हिसाब देना होगा।
मैं लिखने की तकनीक न जानूं
कुछ कहने का व्यवहार न जानूं
इक आँखों की भाषा को
बस पढ़ने का प्रयास पहचानूँ।
इक अंतर्द्वंद से घिरा हुआ हूँ
फिक्र हमेशा बनी हुई है
वैचारिक लाठी के तड़ तड़ की
गूंज से विचलित हुआ जा रहा।।
तेरी हर बातों को हमने
स्वीकार किया भले मजबूरी में
छोड़ नही सकता कुछ भी
सहना पड़े भले कुछ भी अब।।
खो रहा है दिशा ज्ञान सब
विह्वल हैं सब भाव भंगिमा
इन भावनाओं का मज़ार बना
इक चादर पल पल चढा रहा हूँ।।
सब कुछ है पर यथार्थ नही
झांसे और ऐयारी से तकलीफ बढ़ रही
झांसे और ऐयारी से तकलीफ बढ़ रही
काली होती वादाई लहरों से
तटबन्धों की ताबीर झड़ रही।।
अपने भीतर सर्वेक्षण कर डालो
सारे स्वप्निल उन वादों का
सारे स्वप्निल उन वादों का
धूल धूसरित भले ही कर दो
राजनीतिक व्योम पटल को
देना होगा हिसाब तुम्हें
अपना, सबका, जन तन के मन का।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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