अंधी दौड़।
क्या असल में रास्तों में जो तलाशें वो पायेंगी।।
है बहुत मुश्किल जीना अपना उजाला छोड़कर
कैसे रह सकता कोई अपना शिवाला छोड़कर
भ्रम रहा दिवस भर तो सुकूँ रातें कहाँ तक पायेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।
गाँव की पगडंडियाँ शहरों में कहीं गुम हो गयीं
रिश्तों की भी गर्मियाँ लम्हों में कहीं गुम हो गयीं
लम्हों की नादानियाँ अब क्या सुलझने पायेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।
रात दिन तरसा है वो आया जो रिश्ता तोड़कर
चंद सिक्कों के लिए अपनों से भी मुँह मोड़कर
छोड़कर अपनों का दामन क्या बहारें आयेंगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।
उमर के उस मोड़पर जब धुंध सी छाने लगेगी
साँसें भी संग छोड़कर साँझ सह जाने लगेगी
बाँह फैलाये वो मिट्टी तब पुनः याद आयेगी
सुख की अंधी दौड़ में राहें कहाँ तक जायेंगी।।
©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17जुलाई, 2021
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