ग़ज़ल - आगाज़
आवाज़ों के बाजार की इक खामोश आवाज़ हूँ मैं ,
दिल को झिंझोड़ दे इक वही साज़ हूँ मैं
न समझना के थक गया हूँ मैं ,
ज़िंदगी तेरी हर महफ़िल का आगाज़ हूँ मैं ||
चलो आवाज़ों की नई शुरुआत तो हो
कोई कुछ न कहे मगर बात तो हो
चाहत का मौसम फिर आ जायेगा
जो मेरे पास तू आ जायेगा |
न बैठो बंद कमरे में इस कदर
इक नज़र उठाकर तो देखो
गुज़रा ज़माना फिर याद आ जायेगा ||
वो बचपन की बातें जो समझी न थीं
वो रहत की बातें जो समझीं न थीं
मन बदल गया सब मगर संसार वही है
तेरी मेरी चाहत की आवाज़ वही है
इन आवाज़ों को जो तू सुन पायेगा
तो चाहत का मौसम फिर आ जायेगा ||
माना ज़माने की रुसवाई रोकती है तुम्हें
रस्मों की रवायतें रोकती हैं तुम्हें
दूर ही सही मगर जज़्बात वही हो
खामोश ही सही मगर आवाज़ वही हो
तुम भी वही हो मैं भी वही
यादों में ही सही चाहत का का अंदाज़ वही हो ||
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