बाज़ार

        बाजार               


दुनिया इक बाजार है 
हर शख्स खरीदार है।

कहीं बिक रही इंसानियत
कहीं बिक रहा इमान है।

अपने पराये का भेद इतना गहरा गया 
हर रिश्ते पे लटक रही तलवार है।

जिधर नज़र डालो, कहीं बिक रही मजबूरी 
कहीं बिक रहा प्यार है।

आधुनिकता की दौड़ में इस कदर अंधे हुए 
खोखले होते जा रहे सारे संस्कार हैं।

बाज़ारवाद में इस कदर मशरूफ हुए 
के छूट गया वो आँचल 
जिससे कभी बही दुग्धधार है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

विश्वास

                  विश्वास              

समय चक्र चलता है, हर शय बदलता है 
दुनिया बदली लोग बदले, 
लोगों के सोच का अंदाज़ बदला 
पर हासिल क्या हुआ, सब तो वैसा ही है 
बरसों पहले जैसा था | 
चोरी,डकैती,अपहरण,छेड़छाड़,बलात्कार,
क्या यही है बापू के सपनों का आकार 
रामराज्य आएगा,चंहु ओर सुख शांति लाएगा | 
पर कहाँ है राम, कहाँ है वो राज्य 
जिस ओर नज़र डालो,
 फैला है अराजकता का साम्राज्य 
क्या ये चिरकाल तक चलता रहेगा 
हर शख्स  यूँ ही  डरता रहेगा 
कभी तो दिन बहुरेंगे 
कभी तो अँधेरे छटेंगे 
पर कलयुग में है किसका इंतज़ार 
क्या फिर से लेगा कोई कृष्ण अवतार 
बहुत हो चूका अब तो जागो  
कोई देगा साथ ये विचार मन से त्यागो 
पाप-पुण्य का भेद को आज जता दो 
हर दिल से आतंक मिटाकर, 
प्यार की ज्योति जगा दो 
हमें है विश्वास के हम होंगे कामयाब 
मिलेगी मंज़िल हमें, फिर से आएगा रामराज्य || 

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद 


एहसास

         एहसास                   


कब, कहाँ, कैसे क्या हो जाए 
कोई भी न जान पाए 
ज़िंदगी का ये फलसफा कौन समझाए | 
ज़िंदगी  है , होता है, चलता है 
बस यही जान पाए | 
समझने की कितनी ही कोशिशें  की 
पर समझ न पाए 
क्यूँ होता है ऐसा 
कोई तो बतलाये | 
आज जो है कल वो नहीं 
कल जो हुआ आज भी होगा 
ऐसी आस नहीं 
आगे जो होगा अच्छा होगा 
है विश्वास यही | 
हमें यूँ ही नहीं रुकना है 
मंज़िल दर  मंज़िल दर आगे बढ़ना है 
हर रस्ते को छोटा करना है 
हर मुश्किल आसान करना है | 
दूर है मंज़िल,कठिन है डगर 
टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलना है मगर 
मिलेगी मंज़िल  है यही विश्वास 
क्यूंकि हर पल होता है यही एहसास || 


अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद

पीड़ा

                पीड़ा                    


मन जाने क्यों व्याकुल है
स्मृति पटल विह्वल है
गुमसुम गुमसुम हैं आंखें
चेहरों की पड़ी लकीरें
आभास दे रही पीड़ा की।

था दर्द से सना ये जीवन
अनजानी त्रुटि के कारण
समझ नहीं पाया  मन
क्यूं उजड़ रहा ये उपवन।

दिल के कोने कोने से
उठ रही ध्वनि पीड़ा की
पीड़ा के भाव छुपाता
पर चेहरा सब बतलाता।

रह रह यादों के छाले
फूट फूट दहलाते
इस घनीभूत पीड़ा को
असफल प्रयास से छुपाते।

ये आंखें हैं पैमाना
पल पल पीड़ा मापन की
क्यूं समझ नही पाया वो मन
इस पावन मन की पीड़ा को।

क्यूं भूल गया ये जीवन
ये तन भी है इक उपवन
खुशियों की चाहत में ,वो
छोटी त्रुटियां कर बैठा।

उन त्रुटियों के वारों से
कर बैठा छलनी जीवन
अब पीड़ा है और मैं हूँ
एकाकी बना ये जीवन।

पीछे मुड़ मुड़ जब देखा
थी स्मृतियों की एक रेखा
उन रेखाओं की पगडंडी पे
खुद को तन्हा ही पाया।

अब मैं हूं और तन्हाई
व्याकुल गुमसुम आंखों के
भावों की अनुभूति
स्वीकार कर चुका अब मैं
उस पीड़ा की गहराई।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


क्या फायदा

           क्या फायदा           


दिल की दिल में दबा ली तो क्या फायदा
जो कह ही सके न तो क्या फायदा
बात जो दब के रह गयी तेरे मेरे दरमयान
बाद उसको बताने का क्या फायदा।।

बात दिल में जो तेरे थी कह न सके
साथ वालों के भावों को पढ़ न सके 
सत्य बनकर के जब भाव आहत किये
फिर दर्द से छटपटाने का क्या फायदा।।

स्वनिर्मित उपालंभ से जो घायल हुए
दूर हटने लगे जो भी चाहत हुए
अपनी त्रुटियों का खुद बोझ जो सह न सके
बाद लांछन लगाने का क्या फायदा।।

अपने ही मन में जब पाप बढ़ने लगे
स्वार्थ, लालच व संताप बढ़ने लगे
मुक्ति की इससे राह जब न मिली
फिर अकारण ही क्रंदन का क्या फायदा।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

भूलना आसान नही

         

             भूलना आसान नहीं               


मुसाफिर हो गयी ज़िंदगी तेरे जाने के बाद 
भटक रहा हूँ आज भी मंज़िल की तलाश में | 
कहाँ तो मेरी सूरत से भी नफरत होती थी कभी 
सुना अब मेरे ख्वाब का भी इंतज़ार है तुम्हें | 
कोई बात तो होगी मुझमें के न भुला पाए मुझको 
चलो खुद को ही सजा दी, हर बात भुला के तेरी | 
कशिश बाकी है आज भी, जानकर भूल गए हैं सब 
तेरे दिए ज़ख्म सारे फूल हो गए हैं अब | 
खैरियत की खबर से ही तेरे खुश हो लेता हूँ मैं 
कैसे कह दूँ की फ़िक्र नहीं है तेरी मुझे | 
लम्हों के खता की सजा मिली है मझे 
तेरे ज़िक्र तक का हक़ खो चुका हूँ मैं | 
अब यही ख्वाहिश है-सुनूं के सुकून मिल गया तुझको 
मैं भी तो सुकून से निकल सकूं सुकून की तलाश में || 

अजय कुमार पाण्डेय 


आग़ाज़

      ग़ज़ल - आगाज़                   


आवाज़ों के बाजार की इक खामोश आवाज़ हूँ मैं ,
दिल को झिंझोड़ दे इक वही साज़ हूँ मैं 
न समझना के थक गया हूँ मैं ,
ज़िंदगी तेरी हर महफ़िल का आगाज़ हूँ मैं || 


चलो आवाज़ों की नई शुरुआत तो हो 
कोई कुछ न कहे मगर बात तो हो 
चाहत का मौसम फिर आ जायेगा 
जो मेरे पास तू आ जायेगा | 
न बैठो बंद कमरे में इस कदर 
इक नज़र उठाकर तो देखो 
गुज़रा ज़माना फिर याद आ जायेगा || 

वो बचपन की बातें जो समझी न थीं 
वो रहत की बातें जो समझीं न थीं 
मन बदल गया सब मगर संसार वही है 
तेरी मेरी चाहत की आवाज़ वही है 
इन आवाज़ों को जो तू सुन पायेगा 
तो चाहत का मौसम फिर आ जायेगा || 

माना ज़माने की रुसवाई रोकती है तुम्हें 
रस्मों की रवायतें रोकती हैं तुम्हें 
दूर ही सही मगर जज़्बात वही हो 
खामोश ही सही मगर आवाज़ वही हो 
तुम भी वही हो मैं भी वही 
यादों में ही सही चाहत का का अंदाज़ वही हो || 

अजय कुमार पाण्डेय  


सपने

           सपने              


खली हाथ आया हूँ 
कुछ सपने साथ लाया हूँ 
सपने- कुछ खट्टे, कुछ मीठे ,
कुछ अपने, कुछ पराये| 
उन्हें पूरा करना है,
खली झोली भरना है| 

सपने पूरे होंगे, है विश्वास 
हाथ खली है, पर फिर भी है आस 
राह कठिन है, मीलों चलना है 
कोई साथ दे या न दे 
फिर भी आगे बढ़ना है, क्यूंकि 
हमसफ़र मेरे साथ है | 

ये माना के काँटों पर चलना है 
कड़ी धुप में तपना है 
हंसना है, रोना है,
कुछ पाना है, कुछ खोना है 
पर चलते रहना है, क्यूंकि 
सभी सपनों को यथार्थ में बदलना है || 

अजय कुमार पाण्डेय 

एक मजदूर की तलाश

       एक मजदूर की तलाश           

वो मजदूर है
अपनी माथे की 
लकीरों से मजबूर है
सपनों की खातिर 
वो चलता है
अगणित उम्मीदें
ले पलता है।

भोर की पहली 
किरण के साथ ही 
निकल पड़ता है वो,
तलाश में -
एक वक्त की रोटी के ,
चाहता है कुछ करना , 
कुछ पाना,
पर तलाश सिमट जाती है-
एक वक्त की रोटी तक | 

सपने देखता है- महल का, 
आशियाने का,
बनता है- महल, 
दूसरों के लिए 
बदले में चाहता है
एक वक्त की रोटी | 

सैर करता है- दुनिया की 
देखता है अनगिनत 
संस्कृतियों को 
पर तलाशता है-
एक वक्त की रोटी | 

दिन की चकाचौंध 
से दरकार नहीं 
रात क उजालों से 
सरोकार नहीं 
भीड़ भरी तन्हाइयों में 
तलाशता है - बस
एक वक्त की रोटी || 

©️अजय कुमार पाण्डेय

 हैदराबाद



आंसू

              आंसू                  


आंसू- दिल की जुबां है 
दिल हँसता है-तो हंसते हैं आंसू | 
दिल रोता है- तो रोते हैं आंसू 
हर अनकही जज़्बात की पहचान हैं - आंसू | 

जीत की ख़ुशी हो, या 
हार का हो दुःख,
सफलता की सूचना हो, या 
असफलता की खबर ,
बरबस ही आँखों को भिंगोते हैं- आंसू | 

मिलन की घडी हो- या 
बिछोह का हो वक्त,
जन्म की ख़ुशी हो , या 
हो मौत का गम ,
आँखों को नम करते हैं आंसू | 

हैं तो ये महज खारा पानी 
पर हमारे दिलों की जज़्बात 
ये आंसू || 

अजय कुमार पाण्डेय 



यादें

                  यादें                      


हर घडी , हर वक्त 
हर गली , हर मोड़ पर 
हर जगह , हर छोर पर 
आती हैं - बस यादें | 

भूले-बिसरे, मिले बिछड़े 
जाने-अनजाने लोगों की यादें | 
तन्हाई में चुपके दबे पाँव आकर 
झिंझोड़ जाती हैं, तन-मन को 
ये यादें | 

ज़िंदगी की सूनी राह  की हमसफ़र 
अपनों के जाने के बाद 
कुछ साथ है अगर 
तो वो हैं -यादें | 

लोग आते हैं,
चले जाते हैं ,
पर पास रह जाती हैं -
सिर्फ- यादें ||

अजय कुमार पाण्डेय 

प्यार

             प्यार                    


प्यार
एक एहसास है, मीठा एहसास
जो महसूस होता है, 
जीवन की अंधी दौड़ में 
तपती धुप में,
लू के थपेड़ों से जूझता इंसान 
तलाशता है - एक छाँव 
शीतल छाँव - प्यार | 

प्यार - एक सहारा है 
उनके लिए- जो थक गए हैं - कठिनाइयों से 
भटके हैं- जीवन की राह में | 
मार्गदर्शक हैं- उनके लिए 
जो तलाश रहे हैं - मंज़िल को | 

प्यार पुष्प है 
महकता है जीवन को 
संगम है- दिलों का 
बयार है बसंत की 
इसका कोई नाम नहीं 
इसकी कोई पहचान नहीं 
ये बसता है- दिलों में हमारे ||

अजय कुमार पाण्डेय 

सुबह कभी तो आएगी

   सुबह कभी तो आएगी         


जब रात का आँचल ढलकेगा
जब भोर की किरण चमकेगी
जब नव पल्लव उपवन महकायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब मजलूमों पर जुल्म न होंगे 
जब इंसान मजबूर न होंगे
सबको अपना अधिकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब ऊंच-नीच का भेद मिट जाएगा
अमीर-गरीब का दाग हट जाएगा
जग में सामाजिकता फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब लिंग भेद खत्म हो जाएगा
जब दहेज के दानव मिट जाएगा
जब बहुएं जिंदा न जलायी जाएंगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब आंखों में आंसू न होंगे
लोग भूख से व्याकुल न होंगे
सबके सपनों को आकार दिलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

जब जग से आतंकवाद मिट जाएगा
जाति-धर्म का भेद हट जाएगा
चंहुओर सुख शांति फैलाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय

जंग

          जंग                   


सूरज आता है 
रात के स्याह अँधेरे को चीरते हुए 
अपनी अरुणिमा से संसार को सराबोर करता है 
एक नई उम्मीद, एक नई प्रेरणा देता है,
हमें, हम सबको 
जो जीवन की कठिनाइयों से थक गए हैं | 

कहता है -
उठो , ये वक्त नहीं है थकने का 
ये वक्त है आगे बढ़ने का | 
जीवन एक जंग है , हर कदम 
लड़ना है इससे, जीतना है- जंग को 
एहसास देता है 
हर रात की सुबह होती है 
वैसे ही,हर असफलता के बाद सफलता होती है 
फिर क्या सोच रहे हो,
कोई नहीं है जो आएगा 
जो आगे बढ़ेगा वही मंज़िल पायेगा || 

अजय कुमार पाण्डेय 




महंगाई/ व्यंग्य

  एक व्यंग्य

          महंगाई               


काफी समय बाद मैं बाजार गया 
सोचा कुछ खरीदारी ही कर लूं 
दुकानदार से चीनी का भाव पूछा 
४५ रुपये किलो , उसने बोला 
हम तो चीनी के उत्पादन में सबसे आगे हैं 
फिर इसके दाम क्यों इतने भागे हैं | 
साहब जब से जीवन में कड़वाहट बढ़ गया 
तब से चीनी का भाव भी बढ़ गया 
संबंधों में वो मिठास नहीं रह गया 
इसलिए चीनी का ही सहारा रह गया | 

अच्छा नमक का भाव क्या है- मैंने पूछा 
वो तो चीनी से भी महंगा हो गया 
क्यों - मैंने पूछा 
चीनी से मिठास ज्यादा हुई तो कीड़े पद गए 
इसलिए नमक की जरूरत हुई - 
तो उसके भी भाव बढ़ गए| 

साहब भाव क्यों पूछते हो 
अब तो बाजार में पानी भी बिकता है | 
पर उसपर तो सबका अधिकार है-मैंने बोला 
ऐसी बात तो सोचना भी बेकार है 
हर चीज़ पर टैक्स की भरमार है 
अब तो ज़िंदगी भी डिब्बाबंद हो गयी 
क्यूंकि महंगाई सुरसा जैसी हो गयी || 

अजय कुमार पाण्डेय 





भटकाव

            भटकाव                


दूर तलाक फैला हुआ आकाश 
आभास देता है,
असीमित है दुनिया | 
पर पृथ्वी तो गोल है 
इसका भी एक छोर है | 

क्या सचमुच आकाश असीमित है 
दूर क्षितिज नजर आता है 
लागत है अंत है दुनिया  का | 
पर वो तो भ्रम है ,
क्या हम भ्रम में जी रहे हैं ?

जीवन भी तो भ्रम है , एक जाल है 
संबंधों का , जिसमें हम उलझे हैं | 
नित नए सम्बन्ध बनते हैं, बिगड़ते हैं 
 फिर भी हम भटकते हैं ,
सुकून की तलाश में ,
सुकून नज़र आता है 
क्षितिज की तरह 
दीखता है, पर महसूस नहीं होता ,
हर वक्त कमी महसूस होती है | 

आकाश तो अंतहीन है ,
पर जीवन का अंत है ,
फिर क्यों है -
ये अंतहीन भटकाव || 


अजय कुमार पाण्डेय 


छत

                 छत                    

           

हर किसी को तलाश है
एक छत की,
हर किसी को आस है
एक छत की,
छत जो सहारा दे
आंधी से, तूफान से, बरसात से
इंसान जन्म लेता है
छत के नीचे
खत्म होता है - जीवन
छत के नीचे
फिर भी तलाश है
एक छत की

अजय कुमार पाण्डेय


वो दिन याद बहुत आते हैं

             वो दिन याद बहुत आते हैं 


वो नन्हे हाथों को बार बार ऊपर उठाना
देख कर माँ को गोदी के लिए मचल जाना 
उसका गीले में सोकर हमें सूखे में सुलाना 
पर आज गीलेपन से बचने को 
बच्चों की नैपी बदलवाते हैं ,
जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो चाक, खड़िया, वो दुद्धी वाले दिन 
वो लकड़ी की स्लेट, सरकंडे की कलम वाले दिन 
वो झोला टांग कर स्कूल जाने वाले दिन 
आज बच्चों को स्कूल बसों में भिजाते हैं 
और डिजिटल क्लास में पढ़ाते हैं, पर
न जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो एक ही साइकिल पर
दो लोगों का बैठ कर  जाना 
अपनी न रहे तो दूसरे की मांग कर चलाना
मना करने पर दोस्ती की कसम दिलाना 
आज खुद की कार से ही आते जाते हैं 
पर न जाने क्यों वो दिन याद बहुत आते हैं || 

क्लास में उसे देखकर दिल ही दिल में मुस्कुराना 
स्टेशनरी से कार्ड खरीद कर लाना 
कार्ड में पत्र लिखकर उस तक पहुँचाना 
उसके पास पत्र पहुँचने पर
किले फतह करने जैसा भाव आना 
पर आज मोबाइल से आसानी से 
त्वरित सन्देश भेज दिए जाते हैं ,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो क्लास में दोस्तों की
टिफिन में तांक झाँक करना 
एक दुसरे की जूठन पर भी
अपना अधिकार जताना 
टिफ़िन शेयर न करने पर
कट्टी की धमकी तक दे जाते थे 
आज हाइजीन देख कर 
पांच सितारा होटलों में 
खाना खाने जाते हैं ,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो माँ से एक रूपये के लिए मचल जाना 
बाजार में खिलौने के लिए ज़िद्द कर जाना 
खिलौने न मिलने पर
पैर पटक कर जमीन पर लेट जाना 
आज तो खुद कमाते हैं 
अपनी सभी जरूरतों को
अमूमन पूरी भी कर जाते हैं,
पर न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

वो पिता की थाली में खाना खाने की ज़िद्द करना 
भाई को अधिक मिल गया
कह कर शिकायत करना 
बहन की चोटी खींच कर
उसे बार बार चिढ़ाना 
माँ के हाथ से थप्पड़ खा कर भी 
मेरी माँ मेरी माँ कहकर गले लग जाना 
पर न जाने क्यों कुछ लोग तेरी माँ तेरी माँ 
कहने से भी नहीं हिचकिचाते हैं ,
न जाने क्यूँ वो दिन याद बहुत आते हैं || 

यूँ तो सबने खूब तरक्की कर ली 
थोड़ा कम थोड़ा ज़्यादा 
सभी ने अपनी जेबें भर ली 
आज हम समाज में
अगणित लोगों से सम्मान पाते हैं 
पर वो माँ के थप्पड़ ,पिता की डांट ,
अध्यापकों की धमकी, दोस्तों की फटकार 
में आज भी इक हसीं अपनापन पाते हैं | 
न जाने क्यूँ वो दिन आज भी याद बहुत आते हैं || 

अजय कुमार पाण्डेय 

हैदराबाद


राम हिंदुस्तान हैं

           राम हिंदुस्तान हैं          


राम राम राम राम, मन में राम, तन में राम
चर में राम अचर में राम, जल में राम नभ में राम
नहीं कोई बची जगह , जहां न विद्यमान राम।।

राम ही आन हैं, राम ही शान हैं
राम ही जान हैं, राम ही जहान हैं
राम से है जग यहां, जग ही मेरे राम हैं।।

राम ही हैं आत्मा, राम ही परमात्मा 
राम ही प्राण हैं, राम ही अभिमान हैं
राम ही पहचान हैं,राम पूजा हैं, सम्मान हैं।।

राम ही सत्य हैं, राम ही लक्ष्य हैं
राम ही दवा हैं, राम ही दुआ हैं
राम सिर्फ दया हैं, जिन्हें क्रोध ने छुआ नहीं।।

राम मर्यादा हैं, राम विश्वास हैं
राम ही चाह हैं, राम ही राह हैं
राम ही अनुबंध हैं, राम ही सौगन्ध हैं।।

राम ही प्रदक्षिणा हैं, राम शबरी के जूठे बेर हैं
राम माँ की ममता हैं, राम पिता की छांव हैं
राम ही आवाज़ हैं, राम ही आगाज़ हैं।।

राम हैं मानवता में, राम हैं सामाजिकता में
राम हैं अस्मिता में, राम हैं सहिष्णुता में
राम शीलता के प्रतिमान हैं, राम हिंदुस्तान हैं।।

हाँ राम हिंदुस्तान हैं।।

अजय कुमार पाण्डेय



द्रौपदी चीर हरण

             द्रौपदी चीर हरण।            


था सजा दरबार समग्र
मचा वहां कोलाहल था
आज दिवस कुछ अलग अलग था
सभा का मन भी व्याकुल था।।

थी बीसी बिछात भविष्य की
सत्ता का था संघर्ष वहां
सत्य-असत्य, शुचिता-कुटिलता
के मध्य मचा था एक द्वंद वहां।।

सत्ता की चाह प्रबल थी
संस्कार वहां बस नाम के थे
आज दिशाएं मौन पड़ी थीं
धरती गगन खामोश पड़े।।

उच्छृंखल बहती पवन की
गति भी मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने जब
चीर हरण की ध्वनि सुनी।।

मौन थी सत्ता वहां
मौन समग्र साम्राज्य था
धृतराष्ट्र, पितामह, गुरु द्रोण,
थे मगर बेजान थे।।

शूरवीरों से भरी सभा
बैठी धरे हाथों में हाथ थी,
वो न केवल कुलवधू थी
वो प्रतीक थी नारी सम्मान की।।

जो सभा में थी आज खड़ी
वो भी कहीं की लाज थी,
चीर जिसका हाथ में लिए
दुःशासन कर रहा अट्टहास था।।

कपाट सारे बन्द होने लगे जब
सभा छोड़ विदुर गए तब
कौरवों की वाणी भी
सशुचिता के पार हुई।।

कर्ण ने दुःशासन से जब कहा
अब पांचाली को निर्वस्त्र करो
हार चुके पांडव यहां
अब इससे ही मन मुदित करो।।

कातर नज़रों से कृष्णा
तक रही थी अपने वीर को
थे सभी लाचार वहां
नहीं कहीं अब वीर थे।।

द्यूत क्रीड़ा में हार कर
दास थे सब बन चुके

शोकाकुल मौन सभा
लज्जा से सभी गड़े जाते
नहीं किसी की साख बची
जो कृष्णा का क्रंदन सुन पाते।।

खड़ी बीच दरबार
मांग रही वो लाज की भिक्षा
भूल चुके संस्कार सारे
याद रही न कोई शिक्षा।।

नारी कोई वस्तु नहीं
तुम जिसका मोल लगा बैठे
मान तुम्हारा नहीं रहा जब
क्यों मेरा मान गंवा बैठे।।

आज पितामह मौन पड़े हैं
जब कुल की मर्यादा भंग हुई
युद्धवीर सब मौन पड़े हैं
क्या धरती वीरों से तंग हुई।।

दुर्योधन के छुद्र इशारे
स्वाभिमान को तड़पाते थे
अत्याचारी कौरव की करनी से
मर्यादा भी लज्जा से गड़े जाते थे।।

भूल चुकी थी राज सुख सारे
भूल चुकी सब मर्यादा को
भूल चुकी वो आज स्वयं को
भूल चुकी थी अपने तन को।।

याद रहे बस माधव उसको
मीत बनाया बचपन में जिसको
पीर मेरी सुन लो गिरधारी
हे बनवारी, घट-घट वासी।।

तुम ही जगत हो, तुम ही ज्ञाता,
रक्षा मेरी आज करो तुम
अपनी सखी की लाज बचाने
आकर मेरी बांह धरो तुम।।

दर्पयुक्त  दुःशासन
खींच रहा था चीर को
कोलाहल में मदमस्त कुटिलता
कब सुनती उसकी पीर को।।

खींच खींच कर लगा हांफने
वो कृष्णा की चीर को
निर्वस्त्र करना द्रौपदी को
उसकी क्षमता के पार हुआ।

वस्त्र रूप बनकर जब माधव,
का नैतिक अवतार हुआ।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद




अभिमन्यु

         अभिमन्यु 


चक्रव्यूह में खड़ा हुआ वो
 घिरा हुआ था वीरों से
कहने को सब शूरवीर थे
पर व्यवहार कर रहे थे कायरों से।

न थी इतनी ताकत उनमें के
पार पा सकें उस बालक से
वो कोई सामान्य नहीं था
वो वीरों में महावीर था।

वीरों से अतिवीरों तक उसने
नाको चने चबवाया था
चन्द्रदेव के पुत्रमोह वश
आंशिक जीवन पाया था।

मां सुभद्रा के गर्भ में वो
बन अर्जुन नंदन आया था।।

बाल्यकाल मामा संग बीता
जहां समुचित ज्ञान वो पाया था
वेद पुराण से अस्त्र शस्त्र में
बन पारंगत वो आया था।।

गर्भकाल में ही उसने था
चक्रव्यूह का ज्ञान लिया
अपनी ज्ञान की उस ताकत का
उसने कुरुक्षेत्र में सम्मान दिया।।

जिस कुरुक्षेत्र की रचना कर
कौरव मन ही मन हर्षाये थे
उसी चक्रव्यूह के सब द्वारों पर
वो उससे मुंह की खाये थे।।

दुर्योधन,कर्ण , द्रोण, दुःशासन
सबका मान भंग कर डाला था
अपने रण कौशल से उसने
सबको खूब नचाया था।।

हस्र सुनिश्चित देख के कौरव
नैतिकता सब भूल गए,
चक्रव्यूह को खण्डित देख
युद्ध के मानदंड सब भूल गए।।

कायर कौरवों ने घेर कर
उस पर पीछे से वार किया
कुरुक्षेत्र को शर्मसार कर
जयद्रथ ने निहत्थे बालक पर वार किया।।

वार तीव्र था इतना
कि वीर उसे सहन न कर सका
मानदंडों के सैकड़ों प्रश्न छोड़
वो धरा पर गिर पड़ा।

वीर के गिरते ही
कौरव मदमस्त हुए
युद्धकौशल के सारे
मानदंड सब ध्वस्त हुए।

ये ऐसा अध्याय है
जो कोई भूल नही सकता
संघर्षों के जीवन में
बन कौरव चल नही सकता।


जीवन अपना कुरुक्षेत्र है
इससे है इनकार नही
पर जयद्रथ बनने का
किसी को अधिकार नही।।

जीवन कोई युद्ध नहीं
ये तो केवल कौशल है
कुशलपूर्वक जीने को
तुम खुद को तैयार करो

अपने भीतर के अभिमन्यु को
सस्नेह स्वीकार करो।।

अजय कुमार पाण्डेय


राष्ट्रवीरों को नमन

         राष्ट्रवीरों को नमन            


दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए,
उम्र के दो चार पल क्या
ज़िंदगानी दे गए।।

झुका दिया अंबर को जिसने
सागर का मंथन कर गए,
ऐसे वीरों को नमन 
जो अपनी कुर्बानी दे गए।।
दिल नमन करता है उनको 
जो कहानी बन गए।।

देश पर देखा जो संकट, 
खुद ही घर से चल दिये,
ना सुनी चौखट की आहट, 
आंसुओं को तज दिए।।

माँ भारती की फीकी 
चूनर जो देखी तो उसे
लहू से अपने रंग दिए,
दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए।।

इक हाथ में बांधा कलावा, 
दूजे में राखी बंधी
दिल में चाहत प्यार की भर, 
घर घर की किलकारी बन गए।

दिल नमन करता है उनको
जो कहानी बन गए।।

(पाक, चीन व आतंकियों के लिए)

चाहे तुम लाओ सिकंदर, 
चाहे गौरी या के गज़नी
सीमा पे पृथ्वी खड़ा है, 
कण कण में पोरस बस गए।
मर के जो पहुंचो नरक में, 
तो पूछना खुद आप से
पाक के नापाक मन की, 
क्यों निशानी बन गए।

दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

है हिमालय शान मेरा, 
और गंगा मान मेरी,
भारत नहीं भूभाग कोई, 
जिसकी तुम चाहत करो।।
है ये वो जीवन हमारा जिसपे, 
सांसे निछावर कर गए
दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

आये कितने सूरमा 
और तुर्रम खान कितने
एक ही ठोकर में सारे 
धराशाई हो गए,
है गर्व हमको राष्ट्र पर 
और गर्व शहीदों पर हमें
एक उजली भोर देकर 
खुद रात काली ले गए।।

दिल नमन करता है उनको, 
जो कहानी बन गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय

         हैदराबाद


मैं एक वोट हूँ

      मैं एक वोट हूँ          


न मैं मंदिर हूँ, न मैं मस्जिद हूँ
न मैं अमीर हूँ , न मैं गरीब हूँ
न मैं ताकतवर हूँ, न मैं मजलूम हूँ
मैं तो लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

मैं घायल हूँ लोकतंत्र में निजी हित की शमशीरों से
मैं स्वार्थी नेताओं की अनैक्षिक जागीर हूँ
मैं टूटते ख्वाबों की मौन आवाज़ हूँ
मैं खुद को खुद से ही पहुंचाने वाली चोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

सत्ता के गलियारों ने मुझको तोला
किसी ने अस्मत लूटी, किसी ने भावनाओं से खेला
सत्ता के गलियारों ने कभी गोधरा, कभी मथुरा
कभी मुजफ्फरनगर कभी कासगंज बनाया
चुनावी मंच से जायकेदार चाबुक से बरबस ललचाया
निज स्वार्थ से वशीभूत में खुद के स्वभाव की खोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

यूँ तो मैं आज़ाद देश का वाशिंदा हूँ
पर डरता हूँ निर्भया की दम घोंटती चीखों से
मैं ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हूँ
जहां इंटरनेट सस्ता और पढ़ाई महंगी है
मैं सियासतदानों के अनगिनत चालों का परिणाम हूँ
मैं स्वार्थी नेताओं अतृप्त वासना की हसीन चाह हूँ
मैं चुनावी जाड़े की गर्म हसीन कोट हूँ
जी हां मैं स्वार्थी लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

जब सत्ता के गलियारों में नोट दिखाए जाते हैं
जब चुनावी भाषण में सिद्धांत गिराए जाते हैं
जब जाति धर्म देख कर मुआवजे बांटे जाते हैं
जब रोटी की चाहत में सुदूर कोई बच्चा रोता है
जब उन चीखों को अनसुना कर 
अफ़ज़ल-कसाब को बिरयानी खिलाई जाती है
जब सहिष्णुता दिखाने को 
आधीरात कोर्ट खुलवाई जाती है
जब सीमा पर कोई वीर तिरंगे में लपेटा जाता है
जब उसकी नवयौवना विधवा 
अपने टूटे सपनों को खोजा करती है।

इतने पर भी मैं मौन पड़ा रहता हूँ
क्योंकि मैं नोटों के बंडल की एक नोट हूँ
जी हां मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय











ज़िंदगी का खेल

       ज़िंदगी का खेल   


कैसे कैसे खेल दिखाए ये ज़िंदगी
पल में हंसाये तो पल में रुलाये ये जिंदगी,
हर आती जाती साँसों की धड़कन से
होने न होने का एहसास दिलाये ये जिंदगी।।

रंग बदलते रिश्तों का असली रंग दिखाए ये जिंदगी
अपने पराये का भेद बताए ये जिंदगी,
शर्मिंदा हो जाती है ये भी उस वक्त
जब कोख के दर्द को भी न समझा पाए ये जिंदगी।।

बिखरते रंगों का एहसास कराती है ज़िंदगी
हर गुज़रते वक्त के साथ एक नया आगाज़ कराती है,
जब अपनों से ही ज़ख्म मिलने लगे
तो इक नए जीवन का एहसास कराती है जिंदगी।।

बिछड़ना ही जब मुनासिब लगने लगे
तब फासलों के मुहावरों की समझाती है जिंदगी,
झूठ के प्रहार से जब घाव नासूर बन जाये
तो घाव पर मरहम भी लगाती है जिंदगी।।

सच कहो तो जीवन के उतार चढ़ाव जैसे भी हों
जीने की राह बताती है ये जिंदगी।।

अजय कुमार पाण्डेय



रखता हूँ

         रखता हूँ         

ऐ ज़िंदगी तेरे हर प्रश्नों का जवाब रखता हूँ
तेरे हर गुज़रे पन्नों का किताब रखता हूँ।
तुझे संवारने में गुज़र गए जो हसीन पल
उन सभी पलों के हिसाब रखता हूँ।।

हर रिश्ते में मैंने खुद को ही ढूंढा है
तस्वीर किसी की भी रही हो
उसका अक्स खुद में ही ढूंढा है
खुद को भूल न जाऊं कभी
इक आईना हमेशा पास रखता हूँ।।

ऐ ज़िंदगी तेरे बीते हर पल का हिसाब रखता हूँ।।

चंद लम्हे पहले साथ चल रहे थे
चंद लम्हों में ही बेज़ार हो गए
सुनकर भी उनके सारे गिले शिकवे
मैं होठों पर हर पल मुस्कान रखता हूँ।।

ये सोचकर के बड़े अनमोल रिश्ते हैं ये दुनिया के
मैं इन सभी रिश्तों का मान रखता हूँ
डरता हूँ कि कहीं रूठ न जाएं ये रिश्ते
इसलिए अकसर चुपचाप रहता हूँ।।

ये न समझ ऐ ज़िंदगी
के तुझसे मैं डर गया हूँ
सच तो ये है कि
मैं तेरे दिए हर ज़ख्मों का हिसाब रखता हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय





अभी शुरुआत है

   ये अभी शुरुआत है      


हौसला रख ऐ ज़िंदगी
ये अभी शुरुआत है
किसको कब कब क्या मिला
ये मुकद्दर की बात है।।

साथ चल तू वक्त के
हौसलों की थाम कर
आएगी मंज़िल नज़र
बस तू यूँ ही प्रयास कर।।

लोग ताने दें तुझे
या फिर करें कटाक्ष कहीं
तेरी है ये जिंदगी
बस इतना तू खयाल रख।।

तू जो राहों पर चला
तो न बाधाओं का विचार कर
जो भी बाधाएं मिलें
उनकी अंगीकार कर।।

रिश्तों की उलझन यहां
अपनों का सम्मान भी
चाहे जैसी भी घड़ी हो
खुद पे तू विश्वास कर।।

शब्दों की हो वेदना 
या झूठ का प्रहार हो
ज़िंदगी का गीत है ये
बस तू यही आभास कर।।

अर्थ मेरे हैं कई
और कई विस्तार भी
जिसने जैसा पढ़ लिया
वैसी ही इक किताब हूँ।।

हौसला रख ऐ ज़िंदगी
ये अभी शुरुआत है।।

अजय कुमार पाण्डेय




जी लेते हैं

       जी लेते हैं       


जब जो भी सोचा कर लेते हैं
ज़िंदगी कैसी भी हो , जी लेते हैं।

यूँ तो बेखौफ खेला करते हैं हम
पर जाने क्यों अपनी ही जीत से डरते हैं।

क्या सच्चा था क्या झूठा था
अब ध्यान नही रहता ,
जिसको भी परखा था
सब भूल गए हैं।।

अब तो चारों तरफ 
एक धुंधली सी तस्वीर नज़र आती है,
सूरत जो भी बनाई थी जहन में
सब भूल गए हैं।।

सुनता रहा सबों के शिकवे खामोशी से
जब अपनी बारी आई तो सब भूल गए हम।।

छुप के रोते हैं हम ज़माने की नज़रों से
अब तो शिकवा भी खुद से ही किया करते हैं।।

वक्त मिले तो कभी ढूंढ लेना
मेरी वफाओं को,
शायद तुम्हे ही मिल जाये
तुम्हारे जानिब किसी रस्ते में।।

अजय कुमार पाण्डेय



समझना होगा

    आज समझना होगा


दिल की अद्भुत भाषा है
इसको आज समझना होगा
कर प्रखर मस्तिष्क को अपने
दिल पर संयम रखना होगा।

बनकर मूक बधिर इस जग में
उपालंभ सारे सुनना होगा
जो दिल को आज समझना है तो
खुद को आज परखना होगा।

कौन है अपना कौन पराया
इससे आज उबरना होगा
सम्बन्धों में बनी दीवारों को
फिर से आज दरकना होगा।

सम्बन्धों को जो आज समझना है तो
खुद को आज परखना होगा।।

सन्देहों के आसमान से 
षड्यंत्रों की बू आती है
अहंकार के अवशेषों से
दीवारों को दरकाती है
अवसादों की शैया को
फिर से आज सिमटना होगा।

षड्यंत्रों से जो निबटना है तो
फिर से आज सम्भलना होगा।।

ढाई आखर प्रेम छोड़कर
स्वार्थी सब अनुबंध हुए
ढलने लगा जब कोख का जीवन
अर्थहीन  सम्बन्ध हुए
कोख की बढ़ती इस पीड़ा को
सबको आज समझना होगा

खुद की आज समझना है तो
कोख का दर्द समझना होगा।।

अजय कुमार पाण्डेय


मौसम बदला न बदला नसीब

गौतम गोविंदा फ़िल्म का गाना 
इक रुत आये इक जाए
मौसम बदले न बदले नसीब...
की तर्ज पर  गीत----

मौसम बदला न बदला नसीब

सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदला न बदला नसीब।

जब जब आये यही दोहराए
मैं बदलूँगा देश का नसीब 
पर सालों से वैसा है सब
मौसम बदला न बदला नसीब।।

आंख तरस जाती दर्शन को 
नहीं आते हैं
पर बाद पांच बरस के
खुद ही आ जाते हैं
इक-इक वोट की खातिर वो
पग पग शीश नवाते हैं
क्या ऊंचा क्या नीचा
क्या अमीर और क्या गरीब
पर सालों से सब वैसा ही है
मौसम बदला न बदला नसीब।।

बंजर होती धरती 
पर प्यासा है गरीब
तक तक तरसे आंखें
कोई न आता करीब
बरस बरस वादे दरद बढाये
सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदले न बदले नसीब।।

मिल जुल करके रहना था
पर भूल गए
स्वार्थ में अंधे हो करके
सब टूट गए
राजनीति के चंगुल में पड़ 
भूल गए सब अपना वजूद
सत्ता आये सत्ता जाए 
मौसम बदले न बदले नसीब।।

भूख कुपोषण और गरीबी
अपमान कराए
विश्व पटल पर कैसे
अपना मान बढ़ाएं
जन गण मन के हे रखवालों
अब तो करो तुम कोई उपाय।
सत्ता आये सत्ता जाए
मौसम बदला पर
क्यूँ न बदला नसीब।।

अजय कुमार पाण्डेय

कैसे भुला पाओगे

   कैसे भुला पाओगे           


माना मेरी ख़ता 
माफी लायक नही
पर ख़ता क्या थी
कभी तो बतला देते
मैं भी समझ जाता
यदि मुझे समझा देते।।

तुमने तो हमेशा 
मुझे छोड़ दोगे कहा
जो वही बात 
एक बार मैंने कही
तो बुरा मान गए।

इक वो भी दौर था
जब मेरी खामोशी 
भी समझ जाते थे
एक ये दौर है
मेरी आवाज भी 
सुनाई नही देती।

यूँ तो मैंने कभी
तुम्हारा बुरा नही चाहा
शायद यही बात मैं तुम्हें
कभी समझा नही पाया।

हम दोनों ही डरते रहे
एक दूजे से बात करने से
कहीं किसी बात पर
फिर से दिल न दुःख जाए।

जाना ही था तो 
कुछ तो बता जाते
झूठा ही सही कोई 
इल्ज़ाम ही लगा जाते
अब क्या बताऊँ
सबको तेरे जाने का सबब
मेरे लिए न सही इक बार 
ज़माने के लिए ही आ जाते।

तुम्हे चाहना
माना मेरी ख़ता ही सही
इक बार इस ख़ता की
सज़ा देने के लिए ही आ जाते।

अपनी हस्ती ही क्या है
 इस ज़माने में
इक ख्वाब हूँ
आंख खुलते ही 
बिखर जाऊंगा।

मेरी गीतों को इतनी
शिद्दत से न पढा करो
गर समझ गए तो
कभी मुझे भुला न पाओगे।।

अजय कुमार पाण्डेय

होई कइसे गुजारा

     होइ कैसे अब गुज़ारा        

 नगरी नगरी गली चौबारा
सगरो गूंजे एक्कई नारा
भूख गरीबी अउर अशिक्षा
से होइ कैसे अब छुटकारा।
नगरी नगरी........

पढ़ाई लिखाई सब महंग भयल हौ
दवा दवाई महंग भयल
टूटी फूटी खपरैल से झांके
टूटी फूटी खपरैल से झांके
एक तिहाई जन बेचारा।
अइसन ही जो हाल रही त
कैसे होइ अब गुज़ारा।।
नगरी नगरी....…...

खेती में अब मोल नही हौ
विह्वल हौ हलधर बेचारा
रोज़ बज़ारे जाइ जाई के
लौटत हौ ख़लिहर बेचारा
लरिका और मेहरारू ताकें
लरिका और मेहरारू ताकें
मारि के आपन मन के सारा
छोटकी भी अब बड़ी हो गयल
लाई कहां से दहेज बेचारा,
अइसन ही जो हाल रही तो
होई कैसे अब गुज़ारा।।
नगरी नगरी गली चौबारा......।।

सीमा पे जो जवान डटल बा
मन में ओकरे खयाल इहे बा
जाने कौन आखिरी पल हो
मन मे हरदम सवाल इहे बा
लरिका-बच्चा और मेहरारू
के गुजरत होइ कइसे दिन सारा
माई बाबू के चिंता में
हियवा हुलके रहि रहि सारा।।
नगरी नगरी........।।

चुन चुन के जेकरा भी भेजलीं
बहुधा देखलीं वोट के मारा
जाति धरम के नारन से
गूँजत हौ अब संसद सारा
मूल भूत सुविधा के चर्चा
मूल भूत सुविधा के चर्चा
लुकाई गयल राजनीति में सारा
सड़क किनारे कथरी गुदरी में
बइठल जइसे भारत सारा
अइसन ही जो हाल रही तो
होइ कइसे अब गुज़ारा।
नगरी नगरी................।।

अपने सुविधा बदे एक होइ जइहें
भटकई जनता चाहे बिना सहारा
दिल्ली अब कुछ अइसन करता
निफिकर हो जाये जनता सारा
कहे अजय अब सोचि समझि के
चुनिहा तू सरकार दोबारा।।

नगरी नगरी गली चौबारा
गूंजई सगरो एक्कई नारा
भूख गरीबी अउर अशिक्षा
से होइ कइसे अब गुज़ारा।।

अजय कुमार पाण्डेय


मैंने दर्द जिया

         मैंने दर्द जिया         


अलिखित पीड़ा सहन किया
मैंने तो हर पल दर्द जिया
हर आती जाती सांसों ने
प्रतिपल यूँ स्तब्ध किया
मैंने तो पल पल दर्द जिया।।

यादों का सागर विशाल
स्मृतियों ने ही छल किया
हर आती जाती लहरों ने
नख से शिख तक तरल किया।
मैंने तो प्रतिपल दर्द जिया।।

इक मुट्ठी आकाश की चाहत में
स्वअस्तित्व को अविच्छिन्न किया
न  मीरा थी, न थे कान्हा
फिर भी पल पल गरल पिया।
मैंने तो प्रतिपल दर्द जिया।।

मूक परिस्थितियों के अधीन
अंतर्मन से निःशब्द चीत्कार किया
पर अविरल कशमकश चक्रवात में
मैंने ढलना सीख लिया।
हाँ मैंने दर्द में जीना सीख लिया।।

अजय कुमार पाण्डेय


तुम वतन हो मेरे

     तुम वतन हो मेरे      


ज्ञान गीता का है
ध्यान गौतम का है
धैर्य धरती सा है
मान अंबर सा है
तुम सपन हो मेरे
तुम रतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

पांव सागर पखारे
हुस्न सावन सँवारे
चन्द्रमा कर रहा सिर पे अठखेलियाँ
गंगा की धार से मान तेरा बढ़ा।
तुम वतन हो मेरे 
तुम वतन हो मेरे।।

नभ को छूता शिखर
शान से है खड़ा
तेरे आलिंगन में मैं
शान से पल रहा
तुम ही मंदिर मेरे
मैं पुजारी तेरा।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

राम हो तुम मेरे
श्याम भी हो मेरे
तुम ही पूजा की थाली
मैं सजाऊँ जिसे।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

तुम ही काशी के तुलसी
रसखान वृंदावन के
तुम ही विदुर नीति हो
तुम ही हो चाणक्य मेरे।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

तुम ही बचपन मेरा
तुम जवानी मेरी
तुम ही जीवन मेरा
तुम ही श्वासें मेरी
कुर्बान जो हुआ मैं तेरी राह में
तो होगी सफल ज़िंदगानी मेरी।
तुम वतन हो मेरे
तुम वतन हो मेरे।।

अजय कुमार पाण्डेय


कुछ जतन करो

  कुछ जतन करो


जिसको देखो विशृंखल है
व्यथा में अपनी भाई
एक से अब खर्च चले न 
दोनों करे कमाई।

ला सको तो वापस ला दो
रामराज्य को भाई
भ्र्ष्टाचार दूर हो जाये
कम हो जाये महंगाई।।

घपले और घोटालों पर
होंगी बातें तब तक
रोकथाम के लिए कड़े कदम
उठें न इन पर जब तक।।

परेशान है जनता इससे
ये बनी बड़ी बीमारी
अब तो कोई जतन करो
मिट जाए हाहाकारी।।

गंगा कब तक तरसेगी
तरसेंगी कब तक नदियां सारी
अरबों खरबों खर्च हो चुके
दूर हुई न ये महामारी।

ये केवल सरकार की नही 
है ये सबकी जिम्मेदारी
मोक्षदायिनी निर्मल हुई जो
तो ही होंगे सब संस्कारी।।

दिल मे शोले पनप रहे हैं
देख के ये मक्कारी
लिपट तिरंगे में ताबूतों को
देख बिलखती मातृभूमि हमारी।

माना कि हम सत्य 
और अहीसा के हैं पुजारी
पर राष्ट्र सुरक्षा की खातिर
कुछ भी दे सकते हैं कुर्बानी।

अब भी वक्त है सुधर जाओ तुम
छोड़ो ये सब मक्कारी
हम अपनी पर आ बैठे तो
मिट जाएगी हस्ती तुम्हारी।।

माना चरित्र और मर्यादा की
हूँ मैं मूरत संस्कारी
पर समाज के प्रति क्या
तुम्हारी नही है कुछ जिम्मेदारी।

छींटाकशी और दुर्व्यहारों से 
पटा हुआ है अंबर
गर समाज को सबल बनाना है
तो तोड़ो सारे आडम्बर।

गर नारी को सम्मान नही तो
मिट जाएगी संस्कृति सारी
नहीं कहीं नैतिकता होगी
मिट जाएगी हस्ती सारी।।

धरा का सीना चीर चीर कर
फसलें खूब उगाईं
कई रात खुद भूखे रहकर
सबकी भूख मिटाई।

चाहे दुष्कर मौसम हो
या हो आपदा आसमानी
कड़क दुपहरी हो या सर्दी
करता रहा खलिहानी।

ज़रा ध्यान हमपर भी दे दो
सुन लो दिल्ली वालों
अगर किसानी खतम हुई तो
क्या खाओगे बोलो।

ऐसे हालातों में रह जायेगी 
धरी तरक्की तुम्हारी
इसीलिए कहता हूँ सोचो
खतम हो ये हाहाकारी।।

अब किससे फ़रियाद करें
तुम ही बोलो सारे
जब संसद में चुनकर बैठे हैं
प्रतिपालक सारे।

ऐसी कोई नीति बनाओ
हो दूर अराजकता सारी
राष्ट्र ये खुशहाल बने
हर्षित हों सब नर नारी।।

अजय कुमार पाण्डेय

हंस कर चलना होगा

हंस कर चलना होगा


फूल खिले हों पथ में
या कांटों का अंबार मिले
सहज भाव से सब मिल जाये
या संघर्षों की राह मिले
तुझे हर पल इसपे डटना होगा,
जीवनपथ चाहे जैसा हो
तुझे हंसकर इसपे चलना होगा।।

हार मिले या जीत मिले
या जीवन अमृत मिले
क्या ग़ैरों से और क्या अपनों से
मान मिले या अपमान मिले
ये सब तुझको सहना होगा।
कैसा भी हो ये जीवनपथ
तुझे हंसकर इसपे चलना होगा।।

जीवन है आकाश के जैसा
संघर्ष तेरा है ध्रुवतारा
आत्मबल को शस्त्र बना
कवच बना तू स्वाभिमान को
अपनी इस ताकत से तुझको
विपदाओं को निःशस्त्र करना होगा।
जीवनपथ कैसा भी हो
तुझे हंसकर इसपर चलना होगा।।

अजय कुमार पाण्डेय

सबको अपने हिस्से का आसमान मिलता है

सबको अपने हिस्से का आसमान मिलता है


सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है
किसी किसी को अधिक किसी को कम मिलता है
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

विपदाओं का धरणीधर हो
या शूल भरे हों राहों में
उम्मीदें जो साथ अगर हैं
तो मुश्किलों में भी राह निकलता है।
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

लाख करे कोई चतुराई
विधि का लिखा ही पायेगा
कुटिलता जहां भी आदर पाएगी
अशांति का महाभारत वहीं पर आएगा।
कोई कितना भी जतन कर ले
समय अपनी ही गति से चलता है।
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

जितनी भी पूंजी थी लगा दिया तुमने
कभी दिल तो कभी दिमाग भी चला लिया तुमने
जो हिस्से का था तुम्हारे वही तुम्हे मिलता है
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

अपने अपने पसंद के सपनों को
हर कोई संजोना चाहता है
सहेज कर उम्र को अपने
खुशियों को अपने आँचल में समेटना चाहता है
अपनी उन्ही ख्वाहिशों की खातिर
वो अविराम चलता है,
जबकि मालूम है उसे भी के
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

जीवनपथ पर रोज़ अगणित लोग निकलते हैं
कुछ धीमे धीमे तो कुछ तेज़ पग रखते हैं
कुछ ठोकर खाकर गिरते हैं
कुछ ठोकर खाकर सम्भलते हैं
कर्मपथ की पगडंडी पर
अगणित पदचिन्हों का निशान मिलता है,
सबको अपने अपने हिस्से का आसमान मिलता है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

राह मैखाने की

        राह मैखाने की                 


अभी अभी तो आया हूँ
तुम पूछते हो जाना कहां है
तलाश में जिसकी भटक रही हैं आंखें
तुम्ही बताओ वो मैखाना कहां है।।

हर रास्ते पे पत्थरों की दीवारें
रोकती हैं राह राहगीरों की
आओ मिलकर हटाएं उन पत्थरों को
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

न तुम मुझसे मेरी जात पूछो
न मैं तुमसे तुम्हारा धरम पूछूं
चलो बनकर अजनबी ढूंढें
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

मैं जानता हूँ कि तू भी प्यास है
तू जनता है कि मैं भी प्यासा हूँ
चलो संकोच की इस दीवार को लांघ जाएं
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

आरजूओं का साथी बनने
चलो मंदिरों-दरगाहों पर हो आएं
किसी बहते आंसू को पोंछने से
शायद मिल जाये राह मैखाने की।।

ज़माना हरदम मुझे साकी बुलाता रहा
फिर भी मेरे हिस्से कोई पैमाना नही आया
ऐ खुदा न बंद करना दरवाज़ा-ए-दुनिया 
जब तलक मिल न जाये राह मैखाने की।।

अजय कुमार पाण्डेय

हिसाब देना होगा

                   हिसाब देना होगा।             


मैं लिखने की तकनीक न जानूं
कुछ कहने का व्यवहार न जानूं
इक आँखों की भाषा को
बस पढ़ने का प्रयास पहचानूँ।

इक अंतर्द्वंद से घिरा हुआ हूँ
फिक्र हमेशा बनी हुई है
वैचारिक लाठी के तड़ तड़ की
गूंज से विचलित हुआ जा रहा।।

तेरी हर बातों को हमने
स्वीकार किया भले मजबूरी में
छोड़ नही सकता कुछ भी 
सहना पड़े भले कुछ भी अब।।

खो रहा है दिशा ज्ञान सब
विह्वल हैं सब भाव भंगिमा
इन भावनाओं का मज़ार बना
इक चादर पल पल चढा रहा हूँ।।

सब कुछ है पर यथार्थ नही
झांसे और ऐयारी से तकलीफ बढ़ रही
काली होती वादाई लहरों से
तटबन्धों की ताबीर झड़ रही।।

अपने भीतर सर्वेक्षण कर डालो
सारे स्वप्निल उन वादों का
धूल धूसरित भले ही कर दो
राजनीतिक व्योम पटल को
देना होगा हिसाब तुम्हें 
अपना, सबका, जन तन के मन का।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद

स्वार्थी सत्ता के मतवाले

          चन्द स्वार्थी सत्ता के मतवालों को रेखांकित करती एक रचना जिनके कारण जनता राजनीति और से कई कई बार विश्वास खोने लगती है--

       जनतंत्र की अभिलाषा           

ऐ स्वार्थी सत्ता के मतवालों
कलुषित कुंठित मनोदशा वालों
स्वरचित मोहपाश में
एक दिन तुम बंध  जाओगे
जो चले बेचने लोकतंत्र को
एक दिन तुम खुद बिक जाओगे।।

कुर्सी का है खेल निराला
समझो न इसे निज मय का प्याला
मत भूलो हर घूंट से इसकी
नशा अधिक गहराता है
खुद पर कोई ज़ोर चले न
मन परतंत्र हो जाता है।।

चंद स्वार्थी लोगों ने
लोकतंत्र का मान घटाया है
खुद की नाकामी ढंकने को
जनता को भरमाया है।।

सत्तामोह में पड़कर मुफ्तखोरी
की जो आदत डाल रहे
मत भूलो संसाधनों पर तुम
अपनी कुदृष्टि डाल रहे।।

मुफ्तखोरी की आदत
व्यवहार में जो रच बस जाएगी
भारत की संपूर्ण व्यवस्था
स्वतः पंगु हो जाएगी।।

मत भूलो निज स्वार्थ में पड़कर
तुम जनता को बांट रहे
नासमझी की पराकाष्ठा यही है
जिस डाली पर बैठे हो
उसी डाली को काट रहे।।

नित नए घोटाले कर के
शुचिता तक को खा गए
भ्र्ष्टाचार की बेदी पर
जनता की बलि चढ़ा गए।।

राजधर्म की मर्यादा को
जब चाहा तुमने तोड़ा है
रक्षक बनकर लोकतंत्र के
इसे न कहीं का छोड़ा है।।

जागो है मतवालों जागो
गली चौक चौराहे जागो
कब तक भोले बनकर के
उनकी इक्क्षा के बटन दबाओगे
कब बनकर पाञ्चजन्य तुम
शुचिता की अलख जगाओगे।।

जन गण मन ये पूछ रहा
सत्ता के पहरेदारों से
भूख कुपोषण और गरीबी
जब उनको नही सुहाती थी
तब जनता की करुण पुकार क्यूँ
उन तक पहुंच ना पाती थी।।

जिस देश के गमलों में
करोड़ों की गोभी  उग जाती है
उस देश की तिहाई जनता
कैसे भूखी रह जाती है।।

महलों के आगे जब
झोंपड़ियों के आंसू का कोई मोल नही
नैतिकता बेमानी हो जाती तब
शुचिता का भी मोल नही।।

तब जगता है फ़र्ज़ कलम का
अत्याचारों से लड़ने का
आत्ममुग्ध सत्ता के आगे
तानकर सीना अड़ने का।।

जिस दिन हो निष्पक्ष लेखनी
अपनी पर आ जायेगी
उस दिन ही ये भूखी जनता
सत्ता को खा जाएगी।।

अजय कुमार पाण्डेय


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