बाजार
दुनिया इक बाजार है
हर शख्स खरीदार है।
कहीं बिक रही इंसानियत
कहीं बिक रहा इमान है।
अपने पराये का भेद इतना गहरा गया
हर रिश्ते पे लटक रही तलवार है।
जिधर नज़र डालो, कहीं बिक रही मजबूरी
कहीं बिक रहा प्यार है।
आधुनिकता की दौड़ में इस कदर अंधे हुए
खोखले होते जा रहे सारे संस्कार हैं।
बाज़ारवाद में इस कदर मशरूफ हुए
के छूट गया वो आँचल
जिससे कभी बही दुग्धधार है ||
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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