हार नहीं मानूंगा।
जीवन इक संग्राम यहां है
वरदान नही मांगूंगा
जब तक समर शेष जीवन का
मैं हार नहीं मानूंगा।
आंधी आयें तूफां आयें
या कितनी विपदाएँ आयें
मोड़ बड़े या रोक बड़े हों
या फिर आशंकाएं आएं।
मैं हार नही मानूंगा
वरदान नहीं मांगूंगा।
जन मन की प्रचंड वेदना
मैं तुम तक पहुंचाऊंगा
इन नैनों में छिपी यंत्रणा
मैं तुमको दिखलाऊंगा।
मैं सत्ता के महाशीर्ष तक
दर्द जन जन का पहुंचाऊंगा
राज धर्म रक्षित होने तक
मैं नित नित लिखता जाऊंगा।
समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।
धर्म के रक्षक भयाक्रांत हो
भक्षक से जब मिल जाएंगे
धर्म की रक्षा मुश्किल है तब
न्याय कहां मिल पाएंगे।
ये मत सोचो कि लघु मात्र हूँ
निर्बल, दुर्बल, दया पात्र हूँ
मैं स्याही की अमिट बूंद हूँ
मस्तक पर छप जाऊंगा।
समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।
किंचित यदि विजय मिल जाये
अस्मित को कभि अर्थ मिल जाये
मैं तनिक नहीं सुस्ताऊंगा
अविचल चलता जाऊंगा।
नव जीवन मार्ग प्रशस्त तक
मैं हार नहीं मानूंगा
अविरल, चलता जाऊंगा
पर वरदान नहीं मांगूंगा।।
समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20 अप्रैल, 2020
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