राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-4

राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-4

गतांक से आगे.....

कृपाचार्य फिर उठकर बोले
व्यर्थ न अपना रक्त जलाओ
ये रंगभूमि है राजवंशी की
व्यर्थ न सबका वक्त गंवाओ।।28।।

जात-पांत की बातें सुनकर
हृदय क्षोभ से भर आया
निकल सभा में दुर्योधन
आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया।।29।।

अपमान वीर का रंगभूमि में
इसका मैं खंडन करता हूँ
राजवंश यदि पहचान वीर की
अंगदेश अर्पित करता हूँ।।30।।

दुर्योधन का भाव देखकर
राधेय तब विह्वल हुआ
कृतज्ञ भाव भरे हृदय में
स्वयं को पूर्ण समर्पित किया।।31।।

भरी सभा में हाथ बढ़ाकर
तुमने जो मेरा मान बढ़ाया है
निश्चय है, अटल सत्य है, इस
ऋण से उऋण नहीं हो पाऊंगा।।32।।

बढ़ता देख मान कर्ण का
सभाजन तब विचलित हुए
कृपाचार्य के बीचबचाव से
संवाद सभी स्थगित हुए।।33।।

रंगभूमि के आयोजन सारे
तत्क्षण में सभी स्थगित हुए
इक-इक कर उठ चले पुरवासी
क्षोभ-हर्ष हृदय में भरे हुए।।34।।

अंगदेश का शासन पाकर
राधेय तब अंगराज भए
एक वीर का सान्निध्य पाकर
दुर्योधन भी हर्षित हुए।।35।।

तप-त्याग दानवीरता में
नहीं था उसका कोई सानी
पर दुर्योधन से निष्ठा वश
न रोक सका उसकी मनमानी।।36।।

मित्रता निष्ठा मात्र नहीं है
ये इक प्यारा बन्धन है
महके जिससे जीवन सारा
ऐसा सुगन्धित चंदन है।।37।।

कर्ण मगर भूल यही
जीवन भर करता आया
दुर्योधन के कुटिल भाव का
मूक समर्थन करता आया।।38।।

एहसानों का मतलब ये
कभी नही हो सकता
अपराधों पर मौन साधकर
महान नहीं कोई हो सकता।।39।।

 क्रमशः......
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद





कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...