आशाओं के पुष्प।

आशाओं के पुष्प।  

आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता छल
कितने पाए कितने बाकी
नए शिखर तू चढ़ता चल।।

नहीं फिकर कर जीवन पथ की
कितने आये बीत गए
माना कुछ में हार मिली है
लेकिन कितने जीत गए।
हारे का अफसोस न कर तू
रीत नई तू गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

तू इस पथ का लेश मात्र है
खुद पर तू अभिमान न कर
कभी झुका जो जीवन पथ में
उसका तू अपमान न कर।
मान अभिमान से ऊपर कर
प्रतिमान नए गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

हार जीत अरु लोभ मोह सब
मिथ्या है आभासी है
जीवन पथ में वही खिला जो
अंतस से सन्यासी है।
किंतु परंतु से ऊपर उठ कर
नए पंथ तू गढ़ता चल
आशाओं के पुष्प खिला कर
पग पग डग डग बढ़ता चल।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30जुलाई, 2021


पितामह

            पितामह   

भाग-1

सूर्य भी अस्त हो चला और चाँद भी धुँधला हुआ
वहाँ नीरवता के शिखर पर मौन था ठहरा हुआ।

प्रश्न लाखों मौन आज अंतस में गुंजित हो रहे 
और बनकर शूल कितने घायल हृदय को खल रहे।

थी घड़ी वो कौन सी जब मौन ने निर्णय लिया था
शब्द थे गूँजे हृदय में वक्त ने भी कुछ कहा था।

उस कहे का भान क्यूँकर वक्त ने अनदेखा किया
लम्हों के उस दोष ने सदियों को इक मौका दिया।

काश उस क्षण प्रण मेरा भावों के न आड़े आता
आज इस रणभूमि में मैं स्वयं को न पड़े पाता।

जिस दिन एक मर्यादा लुटी थी मौन उस दरबार में
रक्त पलकों से गिरे थे उस निकृष्टतम वार से।

बस कुल की मर्यादा नहीं वो लाज थी संसार की
जिसके कोमल भावों पर कुदृष्टि पड़ी खूंखार थी।

क्रमश:

पितामह- भाग-2

सूर्य का रथ रुक गया अरु चंद्र भी कुंठित हुआ था
स्वार्थ लोलुप केंद्र में जब सभ्यता कुंठित हुई थी।

लाज और श्रृंगार आखिर विषय बने उपहास की
और सहसा रुक गयी थी वो मौन गति आकाश की।

एक पल का वो वचन अब आज भारी पड़ रहा था
छाँव दिया वट वृक्ष बन जो आज टूटा गिर पड़ा था।

ईश जाने चाहता था ना कभी उपहास उस पल
फिर भी क्यूँ न रोक पाया जब गिरा आकाश उस पल।

क्यूँ कर सभी धमनियों का रक्त पानी हो गया था
देखते देखते इतिहास मनमानी कर गया था।

उस एक पल में लिख गयी थी पटकथा संहार की
कैसे बदली थी व्यथा और वेदना संसार की।

क्रमशः----

पितामह- भाग-3

गूँज रहे थे द्यूत में जो शब्द सभी अपमान थे
नीतियों के पाश में बंधे सत्य सब सुनसान थे।

ये सत्य ही तो था के, अहंकार का विष घुल चुका था
द्यूत की आड़ में नित्याचार में विष घुल चुका था।

विद्रोह भी ना कर सका था कटु सत्य वो स्वीकार था
न चाह कर भी मौन बैठा समय बड़ा लाचार था।

उस कक्ष के वो खेल सत्य के हृदय को खल रहे थे
ज्ञान को सम्मान को संस्कार तक को छल रहे थे।

था नियति का दोष अरु षड्यंत्र थी वो बीमार की
दाँव पर जब जा लगी थी वो लाज इस संसार की।

दर्प के स्वर में छुपे थे व्यंग्य के कितने प्रहार
अब लुट रहे थे भाव सारे अरु मिट चले थे संस्कार।

किंतु अट्टहास के क्षण में इक हृद विकल हो रहा था
मौन कुछ न बोलता अंदर से पर वो रो रहा था।

क्रमशः----

पितामह- भाग-4

बाण की शैया का मुझको अब ना कोई क्लेश है
है मेरे कुछ कर्म ऐसे जिन्हें भोगना शेष है।

थी हलाहल जिंदगी जिसे आज तक पीता रहा हूँ
सत की स्थापना को बन नीलकंठ जीता रहा हूँ।

चाहता कब था यहाँ मैं के युद्ध का निर्माण हो
पर जब भी धरम युद्ध हो बस सत्य ही स्वीकार हो।

है बहुत मुश्किल यहाँ पर देखना सब खोता हुआ
कैसे देखा मैंने सोचो सत्य को रोता हुआ।

थी समय की चाह या फिर दोष था मेरा वहाँ पर
क्यूँ नहीं मैं रोक पाया सत्य जब बिखरा वहाँ पर।

सत्य पर आघात से मेरी शिराएँ रो पड़ी थी
मौन सम्मुख था सभी के आत्माएँ रो पड़ी थी।

क्यूँ बहा ये रक्त सारा दोष किसके सर मढूं मैं
क्या कहूँ अब वक्त से मैं गल्प कैसा अब गढूं मैं।
क्रमशः----

पितामह- भाग-5

इतिहास के अध्याय में ये पृष्ठ कैसा जुड़ गया
जोड़ने को मैं चला था पर वक्त कैसे मुड़ गया।

बन गया ये चित्र कैसे पृष्ठों में अत्याचार का
खींच गयी लकीर कैसे कुटिलता के व्यवहार का।।

अन्याय, अत्याचार का परिणाम अंधे मोह का
विध्वंस ये अपकर्ष ये परिणाम है ये द्रोह का।।

है बहाया रक्त मैंने भगवान अब मैं क्या करूँ
स्वयं का जब दोष हो तो फिर माफ मैं कैसे करूँ।।

शब्दों के इस खेल ने मुझे घाव ये कैसा दिया है
चीर कर मेरे हृदय को रक्त ये मेरा पिया है।।

रक्त से सींची जमीं पर सत्य हो विह्वल पड़ा है
जीत कर के युद्ध को पर मौन हो कर क्यूँ खड़ा है।।

विध्वंस की इस चीख को बोलो यहाँ कैसे सहूँ
जब गिरा अभिमन्यु मेरा कहो दर्द वो कैसे कहूँ।।

वज्र सा टूटा यहाँ तब रक्त जब जब भी गिरा है
मैं मरा हर बार जब भी वीर धरती पर गिरा है।।

सत्य की स्थापना का ये मोल महँगा क्यूँ हुआ
जग से मैं अब क्या कहूँ पितामह विफल कैसे हुआ।।

क्रमशः----

पितामह- भाग-6

है समर ये शेष तब तक साँसों में जब तक साँस है
क्या कहूँ कैसे कहूँ अब उत्तर ना मेरे पास है।।

सत्य है ये युद्ध में विध्वंस कितना हो चुका है
अब शोक मैं किसका करूँ व्यंग्य कितना हो चुका है।।

आज इस रणभूमि में सब लोग कितने जा चुके हैं
द्वेष, हाहाकार से, अभिमान से उकता चुके हैं।।

मन प्रमुख हो सोचता है स्वार्थ की बातें जहाँ पर
कौन फिर रोक पायेगा महाभारत वहाँ पर।।

एक पक्ष इस पार देखो दूसरा उस पार बोलो
इस हार में और जीत में मैं ही गिरा हर बोलो।।

अब आज इस विध्वंस के पश्चात भी कुछ शेष है
सत्य क्यूँ भटका यहाँ पर मन में यही बस क्लेश है।।

सोचता था के मैं चलूँगा वक्त पीछे छोड़कर
शेष है क्या पास मेरे पश्चाताप को छोड़कर।।

हाय, उस काल में यदि अन्याय को मैं रोक पाता
सत्य की स्थापना का ये मोल फिर ना मैं चुकाता।।


क्रमशः-----

पितामह- भाग-7
वज्र था टूटा वहाँ और भाग्य भी तब गिर पड़ा था
श्वेत धवल अंक में जब ज्ञान हो धूमिल पड़ा था।

आज सारा मौन सम्मुख प्रश्नवाचक बन खड़ा है
हाय, नियति का खेल कैसा सत्य धरा पर पड़ा है।

बाण की शैया मिली है शायद ये मेरा कर्म है
फिर सत्य की स्थापना हो अब बस ये मेरा धर्म है।

जाने में समय शेष है, हे मृत्यु थोड़ा और रुक
संस्कारों का समर है अभी वक्त थोड़ा और रुक।

कैसे चल दूँ छोड़ कर मैं बीच सत्य को राह में
सत्य की स्थापना हो बस जी रहा हूँ इस चाह में।

हाथ जोड़े मृत्यु भी तब मौन जड़वत हो गयी थी
सत के सम्मुख समय की धार मद्धिम हो गयी थी।

पूछता हिय आज खुद से हार ये किसकी हुई है
वक्त से क्या रार ठानी हार ये मेरी हुई है।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         02अगस्त, 2021


सत्य की आह।

सत्य की आह।   

है पूछता ये दर्द मुझसे क्या यही संसार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

घाव पर है घाव मिलते जो चले सतमार्ग पर
शब्दों के क्यूँ वार सहते मौन इस संसार के
कैसी व्यथा और वेदना अंक में ये पल रही
है मिल रहा आघात क्यूँ कर रास्तों में प्यार के।।

फर्ज की ही गोद में सब मोक्ष पलते हैं सुना है
त्याग, तप, बलिदान से हि मोक्ष मिलते हैं सुना है
ज्ञान और संज्ञान के सिर क्यूँ हो रहा वार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

बींधने को हैं खड़े, भर शब्दों को तूणीर में
मोक्ष कैसा मिल रहा कहो दूसरों की पीर में
आज तानों से भरा अरु गूँज रहा संसार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

सत्य की राहों में खड़े जाने अवरोध कितने
लिए आत्मा भी सह रही जाने अब बोझ कितने
आत्मा के बोध को क्यूँ मिलता नहीं आकार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

तानों के विध्वंस से आकाश धूमिल हो रहा
झूठ का आतंक कैसे सत्य को यूँ दंश रहा
सत की राहों में हमेशा क्यूँ बिछा अंगार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

क्यूँ किसी का झूठ संबंधों पे भारी पड़ रहा
क्यूँ कोई कर्तव्य यहाँ अवसाद बनकर खल रहा
कर्तव्यों को धूमिल करे कैसा ये अधिकार है
सत्य की आहें अधूरी कैसा ये व्यवहार है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25जुलाई, 2021


जीवन मृत्यू की बाजी।

जीवन-मृत्यू की बाजी।  

पग पग जीवन बीत रहा है
पल पल घट घट रीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

कंकण पत्थर के जंगल मे
मौन अकेला खड़ा हुआ हूँ
जाने कितने बोझ लिए मैं
बीच राह में पड़ा हुआ हूँ
आते जाते इन राहों में
पल पल जीवन बीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

वाणी में इक द्वंद छिड़ा है
कौन उठा है कौन गिरा है
बहती जीवन की धारा में
कभी उठा है कभी गिरा है
गिरते पड़ते इन राहों में
पग पग सपना बीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।। 

हिय में पोषित अभिलाषाएँ
अधरों पर गुंजित गाथाएँ
पलकों पर ले स्वप्न सुनहरे
चल रही यहाँ हैं आशाएँ
आशाओं के आसमान में
झर झर सपना रीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

है पुण्य समिध जीवन अपना
कर रहा हवन पूरा अपना
पुण्य समर्पित भाव लिए ये
बना हृदय भागीरथ अपना
सहज कहाँ गाथाएँ इतनी
अधरों पर ये गीत रहा है
जीवन मृत्यू की बाजी में
समय हमेशा जीत रहा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24जुलाई, 2021
 
 

सुंदरता की चाह।

सुंदरता की चाह।  

प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो
शक्ति प्रभावी होती दिल में
अंगारों की दाह जहाँ हो।।

सूना आँगन खिल जाता है
प्रेम जहाँ सुरभित होता है
बिखरा जीवन खिल जाता है
भाव जहाँ पुलकित होता है
गीत गूँजता है उस दिल में
साजों का सम्मान जहाँ हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

है श्वेत धवल सा प्रसार ये
आशाओं का पुण्य हार ये
मृदुल कल्पना का सागर है
अरु भरोसे का विस्तार ये
पग पग पर अभिलाषाओं का
भावों का सम्मान जहाँ हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

बाधा सब निस्तारित होता
वैभव भी विस्तारित होता
भावों की सुंदरता खिलती
अंतरतम आह्लादित होता
अंतस पर सुविचारों का अरु
हिय पर मृद मधु प्रिय अथाह हो
प्रेम उमड़ता है उस दिल में
सुंदरता की चाह जहाँ हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2021







अवसर।

अवसर।   

जला ताप में पल पल जिसने
जीवन को अंगार किया
सबको छाँव दिलाने खातिर
पग पग पर अविकार जिया।
जीवन पथ की बाधाएं भी
जिन्हें डिगा न पायी हैं
जिनके तप बल के प्रभाव से
उम्मीदें मुस्काई हैं।
अगणित दीप जलाकर जिसने
रोशन ये संसार किया
जाने कितने बोल सहे हैं
कभी नहीं प्रतिकार किया।
पल पल खुद तो गरल पिया है
औरों को मधु दान किया
निज कष्टों की परवाह नहीं
औरों को वरदान दिया।
चकाचौंध जिसको ना भाया
प्रतिपल कर्तव्य निभाया
काँटों की परवाह नहीं की
पथ पथ पर पुष्प बिछाया।
साँझ ढले जीवन बेला में
उनके काँटे मत बोना
लेना उनका आशीष सदा
पाया अवसर मत खोना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23जुलाई, 2021

आहों से सत्कार।

आहों से सत्कार।   

जब जब दिल आकाश छुआ है
आहत उतनी बार हुआ है
जब जब इसने हँसना चाहा
आहों से सत्कार हुआ है।।

नहीं करी थी आशा मैंने
कोई नहीं दिलासा चाही
अपनी उम्मीदों को थामे
सपनों की आजादी चाही
पर मेरे सपनों ने जब भी
पलकों का आकाश छुआ है
गिरी दामिनी आशाओं पर
आहों से सत्कार हुआ है।।

मेरे हँसने पर भी जाने
कितने चेहरे मुरझाये हैं
मेरे गाने से भी कितने
घाव उभर कर आये हैं
मेरे गीतों ने जब जब भी
महफ़िल को गुलजार किया है
गिरी दामिनी आशाओं पर
आहों से सत्कार हुआ है।।

रिश्तों ने परिभाषा बदली
आहों ने अभिलाषा बदली
ऊबा, दूर हुआ मैं जब भी
संवादों ने भाषा बदली
उनके शब्दों को लेकर ही
जब उनसा व्यवहार किया है
गिरी दामिनी आशाओं पर
आहों से सत्कार हुआ है।।

जाने कैसा जीवन पाया
अपने सुख को छलता आया
जब भी स्वप्न सुनहरे चाहा
पलकों में कुछ चुभता पाया
काँटों को जब दूर किया है
तानों ने हुंकार किया है
गिरी दामिनी आशाओं पर
आहों से सत्कार हुआ है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22जुलाई, 2021
       



क्या चल पाओगे।

क्या चल पाओगे।   

सीधे सीधे चलने वाले
नैतिक पथ पर पलने वाले
पग पग कितने शूल चुभेंगे
फिर बोलो क्या चल पाओगे।।

नहीं चाहते दया भाव तुम
बने बिगड़ते का प्रभाव तुम
कहीं वेदना कहीं शिकायत
कहीं अभावों का प्रवाह सुन
खुल कर दिल की कहने वाले
अपनेपन को गुहने वाले
हृद पर तेरे दंश चुभेंगे
फिर बोलो क्या सह पाओगे।।

पग पग बीत रहा है आदर
घट घट रीत रहा है सागर
त्याग समर्पण दया भाव की
जैसे फूट रही हो गागर
रीत रहे जीवन मूल्यों में
खुद को आज परखने वाले
तुम पर भी आरोप लगेंगे
फिर बोलो क्या सह पाओगे।।

सच का पंथ सुनहरा कब था
आज यहाँ जो हो जाएगा
खुद को यहाँ तपाया जो भी
सागर से मोती पायेगा
जग के तानों से घुट घुट कर
सच को यहाँ परखने वाले
जाने कितने प्रश्न उठेंगे
फिर बोलो क्या चल पाओगे।।

सीधे सीधे चलने वाले
नैतिक पथ पर पलने वाले
पग पग कितने शूल चुभेंगे
फिर बोलो क्या चल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जुलाई, 2021

शब्द।

शब्द।   

शब्द के आगोश में सब भावनाएँ पल रही
पँक्तियों में घुल यहाँ संवेदनाएं खिल रही 
मौन को भी शब्द मिलते प्रीत को आकाश तब
जब समय की ताल पर सब वर्जनाएं घुल रहीं।।

शब्द से ही प्रेम है अरु शब्द से व्यवहार है
शब्द से सम्मान सारे शब्द से सत्कार है
शब्द से ही नीतियाँ और शब्द से कुरीतियाँ
शब्द की आगोश में रिश्तों का संसार है।।

क्रोध की ज्वाला में जला स्वयं वो कुंठित हुआ
प्रेम से सत्कार से सम्मान से वंचित हुआ
नहीं मिलेगा रास्ता जब शब्द बिखरेंगे वहाँ 
प्रेम तब सम्मान पाता शब्द जब सिंचित हुआ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21जुलाई, 2021


लौट आओ ना।

लौट आओ ना।  

कहाँ जा कर बसे हो तुम
कि अब तो लौट आओ ना

लिखे जो गीत सब तेरे
कहे जो छंद सब तेरे
घुले जो रंग जीवन मे
सभी वो रंग अब तेरे
लिखे इन गीत गजलों को
चलो फिर से सजाओ ना
कहाँ जा कर बसे हो तुम
कि अब तो लौट आओ ना।।

तुम्हारे बिन जीवन की
सभी साँसें अधूरी हैं
मिरे ये दिन अधूरे हैं
सभी रातें अधूरी हैं
फिर पलकों में बस जाओ
चलो सपने सजाओ ना
कहाँ जा कर बसे हो तुम
कि अब तो लौट आओ ना।।

कि ये आँखें तरसती हैं
सूनी राहें तकती हैं
गुजारे साथ जो लम्हें
नहीं यादें बिसरती हैं
मिलो इक बार तुम फिर से
चलो राहें सजाओ ना
कहाँ जा कर बसे हो तुम
कि अब तो लौट आओ ना।।

कहीं ऐसा न हो जाये
ये बंधन टूट न जाये
कहीं अब राह तकने में
ये साँसें छूट न जाये
के साँसों की सरगम को
चलो तुम फिर सजाओ ना
कहाँ जा कर बसे हो तुम
कि अब तो लौट आओ ना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20जुलाई, 2021


और नहीं बस इतना करना।

और नहीं बस इतना करना।

नहीं चाहता तुमसे अब कुछ 
और नहीं कुछ तुमसे कहना
मुझ सह चलने का वादा दो
और नहीं बस इतना करना।।

जो तुम मेरे साथ कहोगे
मेरे गीत निखर जायेंगे
अधरों से यदि दूर हुए तो
मेरे गीत बिखर जायेंगे
यदि चाहो मैं गीत सुनाऊँ
मेरे शब्दों में तुम बसना
मुझ सह चलने का वादा दो
और नहीं बस इतना करना।।

पथ पथ में अरु पग पग में
कैसे कैसे लोग मिलेंगे
लोगों की परवाह किसे जब
हम तुम दोनों साथ चलेंगे
जो तुम चाहो सफर सुहाना
मेरे संग संग तुम चलना
मुझ सह चलने का वादा दो
और नहीं बस इतना करना।।

यदि कहते हो गाता जाऊँ
मिटकर भी मैं गीत सुनाऊँ
जलूँ रात भर दीपक जैसा
जलकर सबको राह दिखाऊँ
मेरे मिटने तक तुम यूँ ही
मेरी बाँह पकड़ कर चलना
मुझ सह चलने का वादा दो
और नहीं बस इतना करना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19जुलाई, 2021

सफर।

सफर।  

बुलंदियां छूने की चाहत में सफर करते रहे
क्या पता था इस राह में ख्वाब कितने मरते रहे।।
मंजिलों पर पहुँच कर पीछे मुड़ जब देखा सफर में
तब समझा क्या छोड़ आये अहसासों के शहर में।।
किसको सुनाऊँ मैं कहानी बात अब किससे करूँ
पत्थरों के लोग दिखते इन पत्थरों के नगर में।।
बिक रहे हैं ख्वाब कितने औ बिक रही हैं चाहतें
हैं सजी दुकान लाखों नीलामियों के इस भँवर में।।
है अजब मंजर यहाँ का औ है अजब दस्तूर भी
कहने को लोग लाखों डूबे पर अपनी खबर में।।
भीड़ की बेचैनियों में गुम न हो जाये कहीं सब
आ चलें मिल बैठ जायें फिर वहीं अपने शहर में।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       18जुलाई, 2021

अंधी दौड़।

अंधी दौड़।   

सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी
क्या असल में रास्तों में जो तलाशें वो पायेंगी।।

है बहुत मुश्किल जीना अपना उजाला छोड़कर
कैसे रह सकता कोई अपना शिवाला छोड़कर
भ्रम रहा दिवस भर तो सुकूँ रातें कहाँ तक पायेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।

गाँव की पगडंडियाँ शहरों में कहीं गुम हो गयीं
रिश्तों की भी गर्मियाँ लम्हों में कहीं गुम हो गयीं
लम्हों की नादानियाँ अब क्या सुलझने पायेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।

रात दिन तरसा है वो आया जो रिश्ता तोड़कर
चंद सिक्कों के लिए अपनों से भी मुँह मोड़कर
छोड़कर अपनों का दामन क्या बहारें आयेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।

उमर के उस मोड़पर जब धुंध सी छाने लगेगी
साँसें भी संग छोड़कर साँझ सह जाने लगेगी
बाँह फैलाये वो मिट्टी तब पुनः याद आयेगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       17जुलाई, 2021

श्वासों की एक डगर।

श्वासों की एक डगर।  

उर में कुंठित भावों को
बेहतर है कि कह देना
संचित कर उन भावों को
मुश्किल है यूँ रह लेना।
बिखरे तो जीवन बिखरा
भावों पर ना हो पहरा
श्वासों की भी एक डगर
कभी लेना कभी देना।।

दूर हो इक दूसरे से
छल रहे हम आज किसको
भावों में विध्वंस भर कर
तोड़ते हम आज किसको।
भाव का सम्मान भूले
संभव कहाँ तोड़ देना
श्वासों की भी एक डगर
कभी लेना कभी देना।।

तुम भी न कोसो मुझे अब
मैं भी ना कोसूँ तुम्हें
है हृदय में प्यार जो भी
चलो व्यक्त कर दें उन्हें।
अलगाव में संभव कहाँ
याद को फिर तोड़ देना
श्वासों की भी एक डगर
कभी लेना कभी देना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16जुलाई, 2021


अंक में तनहाइयाँ।

अंक में तनहाइयाँ।  

साँझ का धुँधला अँधेरा
याद की परछाइयाँ थी
था गगन में शोर अतिशय
अंक में तनहाइयाँ थीं।।

था दिवस का अंत लेकिन
रात की शुरुआत थी वो
शून्य में अंकित वो क्षण
अरु मौन कितनी बात थी।
मौन के प्रहर में कितनी
व्यग्र वो अँगड़ाइयाँ थीं
था गगन में शोर अतिशय
अंक में तनहाइयाँ थीं।।

वेदना का तीक्ष्ण कण जब
बींधता हृद में चुभा था
मौन पीड़ा के स्वरों से
हाय मन गुंजित हुआ था।
मौन के उस वेदना में
कितनी रुसवाईयाँ थीं
था गगन में शोर अतिशय
अंक में तनहाइयाँ थीं।।

रात्रि के अंतिम प्रहर में
मोक्ष का अहसास देकर
मुक्त बंधन से हुए थे
प्रीत को विस्तार देकर।
विस्तार के उस पार भी
पीर की परछाइयाँ थीं
था गगन में शोर अतिशय
अंक में तनहाइयाँ थीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15जुलाई, 2021




तरुणाई का गीत।

तरुणाई का गीत।   

दिल करता है आज लिखूँ
मैं गीत कोई तरुणाई का
मन उपवन की बात लिखूँ
अरु गीत लिखूँ अमराई का।।

पुनगी पुनगी पीत पुष्प है
अंतस का नवगीत पुष्प है
मधुवन मधुवन सुरभित यौवन
गूँज रहा संगीत पुष्प है।
फसलों पर बाली आयी है
मौसम है ये अँगड़ाई का
दिल करता है आज लिखूँ
मैं गीत कोई तरुणाई का।।

मधुमय अधर सरस मन भावन
अंग अंग मादक रस पावन
रोम रोम मृदु मधुरस बरसे
हर्षित पुलकित मधुरिम जीवन।
रोम रोम में प्रीत जगी है
अंग अंग ऋतु अमराई का
दिल करता है आज लिखूँ
मैं गीत कोई तरुणाई का।।

नवल पुष्प से सुरभित उपवन
नख से शिख तक मादक यौवन
अधर अधर रक्तिम पुष्पित है
उर्मिल मन अरु पावन चुंबन
बहके मन या महके तन का
पुष्पच्छादित अँगनाई का
दिल करता है आज लिखूँ
मैं गीत कोई तरुणाई का।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15जुलाई, 2021

टूटा तारा।

टूटा तारा।  

दूर निशा के कोलाहल में
लुक छिप करती रेखाएँ
खींच रही आकाश पटल पर
जाने कैसी सीमाएँ।
दूर गगन से बिछड़ रहा है
शायद किस्मत का मारा
टूट रहा है इक तारा।।

मन के सूने मौन गगन में
जाने कैसी हलचल है
पलकों के लुकछिप क्रंदन में
मिटता जीवन पलपल है।
पलकों से जो बिछड़ चला है
शायद किस्मत का मारा
टूट रहा है इक तारा।।

गिरा गगन से लुप्त हुआ वो
गिर पलकों से सुप्त हुआ वो
जिन लम्हों ने ध्वंस रचा है
उन लम्हों से कौन बचा है
लम्हों में जो बिखर चला है
टूटा उसका जीवन सारा
टूट रहा है इक तारा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2021








चाहत।

चाहत।  

मेरी चाहतों ने
तुमको ही माँगा
चाहा है मैंने बस तुझे
तुझसे शुरू कर
तुझ तक ही जाऊँ
पाऊँ मैं बस इक तुझे।।

तेरी आशिकी में ही
जन्नत मिली है
तेरी बंदगी में ही
रहमत मिली है
जन्मों से चाहा मैंने जिसे
तुझमे मिला है वो मुझे।।

करता है दिल ये 
बनकर घटायें
तुझको भिंगाऊँ
बनकर हवायें चूमूँ तुझे मैं
रूठो कभी तो तुमको मनाऊँ
खुद में समा ले तू मुझे।।

मेरी चाहतों ने 
तुमको ही माँगा
चाहा है मैंने बस तुझे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14जुलाई, 2021

गीत मात्र शब्द नहीं है।

गीत मात्र शब्द नहीं है-

गीत मात्र कुछ शब्द नहीं हैं
ये भावों की आकुलता है
कवि के उर की पीड़ा है ये
अंतस की ये व्याकुलता है।।

भावों का संग्राम छिड़ा जब
उर में जब हलचल सी आयी
जब पीड़ा को शब्द मिले हैं
गीत उकर पृष्ठों पर छाई
पृष्ठों पर अंकित ये बिंदू
भावों की ये विह्वलता है
गीत मात्र कुछ शब्द नहीं हैं
ये भावों की आकुलता हैं।।

बनते और बिगड़ते पल में
मिलते और बिछड़ते पल में
भावों का यूँ सागर उमड़े
पलकों से जैसे अश्रु बिछड़े
पलकों से जो भाव गिरे हैं
अश्रू नहीं वो विह्वलता है
गीत मात्र कुछ शब्द नहीं है
ये भावों की आकुलता है।।

हृद का मृदु का स्पंदन है ये
शब्दों का अनुबंधन है ये
पंक्ति पंक्ति भावों की क्रीड़ा
पीड़ा का अभिनंदन है ये
हिय पर अंकित शब्द नहीं भर
पल पल संचित भावुकता है
गीत मात्र कुछ शब्द नहीं है
ये भावों की आकुलता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13जुलाई, 2021




नेह जताने आ जाओ।

नेह जताने आ जाओ।  

मैंने कुछ नवगीत लिखे हैं
तुम साज सजाने आ जाना
प्रीत के सुंदर पुष्प खिले हैं
तुम नेह जताने आ जाना।।

अब तक जो मैंने कहा नहीं
तुमने वो कैसे जान लिया
मेरे अंतस के भावों को
कैसे तुमने पहचान लिया
जान लिया जब मन को मेरे
अहसास दिलाने आ जाना
प्रीत के सुंदर पुष्प खिले हैं
तुम नेह जताने आ जाना।।

रिस रिस सावन बीत न जाये
संचित ये धन रीत न जाये
जनम जनम से गीत रचे जो
अधरों पर से गीत न जाये
गीत बिसरने से पहले तुम
अधरों पर गीत सजा जाना
प्रीत के सुंदर पुष्प खिले हैं
तुम नेह जताने आ जाना।।

खिला खिला मन का उपवन है
जीवन अपना मृद मधुवन है
सुभग सुगंधित भाव भरे हैं
पुष्पित सारा तन अरु मन है
भावों के खिलते मधुवन में
पिय तुम मधुमास जगा जाना
प्रीत के सुंदर पुष्प खिले हैं
तुम नेह जताने आ जाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13जुलाई, 2021


कोई कविता अकुलाई।

कोई कविता अकुलाई।  

मन के सूने आसमान पर
जब जब बदली सी छाई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

सावन की ये तेज घटायें
भावों को अकुलाती हैं
मेघों की रिमझिम बारातें
मृदु मधु भाव जगाती हैं
मृदु भावों से अंतस भींगा
प्रीत ने बाँह जब फैलाई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

विरह की मारी प्रियतमा जब
मन के भाव दबाती है
डूबी प्रियतम की यादों में
मन मसोस रह जाती है
तब अंतस के इक कोने में
आहों की आहट आयी
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

जब रिश्तों के बीच भँवर में
पथिक कभी फँस जाता है
जब उम्मीदों के दामन में
काँटा कुछ चुभ जाता है
जब मन भीतर दबी हुई सी
वो पीड़ा बाहर आई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

जब सपने सारे सुप्त हुए
पलकों के अश्रु लुप्त हुए
जब घायल मन क्रंदन करता
जब अपना साथ नहीं रहता
तब पलकों के इक कोने में 
बूँद अश्रू की भर आयी
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2021



पुण्य पथिक।

पुण्य पथिक।  

सागर के उस पार क्षितिज पर
दिखता उम्मीदों का घेरा है
माना रात अँधेरी गहरी
पर आगे नया सवेरा है
अँधियारों के डर से लेकिन
दीपक नहीं बुझा करते हैं
जो पंथी हैं पुण्य पथिक हैं
थक कर नहीं रुका करते हैं।।

कभी सुना क्या बाधाओं ने
उम्मीदों का पथ रोका है
कभी सुना क्या कुंठाओं ने
जीवन बढ़ने से रोका है
बढ़े चले जो जीवन पथ पर
कभी नहीं झुका  करते हैं
जो पंथी हैं पुण्य पथिक हैं
थक कर नहीं रुका करते हैं।।

घनी रात के अँधियारों में क्या
दीपक को बुझते देखा है
चाहे जितना घना कुहासा
क्या सूरज रुकते देखा है
सूरज के सह चलने वाले
बोलो कहाँ थका करते हैं
जो पंथी हैं पुण्य पथिक हैं
थक कर नहीं रुका करते हैं।।

रश्मि भोर की किरणें देखो
हौले से तन सहलाती हैं
उम्मीदों की किरण सुहाती
हौले से मन बहलाती हैं
उम्मीदों में पलने वाले
बरबस नहीं रुका करते हैं
जो पंथी हैं पुण्य पथिक हैं
थक कर नहीं रुका करते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12जुलाई, 2021



क्या पास हमारे आओगी।

क्या पास हमारे आओगी।  

हम दीवाने हैं बस्ती के तुम रूपनगर की परीजादी
हम वन वन भटके इक बंजारे तुम महलों की शहजादी
शब्द शब्द जीवन धारा है क्या पंक्ति पंक्ति तुम गाओगी
मैं बंजारा हूँ इस दिल का क्या पास हमारे आओगी।।

तुम प्रीत लुटाने वाली हो हम प्रीत निभाने वाले हैं
तुम चाहत की मधुर गीतिका हम उसे सुनाने वाले हैं
मेरे गीतों-साजों में क्या तुम संग संग घुल पाओगी
मैं बंजारा हूँ इस दिल का क्या पास हमारे आओगी।।

हम काँटों पर चलने वाले तुम फूलों पर चलने वाली
तापों में जलने वाले तुम मृदु भावों में पलने वाली
है पथ मेरा अंगारों का क्या इस पर तुम चल पाओगी
मैं बंजारा हूँ इस दिल का क्या पास हमारे आओगी।।

मेरे संग संग तुमको भी इस जीवन में पलना होगा
पथ फूल भरे हों अंगारे हों तुमको भी चलना होगा
महलों के उस जीवन को क्या छोड़ के संग रह पाओगी
मैं बंजारा हूँ इस दिल का क्या पास हमारे आओगी।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        1जुलाई, 2021



जब चोट लगी सब अपने थे।

जब चोट लगी सब अपने थे।   

आज किसे हम व्यथा सुनाएँ
जब चोट लगी सब अपने थे
दिल को क्या मालूम यहाँ था
जो सच समझा वो सपने थे।।

पल पल जीवन बीत रहा था
पग पग लेकिन बढ़ते कैसे
साथ छोड़ कर बीच राह में
मंजिल मंजिल चढ़ते कैसे
पर दिल को आघात लगा तब
जब टूटे सारे सपने थे
आज किसे हम व्यथा सुनाएँ
जब चोट लगी सब अपने थे।।

रात रात भर जाग जाग कर
तारों का साथ निभाया था
जले दीप के संग संग हम
अँधियारी राह सजाया था
बाती के साथ जले जितने
वो सारे मेरे सपने थे
आज किसे हम व्यथा सुनाएँ
जब चोट लगी सब अपने थे।।

आज खड़ा हूँ दोराहे पर
किसे भूलूँ किसे याद करूँ
जिससे मुझको घाव मिले है
कैसे उनसे फरियाद करूँ
जिन शब्दों से हृदय बिंधा है
सब कहने वाले अपने थे
आज किसे हम व्यथा सुनाएँ
जब चोट लगी सब अपने थे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        11जुलाई, 2021

फिर बरसो सावन बनकर।

फिर बरसो सावन बनकर।   

गलियाँ गलियाँ बस्ती बस्ती
मेरी अँखियाँ तुझे निहारें
रुकूँ कहीं मैं चलूँ कहीं भी
हर पग हर पथ तुझे पुकारे
अब आ जाओ इस जीवन में
फिर बरसो तुम सावन बनकर

रूत आये आकर चले गये
पलकों के सपने छले गए
कब तक पंथ निहारूँ ऐसे
सदियाँ हैं गुजरी मिले हुए
आ जाओ दरस दिखा जाओ
फिर बरसो तुम सावन बनकर।।

रात रात भर नैना जागें
ड्योढ़ी तकतीं पंथ बुहारें
इक तेरे मिलने की चाहत
पल पल नैना पंथ निहारें
अश्रू सही पलकों में बसकर
फिर बरसो तुम सावन बनकर।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10जुलाई, 2021


ठौर नहीं हम बंजारों का।

ठौर नहीं हम बंजारों का।  

हम उगते सूरज के साथी
कुछ काम नहीं अँधियारों का
दिल ने चाहा वहीं गुजारे
ठौर नहीं हम बंजारों का।।

कभी भीड़ के साथ चले हैं
कभी भीड़ में चले अकेले
कभी सफर की गुमनामी थी
कभी सफर में लाखों मेले।
मेले के अँधियारे भाये
काम कहाँ तब उजियारों का
दिल ने चाहा वहीं गुजारे
ठौर नहीं हम बंजारों का।।

जिसको चाहा दिल से चाहा
अरु वादों का सत्कार किया
जो तस्वीर छपी इस दिल में
हमने उसको आकार दिया
कौन है अपना कौन पराया
काम नहीं निज व्यवहारों का
दिल ने चाहा वहीं गुजारे
ठौर नहीं हम बंजारों का।।

आज यहाँ कल कहाँ ठिकाना
सूना पथ राही अनजाना
पथ की पीर नयन से बरसे
दिल ने समझा दिल ने जाना
पग पग पथ पथ डटे रहे हम
पुष्पित पथ या अंगारों का
दिल ने चाहा वहीं गुजारे
ठौर नहीं हम बंजारों का।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10जुलाई, 2021

आस का आकाश।

आस का आकाश।  

चाहतों के व्योम में
आस के आकाश में
स्वप्न में अहसास में
मुक्त कुछ कुछ कह रही
राह अविरल चल रही।।

साँस की है गीतिका
प्यास की है भूमिका
मोक्ष के विश्वास में
गीत पल पल रच रही
राह अविरल चल रही।।

वेदना की है कथा
मौन भावों की व्यथा
शून्य में उपवास में
स्वयं से कुछ कह रही
राह अविरल चल रही।।

शब्द के उत्प्रास से
दर्द के अनुप्रास में
मुक्ति के आभास में
आह पग पग पल रही
राह अविरल चल रही।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08जुलाई, 2021




ऐ काश तुम्हें मिल जाये।

ऐ काश तुम्हें मिल जाये।  

तुम पर मेरी आहों का ऐ काश असर कुछ हो जाये
जो कुछ मैंने खोया है ऐ काश तुम्हें वो मिल जाये।।

तुमने तो कौतूहल वश बस मुझसे नेह लगाया था
जग को भरमाने की खातिर पल भर नेह लगाया था
खेल किये तुम जज्बातों से संवेगों का त्याग किया
अंधकार में मुझको रखकर भावों को भरमाया था
अतृप्त भावों को तेरे ऐ काश सहारा मिल जाये
जो कुछ मैंने खोया है ऐ काश तुम्हें वो मिल जाये।।

तुम चमक दामिनी बन मेरे इस जीवन में आये थे
मधुर सुहासिनी बन मिरे मन उपवन पर छाये थे
ले आये आकाश वहाँ पर जहाँ अँधेरा छाया था
निज पलकों के साये में कुछ सपने मैंने पाए थे
निज सपनों की चाहत को ऐ काश इशारा मिल जाये
जो कुछ मैंने खोया है ऐ काश तुम्हें वो मिल जाये।।

निज आकाशों की खातिर ही तुमने मेरा त्याग किया
कितनी ही आवाज लगाई पर तुमने ना ध्यान दिया
छोड़ चले जिसकी खातिर अरमान तुमारा हो जाये
सब कंटक दूर हटें पथ आसान तुमारा हो जाये
खिलें पुष्प निज उपवन में आशीष सभी का मिल जाये
जो कुछ मैंने खोया है ऐ काश तुम्हें वो मिल जाये।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07जुलाई, 2021

मेरे गीत तेरे मीत।

मेरे गीत तेरे मीत। 

मेरे गीतों को अपनी
आहों का मीत बना लेना
मेरे शब्दों से मिलकर
तुम अपना गीत सजा लेना।।

तेरी गीतों में हमने
फिर कोई अपना देखा है
तेरी आँखों में हमने 
चाहत का सपना देखा है
आँचल में सपने भरकर
चाहत को मीत बना लेना
मेरे शब्दों से मिलकर
तुम अपना गीत सजा लेना।।

चाहत की महफ़िल में
मैं आया हूँ बेगाना सा
साथ नहीं भाया मेरा
तो चल दूंगा दीवाना सा
मेरे जाने से पहले
तुम अपनी जीत सजा लेना
मेरे शब्दों से मिलकर
तुम अपना गीत सजा लेना।।

नहीं करूँगा शिकवा कोई
नहीं शिकायत तुमसे होगी
महफ़िल में मायूस न होना
नहीं अदावत तुमसे होगी
पोंछ के पलकों से अश्रू
मुख पर मुस्कान सजा लेना
मेरे शब्दों से मिलकर
तुम अपना गीत सजा लेना।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जुलाई, 2021

काशी का घाट मनोरम।

काशी का घाट मनोरम।  

है काशी का घाट मनोरम
घूमूँ मैं बन बंजारा
अरु जीवन का दृश्य विहंगम
जिसको सबने स्वीकारा।।

गली गली नित नई कहानी
दुनिया जिसकी दीवानी
सबके अपने भाव सुनहरे
सबका अपना दरबारा
है काशी का घाट मनोरम
घूमूँ मैं बन बंजारा।।

घाट घाट गंगा का पानी
कबीर तुलसी मानस वाणी
शिक्षा, संस्कृति ज्ञान है सुंदर
जिसने जग का रूप सँवारा
है काशी का घाट मनोरम
घूमूँ मैं बन बंजारा।।

जीवन का संगीत यहाँ है
कण कण बसती प्रीत यहाँ है
भोर सुहानी साँझ मनोहर
जीवन मरण मोक्ष का द्वारा
है काशी का घाट मनोरम
घूमूँ मैं बन बंजारा।।

अपनी धुन में मस्त बनारस
माटी माटी कण कण पारस
जीने के तो लाख ठिकाने
मौत सजे वो शहर बनारस
माया मोह लोभ से उठकर
बस गाता जाये इकतारा
है काशी का घाट मनोरम
घूमूँ मैं बन बंजारा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06जुलाई,2021


खुद को ठहरा पाओगे।

खुद को ठहरा पाओगे।  

जब भी मेरे गीत पढोगे
यादों में खो जाओगे
घिर जाओगे उन गलियों में
खुद को ठहरा पाओगे।।

शब्द शब्द हैं भाव निखारे
पंक्ति पंक्ति आँचल पैसारे
हमने जग की रीत लिखा है
तुमसे पाया गीत लिखा है
खो जाओगे इन गीतों में
खुद को तुम लहराओगे
घिर जाओगे उन गलियों में
खुद को ठहरा पाओगे।।

सूरज की तन्हाई लिख्खी
चंदा की रुसवाई लिख्खी
मैंने अपने इन गीतों में 
भावों की अँगड़ाई लिख्खी
शब्दों के दीवानेपन में
भावों का पहरा पाओगे
घिर जाओगे उन गलियों में
खुद को ठहरा पाओगे।।

मैंने मन की आस लिखी है
बुझी नहीं जो प्यास लिखी है
प्यासे पपिहे के अंतस की
चाहों की मधुमास लिखी है
प्यासे मन के अश्रू बहे जो
कैसे फिर बहलाओगे
घिर जाओगे उन गलियों में
खुद को ठहरा पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        05जुलाई, 2021



नई पीढ़ी के गीत लिखें।

नई पीढ़ी के गीत लिखें।  

सुप्त हो रहे भावों को आओ फिर से आज जगाएँ
नव पीढ़ी के गीत लिखें नई चेतना आज जगाएँ।।

गली मुहल्लों चौराहों पर
कब तक ये आँखें तरसेंगी
कब इनको सम्मान मिलेगा
कब ये खुलकर के बरसेंगी।
इनको अपने हृदय लगा इनको फिर जीना सिखलाये
नव पीढ़ी के गीत लिखें नई चेतना आज जगाएँ।।

कदम कदम पर चीख उठ रही
नैतिकता अब कहीं गिर रही
घुट घुट जीता आज चमन क्यूँ
संस्कारों की नींव हिल रही
शब्द बिखरने से पहले सबको उन्नतशील बनायें
नव पीढ़ी के गीत लिखें नई चेतना आज जगाएँ।।

वेद, पुराणों उपनिषदों के
ज्ञान नहीं धूमिल हो जाये
गुरुकुल ने जो पाठ पढ़ाया
पाठ नहीं धूमिल पड़ जाए
ग्रंथों के पन्ने पलटें फिर गीता को हम अपनाएँ
नव पीढ़ी के गीत लिखें नई चेतना आज जगाएँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई,2021

कारवाँ चलता रहा।

कारवाँ चलता रहा।  

रात की तन्हाइयों में स्वयं से मिलता रहा
रुक गया था कारवाँ स्वयं पर चलता रहा।।

शब्द बन नश्तर चुभे थे भाव वो खलता रहा
आस का आकाश ले घाव वो सिलता रहा।।

जब धरा भी धीर देने में रही नाकाम उसको
पलकों में अश्रू लिए आकाश वो तकता रहा।।

रात थी घनघोर और घटाओं में शोर भी था
मन के अँधेरों से निकल स्वयं को छलता रहा।।

बोझ काँधों पर लिए अरु पीर अंतस में भरे
आँसुओं का कारवाँ पलकों में चलता रहा।।

जिंदगी का ये सफर न गुमनाम हो जाये कहीं
आस का दीपक बना खुद ताउम्र वो जलता रहा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई, 2021

बाँसुरी की तान।

बाँसुरी की तान।  

बाँसुरी की तान
कानों में मधुर रस घोलती
गीत रचती प्रीत के
नवगीत मृदु मधु घोलती।

भोर का प्रारंभ इसमें
साँझ की गोधूलि बेला
अंक में अनुराग इसके
तान ने मधुमास घोला
शब्द देती भाव को अरु
आँख लुक छिप बोलती
बाँसुरी की तान
कानों में मधुर रस घोलती।।

बाँस की ये बाँसुरी
गीत गाती तान से
मोहती अंदाज से ये
जब भी बजती शान से
भाव को आकार देती
गुनगुनाकर बोलती
बाँसुरी की तान
कानों में मधुर रस घोलती।।

देव का श्रृंगार बन कर
उंगलियाँ नचती रही
शब्दों को सम्मान देकर
गीत नव रचती रहीं
गीत भावों के बनाकर
मृदु राग हिय हिय घोलती
बाँसुरी की तान
कानों में मधुर रस घोलती।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04जुलाई, 2021



एक हस्ताक्षर।

एक हस्ताक्षर।  

कितने लम्हे ठहरे होंगे
और खुद ठगा पाया होगा
जब कागज के चंद पुलिंदे
भावों के ऊपर छाया होगा।

कागज के उस संधी पत्र पर
बेमन हो हस्ताक्षर किया होगा
बंद कमरे में उस एक पल में
आँसू का घूँट पिया होगा।

इक छोटे से हस्ताक्षर ने
पल में क्या से क्या कर डाला
जो भूगोल बदल सकता था
पल ने इतिहास बदल डाला।

क्या से क्या हो गया गगन में
क्षण भर सूरज छुपा गगन में
कहीं विजय की पटकथा लिखी
कहीं चोट खाया अंतर्मन में।

क्षण भर को दिल धड़का होगा
शोला मन में दहका होगा
स्मरण शहादत का जब आया
खुद पर कितना भड़का होगा।

देखा होगा कहीं आइना
कैसे नजर मिलाया होगा
अपने भीतर उठे क्षोभ को
किस तरह से दबाया होगा।

सीमा पर जो लहू गिरा है
उसका कैसे मान करूँगा
पत्नी, माँ, बहनों को बोलो
कैसे अब आश्वासन दूँगा।

क्या बोलूँगा जन गण मन को
ये सोच सोच विक्षिप्त हुआ
उस क्षण जो कुछ घटित हुआ था
उससे खुद वो अतृप्त हुआ।

उलझन के उस क्षण वो खुद को
कितना तनहा पाया होगा
जाने कितने भाव हृदय में
अपने पलते पाया होगा।

दुविधा के इस भँवरजाल में
पीड़ा मन की बढ़ती जाती
पल पल जैसे बीत रहा था
उसकी छाती फटती जाती।

उस एक पल ने सदियों बाद
फिर चक्रव्यूह को था देखा 
और भोर की किरणों ने फिर
अभिमन्यू को गिरते देखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03जुलाई, 2021




चेहरे अनजाने।

चेहरे अनजाने।  

रात परायी दिवस बेगाने
कौन यहाँ किसको पहचाने
भीड़ यहाँ पर लाखों की है
अपने कौन कौन बेगाने।

चेहरों पर जितने चेहरे हैं
भावों पर उतने पहरे हैं
कौन यहाँ पढ़ पाया इसको
हर शब्दों के अर्थ गहरे हैं।
कैसे हो विस्तार यहाँ अब
मन ही जब मन की ना माने।
रात परायी दिवस बेगाने
कौन यहाँ किसको पहचाने।।

कभी लिखो जो मुक्त हवायें
समझे कुछ घनघोर घटायें
कभी लिखा आँखों का पानी
कुछ ने समझा करुण कहानी
शब्द शब्द के भाव बहुत हैं
जो दिल भाए बस वो ही माने।
रात परायी दिवस बेगाने
कौन यहाँ किसको पहचाने।।

उगे सूर्य के साथ उगे हैं
ढले सूर्य के साथ ढले हैं
सबकी अपनी अलग कहानी
सुनी सुनाई नई पुरानी।
अलग आवरण अलग मुखौटे
दिल की बातें दिल ही जाने
रात परायी दिवस बेगाने
कौन यहाँ किसको पहचाने।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02जुलाई,2021


बंद दरवाजे।

बंद दरवाजे।  

जीवन के अगणित दरवाजे
बोलो किससे बाहर आऊँ
द्वार द्वार पर बंदिश लाखों
कैसे मैं छुटकारा पाऊँ।।

छोटे छोटे यहाँ झरोखे
धूप कहीं है छाँव कहीं है
खोलूँ किसको बंद करूँ मैं
सूझ रहा कुछ दाँव नहीं है।
राह बता अब तू मन मेरे
कैसे मैं छुटकारा पाऊँ
जीवन के अगणित दरवाजे
बोलो किससे बाहर आऊँ।।

लाख जतन था किया यहाँ पर
अभी तक बाहर आ न पाया
कितना जोर लगाया फिर भी
स्वयं को पर समझा न पाया।
किंतु परंतु के संवादों से
कैसे मैं छुटकारा पाऊँ
जीवन के अगणित दरवाजे
बोलो किससे बाहर आऊँ।।

कब तक कैद रहूँ इस घर में
कब तक खुद मैं को समझाऊँ
कब तक द्वार तकूँ मैं बोलो
कब तक प्रभु का पंथ निहारूँ।
कब मुझको आशीष मिलेगा
कब फिर से मैं खुद को पाऊँ
जीवन के अगणित दरवाजे
बोलो किससे बाहर आऊँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जुलाई, 2021

लेखनी से मनुहार।

लेखनी से मनुहार।  

आह मेरी लेखनी फिर
प्रेम का नव गीत लिख दो
भावनाओं का समर है
आज तुम नव रीत लिख दो।।

शब्दों में मनुहार भरे जब
पँक्तियों ने गीत गाये
पलकों की अंगड़ाइयाँ में
प्रीत ने नव रीत पाये।

अंक में श्रृंगार भर दो
रास की नव रीत लिख दो
आज मेरी लेखनी फिर
प्रेम का नवगीत लिख दो।।

आस का आकाश हो फिर
मधुर मधुर एहसास हो फिर
मौन फिर से गीत गाये
अरु मोक्ष का आभास हो फिर।

फिर मौन को बोल दे दो
मोक्ष की नव रीत लिख दो
आज मेरी लेखनी फिर
प्रेम का नवगीत लिख दो।।

पोर पोर पुलकित हो जाये
साँस साँस नव जीवन पाये
पीर पीर को धाम मिले अरु
अंग अंग सुरभित हो जाये।

रोम रोम मधुमास जगे 
प्रीत की वो रीत लिख दो
आज मेरी लेखनी फिर
प्रेम का नवगीत लिख दो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01जुलाई, 2021






राम वनगमन व दशरथ विलाप

राम वनगमन व दशरथ विलाप माता के मन में स्वार्थ का एक बीज कहीं से पनप गया। युवराज बनेंगे रघुवर सुन माता का माथा ठनक गया।।1।। जब स्वार्थ हृदय म...