बर्दाश्त नहीं करते


बर्दाश्त नही करते

ऐसा क्यूँ लगता है मुझको
मौलिक भारत छूट रहा
अभिव्यक्ति के नाम पे मानो
खण्ड खण्ड ये टूट रहा।
ये कैसी आजादी है
ये कैसा व्यवहार है
भारत के टुकड़े चाहने वालों के
कैसे पहरेदार हैं।
भृष्ट हो चुकी आज व्यवस्था
कुंद पड़ी तलवार है
भारत को गाली देने वालों की
कैसी जयजयकार है।
मत भूलो एक जयचंद ने
कैसे भारत बर्बाद किया
मगर आज तो भारत में
जयचंदों की भरमार है।
बहुत सुन चुके इनकी बातें
अब इनका प्रतिकार करो
गली मुहल्लों से चुन चुनकर
अब इनका संहार करो।
कैसे कैसे लोग पड़े हैं
सत्ता के गलियारों में
गिरगिट जैसे रंग बदल रहे
सत्ता के गलियारों में
कुर्सी से चिपके रहने को
ये इतने बेताब हैं
गिरवी रखने को अपना
जमीर तक तैयार हैं।
कितना अंतर आ चुका है
अब इनके व्यवहारों में
जैसे शकुनि चाल चक रहा
सत्ता के गलियारों में।
बंट रहा है अखण्ड भारत
अब जाति धर्म के नारों में
एकलव्य फिर ठगा जा रहा
सत्ता के गलियारों में।
कितने सपने चूर हो रहे
इनके झूठे वादों से
पर अलसाये पड़े हुए सब
सत्ता के गलियारों में
मजलूमों का हमदर्द नही है
सत्ता के गलियारों में
सबके अपने स्वार्थ सधे हैं
सत्ता के गलियारों में।
मेरा भी मन करता है 
झूमूँ, नाचूं, गाऊं मैं
अभिव्यक्ति की तथाकथित
आजादी वाले गीत सुनाऊं मैं
पर क्या करूं मैं राणा प्रताप
शिवाजी का अनुयायी हूँ
शकुनि और जयचंदों जैसी भाषा
खुद में कहां से लाऊं में।
मैं दर्पण टांगे फिरता हूँ
उनको कहां से भाऊंगा
उनके जैसी कुटिल भावना
खुद में कहां से लाऊंगा।
जनता अब ये पूछ रही है
सत्ता के गलियारों से
कब तक चलनी होगा भारत
गद्दारों के वारों से
हम गीता के अनुयायी हैं
पहला वार नही करते
पर जो मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।
पर जो मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16 अप्रैल, 2020

2 टिप्‍पणियां:

  1. उत्कृष्ट रचना।
    सत्य को सुंदर व कलात्मक ढंग से प्रकट करने वाले आपकी इस कविता हेतु धन्यवाद।

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