एक वोट।
न मैं मंदिर हूँ, न मस्जिद हूँ
न मैं अमीर हूँ, न गरीब हूँ
न मैं ताकतवर हूँ, न मजलूम हूँ
मैं इस लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।
मैं घायल हूँ लोकतंत्र में,स्वार्थी हाथों की शमशीरों से
मैं घायल हूँ नित नूतन,वोट बैंक की तदबीरों से।
लगता जैसे चंद स्वार्थी ,नेताओं की जागीर हूँ
मैं लगता है जैसे टूटते,ख्वाबों की चीत्कार हूँ।
मैं खुद से खुद को ,पहुंचाने वाली चोट हूँ
जी हां, मैं लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।
सत्ता के गलियारों ने,पल पल मुझको तोला है
कभी अस्मत से खेला,कभी भावनाओं से खेला है।
सत्ता के बाजार में-
कभी अयोध्या, कभी मुजफ्फरनगर
कभी गोधरा, कभी कासगंज बनाया है,
तो कभी चुनावी मंचों से
जायकेदार चाबुक से ललचाया है।
निज स्वभाव से वशीभूत
मैं खुद के स्वभाव की खोट हूँ,
जी हां, मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।
यूँ तो मैं आजाद देश का वाशिंदा हूँ,पर
डरता हूँ निर्भया की दम घोंटती चीखों से।
मैं ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हूँ
जहां पढ़ाई महंगी, इंटरनेट व नशा सस्ता है,
मैं सियासतदानों के अनगिनत,
चालों का परिणाम हूँ,
मैं स्वार्थी राजनीतिक महारथियों की
अतृप्त वासना की हंसी चाह हूँ,
मैं चुनावी जाड़े की गर्म हसीन कोट हूँ
जी हां,मैं स्वार्थी लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।
जब सत्ता के गलियारों में नोट दिखाए जाते हैं
जब चुनावी भाषण में संवाद गिराए जाते हैं
जब जाति-धर्म देख, सिद्धांत मिटाए जाते हैं
जब रोटी की चाहत में, दूर बच्चा कोई रोता है
अनसुनी करके चीखें,कोई सुदूर देश में सोता है।
जब आतंकी मंसूबों को ,बिरयानी खिलाई जाती है।
जब सीमा पर कोई वीर,तिरंगे में लपेटा जाता है
जब उसकी नव यौवन विधवा
टूटे सपनों को खोजा करती है।
सत्ता लोलुपता की खातिर
जब बात सबूतों की चलती है,
जब बातें अपनी मनवाने को
संपत्ति, सार्वजनिक जलती है
इतने पर भी मैं मौन पड़ा हूँ
क्योंकि मैं नोटों के
बंडल की एक नोट हूँ
जी हां, मैं स्वार्थी होते इस
लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25अप्रैल, 2020
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