कारवाँ चलता रहा।
रुक गया था कारवाँ स्वयं पर चलता रहा।।
शब्द बन नश्तर चुभे थे भाव वो खलता रहा
आस का आकाश ले घाव वो सिलता रहा।।
जब धरा भी धीर देने में रही नाकाम उसको
पलकों में अश्रू लिए आकाश वो तकता रहा।।
रात थी घनघोर और घटाओं में शोर भी था
मन के अँधेरों से निकल स्वयं को छलता रहा।।
बोझ काँधों पर लिए अरु पीर अंतस में भरे
आँसुओं का कारवाँ पलकों में चलता रहा।।
जिंदगी का ये सफर न गुमनाम हो जाये कहीं
आस का दीपक बना खुद ताउम्र वो जलता रहा।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04जुलाई, 2021
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