व्यंग्य- एडमिशन।
बच्चा जैसे ही थोड़ा बड़ा हो गया
जॉनी जॉनी पापा कहने लगे गया
श्रीमती जी ने कहा-
बच्चा अब तीन साल का हो गया है
मैंने कहा- बधाई हो
यदि आदेश मिले तो फिर
अगले की सुनवाई हो।
तुम्हारा तो दिमाग ही गड़बड़ रहता है
सारा दिन बस गड़बड़ करता रहता है।
अरे पड़ोसी को ही देखिये
तीन साल में ही अपने बच्चे का
प्ले स्कूल में एडमिशन भी करवा दिया।
एक आप हो चिंता ही नहीं करते हो
हर पल अगली सुनवाई के
चक्कर मे ही पड़े रहते हो।
मैंने कहा- अरे ये भी कोई उम्र है
स्कूल भेजने की, थोड़ा तो बढ़ने दो
कम से कम पांच साल का तो होने दो।
मगर पत्नी कब मानी है जो मानती
खैर गलती उसकी भी नहीं है
ये तो चलन का ही दोष है
अच्छे महंगे स्कूल में एडमिशन करवाना
स्टेटस पॉइंट ऑफ व्यू के लिए मोस्ट है।
खैर अगले दिन
मैं पास के तथाकथित महंगे व अच्छे
स्कूल में जाकर लाइन में लग गया
लाइन का भी एक अलग ही अनुभव था
लाइन में लगातार हो रहे थे धक्कम-धक्के
कुछ तो थे अनुभवी
पर कुछ मेरे जैसे थे एकदम कच्चे।
भीड़ कभी आगे ठेलती
तो कभी पीछे थी धकेलती
लोग एक दूजे पर चढ़े जा रहे थे
कुछ आपस में ही घूरे जा रहे थे
कुछ में तो होने लगी थी हाथपाई
सब बर्दशते करते हुए
मैंने धक्के में ही समझी अपनी भलाई
आखिर बच्चे के फ्यूचर का जो सवाल था।
धक्के खाते -खाते हम जैसे तैसे
खिड़की तक आ ही गए
जैसे ही फॉर्म हाथ में आया
यूँ लगा जैसे युद्ध ही जीत लिए।
विजयी मुस्कान ले हम घर को आये
घर आते ही पत्नी को खुशखबरी सुनाए।
उसी दिन से पत्नी भी अपने काम मे जुट गई
नन्हें से अबोध की तो जैसे शामत ही आ गयी
जॉनी जॉनी से लेकर जाने कितनी
चीजें उसे सिखाने लग गईं।
उसका जुनून देख मेरा मन भी घबराया
सहयोग के लिए मैंने भी अपना सारा जोर लगया।
नियत दिन फॉर्म भर पति-पत्नी
बच्चे के साथ स्कूल में आये
साथ अपने जाने कितने ही सपने लाये।
कुछ ही देर में चपरासी ने नाम बुलाया
बच्चे को लेकर हम दोनों फिर कक्ष में आये।
अंदर आते ही हमें कुर्सी पर बिठाया
बैठते ही चंद प्रश्न उठाया।
योग्यता क्या है ?
सुन मेरा माथा चकराया
प्रश्न मेरी समझ मे ही नही आया।
तीन साल का बच्चा है
इसके एडमिशन के लिए ही हम आये हैं
इसकी योग्यता अभी कैसे बतलायेंगे।
बच्चे की नहीं- आप दोनों की
मगर एडमिशन तो बच्चे का होना है
हमारी योग्यता का इससे क्या लेना है।
ये नियम है सो आपको बताना ही होगा
बच्चा आपका है, कुछ फर्ज आपको निभाना है।
सब कुछ हमीं थोड़े ही करवा पाएंगे
होमवर्क में मेहनत हम आप से भी करवाएंगे।
खैर अंग्रेजी तो आती ही होगी
मगर हिंदी तो हमारी मातृभाषा है
जब हिंदी है तो अंग्रेजी का क्या काम।
उन्होंने कहा- अंग्रेजी ही दे सकती उचित परिणाम
यदि बच्चे को अभी से नहीं पढ़ाएंगे
तो भविष्य में उसे बड़ा आदमी कैसे बनाएंगे।
सोचा- सच में अंग्रेजी से ही बड़े आदमी बनते हैं?
यदि हां तो फिर सभी अनपढ़ों जैसे क्यों लड़ते हैं।
सत्ता से सड़क तक तो पढ़े लिखों की ही भीड़ है
फिर हमारी शिक्षा अभी गक्त क्यूँ क्षीण है।
जैसे-तैसे बातें कर हम कमरे से बाहर आये
काउंटर पे जाकर भारी-भरकम फीस जमा करवाये
पत्नी खुश थी कि वो सबसे बताएगी
अच्छे स्कूल में एडमिशन का सबपे धौंस जमायेगी।
पर मुझे अलग ही उधेड़बुन सता रही थी
शिक्षा पर आधुनिकता जैसे ग्रहण लगा रही थी।
लगा बच्चों का बचपन जैसे छीना जा रहा था
बस्तों के बोझ तले जैसे धकेला जा रहा था।
क्या पहले के बच्चे नहीं पढ़ पाते थे
फिर ऋषि, मनीषी, बुद्धिजीवी कैसे शिक्षा पाते थे।
पर अब तो नया ज़माना आया है
आखिर अपना स्टेटस भी तो सबको दिखाना है
जैसा स्कूल वैसा ही सम्मान मिलता है
कोई बतलाए क्या ज़रकरी स्कूलों का बच्चा
जीवन में आगे नहीं बढ़ता है।
शिक्षा को सुगम बनाना है तो
सबसे पहले इसे व्यापार न बनाओ
स्टेटस सिंबल के बदले इसे सब तक पहुंचाओ।
आधुनिकता की आड़ में बचपन मत छीनो
हर बच्चे को पहले खुलकर जीने दो
व्यापार बृत्ति से जो बचेगी शिक्षा
विकसित जनमानस तब होगा
उचित मार्ग की फिर मिलेगी दीक्षा।।
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
✍️09 मई, 2020
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