मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।
कलम उठा के मैंने सोचा
मैं भी कुछ श्रृंगार लिखूँ
रोली, कुमकुम, बिंदी, कंगन
वाले कुछ उद्गार लिखूँ।
पर कलम मेरी रुक जाती
देख के उस तस्वीर को
जिसमें भारत घायल बैठा
विघटनकारी तीर से।
दूर हिमालय मौन खड़ा है
लहरों में ललकार नहीं
इस बेड़ी को तोड़ सकें
क्या इतना अब अधिकार नहीं।
आज स्वार्थी हुई प्रतिज्ञा
राजनीति के साये में
आदर्शों की बोली लगती
राजनीति के साये में।
ऐसी हालत देख के बोलो
मैं कैसे चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ होने पर भी
मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।
अनादर्शों के हाथों में
अब आदर्शों की डोर है
स्वार्थ प्रभावी हाथों में
अब राजनीति की डोर है।
भाषाओं को तो खा चुके हैं
संस्कृति को भी खा रहे
भारत की नैतिकता को
दीमक जैसे चाट रहे।
ऐसी असहनीय पीड़ा में
कैसे मैं चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ देख के बोलो
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।
आज व्यवस्था बंधक बैठी
ताकतवर के ज़ोर पे
सत्यकाम हो रहा पराजित
झूठों के सिरमौर से।
अभिव्यक्ति के नाम पे देखो
वोटों का बाजार सजा
राष्ट्रहित को गिरवी रखकर
गद्दारों का सम्मान किया।
मैं भारत माँ का बेटा हूँ
कैसे मैं चुपचाप रहूं
जबतक उसका आँचल छलनी है
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।।
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26अप्रैल, 2020
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