें सुनकर
हृदय क्षोभ से भर आया
निकल सभा में दुर्योधन
आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया।।29।।
अपमान वीर का रंगभूमि में
इसका मैं खंडन करता हूँ
राजवंश यदि पहचान वीर की
अंगदेश अर्पित करता हूँ।।30।।
दुर्योधन का भाव देखकर
राधेय तब विह्वल हुआ
कृतज्ञ भाव भरे हृदय में
स्वयं को पूर्ण समर्पित किया।।31।।
भरी सभा में हाथ बढ़ाकर
तुमने मेरा मान बढ़ाया है
निश्चय है, अटल सत्य है, ये
ऋण से उऋण नहीं हो पाऊंगा।।32।।
बढ़ता देख मान कर्ण का
सभाजन तब विचलित हुए
कृपाचार्य के बीचबचाव से
संवाद सभी स्थगित हुए।।33।।
रंगभूमि के आयोजन सारे
तत्क्षण में सभी स्थगित हुए
इक-इक कर उठ चले पुरवासी
क्षोभ-हर्ष हृदय में भरे हुए।।34।।
अंगदेश का शासन पाकर
राधेय तब अंगराज भए
एक वीर का सान्निध्य पाकर
दुर्योधन भी हर्षित हुए।।35।।
तप-त्याग दानवीरता में
नहीं था उसका कोई सानी
पर दुर्योधन से निष्ठा वश
न रोक सका उसकी मनमानी।।36।।
मित्रता निष्ठा मात्र नहीं है
ये इक प्यारा बन्धन है
महके जिससे जीवन सारा
ऐसा सुगन्धित चंदन है।।37।।
कर्ण मगर भूल यही
जीवन भर करता आया
दुर्योधन के कुटिल भाव का
मूक समर्थन करता आया।।38।।
एहसानों का मतलब ये
कभी नही हो सकता
अपराधों पर मौन साधकर
महान नहीं कोई हो सकता।।39।।
भाग 4 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
--------------------------------
राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग 5 प्रारंभ
गतांक से आगे...…
परशुराम से शिक्षा खातिर
था उसने आघात किया
छिपाकर परिचय अपना
शिक्षा उनसे प्राप्त किया | | 40 ||
एक दिन कानन में
गुरुवर विश्राम कर रहे
कर्ण के उरु पर सर रख
गुरुवर विश्रान्ति कर रहे ||41||
विश्राम भंग न हो गुरु की
कर्ण चिंतन में लीन हुआ
विषकीट कहीं से तभी एक
आसन के नीचे उदित हुआ ||42||
लगा काटने कर्ण के उरु को
बहते रक्त को रोके कैसे
धर्मसंकट बड़ा विकट था
विश्राम गुरु का तोड़े कैसे||43||
बैठा रहा अटल अविचल वो
दर्द, तड़प,पीड़ा को रोके
लहू की गर्म धार बह निकली
परशुराम विस्मित तब जागे ||44||
सहनशीलता इतनी तुझमें
विप्र नहीं तू हो सकता
इतनी असह्य वेदना
क्षत्रिय ही सह सकता ||45||
शीघ्र बता परिचय अपना
वरना इसका फल पायेगा
मेरी क्रोधाग्नि से तत्क्षण
भस्म यहां तू हो जायेगा ||46||
सूतपुत्र कर्ण हूँ मैं
करुणा का आकांक्षी हूँ
शिक्षा का उद्देश्य लिए
मैं कृपा का अभिलाषी हूँ||47||
जानकर गुुरुवर परिचय मेरा
शिक्षा आप मुझे न देते
झूूूठा हूँ अपराधी हूँ मैं
क्षमा दान मुझे दे दीजे||48||
परशुराम के चरणों में
साक्षात दंडवत हो गया
जीवन चरणों में त्यागूंगा
जीवनदान नहीं मांगूंगा 49||
देख कर्ण की त्याग,तपस्या
गुरु विचलित हो बैठे
झूठ बोल विद्या ली उसने
श्राप इसलिए दे बैठे ||50||
प्राणदान दे रहा तुम्हें
पर शिक्षा हर लेता हूँ
विद्या का अंतिम चरण
तेज सभी हर लेता हूँ ||51||
सिखलाया है जो भी विद्या
उचित समय भूल जायेगा
ब्रम्हास्त्र लिया है जो तूने
काम नहीं तेरे आएगा ||52||
गुरुवर के श्राप से व्याकुल
था उसने आघात किया
छिपाकर परिचय अपना
शिक्षा उनसे प्राप्त किया | | 40 ||
एक दिन कानन में
गुरुवर विश्राम कर रहे
कर्ण के उरु पर सर रख
गुरुवर विश्रान्ति कर रहे ||41||
विश्राम भंग न हो गुरु की
कर्ण चिंतन में लीन हुआ
विषकीट कहीं से तभी एक
आसन के नीचे उदित हुआ ||42||
लगा काटने कर्ण के उरु को
बहते रक्त को रोके कैसे
धर्मसंकट बड़ा विकट था
विश्राम गुरु का तोड़े कैसे||43||
बैठा रहा अटल अविचल वो
दर्द, तड़प,पीड़ा को रोके
लहू की गर्म धार बह निकली
परशुराम विस्मित तब जागे ||44||
सहनशीलता इतनी तुझमें
विप्र नहीं तू हो सकता
इतनी असह्य वेदना
क्षत्रिय ही सह सकता ||45||
शीघ्र बता परिचय अपना
वरना इसका फल पायेगा
मेरी क्रोधाग्नि से तत्क्षण
भस्म यहां तू हो जायेगा ||46||
सूतपुत्र कर्ण हूँ मैं
करुणा का आकांक्षी हूँ
शिक्षा का उद्देश्य लिए
मैं कृपा का अभिलाषी हूँ||47||
जानकर गुुरुवर परिचय मेरा
शिक्षा आप मुझे न देते
झूूूठा हूँ अपराधी हूँ मैं
क्षमा दान मुझे दे दीजे||48||
परशुराम के चरणों में
साक्षात दंडवत हो गया
जीवन चरणों में त्यागूंगा
जीवनदान नहीं मांगूंगा 49||
देख कर्ण की त्याग,तपस्या
गुरु विचलित हो बैठे
झूठ बोल विद्या ली उसने
श्राप इसलिए दे बैठे ||50||
प्राणदान दे रहा तुम्हें
पर शिक्षा हर लेता हूँ
विद्या का अंतिम चरण
तेज सभी हर लेता हूँ ||51||
सिखलाया है जो भी विद्या
उचित समय भूल जायेगा
ब्रम्हास्त्र लिया है जो तूने
काम नहीं तेरे आएगा ||52||
गुरुवर के श्राप से व्याकुल
हतप्रभ कर्ण विकल हुआ
ऐसा श्राप देेकर गुरुवर
प्रण मेरा क्यूं हर लिया।।53।।
श्राप अटल है, अविचल है
तुम्हें वहन अब करना है
कवच-कुंडल धारी तुम हो
स्वयं दीप्तीवान रहना है।।54।।
कवच-कुंडल धारी तुम हो
तुम्हें हरा न कोई पायेगा
उच्च व्यवहार किया वरण तो
जीत नहीं कोई पायेगा।।55।।
ऐसा कह परशुराम जब
प्रस्थान को तैयार हुए
अश्रुधार से चरण धोकर
गुरुदक्षिणा दान दिए।।56।।
झूठ बोल, कपट ले मन में
शिक्षा प्राप्त न हो सकता
उद्देश्य चाहे जैसा भी हो
मंतव्य सफल न हो सकता।।57।।
ईर्ष्या द्वेष भरा जब मन में
क्रोध, संताप हावी हृदय में
बुद्धि, विवेक हर लेता है
क्रोध नियंत्रित करता मन को।।58।।
शिक्षा का औचित्य नहीं
तब कोई रह जाता
विवेकहीन हो जाता जीवन
औचित्य नहीं कुछ रह जाता।।59।।
भाग 5 समाप्त
क्रमशः.......
©️अजय कुमार पाण्डेय
----------------------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6
गतांक से आगे......
द्रौपदी के स्वयंवर में
फिर उसका अपमान हुआ
सूतपुत्र कह द्रुपदसुता ने
वरण करने से इनकार किया।।60।।
भरी सभा मे अपमानित हो
मन ही मन वो कुपित हुआ
अर्जुन की बर्बादी का फिर
उसने मन मे प्रण लिया।।61।।
द्यूत क्रीड़ा के छल में
वो दुर्योधन का साथी था
शकुनि की कुटिल चाल का
स्वयं वो भी साक्षी था।।62।।
द्यूत क्रीड़ा में पांडव जब
अपना सब कुछ हार गए
द्रौपदी को दांव लगाया
उसको भी जब हार गए।।63।।
भरी सभा में जब दुर्योधन ने
पांचाली का अपमान किया
अट्टहास किया तब उसने
वेश्या उसको नाम दिया।।64।।
दासी है पांचाली यहां
इसको अब निर्वस्त्र करो
हार चुके पाण्डव सब कुछ
इससे ही मन मुदित करो।।65।।
द्रौपदी का चीर हरण
दुःशासन जब करने लगा
किया ध्यान केशव का
तब चीर रूप प्रकट हुआ।।66।।
लिया शपथ पाण्डवों ने
सबका वो संहार करेंगे
जिसने भी अपमान किया
नहीं उन्हें वो माफ करेंगे।।67।।
दुर्योधन के अन्याय में
कर्ण भी साथी बन गया
अत्याचारी का साथ निभा
खुद अत्याचारी बन गया।।68।।
कर्ण की सारी शिक्षा
व्यर्थ वहां पर हो गयी
विवेकशून्य हो गया वहां
नैतिकता उसकी गिर गयी।।69।।
इसका परिणाम बहुत भारी था
बोझ नही कोई उठा सका
एक सती के क्रंदन का
मोल कोई कब चुका सका।।70।।
भाग -6 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-7
गतांक से आगे......
हुआ पूर्ण अज्ञातवास
पाण्डव जब वापस आये
मन में द्यूत का क्षोभ भरे
वीरत्व का उत्साह भी लाये।।71।।
सारी युक्ति विफल हुई
शांति मार्ग सब बंद हुए
वासुदेव के शांतिप्रयास
पूरी तरह विफल हुए।।72।।
युद्ध अवश्यंभावी देख
माधव ने संज्ञान लिया
मिले कर्ण से तब जाकर
उसका फिर परिचय दिया।।73।।
ज्येष्ठ कौन्तेय हो वीरवर
सूतपुत्र न स्वयं को मानो
दुर्योधन की मति है मेरी
अब उसके दिन हैं भारी।।74।।
दुर्योधन का मन नहीं बदल सकता
विनाश युद्ध का रुक नही सकता
तुम अब स्वयं की पहचान करो
इंद्रप्रस्थ का आसन स्वीकार करो।।75।।
दुर्योधन मित्र है मेरा
उसकी हार देखूँ कैसे
शपथ दी मित्रता की मैंने
स्वार्थी बन तोडूं कैसे।।76।।
माना मैं ज्येष्ठ कौन्तेय हूँ
पाण्डव सहर्ष स्वीकार करेंगे
मुकुट उतार मस्तक से अपने
धर्मराज मेरे शीश धरेंगे।।77।।
पर मेरे वचनों का क्या
जो दुर्योधन को देता आया
मेरे ही सम्मान के लिए
वो जग से है लड़ता आया।।78।।
तन मन धन अर्पित सब उसको
जीवन मेरा समर्पित है उसको
उसको है विश्वास मुझी से
है विजय की आस मुझी से।।79।।
आस मैं उसकी तोडूं कैसे
वचनबद्धता छोडूं कैसे
ये अब है आसान नहीं
कृतध्नता स्वीकार नहीं।।80।।
कहकर रथ से उतर गया
लिए नेत्र में शपथ गया
माधव विस्मित देख रहे
उसके प्रण की सोच रहे।।81।।
किस दोराहे पर लाकर
जीवन ने उसको छोड़ा
वचनबद्धता और रिश्तों ने
उसको भीतर तक झिंझोड़ा।।82।।
वचनबद्धता दृढ़ थी उसकी
उसको न वो तोड़ सका
अपनी वचनों की खातिर
साथ न उसका छोड़ सका।।83।।
जीवन है संग्राम यहां
वचनों का है मान यहाँ
पर अधर्म से वचनबद्धता
देता दुःखद परिणाम सदा।।84।।
भाग 7 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः....
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-8
गतांक से आगे......
कर्ण युग का महा दानवीर था
उस जैसा उस क्षण कोई नहीं था
अपनी दानशीलता से उसने
अगणित को सुख पहुंचाया था।।85।।
रवि पूजन पश्चात वहां
जो कोई भी आता था
कर्ण उसे मुँहमाँगा देता
रीते नहीं लौटाता था।।86।।
इंद्र ने धर वेश विप्र का
कुंडल-कवच कर्ण से मांगा
सहर्ष समर्पित किया कर्ण ने
निराश नहीं उनको लौटाया।।87।।
सूरज अपना तेज त्याग दे
शीतलता भी चन्द्र त्याग दे
अटल प्रतिज्ञा थी कर्ण की
निराश न जाये कोई द्वार से।।88।।
इंद्र के व्यवहार से पहले
कर्ण कुछ विचलित हुआ
कवच-कुंडल बिना हराऊँगा
उसने प्रण सुनिश्चित किया।।89।।
दानशीलता देख कर्ण की
इंद्र को भी क्षोभ हुआ
शक्ति वरदान दिया फिर
जो एक प्रयोग में लुप्त हुआ।।90।।
युद्ध निश्चिवत हो जाने पर
कुंती का मन व्याकुल हुआ
पुत्रों के मध्य युद्ध रोकने का
उसने फिर निश्चय किया।।91।।
समझाने कर्ण को फिर
कुंती उसके पास गई
कुंती को देख पास अपने
शीश श्रद्धा से झुक गया।।92।।
प्रथम बार आईं हैं आप यहां
राधेय का प्रणाम स्वीकार करें
हृदय बींध गया बातों से उसकी
ज्येष्ठ कौन्तेय आशीष स्वीकार करें।।93।।
मैं तुम्हारी जननी हूँ
मैंने ही तुमको जाया है
लोकाचार के भयवश
मैंने तुमको त्यागा था।।94।।
भूल हुई मुझसे कौन्तेय
मैं तुम्हारी अपराधी हूँ
सच कहती हूँ याद में तेरी
रात-रात भर जागी हूँ।।95।।
ज्येष्ठ कौन्तेय होने के कारण
साथ नही दुर्योधन का देना
अन्याय के प्रतिकार के लिए
साथ पाण्डवों के तुम रहना।।96।।
मेरी है इच्छा यही अब
निवेदन मेरा स्वीकार करो
युद्ध जीत कर कौरव से
सिंहासन स्वीकार करो।।97।।
कर्ण ने तब बोला मां से
जन्मते ही तुमने त्याग दिया
सूतपुत्र कहलाया जब जब
दुर्योधन ने साथ दिया।।98।।
सूतपुत्र होने के कारण
पग-पग पर अपमान हुआ
जब सबने दुत्कारा मुझको
तुमने भी न मान दिया।।99।।
दुर्योधन के उपकारों पर
आघात नहीं मैं कर सकता
जीवन की लालसा में अपने
कृतध्न नहीं मैं बन सकता।।100।।
मैं वचन बद्ध हूँ दुर्योधन से
जिसने मुझको सम्मान दिया
जग ने अपमान किया जब
बस उसने ही साथ दिया।।101।।
किंतु आना यहां आपका
व्यर्थ नहीं जाने पायेगा
वचनबद्ध होता हूँ आपसे
पाण्डव पांच ही रह जायेगा।।102।।
अर्जुन के अतिरिक्त यहां मैं
नहीं किसी पे वार करूंगा
हार सुनिश्चित हुई देख
मृत्यु का मैं वरण करूंगा।।103।।
इस युद्ध में प्रण है माता
मृत्यु दो में एक की होगी
है यही प्रतिज्ञा मेरी आपसे
माता पांच पुत्रों की रहेंगी।।104।।
सुनकर बातें कर्ण की
कुंती निरुत्तर हो गयी
हृदय में व्यथा लिए
नम आंखों से चली गयी।।105।।
भाग 8 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9
गतांक से आगे......
कुरुक्षेत्र के रण में दोनों
सेना जब सामने भयी
एक दूसरे का सामर्थ्य
आंखों से परखने लगीं।।106।।
वीरों से व अतिवीरों से
थी सुसज्जित दोनों सेना
एक ओर दर्प बड़ा था
दूजे धर्मराज की सेना।।107।।
पितामह ने कहा कर्ण से
युद्ध भूमि में नहीं जाएगा
जब तक जीवित भीष्म रहेंगे
सेनापति नहीं बन पाएगा।।108।।
दोनों पक्षों में भीषण
संग्राम वहां होने लगा
दोनों पक्षों के अगणित
शव नित नित गिरने लगा।।109।।
भीष्म, द्रोण जैसे महारथी
एक एक कर परास्त हुए
विचलित देख दुर्योधन को
कर्ण उसे ढांढस दिए।।110।।
युद्ध के दौरान सभी
नैतिकता सारे पस्त हुए
अभिमन्यु का वध करने
प्रतिमान सारे ध्वस्त हुए।।111।।
अर्जुन वध के लिए कर्ण ने
आसुर व्रत अनुष्ठान किया
युद्ध के सोलहवें दिन फिर
उसे सेनापति नियुक्त किया।।112।।
अर्जुन के अतिरिक्त कर्ण ने
पाण्डवों को पराजित किया
कुंती के वचन फलस्वरूप
नहीं किसी का वध किया।।113।।
युद्ध में हो पराजित जब
सभी शिविर में चले गए
मद में चूर दुर्योधन तब
डींगें फिर हांकने लगे।।114।।
पर कर्ण को था बोध
संवाद नही अब रण होगा
अर्जुन से उसके युद्ध का
परिणाम बड़ा भीषण होगा।।115।।
भाग 9 समाप्त
--------------
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10
गतांक से आगे.......
बहुप्रतीक्षित निर्णायक दिन
युद्ध का आखिर आ गया
अर्जुन की क्षति की खातिर
कर्ण ने भार्गवास्त्र चला दिया।।116।।
भार्गवास्त्र का प्रभाव तेज था
सब छिन्न-भिन्न होने लगे
सेना में हाहाकार मची तब
सब अर्जुन के पास गए।।117।।
भार्गवास्त्र की काट वहां
असंभव था सबके लिए
यदि अर्जुन रण से भागेगा
भार्गवास्त्र कर्ण वापस लाएगा।।118।।
फिर कृष्ण ने अर्जुन के
पलायन का मार्ग बनाया
भागते देख अर्जुन को
भार्गवास्त्र वापस लाया।।119।।
दोनों पक्षों की सेना के
महान शूरवीर थे लड़ रहे
रुक गयी अवनि जैसे
देवलोक भी जड़ गए।।120।।
बाणों की वर्षा से दोनों
इक दूजे को घात रहे
कोई नहीं ढीला पड़ता
वक्त वहीं ठहर गया।।121।।
दोनों का संग्राम बड़ा था
आखिर उनका नाम बड़ा था
बाणों की वर्षा से सारे
अवनि-अंबर ढंक गए।।122।।
अर्जुन के बाण कर्ण के
रथ पर थे बरसने लगे
उन बाणों के फलस्वरूप
रथ कई गज खिसकने लगे।।123।।
पर कर्ण के बाणों से केवल
कुछ बलिश्त ही खिसका पाया
कृष्ण ने करी प्रशंसा उसकी
अर्जुन को हतप्रभ अचंभित पाया।।124।।
क्या उसके वार सभी
मेरे वार पर हावी हैं
ऐसा क्या है किया कर्ण ने
जिससे आप प्रभावित हैं।।125।।
उसके रथ पे भार मात्र शल्य का है
तुम्हारे रथ स्वयं हनुमान विराजे
इतनी शक्ति वारों में उसके
जो उनका भी रथ खिसका दे।।126।।
कितनी ही बार युद्ध में दोनों ने
इक दूजे की प्रत्यंचा काट दिया
नागास्त्र प्रयोग किया जब कर्ण ने
माधव ने अर्जुन का रथ धँसा दिया।।127।।
नागास्त्र विफल होता देख कर
अश्वसेना नाग ने निवेदन किया
पर माता कुंती के वचनस्वरूप
पुनः प्रयोग को मना किया।।128।।
यद्दपि युद्ध गतिरोध पूर्ण था
पर कर्ण उस पल उलझ गया
जब उसके रथ का पहिया
धरती में जाकर धँस गया।।129।।
वह अपने दैवी अस्त्रों का
प्रयोग नहीं कर पाता था
गुरु के श्राप के कारण
असमर्थ स्वयं को पाता था।।130।।
तब किया निवेदन कर्ण ने
कुछ पल युद्ध को रोक दे
रथ का पहिया निकलने तक
अर्जुन उसको एक मौका दे।।131।।
कृष्ण ने कहा पार्थ से---
युद्ध नियम की बातें करने का
उसको है अधिकार नहीं
अभिमन्यु वध के पल में क्या
नियम उसे था याद नहीं।।132।।
भरी सभा में जब उसने
पांचाली का अपमान किया
एक नारी के वस्त्र हरण पर
धर्म उसका था कहां गया।।133।।
अब धर्म की बातें करने
है उसका अधिकार नहीं
कर्ण का वध करना अब
है यहां कोई अपराध नहीं।।134।।
यदि अभी कर्ण को न मारे तो
युद्ध कभी न जीत पाओगे
सत्य पुनः संकट में होगा
धर्म नहीं फिर ला पाओगे।।135।।
तब अर्जुन ने दिव्यास्त्र के द्वारा
सर कर्ण का धड़ से अलग किया
ज्योति कर्ण के धड़ से निकली
जो सूर्य में जाकर समाहित हुआ।।136।।
कर्ण ऐसा योद्धा था जग में
जो कभी-कभी ही आते हैं
कितनी भी विषम स्थिति हो
अपना आत्मबल दिखलाते हैं।।137।।
कर्ण भले ही दानवीर था
शूरवीर था, युद्धवीर था
अनैतिकता का साथ निभाकर
नैतिकता पर आघात किया।।138।।
संघर्षरत मानव की खातिर
कर्ण सदा प्रतिमान रहेगा
सत्य, धर्म जो भी त्यागेगा
कर्ण जैसा परिणाम सहेगा।।139।।
जीवन अपना अमूल्य निधि है
इसका तुम सम्मान करो
सत्य ही शिव, शिव ही सुंदर
इसी भाव का ध्यान धरो।।140।।
इतिश्री
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स्मरण- ये मेरी मौलिक रचना है, इसका सर्वाधिकार सुरक्षित है।
©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 मई, 2020