पीड़ा

                पीड़ा                    


मन जाने क्यों व्याकुल है
स्मृति पटल विह्वल है
गुमसुम गुमसुम हैं आंखें
चेहरों की पड़ी लकीरें
आभास दे रही पीड़ा की।

था दर्द से सना ये जीवन
अनजानी त्रुटि के कारण
समझ नहीं पाया  मन
क्यूं उजड़ रहा ये उपवन।

दिल के कोने कोने से
उठ रही ध्वनि पीड़ा की
पीड़ा के भाव छुपाता
पर चेहरा सब बतलाता।

रह रह यादों के छाले
फूट फूट दहलाते
इस घनीभूत पीड़ा को
असफल प्रयास से छुपाते।

ये आंखें हैं पैमाना
पल पल पीड़ा मापन की
क्यूं समझ नही पाया वो मन
इस पावन मन की पीड़ा को।

क्यूं भूल गया ये जीवन
ये तन भी है इक उपवन
खुशियों की चाहत में ,वो
छोटी त्रुटियां कर बैठा।

उन त्रुटियों के वारों से
कर बैठा छलनी जीवन
अब पीड़ा है और मैं हूँ
एकाकी बना ये जीवन।

पीछे मुड़ मुड़ जब देखा
थी स्मृतियों की एक रेखा
उन रेखाओं की पगडंडी पे
खुद को तन्हा ही पाया।

अब मैं हूं और तन्हाई
व्याकुल गुमसुम आंखों के
भावों की अनुभूति
स्वीकार कर चुका अब मैं
उस पीड़ा की गहराई।।

अजय कुमार पाण्डेय

हैदराबाद


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