एक मजदूर की तलाश
वो मजदूर है
अपनी माथे की
लकीरों से मजबूर है
सपनों की खातिर
वो चलता है
अगणित उम्मीदें
ले पलता है।
भोर की पहली
किरण के साथ ही
निकल पड़ता है वो,
तलाश में -
एक वक्त की रोटी के ,
चाहता है कुछ करना ,
कुछ पाना,
पर तलाश सिमट जाती है-
एक वक्त की रोटी तक |
सपने देखता है- महल का,
आशियाने का,
बनता है- महल,
दूसरों के लिए
बदले में चाहता है
एक वक्त की रोटी |
सैर करता है- दुनिया की
देखता है अनगिनत
संस्कृतियों को
पर तलाशता है-
एक वक्त की रोटी |
दिन की चकाचौंध
से दरकार नहीं
रात क उजालों से
सरोकार नहीं
भीड़ भरी तन्हाइयों में
तलाशता है - बस
एक वक्त की रोटी ||
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