कोई कविता अकुलाई।

कोई कविता अकुलाई।  

मन के सूने आसमान पर
जब जब बदली सी छाई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

सावन की ये तेज घटायें
भावों को अकुलाती हैं
मेघों की रिमझिम बारातें
मृदु मधु भाव जगाती हैं
मृदु भावों से अंतस भींगा
प्रीत ने बाँह जब फैलाई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

विरह की मारी प्रियतमा जब
मन के भाव दबाती है
डूबी प्रियतम की यादों में
मन मसोस रह जाती है
तब अंतस के इक कोने में
आहों की आहट आयी
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

जब रिश्तों के बीच भँवर में
पथिक कभी फँस जाता है
जब उम्मीदों के दामन में
काँटा कुछ चुभ जाता है
जब मन भीतर दबी हुई सी
वो पीड़ा बाहर आई
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

जब सपने सारे सुप्त हुए
पलकों के अश्रु लुप्त हुए
जब घायल मन क्रंदन करता
जब अपना साथ नहीं रहता
तब पलकों के इक कोने में 
बूँद अश्रू की भर आयी
मन का पावस भींग गया तब
कोई कविता अकुलाई।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12जुलाई, 2021



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