द्रौपदी चीर हरण।
था सजा दरबार समग्र
मचा वहां कोलाहल था
मचा वहां कोलाहल था
आज दिवस कुछ अलग अलग था
सभा का मन भी व्याकुल था।।
सभा का मन भी व्याकुल था।।
थी बीसी बिछात भविष्य की
सत्ता का था संघर्ष वहां
सत्ता का था संघर्ष वहां
सत्य-असत्य, शुचिता-कुटिलता
के मध्य मचा था एक द्वंद वहां।।
के मध्य मचा था एक द्वंद वहां।।
सत्ता की चाह प्रबल थी
संस्कार वहां बस नाम के थे
संस्कार वहां बस नाम के थे
आज दिशाएं मौन पड़ी थीं
धरती गगन खामोश पड़े।।
धरती गगन खामोश पड़े।।
उच्छृंखल बहती पवन की
गति भी मद्धम हो चली,
गति भी मद्धम हो चली,
द्यूत क्रीड़ा के बहाने जब
चीर हरण की ध्वनि सुनी।।
चीर हरण की ध्वनि सुनी।।
मौन थी सत्ता वहां
मौन समग्र साम्राज्य था
मौन समग्र साम्राज्य था
धृतराष्ट्र, पितामह, गुरु द्रोण,
थे मगर बेजान थे।।
थे मगर बेजान थे।।
शूरवीरों से भरी सभा
बैठी धरे हाथों में हाथ थी,
बैठी धरे हाथों में हाथ थी,
वो न केवल कुलवधू थी
वो प्रतीक थी नारी सम्मान की।।
वो प्रतीक थी नारी सम्मान की।।
जो सभा में थी आज खड़ी
वो भी कहीं की लाज थी,
वो भी कहीं की लाज थी,
चीर जिसका हाथ में लिए
दुःशासन कर रहा अट्टहास था।।
दुःशासन कर रहा अट्टहास था।।
कपाट सारे बन्द होने लगे जब
सभा छोड़ विदुर गए तब
सभा छोड़ विदुर गए तब
कौरवों की वाणी भी
सशुचिता के पार हुई।।
सशुचिता के पार हुई।।
कर्ण ने दुःशासन से जब कहा
अब पांचाली को निर्वस्त्र करो
अब पांचाली को निर्वस्त्र करो
हार चुके पांडव यहां
अब इससे ही मन मुदित करो।।
अब इससे ही मन मुदित करो।।
कातर नज़रों से कृष्णा
तक रही थी अपने वीर को
तक रही थी अपने वीर को
थे सभी लाचार वहां
नहीं कहीं अब वीर थे।।
नहीं कहीं अब वीर थे।।
द्यूत क्रीड़ा में हार कर
दास थे सब बन चुके
दास थे सब बन चुके
शोकाकुल मौन सभा
लज्जा से सभी गड़े जाते
लज्जा से सभी गड़े जाते
नहीं किसी की साख बची
जो कृष्णा का क्रंदन सुन पाते।।
जो कृष्णा का क्रंदन सुन पाते।।
खड़ी बीच दरबार
मांग रही वो लाज की भिक्षा
मांग रही वो लाज की भिक्षा
भूल चुके संस्कार सारे
याद रही न कोई शिक्षा।।
याद रही न कोई शिक्षा।।
नारी कोई वस्तु नहीं
तुम जिसका मोल लगा बैठे
तुम जिसका मोल लगा बैठे
मान तुम्हारा नहीं रहा जब
क्यों मेरा मान गंवा बैठे।।
क्यों मेरा मान गंवा बैठे।।
आज पितामह मौन पड़े हैं
जब कुल की मर्यादा भंग हुई
जब कुल की मर्यादा भंग हुई
युद्धवीर सब मौन पड़े हैं
क्या धरती वीरों से तंग हुई।।
क्या धरती वीरों से तंग हुई।।
दुर्योधन के छुद्र इशारे
स्वाभिमान को तड़पाते थे
स्वाभिमान को तड़पाते थे
अत्याचारी कौरव की करनी से
मर्यादा भी लज्जा से गड़े जाते थे।।
मर्यादा भी लज्जा से गड़े जाते थे।।
भूल चुकी थी राज सुख सारे
भूल चुकी सब मर्यादा को
भूल चुकी सब मर्यादा को
भूल चुकी वो आज स्वयं को
भूल चुकी थी अपने तन को।।
भूल चुकी थी अपने तन को।।
याद रहे बस माधव उसको
मीत बनाया बचपन में जिसको
मीत बनाया बचपन में जिसको
पीर मेरी सुन लो गिरधारी
हे बनवारी, घट-घट वासी।।
हे बनवारी, घट-घट वासी।।
तुम ही जगत हो, तुम ही ज्ञाता,
रक्षा मेरी आज करो तुम
रक्षा मेरी आज करो तुम
अपनी सखी की लाज बचाने
आकर मेरी बांह धरो तुम।।
आकर मेरी बांह धरो तुम।।
दर्पयुक्त दुःशासन
खींच रहा था चीर को
खींच रहा था चीर को
कोलाहल में मदमस्त कुटिलता
कब सुनती उसकी पीर को।।
कब सुनती उसकी पीर को।।
खींच खींच कर लगा हांफने
वो कृष्णा की चीर को
वो कृष्णा की चीर को
निर्वस्त्र करना द्रौपदी को
उसकी क्षमता के पार हुआ।
उसकी क्षमता के पार हुआ।
वस्त्र रूप बनकर जब माधव,
का नैतिक अवतार हुआ।।
अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
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