रिसते घाव

रिसते घाव।        

दर्द आंखों में था जो निकलता रहा
कतरा कतरा वो बन के बिखरता रहा
सारी दुनिया ने था जिसको पत्थर कहा
टूट कर आंसुओं में पिघलता रहा।

कहना चाहा बहुत पर वो कह न सका
साथ चलना तो था, मगर चल न सका
लोगों ने जाने कितनी कहानी बुनी
जो सच्ची कहानी थी कह न सका।

रिश्तों की डोर थामे चलता रहा
कभी बनता रहा, फिर बिगड़ता रहा
तमाशबीन बन के सब देखा किये
फर्ज की राह में,  चलता रहा।

प्रीत की मोतियाँ जब बिखरने लगे
डोर विश्वास की जब चिटकने लगे
ऐसे रिश्तों के होने का क्या फायेदा
जब अपने ही अपनों को खटकने लगे।

दोष मेरा तुम्हारा चलेगा पता
किसने किसको ठगा चलेगा पता
बात निकलेगी महफ़िल में जब कभी
दांव किसने चला फिर चलेगा पता।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई,2020

बुद्धपुर्णिमा


            बुद्धिपूर्णिमा।   

बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि।
अनुशीलन  मार्ग उचित 
धर्म मोक्ष का पथगामी।

वेद, पुराण, उपनिषद, ऋचाएं
चंहु दिश ज्ञान प्रकाश फैलाएं
अंधकार जब बढ़ा पाप का
धर्म, सत्कर्म की राह दिखाएं।

प्राणियों में सद्भाव है भरना
इक दूजे संग जीना मरना
राग द्वेष न बढ़े कहीं भी
आपस मे हिल मिल सब रहना।

धन वैभव सब रह जायेगा
श्रृंगार धरा सब रह जायेगा
सत्कर्मों की  गणना होगी
सद्विचार तेरा तब काम आएगा।

संयम ही सच्चा बल है
जितेंद्रिय है तू, संबल है
मानव वही मानव कहलाता
मन, कर्म, वचन से जो निर्मल है।

जीवन वही जो राह दिखाए
मनुजता का अभिप्राय बताए
एक बनें सब, नेक बनें सब
प्रतिपल नैतिकता का पाठ पढ़ाये।

परम् ज्ञान ही मोक्ष धाम है
त्याग, समर्पण गीता कुरान है
सम्यक की ताकत अपना लो
जीवन अपना ये परम् धाम है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मई, 2020


भोलाभाला डमरूवाला

         मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र

भोला भाला डमरुवाला।   

सर्प गले में, जटा में गंगा
नीलकंठ मतवाला है,
कर में थामे त्रिशूल सदा
शिव सबका रखवाला है।।

हे अचलेश्वर, हे विश्लेश्वर
हे सकल जगत के स्वामी
हे पातालेश्वर, हे सर्वेश्वर
हैं नीलेश्वर, प्रभु मेरे अंतर्यामी।।

नाथ ये जग के त्रिलोकनाथ हैं
प्रेम, समर्पण, सत्य सनात हैं
रहते इनके कोई अनाथ हो कैसे
ये त्रिपुरारी हैं, विश्वनाथ हैं।।

पीड़ा सब हरते पीड़ाहारी
नटराज मेरे हैं, संकटहारी
अंधियारे में जो राह दिखाए
त्रिलोकदर्शी है मेरे चन्द्रधारी।।

भस्म रमा करें नंदी की सवारी
मेरे शंकर मेरे त्रिनेत्रधारी
संस्कृति, सभ्यता का आधार हैं ये
मेरे उमापति ,मेरे डमरूधारी।।

शरणागत जो भी आया
सबका है उद्धार किया
सत्य की जिसने सीमा लांघी
उन सबका संहार किया।।

सरिता की निर्मलता  तुमसे
जीवन की स्थिरता तुमसे
तुम ही जगत का मूल सत्य हो
सृष्टि की निर्भरता तुमसे।।

ध्यान धरो जहां कहीं भी
स्थान पवित्र है शिवाला है
दिल खोल जो चाहो मांगो
डमरुवाला बड़ा भोलाभाला है।।

मैं जड़मति हूँ, मूढ़ अज्ञानी
दीनानाथ तुम हो महादानी
 प्रभु मेरा उद्धार करो
हे घृष्णेश्वर हे शिवदानी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26मई, 2020

रात जागूँ सदा


    रात जागूँ सदा।    

संग संग मेरे फिर रात जागी है
चाहतों की वो सारी बात जागी है
हसरतों की सेज सजाए हुए
पलकों में सारी रात काटी है।

चांद तो राह अपनी चलता रहा
अपना सफर खत्म करता रहा
दीपक की लौ टिमटिमाती रही
रात ढलती रही मन मचलता रहा।

मखमली छुअन का ही एहसास है
यूँ तो है दूर मुझसे, मगर पास है
साँसों में साँसों की खुशबू बसी
यादों में भी तेरी मधुमास है।

है यही कामना रात जागूँ सदा
प्रेमपाश में खुद को बाँधूँ सदा
रात गहरीहो, कितनी भी घनघोर हो
छुप के पलकों में तेरे रात जागूँ सदा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मई, 2020




मंज़िलों से प्यार मुझको






मंजिलों से प्यार मुझको। 

इतिहास में जो घट चुका
फिर से नहीं स्वीकार मुझको
राह जो जग चल चुका है 
चलना नहीं स्वीकार मुझको।

लक्ष्य की है चाह मुझको
उद्यम से है लगाव मुझको
विश्राम का अभी वक्त नहीं
थकना नहीं स्वीकार मुझको।

आंधी में, तूफानों  में
संभालता रहा हूँ खुदको
गलाता हूँ ताप से कंटक 
जो चुभे राह में मुझको।

कर्मयोगी बन खड़ा मैं
विश्राम नहीं स्वीकार मुझको
बीच में कैसे रुकूं मैं 
मंज़िलों से प्यार मुझको।।
***

आजकल मैं सोचता हूँ








आजकल मैं सोचता हूँ।   

आजकल मैं सोचता हूँ
खुद को पहले खोजता हूँ
है कई उलझन मगर 
ठहराव के पल खोजता हूँ।।

राह दुर्गम हो, अगम हो
व्यंजनाएँ ना सुगम हो
अवरोध कितना भी बड़ा हो
मार्ग निश्चित खोजता हूँ।।

कर्म के सब भाव हैं ये 
या नियति का कहीं प्रभाव है
इसको क्या कैसे मैं समझूं
क्या वक्त का ठहराव है।।

ठहराव जो हो सोचता हूँ
शब्दों के अर्थ खोजता हूँ
एक कदम चलने से पहले 
आजकल खूब सोचता हूँ।।

अभिमन्यु फिर नहीं फंसेगा


अभिमन्यु फिर नहीं फंसेगा।   

चक्रव्यूह है समग्र रचा
प्रभाव से इसके कौन बचा
छल, स्वार्थ विस्तृत हो रहा
क्रंदन है, कोहराम है मचा।

अनंत चुनौती राह में खड़ी
मुश्किल निर्णय की है घड़ी
पग पग पर व्यूह हैं लाखों
मात्र विजय पर आंख है गड़ी।

लोभ, मोह, अपराध बढ़ रहा
नैतिकता का अभिप्राय घट रहा
जित देखो है क्षीण प्रतिज्ञा
अवसरवादी व्यूह रच रहा।

कितनी ही विपदाएं आएं
आंधी अपनों की या
गैरों की कुंठाएं आएं
ध्यानमग्न हो युद्धरत हो
विजित करो जो बाधाएं आएं।

हूँ निहत्था पर असहाय नहीं
संघर्ष का कोई पर्याय नहीं
विजय सुनिश्चित न हो जब तक
रुकने का अभिप्राय नहीं।

अभिमन्यु फिर आज है घिरा
मिथ्याचारी व्यवहार से घिरा
विचलन नहीं रहा है मन में
चाहे निज संसार में घिरा।

व्यूह कितना ही घना है
रक्त हाथों में सना है
न तब डरा, न अब डरेगा
अभिमन्यु नहीं अब रुकेगा।

दुर्व्यवहारों को निःशब्द करेगा
कुटिलता को निःशक्त करेगा
कितना ही घना व्यूह हो
अभिमन्यु अब नहीं फंसेगा।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मई,2020


शापित होने से संभलो


शापित होने से संभलो।   

शापित हो रहा व्यवहार है शायद
शापित मनोविचार है शायद
पीड़ित हैं सब भाव हमारे
कलुषित नित्याचार है शायद।

कूटनीति का व्यवहार बढा है, 
रिश्तों में व्यापार बढा है
प्रभावशाली देहरी पर शायद
संस्कारों की कातर कतार बढा है।

हर कोई अनुकंपित लगता
नींद उसी की सोता जगता
विष व्याप्त हो रहा जगत में
विषय प्रभावित जीवन लगता।

व्यक्तिवाद से सब ग्रसित हैं लगते
निज आंखों में द्विज सपने सजते
स्वार्थी होते व्यवहारों से
तन, मन, भाव, बदन सब ढंकते।

हर कोने में क्रंदन है अगणित
सत्यकाम है घायल शापित
देख के पीड़ित व्यवहारों से
नीर, अवनि, अंबर है विचलित।

दनुज कर्मों का साम्राज्य बढा है
अतृप्त कामना का प्रभाव बढा है
हाथ जोड़ भटक रही प्रतिज्ञा
लगता सब निर्जीव खड़ा है।

अपनी सब परिभाषा बदलो
आहार, विचार, व्यवहार सब बदलो
मनुज हो तो मनुजता अपनाओ
हित-लाभ की परिभाषा बदलो।

अग्निपथ है जीवन सुन लो
अपना उचित मार्ग तुम चुन लो
शापित न हो मार्ग सत्य का
कुंठित व्यवहारों से संभलो।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
         23मई,2020



संघर्ष


संघर्ष।  

संघर्ष जीवन में प्रमुख है
संघर्षों से नहीं भागना
धैर्य, संयम, त्याग, तप का
संग तुम न त्यागना।

हैं कोटि कंटक मार्ग में
अवरोध कोटिशः मार्ग में
कर्मयोगी बन तू डटा रह
विश्वास न कभी त्यागना।

संग तेरे है धरा
गगन तेरे साथ है
सत्य का अनुगामी बन
वक्त तेरे साथ है।

अटल बन विचल नहीं
भयभीत हो किंचित नहीं
अंबर तेरा साम्राज्य है
संघर्ष कभी ना त्यागना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई, 2020

मैं तेरी परछाईं हूँ


मैं माँ की परछाईं हूँ।  

मैं माँ की परछाईं हूँ
माँ से जीवन पाई हूँ
माँ ही मेरी भोर है
मैं उसकी तरुणाई हूँ।

मुश्किल राहों की
मेरी है हमराही तू
साथ रहे जो साथ चले
वो मेरी परछाईं तू।

संघर्ष भरे अग्निपथ की
तू राहत है, गहराई है
जीवन रूपी उपवन की
खुशियों की अंगनाई है।

बेटी हूँ ताकत हूँ तेरी
इक दिन मैं दिखलाऊँगी
बेटे जो न निभा सकेंगे
वो सारे फ़र्ज़ निभाऊंगी।

तुझसे ही है जीवन पाया
संस्कार सभी तुझसे ही पाया
स्थिरता, ठहराव, तपस्या
भाव सभी तेरा अपनाया।

तू ही मेरी शक्ति सुधा है
तू मेरी सच्चाई है
तू ही वो वटवृक्ष है माँ
मैं जिसकी परछाईं हूँ।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मई,2020


मानवता का एहसास उसे दो


 मानवता का एहसास दो।  

फिर आज सड़क को चलते देखा
रक्त फफोलों से रिसते देखा
भरे विषाद हज़ारों मन में
पग-पग उनको सिलते देखा।

नवजातों को तड़पते देखा
भूख-प्यास से मचलते देखा
हाथों की अमिट लकीरों को
तड़प-तड़प कर मिटते देखा।

गठरी देखी, कथरी देखी
हाथों में टूटी छतरी देखी
भीड़ भरे सुनसान सड़क पर
मौन तड़पता जीवन देखा।

गुड्डे-गुड़ियों का क्रंदन देखा
संघर्षों से आलिंगन देखा
पल-पल आस का दीप जलाए
जीवन का अभिनंदन देखा।

छांह सघन की आस लिए
सूरज को पथ पर चलते देखा
आज राह के अंधियारों को
रोशनी के लिए तरसते देखा।

जो मनुजता है आज अगर तो
मनुजता का एहसास उसे दो
आशाओं के दीप जलाकर
मानवता का प्रकाश उसे दो।

आंखों के आंसू थम जाए
ऐसी प्रखर पुकार उसे दो
मानव हो तो आज उठो फिर
मानवता का एहसास उसे दो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मई, 2020

प्यास

         
             प्यास        

प्यासा मन क्या ढूंढ रहा
पनघट तो तेरे आस पास है
ज्ञान योग के भाव जगा
सागर विद्या का आस पास है।

विक्षिप्त न हो ये मौन समर है
पग-पग जीवन कांटों का सफर है
विचलित न हो तनिक मात्र भी
कर्मयोगी है, तू ही उद्धरण है।

हाड़-मांस का यंत्र नहीं है
तुझ जैसा अन्यत्र नहीं है
तुझमें गुम्फित कोटिश सपने
तू मात्र रूप, प्रतिबिंब नही है।

क्यूँ व्यथित घट-घट भटक रहा
प्यासा बन इत उत भटक रहा
भाग्य तेरा तेरे कर्म से जुड़ा
अन्यत्र कहीं क्यूँ भटक रहा।

हो सजग सुनिश्चित ग्रहण करो
अपने अवयव का वरण करो
व्योम ज्ञान का सकल, विशाल
प्यासे मन का उद्धरण करो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
          हैदराबाद 
          20मई, 2020

मुस्कान

            मुस्कान।                  

बेकदरी के आलम में
इतनी सी पहचान बहुत है
नहीं जरूरी सब कुछ बोलो
इक हल्की मुस्कान बहुत है।

मासूमियत से भरी हुई
आंखों में चाहत भरी हुई
इक नज़र प्यार से देखो
बस इतनी सी पहचान बहुत है।

जीवन के पथ में नित-नित
ऐसे पल भी आते हैं
जब दर्द गुजर कर हद से
बन आंसू ढल जाते हैं।

तब अंतस की पीड़ा खातिर
अनुशीलन का ज्ञान बहुत है
पुनः चेतना अनुपालन को
इक मधुर मुस्कान बहुत है।

पीड़ा का साम्राज्य वृहद हो
अंतस को जब ढंक लेता है
जब मर्माहत मन व्यथित हो
स्वयं समर्पण कर देता है।

तब जीवन के शोक सिंधु में
इक हलचल अम्लान बहुत है
पुनः चेतना अनुपालन को
इक मधुर मुस्कान बहुत है।

हर इच्छा पूरी हो सबकी
परिमाण नही कोई हो सकता
हर कहानी पूरी लिख जाए
ऐसा कम ही हो सकता।

ऐसे में जो पूरे हो जाएं
उतने ही अरमान बहुत हैं
पुनः चेतना अनुपालन को
हल्की सी मुस्कान बहुत है।।

 ✍️©अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         20मई,2020

तड़प जाती नहीं

            तड़प जाती नहीं           

चांद छूने की चाहत में चलता रहा
संग-संग लहरों के चलता रहा
मिलन की तड़प है कि जाती नहीं
तेरी आगोश को दिल मचलता रहा।।

जतन कितनी हुई खुद को समझाने की
मनाने की, दिल को बहलाने की
चाहत तेरी है कि जाती नहीं
सूरत कोई दिल को भाती नहीं।।

लहरों के जैसे मैं चलता रहा
चाह में तेरी पल-पल मैं जलता रहा
राह तेरी मैं चलता रहा हर घड़ी
चोट खा खा के लेकिन संभलता रहा।।

माना कि तुम बहुत दूर हो
चांद की चांदनी, रात का नूर हो
कुछ तो कहो, कुछ तो संकेत दो
है समर्पित मेरी सृष्टि तेरी राह में
दो कदम साथ चलने का वादा करो।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19मई, 2020

कैसे तेरा दर्द लिखूं


कैसे दर्द लिखूं।        

नारी कैसे तेरा दर्द लिखूँ
त्याग, समर्पण, प्रेम, दया
संत्रास, तपन, पीड़ा या व्यथा
उर का अलिखित दर्द लिखूँ
कैसे मैं तेरा दर्द लिखूँ।।

सदियों से आशंकाएं झेलीं
निज नैतिक परिभाषा झेलीं
पग-पग अगणित बंदिश झेली
निज स्वभाव वश कुछ न बोली।

श्रृंगार लिखूं, अंगार लिखूं
वात्सल्य हृदय व्यवहार लिखूं
सिमटे-बिखरे हालातों का
या स्नेहिल प्रभात लिखूं।।

संघर्षों की जीत लिखूं
छांव लिखूं या धूप लिखूं
प्रति पग साथ चले जो हरपल
ऐसा कुछ मनमीत लिखूं।।

अगणित तूने घाव हैं झेले
पर ममता न हुई परायी
अपनों के संत्रास हैं झेले
धैर्य, समर्पण नहीं गंवाई।

त्याग, तप का अध्याय लिखूं
गीता, बाईबल कुरान लिखूं
शब्द नहीं हैं पास मेरे 
क्या तेरा गुणगान लिखूं।।

✍️©️ अजय कुमार पाण्डेय
           हैदराबाद
 ✍️18 मई, 2020✍️

मौन हूँ अनिभिज्ञ नहीं


मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।  

मैं मौन हूँ अनिभिज्ञ नहीं
साक्षात हूँ प्रतिबिंब नहीं
महसूस कर सकता हूँ 
मैं दर्द की अनुभूतियां
अब तुम्हें कैसे बताऊँ 
बहुज्ञ हूँ, अल्पज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

सब देख सकता हूँ मैं
महसूस कर सकता हूँ मैं
शुष्क वादों की धरा को
बींध तक सकता हूँ मैं।
मेरे सब्र की सीमा सुनिश्चित
मर्मज्ञ हूँ, अल्पज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

मैं त्रस्त गर्दभ व्यवहार से
दूषित अचार से, विचार से
अनैतिकता से, भृष्टाचार से
अनैतिक व्यापार के प्रसार से
वैमनस्य से, व्यभिचार से
सब विज्ञ मुझको, अविज्ञ नहीं।
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

जो आज तेरे साथ हूँ
सद्विचारों का परिणाम हूँ
इक वोट जो मानोगे तुम
गांडीव की टंकार हूँ।
है शाश्वत के तेरे साथ हूँ
पर द्रोह पर प्रतिज्ञ नहीं
मैं मौन हूँ, अनिभिज्ञ नहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 मई, 2020


कोंपल


                  कोंपल।                    

*कोंपल*                

आस की बूंदें मचलकर
धरा पर जब पड़ी
मचल उठा मन का मयूरा
अवनी भी खिल पड़ी।

इक बीज भटका था पड़ा
स्पर्श से ही खिल पड़ा
फूटीं उनमें कोंपलें
खिलखिलाकर हंस पड़ा।

सूखी धरा तब नम हुई
इक मौन भी जीवित हुआ
लहलहा उठे उपवन सभी
श्रृंगार अवनी का हुआ।

ये कोंपलें अनमोल हैं
इनका सब स्वागत करो
सत्कर्म का परिणाम है
धैर्य जीवन में धरो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
✍️17 मई, 2020

नीड़ कहां, नींव किधर


      नीड़ कहां,नींव किधर।  

बोझिल सांसें, अभावुक चेहरा
पथराई आंखें, उदासी का पहरा
लाखों दर्द भरे भरे सीने में
तड़प रहा दिल, घाव है गहरा।

अस्थिर कदमों से चला जा रहा
आंखों के आंसू पिये जा रहा
कदम-कदम पर टीस है उठती
उन टीसों को सहे जा रहा।

सिर पे रखे जीवन की गठरी
हाथ में टूटे सपनों की छतरी
आस-निराश के द्वंद से घिरी
फिसल रही सड़क की पटरी।

सपने सारे टूटे जा रहे
झोले-गठरी चले जा रहे
झर-झर आंसू बहे जा रहे
फफोले बनकर फूटे जा रहे।

महानगरों से भीड़ चली है
नीड़ टूट फिर, नींव चली है
आस बंधी जो कभी किसी पर
बिछड़ी रोटी नींव चली है।

पैर दर्द से फटा जा रहा
बदन ताप से तपा जा रहा
चोट मगर इतनी गहरी है
बिना रुके वो चला जा रहा।

थकान उसे न थका पायेगा
भूख-प्यास न भटका पायेगा
विश्राम मिलेगा उस पल शायद
जब नींव में वापस आ जायेगा।

दर्द छोड़ फिर दर्द जियेगा
वही पुराना कर्ज जियेगा
चंद कदम सुस्ताकर शायद
पुनः पुरानी राह चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
    ✍️16 मई, 2020✍️





मिल गयी

     
               मिल गयी।  

तुम मुझे मिल गए
ज़िंदगी मिल गयी,
ख्वाब पूरे हुए
हर खुशी मिल गयी।।

दिल चुराने की अदा
सीखे तुमसे कोई,
लूट गए हम मगर
ज़िंदगी मिल गयी।।

इक पल की दूरी
अब सही जाए न,
हो कि तुमसे अलग
अब जिया जाए न।।

खुशनसीबी मेरी मुझको
तुम मिल गयी,
तेरी बाहों में मुझे
हर खुशी मिल गयी।।

अंधेरों से कह दो
अब मुझे डर नही,
तेरे रूप में 
रोशनी मिल गयी।।

तुम मुझे मिल गए
ज़िंदगी मिल गयी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
   ✍️15 मई, 2020✍️


महिमा खिचड़ी की


महिमा खिचड़ी की।  

खिचड़ी के महिमा है अपार
नहीं कउनो इसका पारावार
लरिका-बच्चा संग परिवार
करें विनीत सब बारंबार।।

अमीर-गरीब सबके प्यारी
वैद्य-हकीम सबके दुलारी
हर रोगन के रामबाण है
खिचड़ी है जन-जन की प्यारी।।

प्रभू राम के मन को भाया
पाण्डव के वनवास बिताया
इक दाना चावल का खाकर
पाण्डव को वरदान दिलाया।।

विदुर घरे पतरी पर आई
तब माधव के मन को भाई
सत्य धरम का पाठ पढ़ाया
विदुर नीति जन जन अपनाई।।

बिरबल के हथियार बनू तब
अकबर के तू पाठ पढ़ायू
इक प्रतिभागी, अधिकारी को
न्याय उचित सम्मान दिलायू।।

राणा प्रताप या लक्ष्मीबाई
क्रांती के जब अलख जगाई
तोहइँ से बलवान बने सब
मन, वचन मा शुद्धता पाई।।

आज़ादी की छिड़ी लड़ाई
तुहीं बनू तब जीवनदायी
आज़ाद, भगत, गुरु अरु बिस्मिल
सब करें खिचड़ी के बड़ाई।।

तुलसी कबीर रसखान सूर
कितने ही प्रतिमान खिलायू
गीता, वाणी, वेद, उपनिषद
संस्कृति के सम्मान दिलायू।।

नहीं केहू से भेद करियू
सब संग हिल-मिल रहा करियू
कदम कदम पे राह दिखायू
जीवन के अभिप्राय बतायू।।

अमीर गरीब तोहे चाहे
केहू से ना भेद मनायू
समाजवाद तोहसे सीखे
मिलजुल सबके रहे सिखायू।।

छल कपट से दूर रहियू तू
सबके अपनाईयु अँजुरी मां
लालबहादुर संगे आयू
तू संसद तक के पतरी मां।।

काऊ कही तोहरे खातिर
कछु शब्द नहीं है गठरी मां
जीवन भर आशीष दिहा तू
खुशहाल रहें सब नगरी मां।।

महिमा अब न जाये बखानी
निरमल यूँ गंगा के पानी
धन्य-धन्य हैं, नमन करें हम 
ज्ञान तोहइँ तुहीं जीवनदानी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2020


नगरवधू

                नगरवधू।   

सामान्य विषय से अलग आज मैं एक अलग विषय चुनकर चंद पंक्तियां प्रस्तुत कर रहा हूँ। इस रचना से मैं समाज के उस अंधेरी सच्चाई को उजागर करने का प्रयास कर रहा हूँ जिस पर नजर तो सबकी जाती है पर उसे प्रस्तुत करने में शायद हिचकिचाहट होती है। मैं आधुनिकता और मजबूरी पर अपनी चार पंक्तियां प्रस्तुत कर इस रचना की शुरुआत करना चाहूंगा--

कितना दोहरा चरित्र जीते हैं
हम,ये तब पता चला
जब कटे कपड़ों को फैशनेबल
फ़टे कपड़ों को बदचलन कहा गया।।

मेरी रचना नगरवधू आपके सभी के ध्यानार्थ प्रस्तुत है--
*************************

तंग गलियों में सिमटती
रेत के मानिंद बिखरती
पल में रोती, मुस्कुराती
गुमनाम ज़िंदगी भटकती।

उस मोड़ पे इक चीख है
ज़िंदगी नही ये भीख है
वक्त की काई पर फिसलती
घुटी हुई इक चीख है।

है जिंदगी घुटनभरी
सिसकती, बंद कोठरी
बेचैन अकुलाती हुई
पैबंद अपने सी रही।

शर्मो-हया की ओढ़ चादर
कितने ही तलबगार बनकर
छिपते हैं इनकी ओट में
सफेदपोश गुमनाम बनकर।

उतार कर लज्जा को वो
निर्लज्जता ढंकती है वो
बेरंग सी ज़िंदगी में
कुछ रंग भरती है वो।

नकाबपोश कितने ही आये
और कितने चले गए
कुछ दर्द लेकर आये थे
कुछ दर्द देकर चले गए।

निश्चित नही है राह उसकी
बस दर्द उसका, चीख उसकी
फिर भोर की तलाश में
आंखों में कटती रात उसकी।

अर्थी कोई जब भी निकली
गुमनाम गलियों से कभी
यूँ लगे सजधज के कोई
दुल्हन चली पी की गली।

है आंकड़ों का शब्द सब
भाव हैं निःशब्द सब
अफसोस दर्द न पढ़ सका
आध्यात्म हैं क्यों शून्य सब।

ये दोष है व्यवहार का
समाज के अंधकर का
कुंठा का, व्यभिचार का
दोयम चरित्र व्यवहार का।

वसंतसेना या आम्रपाली
ये चंद केवल नाम हैं
कितनी ही चीखें दफ्न हुईं
जो आज भी गुमनाम हैं।

नग्नता अश्लीलता का
दोष इनपर क्यूँ मढूं
दोष जो व्यापार वृत्ति का
वो दोष इनपर क्यूँ गढूं।

लाज का सौदा यहां
कब किसी को भाया है
इक बेसहारा अबला को
निःस्वार्थ कौन अपनाया है।

अनैतिकता का परिणाम है ये 
मानवता का अपमान है ये
वैश्या, गणिका या नगरवधू
क्षुब्ध वासना का परिणाम है ये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
 ✍️ 14 मई, 2020✍️




कुछ गुनगुनाऊँ


      कुछ गुनगुनाऊँ।  

दिल आज कहता है 
कुछ गुनगुनाऊँ
मिलन के सुहाने 
तराने सुनाऊं
मेरे गीतों में सजने 
का वादा करो
सपनों से सुंदर 
मैं दुनिया बनाऊं।।

रूप तेरा सलोना, 
चमन को सजाए
कैसे कोई दिल को 
अपने बचाये
जरा प्यार से 
जिसको तुम देख लो
मदहोश होने से 
कैसे बचाये।।

चाहत यही तेरी 
बाहों में आऊं
उलझी तुम्हारी 
लटें सुलझाऊँ
लवों पे तेरे गीत 
अपने सजाऊँ
तू गाये जिन्हें, 
संग मैं गुनगुनाऊँ।।

बताओ तुम्हीं 
तुमको कैसे मनाऊं
दिल में है जो, 
तुमको कैसे दिखाऊं
इक जरा सी नज़र 
जो इधर तुम करो
चाहत का अपने 
समंदर दिखाऊँ।।

दिल आज कहता है 
कुछ गुनगुनाऊँ
मिलन के सुहाने 
तराने सुनाऊं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️13 मई , 2020


सोना है भारत की भूमि


भारत की भूमि।  

सोना है भारत की भूमि
कण-कण देवों की तपोभूमि
बुद्धि, विवेक का सागर है ये
प्रेम, समर्पण की है भूमि।

शस्य श्यामला हैं इसके ग्राम
त्याग-तप का है परिणाम
भाव प्रवण हैं, मन निष्काम
हर शरीर इक पावन धाम।

जहां का जल गंगा सा निर्मल
हृदय विशाल हैं, भाव हैं कोमल
जहां कर्म ही पूजा है
ज्ञान यही मिलता है पल पल।

जहां वेद, कुरान, गुरुवाणी, गीता
शिक्षाओं से अगणित दिल जीता
हर बालक में राम हैं बसते
हर नारी में बसती सीता।

रातों को माँ जब लोरी गाती
नैतिकता के पाठ पढ़ाती
जहाँ रिश्ते व मर्यादा ही 
प्रमुख पूंजी हैं ये समझाती।

आदर्शों व संस्कारों की भूमि
न्यायोचित व्यवहारों को भूमि
वसुधैव कुटुंबकम पहचान यही है
सोना है भारत की भूमि।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13 मई, 2020



मुश्किल है वापस आना

मुश्किल है वापस आना

अब इतना आसान नहीं है
प्रिये  पुनः वापस आना,
ये भी अब आसान नही 
वो बात पुरानी दोहराना।।

कितने गीत लिखे थे मैंने
इक दूजे के तराने के
खुद से भी मैं दूर हुआ 
पास तुम्हारे आने को।।

कितना कुछ बिन कहे, सुने थे
प्रथम बार जब दोनों मिले थे
सुध-बुध अपनी भूल प्रिये
मिलन के कितने स्वप्न बुने थे।।

उस दिन, थी छाई  बदली
दोनों पर कौंधी बिजली
नैनों में ले अश्रु मिली जब
कितने विवश लगे थे  तब।।

जब कहा तुम्हें जाना होगा
बिछोह हमें अपनाना होगा
अश्रु हमें अब पीना होगा
हो विवश हमें जीना होगा।।

स्मृतियों के घाव अभी हैं
बातें सारी याद अभी हैं
तुम शायद सब भूल चुकी हो
यादों को मिलों छोड़ चुकी हो।।

लेकिन तब कुछ घाव मिले थे
वो घाव अभी तक ताजे हैं
क्या बतलाऊँ अब  तुमको
कितनी रातें आंखों में काटे हैं।।

उन घावों से उबर चुका हूँ 
अब नहीं उन्हें दुहराना है
भूल के भी आवाज़ न देना
मुश्किल वापस आना है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11मई, 2020

मन कवि कब बनता है

मन कवि कब बनता है।  

मन, मन ही मन मुस्काता है
जब शब्दों में छवि बनाता है
जब स्वयं को समझ जाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

जब खुद से बातें करता है
खुद हंसता है, खुद रोता है
जब दुनिया नई बनाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

मनचाहा प्यार जो पाता है
या जब ठुकराया जाता है
कोई राह नहीं जब पाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

जब चोट कहीं भी लगती हो
पर दर्द हृदय में होता है
जब अपना कोई ठुकराता है
तब मन कवि बन जाता है।।

दुर्बलता पे नियंत्रण पाता है
जब अश्रु छिपाना आता है
जब जीवन समझ वो जाता है
तब मन कवि बन जाता है।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11मई, 2020



व्यंग्य- एडमिशन

 व्यंग्य- एडमिशन। 

बच्चा जैसे ही थोड़ा बड़ा हो गया
जॉनी जॉनी पापा कहने लगे गया
श्रीमती जी ने कहा-
बच्चा अब तीन साल का हो गया है
मैंने कहा- बधाई हो
यदि आदेश मिले तो फिर
अगले की सुनवाई हो।

तुम्हारा तो दिमाग ही गड़बड़ रहता है
सारा दिन बस गड़बड़ करता रहता है।
अरे पड़ोसी को ही देखिये
तीन साल में ही अपने बच्चे का
प्ले स्कूल में एडमिशन भी करवा दिया।
एक आप हो चिंता ही नहीं करते हो
हर पल अगली सुनवाई के
चक्कर मे ही पड़े रहते हो।

मैंने कहा- अरे ये भी कोई उम्र है
स्कूल भेजने की, थोड़ा तो बढ़ने दो
कम से कम पांच साल का तो होने दो।
मगर पत्नी कब मानी है जो मानती
खैर गलती उसकी भी नहीं है
ये तो चलन का ही दोष है
अच्छे महंगे स्कूल में एडमिशन करवाना
स्टेटस पॉइंट ऑफ व्यू के लिए मोस्ट है।

खैर अगले दिन
मैं पास के तथाकथित महंगे व अच्छे 
स्कूल में जाकर लाइन में लग गया
लाइन का भी एक अलग ही अनुभव था
लाइन में लगातार हो रहे थे धक्कम-धक्के
कुछ तो थे अनुभवी
पर कुछ मेरे जैसे थे एकदम कच्चे।
भीड़ कभी आगे ठेलती
तो कभी पीछे थी धकेलती
लोग एक दूजे पर चढ़े जा रहे थे
कुछ आपस में ही घूरे जा रहे थे
कुछ में तो होने लगी थी हाथपाई
सब बर्दशते करते हुए 
मैंने धक्के में ही समझी अपनी भलाई
आखिर बच्चे के फ्यूचर का जो सवाल था।
धक्के खाते -खाते हम जैसे तैसे
खिड़की तक आ ही गए
जैसे ही फॉर्म हाथ में आया
यूँ लगा जैसे युद्ध ही जीत लिए।
विजयी मुस्कान ले हम घर को आये
घर आते ही पत्नी को खुशखबरी सुनाए।
उसी दिन से पत्नी भी अपने काम मे जुट गई
नन्हें से अबोध की तो जैसे शामत ही आ गयी
जॉनी जॉनी से लेकर जाने कितनी 
चीजें उसे सिखाने लग गईं।
उसका जुनून देख मेरा मन भी घबराया
सहयोग के लिए मैंने भी अपना सारा जोर लगया।

नियत दिन फॉर्म भर पति-पत्नी 
बच्चे के साथ स्कूल में आये
साथ अपने जाने कितने ही सपने लाये।
कुछ ही देर में चपरासी ने नाम बुलाया
बच्चे को लेकर हम दोनों फिर कक्ष में आये।
अंदर आते ही हमें कुर्सी पर बिठाया
बैठते ही चंद प्रश्न उठाया।

योग्यता क्या है ?
सुन मेरा माथा चकराया
प्रश्न मेरी समझ मे ही नही आया।
तीन साल का बच्चा है
इसके एडमिशन के लिए ही हम आये हैं
इसकी योग्यता अभी कैसे बतलायेंगे।
बच्चे की नहीं- आप दोनों की
मगर एडमिशन तो बच्चे का होना है
हमारी योग्यता का इससे क्या लेना है।
ये नियम है सो आपको बताना ही होगा
बच्चा आपका है, कुछ फर्ज आपको निभाना है।
सब कुछ हमीं थोड़े ही करवा पाएंगे
होमवर्क में मेहनत हम आप से भी करवाएंगे।

खैर अंग्रेजी तो आती ही होगी
मगर हिंदी तो हमारी मातृभाषा है
जब हिंदी है तो अंग्रेजी का क्या काम।
उन्होंने कहा- अंग्रेजी ही दे सकती उचित परिणाम
यदि बच्चे को अभी से नहीं पढ़ाएंगे
तो भविष्य में उसे बड़ा आदमी कैसे बनाएंगे।
सोचा- सच में अंग्रेजी से ही बड़े आदमी बनते हैं?
यदि हां तो फिर सभी अनपढ़ों जैसे क्यों लड़ते हैं।
सत्ता से सड़क तक तो पढ़े लिखों की ही भीड़ है
फिर हमारी शिक्षा अभी गक्त क्यूँ क्षीण है।

जैसे-तैसे बातें कर हम कमरे से बाहर आये
काउंटर पे जाकर भारी-भरकम फीस जमा करवाये
पत्नी खुश थी कि वो सबसे बताएगी
अच्छे स्कूल में एडमिशन का सबपे धौंस जमायेगी।
पर मुझे अलग ही उधेड़बुन सता रही थी
शिक्षा पर आधुनिकता जैसे ग्रहण लगा रही थी।
लगा बच्चों का बचपन जैसे छीना जा रहा था
बस्तों के बोझ तले जैसे धकेला जा रहा था।
क्या पहले के बच्चे नहीं पढ़ पाते थे
फिर ऋषि, मनीषी, बुद्धिजीवी कैसे शिक्षा पाते थे।

पर अब तो नया ज़माना आया है
आखिर अपना स्टेटस भी तो सबको दिखाना है
जैसा स्कूल वैसा ही सम्मान मिलता है
कोई बतलाए क्या ज़रकरी स्कूलों का बच्चा
जीवन में आगे नहीं बढ़ता है।

शिक्षा को सुगम बनाना है तो
सबसे पहले इसे व्यापार न बनाओ
स्टेटस सिंबल के बदले इसे सब तक पहुंचाओ।
आधुनिकता की आड़ में बचपन मत छीनो
हर बच्चे को पहले खुलकर जीने दो
व्यापार बृत्ति से जो बचेगी शिक्षा
विकसित जनमानस तब होगा
उचित मार्ग की फिर मिलेगी दीक्षा।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️09 मई, 2020














किताब


             किताब।                      

खालीपन को भरती हैं किताबें
सूनी राहों की साथी हैं किताबें
हर बीती को सँजोती हैं किताबें
एकाकीपन की बातें हैं किताबें।

त्याग-समर्पण हैं, अनुभुति हैं 
अंधेरों में ज्योति हैं किताबें
ऊंच-नीच या अमीर-गरीब
भेद नहीं बतलाती हैं किताबें।

हर पल कुछ कहती हैं किताबें
पल-पल पास रहती हैं किताबें
विजयी पल हो या हार के क्षण
सदा उत्साह बढाती हैं किताबें।

जीवन की हैं ये पाठशाला 
समाधानों की पुस्तकालय
योग्य बने सब पढ़कर इसको
सफल मार्ग बतलाती हैं किताबें।

बुद्धि, विवेक, शील, संस्कार
उन्नति हैं, शान हैं किताबें
मानवता का मूल सिखाती
सभ्यता हैं विकास हैं किताबें।

शब्दों का अथाह सिंधु हैं
हिमाद्रि का उच्च श्रृंग हैं
बूंद-बूंद ज्ञानामृत हैं ये
सद्ग्रंथों का विचार बिंदु हैं।

जन मन की भावाभिव्यक्ति हैं
आस्था हैं विश्वास हैं किताबें
गीता,बाइबिल, कुरान,गुरुवाणी
भारत की पहचान हैं किताबें।

कितना कुछ कहती हैं किताबें
कितना कुछ देती हैं किताबें
शिक्षा का भंडार  किताबें
जीवन का अभिप्राय हैं किताबें।।

 ©अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
 ✒️09 मई, 2020

दरमियाँ

     

     दरमियाँ

तेरी चाहत ने देखो ये क्या कर दिया
दिल को ही दर्द का आसरा कर दिया।

कैसा पर्दा मेरे दरमियाँ कर दिया
मुझको ही मुझसे जुदा कर दिया।

ज़माने से दर्द हज़ारों मिले
दर्द को तुमने दवा कर दिया।

हर तरफ तू ही तू अब दिखे है मुझे
कैसा आलम तूने यहां कर दिया।

महफ़िल में मिले हम, सबों की तरह
तेरी चाहत ने मुझे तन्हा कर दिया।

चाहत का राज़ भर के दिल में जिये
जब चाहा तूने खुद रज़ा कर दिया।

प्यार करने की तेरी कैसी ये रीति है
प्यार को दर्द का आसरा कर दिया।

दर्द की दवा यूँ तो चाहते हैं सभी
पर खुद को ही मैंने फना कर दिया।

तेरी चाहत ने देखो ये क्या कर दिया,
दिल को ही दर्द का आसरा कर दिया।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08 मई 2020

माँ सरस्वती वंदना


माँ सरस्वती वंदना।   

वीणावादिनी, हे शारदे माँ
हमको ऐसा वरदान दे माँ
लिखूँ प्रेम जनगण के मन में
भावप्रवणता भर दे मुझमें।।

वीणावादिनी ऐसा वर दो मुझको
उल्लासित करूं मैं जन-जन को
वंदना में अर्पित करूं जीवन को
शरण, चरण में दे दो मुझको।।

उत्साह नया संचार करूं माँ
लेखनी से व्यवहार करूं माँ
प्रेम भाव भरूं जन-मन मे
नवयुग का आह्वान करूं माँ।।

साहस की सरिता हो प्रवाहित
जीवन में तप-त्याग समाहित
सत्य-संचयन मुझमें भर दो
माँ वीणावादिनी वर दो मुझको।।

सुमति सदा व्यवहार हो जग में
मनुजता का भाव हो जग में
हो परस्पर सम्मान सभी का
मधुर भाव हृदय में भर दो।।

माँ वीणावादिनी ऐसा वर दो 
भावप्रवणता जग में भर दो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08 मई, 2020

फिर बोल पड़ी मधुशाला

  

राष्ट्रकवि स्व.शी हरिवंश राय बच्चन जी की कालजयी रचना मधुशाला से प्रेरणा लेकर मैं चंद पंक्तियां वर्तमान सामाजिक परिवेश को केंद्रित करके उनके श्री चरणों में समर्पित करते हुए आप सबके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसका उद्देश्य किसी के भाव को आहत करना नहीं है।

फिर बोल पड़ी मधुशाला

जीवन-मृत्यु में संघर्ष छिड़ा है
भय-निर्भय में  कौन  बड़ा  है
फिकर कहां करता मतवाला
मुड़ जाता, दिखती मधुशाला।

              नहीं दिखा जब ठौर ठिकाना
              नहीं मिला जब कोई बहाना
              नहीं मिली जब कोई शाला
              पुनः याद आयी मधुशाला।

बंद हुईं जब गलियां सारी
सुने हुए मुहल्ले सारे
नहीं दिखी जब राह कोई
मुड़ चला जिधर थी मधुशाला।

               नहीं दिखी जब राह कोई
               नहीं मिली जब थाह कोई
               थक गया जब चलते-चलते
               बोल पड़ी तब मधुशाला।

लंबे डग भरे उधर चला
मन ही मन में खिला-खिला
पुनः आज फिर तृप्त करेगी
इन होठों को मधुशाला।

               कितने दिन के बाद मिली
               हाय ढूंढा तुझको गली-गली
               आलिंगन में आ  भर लूँ
               बिछड़ न जाये फिर मधुशाला।

रहती दुनिया याद करेगी
हर होठों पर बात रहेगी
बंद हुए जब आश्रय सारे
बोल पड़ी तब मधुशाला।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06मई, 2020



उर्मिला की वेदना

उर्मिला की वेदना।   

कालचक्र ने  चक्र चलाया
हंसता हुआ कुटुंब बिखराया।
एक वचन के लाज के लिए
अवधनरेश ने खुद को तपाया।

रघुकुल रीति उच्च है सबसे
प्राण जाए पर वचन न टरते।
इक हठ से हो वशीभूत 
प्रिय सुत को वनवास पठाया।

भाई और भार्या संग
श्री राम वन चल दिये
रोते, बिलखते पुरवासी
कुटुंब सारे रह गए।

सीता संग प्रभु राम लक्ष्मण
वन में जाकर रहने लगे।
उर्मिला पत्नी लक्ष्मण की
महल में व्याकुल रह गई।

प्रतिपल नैनों में सूनापन 
नैन ढूंढते थे अपनापन।
सांस सांस में नाम बुलाती
जैसे-तैसे वक्त बिताती।

इक-इक पल उसका भारी था
मन में प्रतिपल उथल-पुथल था।
मन ही मन उदास वो रहती
हंसती, लेकिन कुछ न कहती।

फूलों सी थी कोमल काया
तिस पर पड़ी विरह की छाया।
जी भर भी वो निहार न पाई 
के बिछोह की घड़ी थी आयी ।

कितने  चाहत भरे थे मन में
पिया संग जब आयी घर में।
पर किस्मत ने चक्र चलाया
विरह-वेदना में उलझाया।

वो महलों की रहने वाली 
प्रतिपल थी चहकने वाली ।
इक झंकार वाणी में उसकी 
जो खो गयी विरह में पिय की।

महल भी उसको सूना लगता
रत्न-आभूषण चुभता रहता।
चेहरे की मुस्कान खो गयी
जोगन सी जीने वो लग गयी।

निज सुध उसको नहीं रह गयी
आपस की बातें याद रह गयी ।
करना तुम अपने धैर्य की रक्षा
करूंगा मैं भी वचन की रक्षा।

तनिक न तुम चिंतित रहना
बस करना मेरी सदा प्रतीक्षा।
अग्रज सेवा का भार देती हूँ
निद्रा, चिंता, निज लेती हूं।

तुम्हीं पूज्य, आराध्य हो मेरे
पर प्रभु के हैं आराध्य बहुतेरे।
प्रतिपल उनकी शरण में रहना
निष्काम भाव से सेवा करना।

पर मन था कि नहीं मानता
आखिर उसको क्या समझता।
अंदर-अंदर घुटती रहती
हंसती, आंसू पीती रहती।

निकल न जाएं चित्त से उसके
आह नहीं वो भर पाती थी।
सपने गढ़ती उन्हें बुहारती
मन में पिय की छवि निहारती।

सुनती  सबकी बातें सारी
कुछ न कहती पर सुकुमारी
जड़-चेतन सब उसे निहारते
अपना सब कुछ उसपे वारते।

मुस्कान सदा चेहरे पर रखती
अंदर ही अंदर घुटती रहती।
नियति ने कैसा चक्र चलाया
क्षण भर में जीवन बिखराया।

कैसे रहते होंगे वन में
कितने प्रश्न भरे थे मन में।
जैसे तैसे समय बिताती
अटारी कभी वाटिका में जाती।

सुध-बुध अपनी खो जाती थी
मन ही मन में वो रोती थी।
चैन नहीं था इक पल में
व्याकुलता भरी जीवन में।

शीतलता चंद्र की नश्तर लगते 
बिस्तर  मखमली कंटक लगते ।
अकसर वो खुद को समझाती 
आप ही आप ढांढस वो बंधाती ।

मन ही मन बातें करती थी
पाती लिखती फिर पढ़ती थी।
स्वयं से ही सन्देश बनाती
दर्पण को फिर उसे सुनाती।

रश्मि किरण से बातें करती
अपने मन की बातें कहती।
चौदह वर्ष शीघ्र बीत जाएंगे
खुशियों के पल फिर आएंगे।

पिय छवि मन में ले हंसती रहती
प्रतीक्षा पल-पल करती रहती।
पिय के लिए सदा  रहेगी
उनके आने की राह तकेगी।

धन्य-धन्य है उर्मिला नारी
वचन के लिए खुशियां वारी।
शब्द नहीं है पास हमारे
प्रकट कर जो त्याग तुम्हारा।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04 मई, 2020





मन का दर्पण

मन का दर्पण। 

मन को अपने दर्पण कर लो
खुद में खुद को अर्पण कर लो।
मन हो जाये पूरणमासी
स्वतः दूर हो जाय उदासी।

खुशियों की रश्मि किरण तब
मद्धम-मद्धम द्वार पे आती।
अद्भुत रूप धरे जीवन का
हर्षित करती छवि झलकाती।

कुछ इठलाती, कुछ इतराती
चुपके-चुपके कदम बढ़ाती।
हंसती, खिलती स्वप्न सँजोती
खुशियों को दामन में पिरोती।

पुलकित करती, भाव जगाती
जीवन की बगिया महकाती।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 मई, 2020

ये समर्पण भूल न जाना

ये समर्पण भूल न जाना

त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
जीवन में कभी भूल न जाना
मानवता का पर्याय यही है
जीवन में कभी भूल न जाना।

अलिखित पीड़ा द्वार खड़ा
जीवन पर संकट आन पड़ा
त्याग, तपस्या और मनोबल
का है इसमें पर, स्थान बड़ा।

इक त्रासदी ने जीवन रोका है
हर चेहरों की रौनक लूटा है
इस त्रासदी में हैं जो संग हमारे
उपकार कभी तुम भूल न जाना।

डॉक्टर, पुलिस, सफाईकर्मी
यथार्थ में हैं स्वाभाविक धर्मी
कदम-कदम पर साथ खड़े हैं
इस विपदा से निपट रहे हैं।

बंद हुए जब मंदिर सारे
मस्जिद, गिरजा और गुरुद्वारे
तब ईश्वर भी वेश बदल कर
इन रूपों में जन कल्याण कर रहे।

अगणित व्याकुल, भूखे-प्यासे
इस  संकट में बाट निहारें
मनुजप्रेमी समाजसेवी सब
निःस्वार्थ बने हैं तारनहारे।

आओ इनका सम्मान करें
सब मिलकर गुणगान करें
डॉक्टर, पुलिस, सफाईकर्मियों का
सर्वोच्च सुनिश्चित स्थान करें।

इस विपदा में जो आज खड़े हैं
बन जीवन रक्षक आज खड़े हैं
उनके सुगठित व्यवहारों का
सम्मान कभी तुम भूल न जाना।

ये त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
जीवन में कभी भूल न जाना।
मानवता का पर्याय यही है
जीवन में कभी भूल न जाना।।

 ©️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 27अप्रैल, 2020

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10

गतांक से आगे.......

बहुप्रतीक्षित निर्णायक दिन
युद्ध का आखिर आ गया
अर्जुन की क्षति की खातिर
कर्ण ने भार्गवास्त्र चला दिया।।116।।

भार्गवास्त्र का प्रभाव तेज था
सब छिन्न-भिन्न होने लगे
सेना में हाहाकार मची तब
सब अर्जुन के पास गए।।117।।

भार्गवास्त्र की काट वहां
असंभव था सबके लिए
यदि अर्जुन रण से भागेगा
भार्गवास्त्र कर्ण वापस लाएगा।।118।।

फिर कृष्ण ने अर्जुन के
पलायन का मार्ग बनाया
भागते देख अर्जुन को
भार्गवास्त्र वापस लाया।।119।।

दोनों पक्षों की सेना के
महान शूरवीर थे लड़ रहे
रुक गयी अवनि जैसे
देवलोक भी जड़ गए।।120।।

बाणों की वर्षा से दोनों
इक दूजे को घात रहे
कोई नहीं ढीला पड़ता
वक्त वहीं ठहर गया।।121।।

दोनों का संग्राम बड़ा था
आखिर उनका नाम बड़ा था
बाणों की वर्षा से सारे
अवनि-अंबर ढंक गए।।122।।

अर्जुन के बाण कर्ण के
रथ पर थे बरसने लगे
उन बाणों के फलस्वरूप
रथ कई गज खिसकने लगे।।123।।

पर कर्ण के बाणों से केवल
कुछ बलिश्त ही खिसका पाया
कृष्ण ने करी प्रशंसा उसकी
अर्जुन को हतप्रभ अचंभित पाया।।124।।

क्या उसके वार सभी
मेरे वार पर हावी हैं
ऐसा क्या है किया कर्ण ने
जिससे आप प्रभावित हैं।।125।।

उसके रथ पे भार मात्र शल्य का है
तुम्हारे रथ स्वयं हनुमान विराजे
इतनी शक्ति वारों में उसके
जो उनका भी रथ खिसका दे।।126।।

कितनी ही बार युद्ध में दोनों ने
इक दूजे की प्रत्यंचा काट दिया
नागास्त्र प्रयोग किया जब कर्ण ने
माधव ने अर्जुन का रथ धँसा दिया।।127।।

नागास्त्र विफल होता देख कर
अश्वसेना नाग ने निवेदन किया
पर माता कुंती के वचनस्वरूप 
पुनः प्रयोग को मना किया।।128।।

यद्दपि युद्ध गतिरोध पूर्ण था
पर कर्ण उस पल उलझ गया
जब उसके रथ का पहिया
धरती में जाकर धँस गया।।129।।

वह अपने दैवी अस्त्रों का
प्रयोग नहीं कर पाता था
गुरु के श्राप के कारण
असमर्थ स्वयं को पाता था।।130।।

तब किया निवेदन कर्ण ने
कुछ पल युद्ध को रोक दे
रथ का पहिया निकलने तक
अर्जुन उसको एक मौका दे।।131।।

कृष्ण ने कहा पार्थ से---

युद्ध नियम की बातें करने का
उसको है अधिकार नहीं
अभिमन्यु वध के पल में क्या
नियम उसे  था याद नहीं।।132।।

भरी सभा में जब उसने
पांचाली का अपमान किया
एक नारी के वस्त्र हरण पर
धर्म उसका था  कहां गया।।133।।

अब धर्म की बातें करने
है उसका अधिकार नहीं
कर्ण का वध करना अब
है यहां कोई अपराध नहीं।।134।।

यदि अभी कर्ण को न मारे तो
युद्ध कभी न जीत पाओगे
सत्य पुनः संकट में होगा
धर्म नहीं फिर ला पाओगे।।135।।

तब अर्जुन ने दिव्यास्त्र के द्वारा
सर कर्ण का धड़ से अलग किया
ज्योति कर्ण के धड़ से निकली
जो सूर्य में जाकर समाहित हुआ।।136।।

कर्ण ऐसा योद्धा था जग में
जो कभी-कभी ही आते हैं
कितनी भी विषम स्थिति हो
अपना आत्मबल दिखलाते हैं।।137।।

कर्ण भले ही दानवीर था
शूरवीर था, युद्धवीर था
अनैतिकता का साथ निभाकर
नैतिकता पर आघात किया।।138।।

संघर्षरत मानव की खातिर
कर्ण सदा प्रतिमान रहेगा
सत्य, धर्म जो भी त्यागेगा
कर्ण जैसा परिणाम सहेगा।।139।।

जीवन अपना अमूल्य निधि है
इसका तुम सम्मान करो
सत्य ही शिव, शिव ही सुंदर
इसी भाव का ध्यान धरो।।140।।

                   इतिश्री
           🌷🌷🌷🌷🌷🌷

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद







राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9

गतांक से आगे......

कुरुक्षेत्र के रण में दोनों
सेना जब सामने भयी
एक दूसरे का सामर्थ्य
आंखों से परखने लगीं।।106।।

वीरों से व अतिवीरों से
थी सुसज्जित दोनों सेना
एक ओर दर्प बड़ा था
दूजे धर्मराज की सेना।।107।।

पितामह ने कहा कर्ण से
युद्ध भूमि में नहीं जाएगा
जब तक जीवित भीष्म रहेंगे
सेनापति नहीं बन पाएगा।।108।।

दोनों पक्षों में भीषण 
संग्राम वहां होने लगा
दोनों पक्षों के अगणित
शव नित नित गिरने लगा।।109।।

भीष्म, द्रोण जैसे महारथी
एक एक कर  परास्त हुए
विचलित देख दुर्योधन को
कर्ण उसे ढांढस दिए।।110।।

युद्ध के दौरान सभी
नैतिकता सारे पस्त हुए
अभिमन्यु का वध करने
प्रतिमान सारे ध्वस्त हुए।।111।।


अर्जुन वध के लिए कर्ण ने
आसुर व्रत अनुष्ठान किया
युद्ध के सोलहवें दिन फिर
उसे सेनापति नियुक्त किया।।112।।

अर्जुन के अतिरिक्त कर्ण ने
पाण्डवों को पराजित किया
कुंती के वचन फलस्वरूप
नहीं किसी का वध किया।।113।।

युद्ध में हो पराजित जब
सभी शिविर में चले गए
मद में चूर दुर्योधन तब
डींगें फिर हांकने लगे।।114।।

पर कर्ण को था बोध 
संवाद नही अब रण होगा
अर्जुन से उसके युद्ध का
परिणाम बड़ा भीषण होगा।।115।।

क्रमशः.......

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद





राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-8

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-8

गतांक से आगे......

कर्ण युग का महा दानवीर था
उस जैसा उस क्षण कोई नहीं था
अपनी दानशीलता से उसने
अगणित को सुख पहुंचाया था।।85।।

रवि पूजन पश्चात वहां
जो कोई भी आता था
कर्ण उसे मुँहमाँगा देता
रीते नहीं लौटाता था।।86।।

इंद्र ने धर वेश विप्र का
कुंडल-कवच कर्ण से मांगा
सहर्ष समर्पित किया कर्ण ने
निराश नहीं उनको लौटाया।।87।।

सूरज अपना तेज त्याग दे
शीतलता भी चन्द्र त्याग दे
अटल प्रतिज्ञा थी कर्ण की
निराश न जाये कोई द्वार से।।88।।

इंद्र के व्यवहार से पहले
कर्ण कुछ विचलित हुआ
कवच-कुंडल बिना हराऊँगा
उसने प्रण सुनिश्चित किया।।89।।

दानशीलता देख कर्ण की
इंद्र को भी क्षोभ हुआ
शक्ति वरदान दिया फिर
जो एक प्रयोग में लुप्त हुआ।।90।।

युद्ध निश्चिवत हो जाने पर
कुंती का मन व्याकुल हुआ
पुत्रों के मध्य युद्ध रोकने का
उसने फिर निश्चय किया।।91।।

समझाने कर्ण को फिर
कुंती उसके पास गई
कुंती को देख पास अपने
शीश श्रद्धा से झुक गया।।92।।

प्रथम बार आईं हैं आप यहां
राधेय का प्रणाम स्वीकार करें
हृदय बींध गया बातों से उसकी
ज्येष्ठ कौन्तेय आशीष स्वीकार करें।।93।।

मैं तुम्हारी जननी हूँ
मैंने ही तुमको जाया है
लोकाचार के भयवश
मैंने तुमको त्यागा था।।94।।

भूल हुई मुझसे कौन्तेय
मैं तुम्हारी अपराधी हूँ
सच कहती हूँ याद में तेरी
रात-रात भर जागी हूँ।।95।।

ज्येष्ठ कौन्तेय होने के कारण
साथ नही दुर्योधन का देना
अन्याय के प्रतिकार के लिए
साथ पाण्डवों के तुम रहना।।96।।

मेरी है इच्छा यही अब
निवेदन मेरा स्वीकार करो
युद्ध जीत कर कौरव से
सिंहासन स्वीकार करो।।97।।

कर्ण ने तब बोला मां से
जन्मते ही तुमने त्याग दिया
सूतपुत्र कहलाया जब जब
दुर्योधन ने साथ दिया।।98।।

सूतपुत्र होने के कारण
पग-पग पर अपमान हुआ
जब सबने दुत्कारा मुझको
तुमने भी न मान दिया।।99।।

दुर्योधन के उपकारों पर
आघात नहीं मैं कर सकता
जीवन की लालसा में अपने
कृतध्न नहीं मैं बन सकता।।100।।

मैं वचन बद्ध हूँ दुर्योधन से
जिसने मुझको सम्मान दिया
जग ने अपमान किया जब
बस उसने ही साथ दिया।।101।।

किंतु आना यहां आपका
व्यर्थ नहीं जाने पायेगा
वचनबद्ध होता हूँ आपसे
पाण्डव पांच ही रह जायेगा।।102।।

अर्जुन के अतिरिक्त यहां मैं
नहीं किसी पे वार करूंगा
हार सुनिश्चित हुई देख
मृत्यु का मैं वरण करूंगा।।103।।

इस युद्ध में प्रण है माता
मृत्यु दो में एक की होगी
है यही प्रतिज्ञा मेरी आपसे
माता पांच पुत्रों की रहेंगी।।104।।

सुनकर बातें कर्ण की
कुंती निरुत्तर हो गयी
हृदय में व्यथा लिए
नम आंखों से चली गयी।।105।।

क्रमशः......

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद













राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-7

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-7

गतांक से आगे......

हुआ पूर्ण अज्ञातवास
पाण्डव जब वापस आये
मन में द्यूत का क्षोभ भरे
वीरत्व का उत्साह भी लाये।।71।।

सारी युक्ति विफल हुई 
शांति मार्ग सब बंद हुए
वासुदेव के शांतिप्रयास
पूरी तरह विफल हुए।।72।।

युद्ध अवश्यंभावी देख
माधव ने संज्ञान लिया
मिले कर्ण से तब जाकर
उसका फिर परिचय दिया।।73।।

ज्येष्ठ कौन्तेय हो वीरवर
सूतपुत्र न स्वयं को मानो
दुर्योधन की मति है मेरी
अब उसके दिन हैं भारी।।74।।

दुर्योधन का मन नहीं बदल सकता
विनाश युद्ध का रुक नही सकता
तुम अब स्वयं की पहचान करो
इंद्रप्रस्थ का आसन स्वीकार करो।।75।।

दुर्योधन मित्र है मेरा
उसकी हार देखूँ कैसे
शपथ दी मित्रता की मैंने
स्वार्थी बन तोडूं कैसे।।76।।

माना मैं ज्येष्ठ कौन्तेय हूँ
पाण्डव सहर्ष स्वीकार करेंगे
मुकुट उतार मस्तक से अपने
धर्मराज मेरे शीश धरेंगे।।77।।

पर मेरे वचनों का क्या
जो दुर्योधन को देता आया
मेरे ही सम्मान के लिए
वो जग से है लड़ता आया।।78।।

तन मन धन अर्पित सब उसको
जीवन मेरा समर्पित है उसको
उसको है विश्वास मुझी से
है विजय की आस मुझी से।।79।।

आस मैं उसकी तोडूं कैसे
वचनबद्धता छोडूं कैसे
ये अब है आसान नहीं
कृतध्नता स्वीकार नहीं।।80।।

कहकर रथ से उतर गया
लिए नेत्र में शपथ गया
माधव विस्मित देख रहे
उसके प्रण की सोच रहे।।81।।

किस दोराहे पर लाकर
जीवन ने उसको छोड़ा
वचनबद्धता और रिश्तों ने
उसको भीतर तक झिंझोड़ा।।82।।

वचनबद्धता दृढ़ थी उसकी
उसको न वो तोड़ सका
अपनी वचनों की खातिर
साथ न उसका छोड़ सका।।83।।

जीवन है संग्राम यहां
वचनों का है मान यहाँ
पर अधर्म से वचनबद्धता
देता दुःखद परिणाम सदा।।84।।

क्रमशः.....

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6
गतांक से आगे......

द्रौपदी के स्वयंवर में
फिर उसका अपमान हुआ
सूतपुत्र कह द्रुपदसुता ने
वरण करने से इनकार किया।।60।।

भरी सभा मे अपमानित हो
मन ही मन वो कुपित हुआ
अर्जुन की बर्बादी का फिर
उसने मन मे प्रण लिया।।61।।

द्यूत क्रीड़ा के छल में
वो दुर्योधन का साथी था
शकुनि की कुटिल चाल का
स्वयं वो भी साक्षी था।।62।।

द्यूत क्रीड़ा में पांडव जब
अपना सब कुछ हार गए
द्रौपदी को दांव लगाया
उसको भी जब हार गए।।63।।

भरी सभा में जब दुर्योधन ने
पांचाली का अपमान किया
अट्टहास किया तब उसने
वेश्या उसको नाम दिया।।64।।

दासी है पांचाली यहां
इसको अब निर्वस्त्र करो
हार चुके पाण्डव सब कुछ
इससे ही मन मुदित करो।।65।।

द्रौपदी का चीर हरण 
दुःशासन जब करने लगा
किया ध्यान केशव का 
तब चीर रूप प्रकट हुआ।।66।।

लिया शपथ पाण्डवों ने
सबका वो संहार करेंगे
जिसने भी अपमान किया
नहीं उन्हें वो माफ करेंगे।।67।।

दुर्योधन के अन्याय में
कर्ण भी साथी बन गया
अत्याचारी का साथ निभा
खुद अत्याचारी बन गया।।68।।

कर्ण की सारी शिक्षा
व्यर्थ वहां पर हो गयी
विवेकशून्य हो गया वहां
नैतिकता उसकी गिर गयी।।69।।

इसका परिणाम बहुत भारी था
बोझ नही कोई उठा सका
एक सती के क्रंदन का
मोल कोई कब चुका सका।।70।।

क्रमशः........

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद



राधेय या कौन्तेय-खण्ड काव्य- भाग्य-5

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय - खंड काव्य -भाग-5 

गतांक से आगे। ....... 

परशुराम से शिक्षा खातिर
था उसने आघात किया
छिपाकर परिचय अपना
शिक्षा उनसे प्राप्त किया | | 40 ||

एक दिन कानन में
गुरुवर विश्राम कर रहे
कर्ण के उरु पर सर रख
गुरुवर विश्रान्ति  कर रहे ||41||

विश्राम भंग न हो गुरु की
कर्ण चिंतन में लीन हुआ 
विषकीट कहीं से तभी एक
आसन के नीचे उदित हुआ ||42||

लगा काटने कर्ण के उरु को
बहते रक्त को रोके कैसे
धर्मसंकट बड़ा विकट था
विश्राम गुरु का तोड़े कैसे||43||

बैठा रहा अटल अविचल वो
दर्द, तड़प,पीड़ा को रोके
लहू की गर्म धार बह निकली
परशुराम विस्मित तब जागे ||44||

सहनशीलता इतनी तुझमें
विप्र नहीं तू हो सकता
इतनी असह्य वेदना
क्षत्रिय ही सह सकता ||45||

शीघ्र बता परिचय अपना
वरना इसका फल पायेगा
मेरी क्रोधाग्नि से तत्क्षण
भस्म यहां तू हो जायेगा ||46||

सूतपुत्र कर्ण हूँ मैं
करुणा का आकांक्षी हूँ 
शिक्षा का उद्देश्य लिए
मैं कृपा का अभिलाषी हूँ||47||

जानकर गुरुवर परिचय मेरा 
शिक्षा आप मुझे न देते
झूठा हूँ अपराधी हूँ मैं
क्षमा दान मुझे दे दीजे।।48।।

परशुराम के चरणों में
साक्षात दंडवत हो गया
जीवन चरणों में त्यागूंगा
जीवनदान नहीं मांगूंगा 49||

देख कर्ण की त्याग,तपस्या
गुरु भी विचलित हो बैठे
झूठ बोल विद्या ली उसने
श्राप इसलिए दे बैठे ||50||

प्राणदान दे रहा तुम्हें
पर शिक्षा हर लेता हूँ
विद्या का अंतिम चरण
तेज सभी हर लेता हूँ ||51||

सिखलाया है जो भी विद्या
उचित समय भूल जायेगा
ब्रम्हास्त्र लिया है जो तूने 
काम नहीं तेरे आएगा ||52||

गुरुवर के श्राप से व्याकुल
हतप्रभ कर्ण विकल हुआ
ऐसा श्राप देकर गुरुवर
प्रण मेरा क्यूं हर लिया।।53।।

श्राप अटल है, अविचल है
तुम्हें वहन अब करना है
कवच-कुंडल धारी तुम हो
स्वयं दीप्तीवान रहना है।।54।।

कवच-कुंडल धारी तुम हो
तुम्हें हरा न कोई पायेगा
उच्च व्यवहार किया वरण तो
जीत नहीं कोई पायेगा।।55।।

ऐसा कहकर परशुराम जब
प्रस्थान को तैयार हुए
अश्रुधार से चरण धोकर
गुरुदक्षिणा दान दिए।।56।।

झूठ बोल, कपट ले मन में
शिक्षा प्राप्त न हो सकता
उद्देश्य चाहे जैसा भी हो
मंतव्य सफल न हो सकता।।57।।

ईर्ष्या द्वेष भरा जब मन में 
क्रोध, संताप हावी हृदय में
बुद्धि , विवेक हर लेता है
क्रोध नियंत्रित करता मन को।।58।।

शिक्षा का औचित्य नहीं
तब कोई रह जाता
विवेकहीन हो जाता जीवन
औचित्य नहीं कुछ रह जाता।।59।।

 क्रमशः.........
©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद










राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-4

राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-4

गतांक से आगे.....

कृपाचार्य फिर उठकर बोले
व्यर्थ न अपना रक्त जलाओ
ये रंगभूमि है राजवंशी की
व्यर्थ न सबका वक्त गंवाओ।।28।।

जात-पांत की बातें सुनकर
हृदय क्षोभ से भर आया
निकल सभा में दुर्योधन
आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया।।29।।

अपमान वीर का रंगभूमि में
इसका मैं खंडन करता हूँ
राजवंश यदि पहचान वीर की
अंगदेश अर्पित करता हूँ।।30।।

दुर्योधन का भाव देखकर
राधेय तब विह्वल हुआ
कृतज्ञ भाव भरे हृदय में
स्वयं को पूर्ण समर्पित किया।।31।।

भरी सभा में हाथ बढ़ाकर
तुमने जो मेरा मान बढ़ाया है
निश्चय है, अटल सत्य है, इस
ऋण से उऋण नहीं हो पाऊंगा।।32।।

बढ़ता देख मान कर्ण का
सभाजन तब विचलित हुए
कृपाचार्य के बीचबचाव से
संवाद सभी स्थगित हुए।।33।।

रंगभूमि के आयोजन सारे
तत्क्षण में सभी स्थगित हुए
इक-इक कर उठ चले पुरवासी
क्षोभ-हर्ष हृदय में भरे हुए।।34।।

अंगदेश का शासन पाकर
राधेय तब अंगराज भए
एक वीर का सान्निध्य पाकर
दुर्योधन भी हर्षित हुए।।35।।

तप-त्याग दानवीरता में
नहीं था उसका कोई सानी
पर दुर्योधन से निष्ठा वश
न रोक सका उसकी मनमानी।।36।।

मित्रता निष्ठा मात्र नहीं है
ये इक प्यारा बन्धन है
महके जिससे जीवन सारा
ऐसा सुगन्धित चंदन है।।37।।

कर्ण मगर भूल यही
जीवन भर करता आया
दुर्योधन के कुटिल भाव का
मूक समर्थन करता आया।।38।।

एहसानों का मतलब ये
कभी नही हो सकता
अपराधों पर मौन साधकर
महान नहीं कोई हो सकता।।39।।

 क्रमशः......
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद





राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-3

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-3
गतांक से आगे......

शस्त्र-शास्त्र की दीक्षा लेकर
राजकुंवर सब महल को आये
कौशल दिखलाने की खातिर
नियत दिन रंगभूमि सब आये।।18।।

रंगभूमि में योद्धा सारे
इक इक कर पौरुष दिखलाये
अर्जुन ने जब प्रत्यंचा साधा
राधेय ने तब उसको साधा।।19।।

इतना गर्व न कर तू खुद पर
इस क्षण कर तू मेरा सामना
जो इतना अभिमान है खुद पर
तो रंगभूमि से नहीं भागना।।20।।

कहकर लक्ष्यों का सारे 
उसने भी संधान किया
इक इक कर सारी विद्या का
फिर उसने परिणाम दिया।।21।।

देख के रणकौशल उसका
जनता सारी दंग रह गयी
गूंजी जब टंकार धनुष की
आंखे सब स्तब्ध रह गयी।।22।।

सुनकर ललकार कर्ण की
शूरवीर सब हतप्रभ हुए
डगमग हुआ तब सिंहासन
राजवंश निःशब्द हुए।।23।।

कृपाचार्य फिर आगे बढ़कर
उससे उसका परिचय पूछा
अर्जुन तो है राजवंश का
उसके कुल का वैशिष्ट्य पूछा।।24।।

रंगभूमि है उन योद्धा की
राजवंश से संबंध जो रखते
जो तुम ठहरे राजवंश के
भागीदार यहां तब हो सकते।।25।।

सूतपुत्र हूँ मैं लेकिन
इसमें मेरा दोष नहीं
शिक्षा तो स्वाभाविक है
इसका कुल से मेल नहीं।।26।।

जो अर्जुन है वीर यहां तो
पास क्यूं नहीं फिर आता
जो भुजबल पर विश्वास उसे है
विश्वास नहीं क्यूं  दिखलाता।।27।।

क्रमशः............
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-2

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय। 
गतांक से आगे--

बहता बहता वह बालक फिर
उस स्थान पर जा पहुंचा
जहां धृतराष्ट्र का सारथी अधीरथ
अश्व को जल पिला रहा था।।10।।

निस्संतान दंपत्ति था अधीरथ
उसने बालक को गले लगा लिया
पालन पोषण किया दोनों ने
राधेय उसको नाम दिया।।11।।

सूत वंश में पला बढा वो
पग पग पर छला गया वो
तन से जितना शूरवीर था
मन से उतना ही भावुक था वो।।12।।

सूतवंशी होने के कारण गुरु द्रोण ने 
जब शिक्षा देने से इनकार किया
परशुराम से पहचान छिपा कर
शिक्षा उनसे प्राप्त किया।।13।।

था स्वभाव से दानी लेकिन
पौरुष का अभिमानी था वो
हठ उसके स्वभाव में था, पर 
लक्ष्य का सदा आकांक्षी था वो।।14।।

पर तेज कहां किसी पौरुष का
कब तक यहां कहाँ छिपता है
शूरवीर पौरुष हैं जो भी
वो तिरस्कार कब कहाँ सहता है।।15।।

नहीं शिक्षा पर अधिकार किसी का
ये तो है अभ्यास पे निर्भर
युद्ध कला व ज्ञान योग का
कर्मठता से स्वविकास किया।।16।।

अपनी कर्मठता से उसने जग को
आगे बढ़कर ये दृष्टान्त दिया
शिक्षा मात्र कुलीन का अधिकार नही
संधान करे जो भी,उसका है अधिकार सही।।17।।

              क्रमशः..........




प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...