गंगा की पुकार।
चीख रही है श्रद्धा सारी
पीड़ित है विश्वास हमारा
अंधकार चहुंओर दिख रहा
खतरे में पड़ा मोक्ष का सहारा।
गोमुख से निकली गंगा
निर्मल, कल कल बहती गंगा
मैदानों को उपजाऊ करती
जीवन का प्रतिपालन करती।
जन हंसता तो हंसती गंगा
जन रोता तो रोती गंगा
माता कहते इसको हम सारे
गंगा हम सबकी पालनहारी।
स्वयं तो पल पल विष है पीती
पर जन जन को मोक्ष है देती
भयातुर हूँ खो न जाये, वेदों और पुराणों में
सिमट न जाये पाटों में, स्वार्थ सिद्ध व्यवहारों से।
किस दर्पण में देखूँ अपना मुखड़ा
जब जल तेरा गन्दगी का मारा
मलिन हुई है जब से गंगा
मलिन हुआ है मन हमारा^
(^- नज़ीर बनारसी जी की दो पंक्ति)
मोक्षदायिनी, जीवदायिनी, पतितपावनी
के प्रति है क्या सोचो फ़र्ज़ हमारा
मां कहते हैं यदि सब इसको
सोचो फिर क्या है कर्तव्य हमारा।
अश्रुपूरित नैनों से आज निहारती
चीखती, कलपती, भागीरथी पुकारती
मुक्त करो, गन्दगी से मुझको
मां हूँ मैं, ममता है तुमसे
मैं ही हूँ स्वाभिमान तुम्हारा।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21 अप्रैल, 2020
Very nice keep your
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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