मलहम के अवशेष

मलहम के अवशेष।  

जीवन की अंगनाई में
भाव मिले, अतिरेक मिले
घाव मिले अतिरेक मगर
बस मलहम के अवशेष मिले।

व्यंग्य बाण बस सुनता आया
नश्तर दिल पर चुभता पाया
दर्द चिकोटी का सह सह कर
रोता आया, हंसता आया।

आरोप यहां बहुतेरे आये
क्या अपने और क्या थे पराये
जग के तीखे दंश हैं झेले
पग-पग कितने घाव मिटाये।

कहने को बहुतेरे अपने
साथ मगर जाने क्यूं छूटा
जब-जब उनसे हुआ सामना
तब-तब मन का दर्पण टूटा।

इस दर्पण के टुकड़े में ही
अब खुद को मैं खोज रहा हूँ
हर टुकड़े के अवशेषों में
दंश तेरा ही देख रहा हूँ।

इन अवशेषों के एहसासों में
दर्द मिले अतिरेक मिले
घाव मिले अतिरेक यहां
बस मलहम के अवशेष मिले।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
30अप्रैल, 2020


चलते रहना है



चलते रहना है। 

भले हो मुश्किल राहें कितनी
हमको तो चलते रहना है
लाख अंधेरा घना भले हो
बन दीपक हमको जलना है।

मुश्किल भले हों....
हमको तो चलते......।।

राह सुगम हो या हो दुर्गम
गिरना है संभलना है
अपने नभ की आस लिए
हमको तो चलते रहना है।

मुश्किल भले.....
हमको तो चलते....।।

ईर्ष्या, द्वेष, बैर-भाव के
भाव रहेंगे जब तक सीने में
जीवन उतना दुर्गम होगा
मुश्किल होगा फिर जीने में।

सीने में ले लगन चलो
ले प्रेम भाव की अगन चलो
बन सूरज हमको तपना है
पर चंदा सा शीतल रहना है।

मुश्किल कितनी हो राह मगर
हमको तो चलते रहना है।।

दूर भले हों कितने अपने 
न बिखरें जो बुने हैं सपने
इन सपनो की चाहत ले कर
हमको तो हर पल जगना है।

भले हो मुश्किल राह यहां
हमको तो चलते रहना है।।

जीवन अपना है सुख-दुःख का संगम
त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
है वेदों का सार यही
हमको इसमें ही पलना है।

भले हो मुश्किल राहें कितनी
हमको तो चलते रहना है,
लाख अंधेरा घना भले हो
बन दीपक हमको जलना है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29अप्रैल, 2020

व्यंग्य- राजनीतिक इल्जाम

राजनीतिक इल्जाम।  

एक ढाबे के किनारे मैं खड़ा था
थोड़ी दूर पर मैले कुचैले कपड़ों में
जूठन के ढेर के समीप वो खड़ा था।
मैंने पूछा भूखा है क्या- थोड़ा सब्र कर
आजकल दिल्ली में यही चर्चा आम है
तू नहीं समझेगा नासमझ, क्यूंकि
तू तो स्वार्थी भुखमरा इंसान है।

पिछले कितने ही सालों से 
यही सुनता आ रहा हूँ
पर भूख क्या होती है
मैं उनको नही समझा पा रहा हूँ।
तू चिंता न कर
गोदाम सारे अनाजों से ठसे पड़े हैं
पर क्या करूं तुझसे भी ज्यादा भूखे
वहां की लाइन में पहले से ही खड़े हैं।

तेरा भी नंबर आएगा, तू सब्र कर
जब तक रोटी नही है
तू वादों से ही अपना पेट भर।
सोच तू कितना खुशनसीब है
जो जूठन के ढेर पर पड़ा है
अरे सब बहाने हैं यहां
क्या भूख से भी कोई मरा है।

अब दिल्ली के गलियारों में 
केवल यही चर्चा आम है
भूख से कब कोई मरा है
ये तो महज राजनीतिक इल्जाम है।
तू भी उठ चल, अब राजनीति न कर
जूठन ही सही, यही खाकर अपना पेट भर
वर्ना तू पछतायेगा, जब ये जूठन भी
किसी सरकारी कोष में जमा हो जाएगा।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28अप्रैल, 2020

बचपन

बचपन।  

आओ फिर बचपन हम जी लें
अपनी उन बीती को जी लें
दिल के सब दरवाजे खोलें
आओ फिर बचपन हम जी लें।।

वो मां की लोरी, वो ममता का आँचल
वो दादा की घुड़की, वो दादी का आँचल
वो खिलौनों की खातिर हठ कर मचलना
वो पापा की उंगली पकड़कर मचलना
वो चुपके से पापा का जेबें खंगालना
गुम सुम सी देखती सब ममता बिचारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

वो मम्मी की उंगली थामे स्कूल को जाना
वो दोस्तों से रूठना, पल में मनाना
वो टीचर की डांटें, वो प्यारी सी बातें
बेवजह ही गूंजती हरपल किलकारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

वो बहना की राखी, वो भाई से लड़ना
स्कूलों की छुट्टी, वो बारिश में भींगना
भींगे हुए मां के आंचल में चिपकना
वो प्यारा सा गुस्सा, वो प्यारी सी थपकी।

गलतियों को हमारी सबसे छुपाना
खुद डांट खाना पर हमको बचाना
हर दर्द पे हमार आप ही आंसू बहाना
फिर भी लुटाती ममता वो सारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

हमारे लिए ताजी रोटी बनाना
खुद बासी खाकर के सो जाना
गर्मी में ऐ सी से ठंडा था आँचल
ठंडक में गोदी ही था रजाई हमारा
कितना मधुर था वो बचपन हमारा।

खुशियों के लिए हमारी
जिन्होंने किये इतने त्याग
उनके ही चरणों में है काशी-प्रयाग
दुनिया मे नही कोई है तीरथ ऐसा
माता-पिता के चरणों के जैसा।

कहां आ गए पर हम आज चलते चलते
तलाशे हजारों पर फिर वो पल नहीं मिलते
आधुनिकता की होड़ में पल पल है भटकते
पैसों की रफ्तार में है खोया कहीं अपनापन
कितना मधुर था वही अपना बचपन।

कान तरसते हैं कोई तो फिर दुहराए
उन्हीं तुतलाते नामों को फिर से बुलाये
फिर से उन्हीं गलियों में घुमाए
कब तक फिरूं आंखों में आंसू छुपाए
कोई तो हो जो फिर से बचपन लौटाए।
कोई तो हो जो फिर से बचपन लौटाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28अप्रैल, 2020

संस्कार

संस्कार।  

बीमार हो रही सोच को
जरूरत है पुनः उपचार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

भोग, विलास, भौतिकता ने
मानवीय मूल्यों को भुलाया है
आधुनिकता की होड़ में बेसबब
अपने अध्यात्म को भुलाया है।

स्वच्छंदता को विकास समझ
हम, फूले नहीं समाते हैं
अरे, कितने नादान हैं सभी
अपनी ही मूरखता पे इतराते हैं।

आज जरूरत है हमें, पुनः
दृष्टिकोण में सुधार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

शिक्षा बनी है आज जरूरत
धनार्जन एवं व्यापार की
धनलोलुपता की बलि चढ़ रही
शिक्षा नैतिक व्यवहार की।

विद्यालय अब केंद्र बन रहे
ध्वंस-वृत्ति के व्यवहार की
साये में जिसकी बैठ कुटिलता
साथ दे रही उच्छृंखल व्यवहार की।

आज जरूरत है हमें पुनः
सार्थक, सात्विक बदलाव की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

मानवता में भेद दिख रहा
पथ भटके इंसानों में
स्वार्थी बनी आज प्रतिज्ञा
चंद स्वार्थी सत्ता के दीवानों में।

अराजकता, अन्याय, हीनता को
जरूरत है पुनः मिटाने की
पुनः जरूरत आज हमें है
पुरुषोत्तम व्यवहार की।

आज पुनः है संकल्प जरूरी
श्रद्धा एवं विश्वास की
आज पुनः है संकल्प जरूरी
सात्विक ऋषि प्रदत्त संस्कार की।

इन्ही सात्विक संस्कारों से
राष्ट्रीयता लहरायेगी
राष्ट्र हमारा समृद्ध बनेगा
विलक्षण प्रगति ध्वज लहराएगा।

इसके लिए है आज जरूरी
एक आध्यात्मिक उपचार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है आज उचित संस्कार की।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27 अप्रैल, 2020




मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ

मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।

कलम उठा के मैंने सोचा
मैं भी कुछ श्रृंगार लिखूँ
रोली, कुमकुम, बिंदी, कंगन
वाले कुछ उद्गार लिखूँ।

पर कलम मेरी रुक जाती 
देख के उस तस्वीर को
जिसमें भारत घायल बैठा
विघटनकारी तीर से।

दूर हिमालय मौन खड़ा है
लहरों में ललकार नहीं
इस बेड़ी को तोड़ सकें
क्या इतना अब अधिकार नहीं।

आज स्वार्थी हुई प्रतिज्ञा
राजनीति के साये में
आदर्शों की बोली लगती
राजनीति के साये में।

ऐसी हालत देख के बोलो 
मैं कैसे चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ होने पर भी
मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।

अनादर्शों के हाथों में 
अब आदर्शों की डोर है
स्वार्थ प्रभावी हाथों में
अब राजनीति की डोर है।

भाषाओं को तो खा चुके हैं
संस्कृति को भी खा रहे
भारत की नैतिकता को
दीमक जैसे चाट रहे।

ऐसी असहनीय पीड़ा में
कैसे मैं चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ देख के बोलो
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।

आज व्यवस्था बंधक बैठी
ताकतवर के ज़ोर पे
सत्यकाम हो रहा पराजित
झूठों के सिरमौर से।

अभिव्यक्ति के नाम पे देखो
वोटों का बाजार सजा
राष्ट्रहित को गिरवी रखकर
गद्दारों का सम्मान किया।

मैं भारत माँ का बेटा हूँ
कैसे मैं चुपचाप रहूं
जबतक उसका आँचल छलनी है
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26अप्रैल, 2020



आओ रिश्ते जोड़ें

आओ रिश्ते जोड़ें               

इस लॉकडाउन को सजा न मानो
इसको तुम एक अवसर जानो
अवसर फिर बचपन जीने का
अवसर फिर खुद से मिलने का।

चलो अपनों संग मिल बैठें सारे
सोशल डिस्टेंसिङ्ग, पर अपनाएं
खोलें फिर यादों के एलबम
मिले प्रथम बार जब तुम और हम।

आओ याद सुनहरी खोलें
एक दूजे के मन से बोलें
अपनी हर बीती को विचारें
एक दूजे की बाट निहारें।

ये अवसर है दिल के मिलने का
रिश्तों से रिश्ते जुड़ने का
इस पल में जो दूर बसे हैं
दे दिलासा, ढांढस बंधाएं।

ये सच है, तकलीफें भी बड़ी हैं
कल-कारखाने बंद पड़े हैं
कामगारों पर आफत है आयी
व्याकुल, विह्वल आंखें भर आईं।

कितने घर चूल्हा बंद हुआ है
हंसी-ठिठोली मंद हुआ है
बच्चों के चेहरे उदास हैं
सागर समीप, फिर भी प्यास है।

ये अवसर है उनसे मिलने का
उनके रिसते घावों को भरने का
जोड़ें मानवता के रिश्ते
प्यार, वेदना, सम्मान के रिश्ते।

जो पीड़ित हैं इस त्रासदी से
उनका स्वास्थ्य निरीक्षण करना
बेहतर सुविधा देकर उनको
उनके हर घावों को भरना।

ऐसे ही व्यवहारों से हम
सतयुग की शुरुआत करें
प्रेम, समर्पण, भावप्रवणता से
सुघड़ भविष्य निर्माण करें।।

 ©️ अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 अप्रैल,2020
        

एक वोट

एक वोट।   

न मैं मंदिर हूँ, न मस्जिद हूँ
न मैं अमीर हूँ, न गरीब हूँ
न मैं ताकतवर हूँ, न मजलूम हूँ
मैं इस लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

मैं घायल हूँ लोकतंत्र में,स्वार्थी हाथों की शमशीरों से
मैं घायल हूँ नित नूतन,वोट बैंक की तदबीरों से।
लगता जैसे चंद स्वार्थी ,नेताओं की जागीर हूँ
मैं लगता है जैसे टूटते,ख्वाबों की चीत्कार हूँ।
मैं खुद से खुद को ,पहुंचाने वाली चोट हूँ
जी हां, मैं लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

सत्ता के गलियारों ने,पल पल मुझको तोला है
कभी अस्मत से खेला,कभी भावनाओं से खेला है।
सत्ता के बाजार में-
कभी अयोध्या, कभी मुजफ्फरनगर
 कभी गोधरा, कभी कासगंज बनाया है,
तो कभी चुनावी मंचों से 
जायकेदार चाबुक से ललचाया है।
निज स्वभाव से वशीभूत
मैं खुद के स्वभाव की खोट हूँ,
जी हां, मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

यूँ तो मैं आजाद देश का वाशिंदा हूँ,पर
डरता हूँ निर्भया की दम घोंटती चीखों से।
मैं ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हूँ
जहां पढ़ाई महंगी, इंटरनेट व नशा सस्ता है,
मैं सियासतदानों के अनगिनत,
चालों का परिणाम हूँ,
मैं स्वार्थी राजनीतिक महारथियों की
अतृप्त वासना की हंसी चाह हूँ,
मैं चुनावी जाड़े की गर्म हसीन कोट हूँ
जी हां,मैं स्वार्थी लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

जब सत्ता के गलियारों में नोट दिखाए जाते हैं
जब चुनावी भाषण में संवाद गिराए जाते हैं
जब जाति-धर्म देख, सिद्धांत मिटाए जाते हैं
जब रोटी की चाहत में, दूर बच्चा कोई रोता है
अनसुनी करके चीखें,कोई सुदूर देश में सोता है।
जब आतंकी मंसूबों को ,बिरयानी खिलाई जाती है।
जब सीमा पर कोई वीर,तिरंगे में लपेटा जाता है
जब उसकी नव यौवन विधवा
टूटे सपनों को खोजा करती है।
सत्ता लोलुपता की खातिर
जब बात सबूतों की चलती है,
जब बातें अपनी मनवाने को
संपत्ति, सार्वजनिक जलती है
इतने पर भी मैं मौन पड़ा हूँ
क्योंकि मैं नोटों के 
बंडल की एक नोट हूँ
जी हां, मैं स्वार्थी होते इस
लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25अप्रैल, 2020







कायरता स्वीकार नही


कायरता स्वीकार नहीं।   

आधुनिकता का प्रभाव तेज है
इच्छाओं का प्रवाह तेज है
इच्छाओं को वश में करना
ध्यान रहे इतना इस रण में
स्वीकार यहां है सब कुछ, लेकिन,
स्वीकार नहीं कायर बनना।

इक युद्ध खड़ा है द्वारे पर
हट मत जाना पीठ फेर कर
युद्ध तेरा निर्णायक है ये
पग पग पर खुद नायक है
या जीत तुम्हारा माथा चूमे
या बलिदानों का द्वार खुले।
स्वीकार यहां है सब कुछ, 
बस, कायरता स्वीकार नहीं।

छद्म युद्ध क्यों, कब तक सहना
घुट-घुट कर यूँ, कब तक जीना
मानवता का पर्याय यहां बन
खुशियों का अभिप्राय यहां बन
बहुत बह चुका खून-पसीना
क्यों, कब तक अश्रु पीना।
स्वीकार यहां है सबकुछ, लेकिन
स्वीकार नहीं कायर बन जीना।

जीवन ये अनमोल है तेरा
मानवता का न मोल है तेरे
मिट-मिट कर हर बार बना है
सत्य हरदम सीना तान खड़ा है
सत्य का तू अवधारण करना
बनना कुछ भी, बस कायर न बनना।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24 अप्रैल, 2020




कैसा तंत्र मनाएं हम।

कैसा तंत्र मनाएं हम।   

राजतंत्र, भीड़तंत्र या गणतंत्र
कैसा तंत्र मनाएं हम।

कदम कदम सिसकता भारत
हर चौराहे पर लुटता भारत
घर में नहीं सुरक्षित भारत
कोख में भी बिलखता भारत
किसको क्या समझाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

जातिवाद में बिखरा भारत
अवसरवाद में जकड़ा भारत
स्वार्थी समाजवाद में ललचाता भारत
इससे मुक्ति कैसे पाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

हर घटना से टूटती भावनाएं
धर्म को वोट से जोड़ती भावनाएं
राजनीति की चाल में फंसकर
खण्ड खण्ड टूटती भावनाएं
ऐसे में कुछ तुम ही बोलो
कौन सा गीत गुनगुनाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

भ्र्ष्टाचार में जकड़ा भारत
नैतिकता से गिरता भारत
भूख, गरीबी, अवसरवादी
उन्मादी व्यवहारों में लिपटा भारत।
क्या नेता, क्या आम-ओ-खास
लगता मौके की बाट जोह रहे
ऐसे में अपना दर्द छुपा कर
कैसे अब मुस्काएं हम
कोई अब तो जतन बताए
कैसा तंत्र मनाएं हम।

इंतज़ार है उस पल का
जब भारत फिर से मुस्कायेगा
जाति-धर्म की तोड़ गुलामी
नई सुबह फिर लाएगा।
राजनीतिक अधिकार के संग संग
उत्तरदायित्वों का ध्वज फहराएगा।
जब चंहुओर स्वाभिमानी भारत
व फसल राष्ट्रवाद की लहरायेगी
जब भारत की आधी आबादी
निडर भाव से मुस्कायेगी।
सच कहता हूँ तब भारत माता
खुश होकर मुस्कायेगी
लाल किले पर लहरा के तिरंगा
गीत खुशी के गायेगा।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24अप्रैल, 2020



मजबूर

मजबूर।  

कागज के टुकड़े पे 
तुमने कुछ लिखा था
कुछ तो मैने पढा
कुछ अधूरा रह गया
जब तलक तुम्हे समझा पाते
अपनी खामोशी का सबब
तुम्हे बतला पाते
तुम्हारी आंसू की बारिश में
सारा एहसास बह गया
हम तो ठहरे रहे वहीं पर
मगर वक्त निकल गया।।

ये जरूरी नही के
हर राह को मंजिल मिले
ये जरूरी नही के
हर लहर को साहिल मिले
कुछ लहरें दरिया के साथ बहती हैं
ख्वाहिश यही इतनी है बस
वो जा के समुंदर में मिलें।।

एक खामोश सी मोहब्बत थी 
शायद, हम दोनों के दरम्यान
कभी हम ये कह न सके
तुम भी कहीं समझ न सके
कुछ ख़ता तुम्हारी भी तो रही होगी
कुछ हम भी मजबूर हो गए
ये तो वक्त का ही फैसला था
मगर, मजबूर हम क्या हुए
तुम तो दूर हो गए।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद
   23अप्रैल,2020



धरती का कर्ज

विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र पर चिंतन करती मेरी रचना-

धरती का कर्ज।  

आओ धरती का कर्ज चुकाएं
प्रदूषण मुक्त करें धरती को
सब मिल इसको स्वच्छ बनाएं
आओ धरती का कर्ज चुकाएं।

इस धरती से क्या कुछ पाते हैं
बदले में हम क्या देते हैं
स्वार्थ लोभ वश पैसे बो कर
सबने इसका अस्तित्व नकारा।

शस्य श्यामला धरती सोने सी
इसकी क्षमता दाने बोने की
पर दूषित व्यवहारों से
इसको हमने ध्वस्त किया
रत्न प्रसविनी धरती का
हम सबने है विध्वंस किया।

पशु, पक्षी, खग, मृग सारे
सब रहते धरती के सहारे
दम घुटता है सब जीवों का
हिमाद्रि, जल-थल, अवनी, अंबर का
यदि धरती को सम्मान न हम दे पाएंगे
तो फिर जीवन कहां से पाएंगे।

जो न समझे आज महत्व को
फिर तरसेंगे शुद्ध पवन को
शुद्ध व्यवहार, नैतिकता तरसेगी
बादल बदले नैना बरसेंगी
आओ सब मिलकर प्रण ये उठाएं
प्रदूषण मुक्त इस धरा को बनाएं।

नैतिक व्यवहारों से ही हम
जब चंहुदिश को जगा पाएंगे
तब ही मुक्त होगी धरती
सुघड़ जीवन हम जी पाएंगे।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद
   22अप्रैल, 2020

भीड़ हत्या

भीड़ हत्या।           

सुना देश में घात हुआ है
भीड़ द्वारा आघात हुआ है
भीड़ का कोई धर्म नही है
पर सजा भीड़ दे, धर्म नही है।

मौन पड़ी है सृष्टि सारी
बस रो रही संस्कृति बेचारी
ये मानवता का कर्म नही है
हत्या कोई धर्म नही है।

यदि अपराधी लगता है कोई
तो न्याय व्यवस्था करती है
व्यवस्था ही जब कुंद पड़ जाए
न्याय कहां फिर मिलती है।

संज्ञान स्वतः जो लेते हैं
आत्ममुग्धता में मौन पड़े हैं
तख्ती, मोमबत्ती, मोर्चे वालों
की जिह्वा पर ताले बंद पड़े हैं।

भारत वो देश है प्यारों
अन्याय नहीं जो सहता था
निरपराधों की रक्षा हेतु
हर अपराधों से लड़ता था।

पर क्या हो गया है भारत को
खुद भारत ने क्यूँ डँसा भारत को
अपराध की हर मानसिकता का
सब मिल कर परित्राण करें।

शस्य श्यामला इस धरती को
प्यार समर्पण का अभिप्राय करें
धर्म व्यवस्था स्थापन हेतु
न्याय का उचित सम्मान करें।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21अप्रैल, 2020

ध्यानार्थ- मैंने अपनी ये कविता अपने मित्र श्री रमाकांत श्रीवास्तव जी/ हैदराबाद को प्रकाशनार्थ दी है। कॉपीराइट मेरे पास ही रहेगा -21:28, दिन- 21 अप्रैल, 2020

गंगा की पुकार


गंगा की पुकार।   

चीख रही है श्रद्धा सारी
पीड़ित है विश्वास हमारा
अंधकार चहुंओर दिख रहा
खतरे में पड़ा मोक्ष का सहारा।

गोमुख से निकली गंगा
निर्मल, कल कल बहती गंगा
मैदानों को उपजाऊ करती
जीवन का प्रतिपालन करती।

जन हंसता तो हंसती गंगा
जन रोता तो रोती गंगा
माता कहते इसको हम सारे
गंगा हम सबकी पालनहारी।

स्वयं तो पल पल विष है पीती
पर जन जन को मोक्ष है देती
भयातुर हूँ खो न जाये, वेदों और पुराणों में
सिमट न जाये पाटों में, स्वार्थ सिद्ध व्यवहारों से।

किस दर्पण में देखूँ अपना मुखड़ा
जब जल तेरा गन्दगी का मारा
मलिन हुई है जब से गंगा
मलिन हुआ है मन हमारा^
(^- नज़ीर बनारसी जी की दो पंक्ति)

मोक्षदायिनी, जीवदायिनी, पतितपावनी
के प्रति है क्या सोचो फ़र्ज़ हमारा
मां कहते हैं यदि सब इसको
सोचो फिर क्या है कर्तव्य हमारा।

अश्रुपूरित नैनों से आज निहारती
चीखती, कलपती, भागीरथी पुकारती
मुक्त करो, गन्दगी से मुझको
मां हूँ मैं, ममता है तुमसे
मैं ही हूँ स्वाभिमान तुम्हारा।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21 अप्रैल, 2020

हार नहीं मानूंगा


हार नहीं मानूंगा।   

जीवन इक संग्राम यहां है
वरदान नही मांगूंगा
जब तक समर शेष जीवन का
मैं हार नहीं मानूंगा।

आंधी आयें तूफां आयें
या कितनी विपदाएँ आयें
मोड़ बड़े या रोक बड़े हों
या फिर आशंकाएं आएं।

मैं हार नही मानूंगा
वरदान नहीं मांगूंगा।

जन  मन की प्रचंड वेदना
मैं तुम तक पहुंचाऊंगा
इन नैनों में छिपी यंत्रणा 
मैं तुमको दिखलाऊंगा।

मैं सत्ता के महाशीर्ष तक
दर्द जन जन का पहुंचाऊंगा
राज धर्म रक्षित होने तक
मैं नित नित लिखता जाऊंगा।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

धर्म के रक्षक भयाक्रांत हो
भक्षक से जब मिल जाएंगे
धर्म की रक्षा मुश्किल है तब
न्याय कहां मिल पाएंगे।

ये मत सोचो कि लघु मात्र हूँ
निर्बल, दुर्बल, दया पात्र हूँ
मैं स्याही की अमिट बूंद हूँ
मस्तक पर छप जाऊंगा।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

किंचित यदि विजय मिल जाये
अस्मित को कभि अर्थ मिल जाये
मैं तनिक  नहीं सुस्ताऊंगा
अविचल चलता जाऊंगा।

नव जीवन मार्ग प्रशस्त तक
मैं हार नहीं मानूंगा
अविरल, चलता जाऊंगा
पर वरदान नहीं मांगूंगा।।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20 अप्रैल, 2020






संभरण करो


संभरण करो।  

दूर क्षितिज दृष्टिगोचर होता
दिनकर छिपता, रोज निकलता
शाश्वत सत्य के इस पाठ्य से
सकल विश्व को सत्यापित करता।

जीवनपथ चाहे जैसा भी हो
सम हो या विषम पथ हो
समभाव हृदय में लेकर
प्रेम-शांति का धरता बन, संचरण करो।

युग का पथ कण्टकाकीर्ण भले हो
घनघोर भले तम का बादल हो
कलम साधक हो सत्य पुजारी
नवकांति का उपकरण धरो।

कथनी-करनी का भेद त्याग कर
जात-पांत का भेद त्याग कर
कटुताओं का विष त्याग कर
आओ जग संभरण करो।
आओ जग संभरण करो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19 अप्रैल, 2020

श्री कृष्ण महिमा

                  मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र

श्री कृष्ण महिमा।   

हे वासुदेव, हे कमलनाथ
यशोदावत्सल, है विश्वप्राण
हो शाश्वत, सदा सनातन हो
गोवर्धनधारी जन उद्धारक हो।

कञ्जलोचन, अनादि ब्रह्मचारिक
युधिष्ठिर प्रतिष्ठात्रे, सर्वपालकाय
नटवरनागर, गिरधारी हो
जन जन के पीड़ाहारी हो।

श्रीवत्स कौस्तुभ्धराय, यशोदावत्सल
हरि, संखाम्बुजा युदायुजाय
जैसे अर्जुन के जीवन को तारा
हे भीष्म मुक्ति प्रदायक हमको भी तारो।

आर्यावर्त फिर घिरा हुआ है
ध्वांतचारी व्यवहारों से
हे अनादि ब्रह्चारिक, परात्पराय
हमें भी मुक्त करो अत्याचारों से।

है मीरा के प्रभु गिरधरनागर
अर्जुन के मोहन, उद्धव के माधव
हर संकट को तारा तुमने 
पुनः आज सब संकट तारो।
पुनः आज अब संकट तारो।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
18 अप्रैल, 2020



उत्तिष्ठ भारत


उत्तिष्ठ भारत।   

उत्तिष्ठ भारत का आह्वान लिए
मन में भावों का वेग लिए
उर में लिए प्रबल हलचल
चरण नापते जल और थल।

हे पाथेय नही तुम रुकना
पल-पल, छिन-छिन बढ़ते रहना।

जोश नया नित नूतन भर ले
उत्साहों का अन्वीक्षण कर ले।

कुछ ऐसा राग भावों में भर दे
सकल विश्व को रसमय कर दे।

ऐसा रस जो भावप्रवण हो
सकल राष्ट्र का तमिस्त्र द्रवण हो।

हे वीणावादिनी वरदान यही दो
लेखनी को मेरे भाव यही दो।

ले आशा के भाव हृदय में
जागृति की हुंकार उठे
हो प्रदीप्तवान हर कोना कोना
उत्तिष्ठ भारत के भाव जगें।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
17 अप्रैल, 2020

बर्दाश्त नहीं करते


बर्दाश्त नही करते

ऐसा क्यूँ लगता है मुझको
मौलिक भारत छूट रहा
अभिव्यक्ति के नाम पे मानो
खण्ड खण्ड ये टूट रहा।
ये कैसी आजादी है
ये कैसा व्यवहार है
भारत के टुकड़े चाहने वालों के
कैसे पहरेदार हैं।
भृष्ट हो चुकी आज व्यवस्था
कुंद पड़ी तलवार है
भारत को गाली देने वालों की
कैसी जयजयकार है।
मत भूलो एक जयचंद ने
कैसे भारत बर्बाद किया
मगर आज तो भारत में
जयचंदों की भरमार है।
बहुत सुन चुके इनकी बातें
अब इनका प्रतिकार करो
गली मुहल्लों से चुन चुनकर
अब इनका संहार करो।
कैसे कैसे लोग पड़े हैं
सत्ता के गलियारों में
गिरगिट जैसे रंग बदल रहे
सत्ता के गलियारों में
कुर्सी से चिपके रहने को
ये इतने बेताब हैं
गिरवी रखने को अपना
जमीर तक तैयार हैं।
कितना अंतर आ चुका है
अब इनके व्यवहारों में
जैसे शकुनि चाल चक रहा
सत्ता के गलियारों में।
बंट रहा है अखण्ड भारत
अब जाति धर्म के नारों में
एकलव्य फिर ठगा जा रहा
सत्ता के गलियारों में।
कितने सपने चूर हो रहे
इनके झूठे वादों से
पर अलसाये पड़े हुए सब
सत्ता के गलियारों में
मजलूमों का हमदर्द नही है
सत्ता के गलियारों में
सबके अपने स्वार्थ सधे हैं
सत्ता के गलियारों में।
मेरा भी मन करता है 
झूमूँ, नाचूं, गाऊं मैं
अभिव्यक्ति की तथाकथित
आजादी वाले गीत सुनाऊं मैं
पर क्या करूं मैं राणा प्रताप
शिवाजी का अनुयायी हूँ
शकुनि और जयचंदों जैसी भाषा
खुद में कहां से लाऊं में।
मैं दर्पण टांगे फिरता हूँ
उनको कहां से भाऊंगा
उनके जैसी कुटिल भावना
खुद में कहां से लाऊंगा।
जनता अब ये पूछ रही है
सत्ता के गलियारों से
कब तक चलनी होगा भारत
गद्दारों के वारों से
हम गीता के अनुयायी हैं
पहला वार नही करते
पर जो मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।
पर जो मां का आँचल खींचे
उसको बर्दाश्त नही करते।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16 अप्रैल, 2020

राष्ट्रवाद


चाणक्य के विचारों का राष्ट्रवाद।  

आक्रोश नेत्रों में भरे
वो कर रहा अंतर्नाद था
था द्रवित हृदय आज उसका
पीड़ा का वृहद साम्राज्य था।

आज उसके ज्ञान के
थी परीक्षा की घड़ी
राष्ट्र पर संकट बड़ा था
पर स्वार्थ की थी सबको पड़ी।

यवन खड़े थे द्वार पर
विश्व विजय अभियान पर
चाणक्य को ये भान था
ये राष्ट्र का अपमान था।

ले स्वप्न संयुक्त राष्ट्र का
जन जन  में थे भटक रहा
जनपदों की एकता का
मार्ग प्रशस्त कर रहे।

अखण्ड भारत का स्वप्न लिए
चिंतन करना ही पड़ेगा
जनपदों की निज सीमांत त्यज
एक सूत्र में बंधना ही पड़ेगा।

एक राष्ट्र श्रेष्ठ राष्ट्र की
अवधारणा स्वीकार कर
राष्ट्र रक्षण के निमित्त
निज मोह का तू त्याग कर।

राष्ट्र का सम्मान अब
जन जन हृदय में भरना होगा
राष्ट्र निर्माण का प्रण लिए
सर्वस्व समर्पण करना होगा।

चाणक्य के राष्ट्रभाव को
लेकर हमें चलना ही होगा
नवभारत के निर्माण के लिए
पग पग का कंटक चुनना होगा।

राष्ट्रवाद के भाव को 
डँस रहे अनेकों नाग हैं
भ्रांति भ्रांति का भाव जगाते
कर रहे वो अट्टहास हैं।

बन राष्ट्रवाद के प्रहरी
तू ऐसी हुंकार कर
मद मत्तों का मद उतर जाए
तू ऐसा शंखनाद कर।

राष्ट्रद्रोहियों का कुचक्र तोड़कर
भ्रांतियों का अवसान कर
चिर निद्रा से जग उठें सब
सदियों का उद्धार कर।

जीर्ण शीर्ण व्यवहारों ने
राज धर्म को तोड़ा है
कुसंस्कारी व्यवहारों ने
राष्ट्रमुल्यों को तोड़ा है।

कर दीप्तीवान आज कलम को
वाणी का प्रखर विस्तार कर
कान्हा के पाञ्चजन्य बन कर
नवयुग का शंखनाद कर।

नभ तक गूंजे शंखनाद ये
सुप्त दिशाएं जाग उठें
एकसूत्र में बंधे आज हम
स्वर्णिम भारत भाग्य जगे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
16 अप्रैल, 2020

एक प्रण


एक प्रण।  

कैसा पल आया जीवन में
हाहाकार मचा जन जन में
अदृश्य शत्रु के व्यवहारों से
व्याकुलता मची त्रिभुवन में।

आओ हम प्रतिकार करें
अनुदेशों को अंगीकार करें
अदृश्य भयावह इस शत्रु से
राष्ट्र रक्षण का प्रण स्वीकार करें।

मनुजता के रक्षण की खातिर
निःस्वार्थ समर्पित हैं जो इस रक्षण में
जुनुस जश्न के भाव त्याग कर
ताली, थाली से अपने उद्गार करें।

वक्त नहीं ये उत्सव का
वक्त है आत्म नियंत्रण का
त्याग कर विषाद के क्षण
सबको आशावान बनाएं
आओ मिलकर दीप जलाएं।

कहने को ये लॉक डाउन है
पर व्यवहारिक अवस्था है
अनुशासन का प्रारूप सही है
ये कैद नही व्यवस्था है।

ताली, थाली के आग्रह का 
व्यर्थ न तुम उपहास करो
ये तो अभियान मात्र है
बस भावों का सम्मान करो।

ऐसे व्यवहारों से माना
परास्त शत्रु नही हो सकता
पर निःस्वार्थ समर्पित कर्मवीरों का
सम्मान सुनिश्चित हो सकता।

इन रणवीरों का हम
सम्मान सुनिश्चित आज करें
दीप जलाएं त्याग रूप का
हम इनका सम्मान करें।

आओ सब सहयोग करें
जन जन को समझाना है
मनुज रक्षण की खातिर
लॉक डाउन को अपनाना है।

अपनी मर्यादा में रहकर ही
उद्देश्य प्राप्त हम कर सकते हैं
इस वैश्विक महामारी से
निस्तार प्राप्त हम कर सकते हैं।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13अप्रैल, 2020



प्रतिकार


प्रतिकार।  

इतिहास को स्वीकार कर
न शोक कर अध्याय पर
लेकर सबक इतिहास से
अन्याय का प्रतिकार कर।

माना समर अवरुद्ध करता
मनुजता के विकास का
पर शांति वो उचित नही
जो मिले दनुज के उपहास से।

वक्त निर्णायक रहा सदा
इस दनुज व्यवहार का
प्रतिकार ने ही रक्षण किया
पर इस सकल ब्रहांड का।

स्वार्थमय विद्वेष से ही
अधर्म फैला है यहां
घृणायुक्त व्यवहार से
पी रहे हलाहल सब यहां।

शत्रु की पहचान कर
रण का शंखनाद कर
धर्मस्थापन के लिए
अधर्म का प्रतिकार कर।

सत्ता सिमट कर जब कभी
निज स्वार्थ बंधन में बंधी
राज धर्म मलिन हुआ तब
एकता खण्डित हुई।

राष्ट्र गौरव के लिए
तू भूमिका स्वीकार कर
स्वार्थ प्रवृत्ति पहचान कर
स्वार्थ का प्रतिकार कर।

इतिहास साक्षी है सदा
इस सकल संसार में
मान रक्षण के लिए
प्रतिकार अंगीकार कर।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
13अप्रैल, 2020








वेदों की ओर चलें


वेदों की ओर चलें।  

आओ वेदों की ओर चलें
शास्त्रों को पढ़ें, आगे बढ़ें
राष्ट्र का निर्माण करें।
आलस्य त्यजें, पुरुषार्थ करें
परमपिता के ज्ञान को स्वीकार करें।
आओ वेदों की ओर चलें।।

मानव सभ्यता के उपमान हैं 
ये प्राचीनतम लिखित अनुमान हैं
श्रेष्ठ कर्म का प्रेरणास्रोत
ये विधियों का तत्वज्ञान हैं।
इसके महत्व को समझकर
इसके ज्ञान को स्वीकार करें
आओ वेदों की ओर चलें।।

सौम्यता हैं, उपासना हैं
ये आयुर्वेद का चमत्कार हैं
अंग अंग में श्रेष्ठता हैं
ये राष्ट्र का निर्माण हैं।
ज्ञान का स्रोत हैं ये
आध्यात्म की पहचान हैं।
संपूर्ण जग आलोकित इसी से
ये भारत की शान हैं।

अपने इन धर्मग्रंथों का
हम आज अनुपालन करें
संताप ग्रसित मनुजता का
इसके ज्ञान से रक्षण करें
आओ वेदों की ओर चलें
आओ वेदों की ओर चलें।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11अप्रैल, 2020

सुगम पथ


सुगम पथ। 

नव सृजन का भाव लेकर
राष्ट्र जन गण मन को तक रहा
धर्म बंधु हो, न्याय बंधु हो
उद्देश्य केवल पथ सुगम हो।

लाभ-हानि, लोभ-मोह का
सम्मुख भले पारावार हो
भीषण हिलोरे ले रहा
भले सिंधु अपार हो
सुगम पथ होता तभी, जब
कुशल हाथ मे पतवार हो।

विश्व दिग्भ्रमित हो रहा
ध्वांतचर प्रवृत्ति के मायाजाल से
चंहुओर क्रंदन है मचा
स्वार्थ युक्त व्यवहार से
स्वार्थ रूपी इस निशा का
आज तू संहार कर।
अपने कुशल प्रयास से
सुगम पथ का निर्माण कर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
11अप्रैल,2020

वेद


वेद।  

जिसने ज्ञान के प्रकाश से
जग को आलोकित किया
विश्व बंधुत्व भाव की 
ज्योति प्रज्ज्वलित किया।

जिसने वसुधैव कुटुम्बकम का भाव
प्रथम, विश्व में अनुमोदित किया
जिसने ज्ञानपुंज के प्रकाश से
विश्व को आलोकित किया।

जब अन्य कोई ग्रन्थ नही था
इस विकल संसार में
अंधकार तब दूर करने को मिला
दिव्य वैदिक ज्ञान इस संसार में।

वेद, शास्त्र, उपनिषद, ब्राह्मण
स्मृतियां ज्ञान का भंडार हैं
जीवन जीना इक कला है
अध्यात्म है, विज्ञान हैं।

मनुष्यता के सिद्धांत को
विश्व में प्रतिपादित किया
भारतीयता के सम्मान को
हर हृदय में स्थापित किया।

ज्ञानयोग, कर्मयोग, तपयोग का
जीवन मे प्रमुख स्थान है
वेद रूपी पथप्रदर्शक जिसने दिया
वो हमारा हिंदुस्तान है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अप्रैल,2020



चाणक्य


चाणक्य।      

सत्यमार्ग दिखलाते चाणक्य
नवनिर्माण सिखलाते चाणक्य
राष्ट्र चेतना भाव प्रणेता का
देशज मार्ग बतलाते चाणक्य।।

चौथी शती ईसा पूर्व में जन्मे
तक्षशिला में ज्ञान लिया
राष्ट्रप्रेम व स्वाभिमान का
पल पल था सम्मान किया।

शिक्षा के महत्व को समझा
विद्या का सम्मान किया
अर्थशास्त्र की रचना कर
दुनिया को वरदान दिया।

अखण्ड भारत का अनुरोध लिए
वो जब धनानंद के पास गए
निर्लज्जता से अपमानित कर
प्रस्ताव को अस्वीकार किया।

किया अपमान आचार्य का उसने
सभाभवन में तिरस्कार किया
तब नन्दवंश के समूल नाश तक
शिखा न बांधने का शपथ लिया।

क्रोध व पश्चाताप से ग्रसित
सभाभवन से निकल पड़े
एक राष्ट्र श्रेष्ठ का प्रण लिए
अपनी ही जिद्द पर रहे अड़े।

मार्ग में देखा चन्द्रगुप्त को
राजकीलकम खेलते हुए
संभावना नजर दिखी तब
लेकर उनको चल दिये।

चन्द्रगुप्त के सहयोग से
एक राष्ट्र नीति का संधान किया
सब जनपद को साथ में लेकर
अखण्ड भारत का निर्माण किया।

सप्तांग सिद्धांत का वर्णन कर
राज्य तत्व का सम्मान किया
राजा, मंत्री, प्रजा या जनपद के योगदान
को राष्ट्रनिर्माण में सम्मिलन किया।

सीमा की रक्षा करना
राजकोष मुख के समान है
दण्ड व्यवस्था राज्य का मस्तिष्क
सुहृद( मित्रता) को स्थान दिया।

राष्ट्रवाद की व्याख्या की
बौद्धिक विमर्श का सिद्धांत दिया
स्वतंत्रता के महत्व को समझा
अभिव्यक्ति को सम्मान दिया।

राष्ट्रविरोधी भाव को मगर
नही कोई स्थान दिया
राष्ट्रद्रोह अपराध बड़ा है
कठोर दंड का विधान किया।

राष्ट्रवाद सिद्धांत सुघड़ है
सनातन संस्कृति मार्ग सुगम है
अनंतकाल से शाश्वत है ये
राष्ट्रप्रेम व्यवहार सुघड़ है।

यदि इन सिद्धांतों के मूल्य को
हम अब आज समझ न पाएंगे
तो फिर वो दिन दूर नही
जब समाज रसातल में जाएंगे।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
10अप्रैल, 2020





गृह निर्माण करें


गृह निर्माण करें।  

नैतिकता की नींव पे खड़ा
सिद्धांतों की भीत पे अड़ा
छत्र हो जिसकी मूल्यता का
रीति का आंगन हो बड़ा।

जहां संवाद शून्यता का स्थान न हो
जहां निजता का अभिमान न हो
जहां नीतियां धन मूल्यों से हों बड़ी
जहां संस्कृति, सभ्यता दृढ़ता से डटीं।

आओ ऐसा कुछ पर्याय करें
ऐसे साध्य का संधान करें
जहां प्रेम, समर्पण, दया भाव हो
ऐसा गृह निर्माण करें।।

जहां अधिकारों की बातों से पहले
कर्तव्यों की बात चले
जहां व्यक्तिवाद की प्रमुखता से पहले
सद्वविचारों की बात चले।

जहां न तेरा हो, न मेरा हो
जहां न लोभ-मोह का फेरा हो
जहां ज्ञान दीप के प्रकाशपुंज से
दूर हृदय का अंधेरा हो।

जहां प्रेम प्यार की बात चले
जहां लाभ-हानि की बात से पहले
उत्तरदायी समर्पण की बात चले
जहां मूल्यवान सम्बंध मात्र हो
ऐसी उत्कंठा का संधान करें।।

आओ गृह निर्माण करें
आओ गृह निर्माण करें।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
09अप्रैल,2020

हाहाकार


हाहाकार।   


हाहाकार मचा जन जन में
व्याकुलता मची त्रिभुवन में
तृषावन्त सब कैद पड़े हैं
कैसा पल आया जीवन में।

उर में प्रतिपल हुक सी उठती
इन नैनों में भूख सी उठती
यूँ पायोनिधि के पास खड़े हैं
फिर अतृप्ति भाव क्यूँ जगती।

मनुज स्वार्थ का खेल है सारा
दिग्भ्रमित भाव का दोष है सारा
प्रकृति से खिलवाड़ हुआ जब
कंपन आया भूतल में तब तब।

घायल विह्वल भटक रही सभ्यता
गर्दभ व्यवहार भुगत रही सभ्यता
किन किन पर आक्षेप लगाएं
स्वार्थ में अंधी बनी सभ्यता ।

चूस रहे हैं रक्त मनुज के
विश्व विजय की भ्रांति समेटे
अज्ञानी तृष्णा में पड़कर
ग्रीवा में अगणित विषदंत लपेटे।

हटो, व्योम से क्षोभ हटाओ
विश्व विजय का लोभ हटाओ
निरपराध नन्हें देवों के रक्षण को
स्वार्थ चित्त का मोह हटाओ।

जय जयकार करो मानवता की 
धरती, अंबर, गिरिराज, जलधि की
हो पंथ सुरक्षित सब जीवों का
हो सफल मनोरथ मानवता का।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
08अप्रैल, 2020

परिचय


परिचय।     

मौन निगाहें पूछती हैं अकसर
मुझसे, क्या है मेरा परिचय
चलो आज बतलाता हूँ
सबसे, क्या है मेरा परिचय।

मैं जीवन का इक चित्रण हूँ
मैं स्वयं आत्म नियंत्रण हूँ
इस परमपूज्य जगदीश्वर का
मैं इक प्रिय अभिमन्त्रण हूँ।

मैं हिंद मन, मैं हिंद तन हूँ
मैं वसुधैव कुटुम्बकम का प्रण हूँ
मेरा बस परिचय इतना
भारत मुझमें, मैं भारत का कण कण हूँ।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल, 2020

मधुर सांध्य

                  मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र।          

मधुर सांध्य।     

मधुर भाव दे गोधूलि बेला में
दिनकर जाकर अस्त हो रहा
शीतल पवन हिलोरों से
जीवन भी मदमस्त हो रहा।

जब कोकिल की मीठी बोली
श्यामल अंबर को चहकाती है
जब ताप भी अपना तेज त्याग कर
शीतल, शिथिल, सुशील हो रहा।

फिर विचलन नैनों में भरकर
क्यों कर भ्रांतचित्त हो रहे
नीर से बोझिल इन नैनों से
विह्वल, व्याकुल, विक्षिप्त हो रहे।

किस अतीत की व्याकुलता ने
मन को है आघात दिया
किस व्याकुलता ने झंकृत कर
नैनों को संताप दिया।

शोक व्यर्थ होता है तब
जब बोध चूक का करा सको
सूने नभ की नीरवता में
दीप ज्ञान का जला सको।

पर रोगग्रस्त मूढ़ चित्त का
शोक व्यर्थ क्यूँ करते हो
अपने हृदय की शीतलता को
वेदना से छलनी क्यूँ करते हो।

मत उलझो स्मृति के टूटे तारों में
नीरवता के सूने व्यवहारों में
सांध्य भी उदास कहां रह पाती है
खेलने उससे रश्मि प्रकाश की आती है।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
07अप्रैल,2020


अंतर्मन

               चित्र चिंतन।     

अंतर्मन।       

पल-पल, छिन-छिन व्याधि दे रही
है अंतर्मन की ज्वाला
लगता पल पल पी रहा हूँ
घूंट घूंट भर कर हाला।

जब सत्य-असत्य में भेद न रहे
जब स्वार्थ-निःस्वास्थ में भेद न रहे
मूंद नयन तब चिंतन करना
अपने अंतर्मन की सुन लेना।

जब आक्षेप अनर्गल लगाए कोई
जब कपट भाव दिखलाए कोई
तब खुद को केंद्रित कर लेना
अपने मन की सुन लेना।

जब मर्यादा का मान न रहे
जब निष्ठा का सम्मान न रहे
तब खुद ही खुद से मिल लेना
अपने अंतर्मन की सुन लेना।

सत्य मार्ग है अतिशय दुष्कर
चलना इसपर संभल संभलकर
थक जाओ यदि कहीं कभी तो
स्थिर अंतर्मन को कर लेना।

हवनकुंड मन को कर लेना
सत्कर्मों की हवि भर लेना
आस निराश से विलग 
जीत का तुम आवाहन करना।

लक्ष्य कठिन पर अघट्टय नही है
सत्य अटल है अधीर नही है
संकल्प सृजन भावों में भरना
अंतर्मन स्थिर कर लेना।
अपने अंतर्मन की सुन लेना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06अप्रैल, 2020






वनवास


वनवास।                                                         
विरह व्यथा से हो द्रवित
भोग रहे वनवास
अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।

पग-पग पर रजनीचर घूम रहे
अकुलीन भावों में झूम रहे
इन अमानुषिक भावों का
करें आज अवसान।

गली मुहल्ले सूने पड़े हैं
बाग बगीचे सूने पड़े हैं
हर आंखें आशंकित लगतीं
टूट रहा विश्वास।

अगणित पीड़ा भावों में भर
भोग रहे वनवास।।

कुत्सित भावों का तिमिर घना है
रावण अब तक मरा कहां है
लक्ष्मण रेखा सब पर खींचो
हो अपनी परिधि का एहसास।

आओ मिलकर सेतु बनाएं
कर्तव्यों का एहसास जगाएं
सत्य धर्म की हो विजय सुनिश्चित
हो धर्म का वास।

आओ दूर करें वनवास
आओ दूर करें वनवास।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
06अप्रैल,2020

हिस्से की रोटी

        मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र।                     
हिस्से की रोटी                                                
सदियों का संताप रहा है
हर पीढ़ी ने दर्द सहा है
अधिकारों की रक्षा हेतु
पल-पल का संघर्ष रहा है।

सामाजिक बदलाव की ज्वाला
पल-पल घूंट घूंट भर हाला
विरह, वेदना, घृणित भाव बढ़ा है
अर्थ प्रभावी जब से समाज बढ़ा है।

विद्या बनी जबसे धन की नीति
नैतिकता बन गयी मन की वृत्ति
इसका मोल चुकाऊं कैसे
इस परिवर्तन को अपनाऊँ कैसे।

चंहुदिश से वार हो रहा
दीन हीन का परिहास हो रहा
इस क्षण को अपनाऊँ कैसे
हृदय खोल व्याधि दिखलाऊँ कैसे।

उठो कलम इस दर्द को लिखो
मुक्त वायु के अनुबंध को लिखो
मिटे भेद जल जाए ज्योति
मिल जाये सबको, हिस्से की रोटी।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04अप्रैल, 2020

आओ मिलकर दीप जलाएं


आओ मिलकर दीप जलाएं।                                                        

आओ मिलकर दीप जलाएं
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

दूर तिमिर हो जाये जग से
मन चित्त को प्रकाशवान बनाएं
हर चेहरे पर मुस्कान जगाने
का ऐसा कुछ पर्याय बनाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

चाहत के पंख फैलाकर
सपनों को यथार्थ बनाएं
अपने आत्मबल के बल पर
जग को प्रकाशवान बनाएं।
आओ मिलकर दिया जलाएं।।

राष्ट्र हमारा घिरा हुआ है
तिरोभूत प्रतिपक्षी से
इस प्रतिपक्षी के अवदारण को
सार्थकता का भाव जगाएं
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

इस तन को दीप बना लें
स्नेह भाव का घृत भरकर
सदाचार को बाती कर
चंहुओर प्रेम प्रकाश फैलाएं।
आओ मिलकर दीप जलाएं।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04अप्रेल, 2020

    

पदचिन्ह


पदचिन्ह।                                                        
कर्तव्यमार्ग पर चलते चलते
पदचिन्हों के छाप हैं छपते
गीली मिट्टी पर हस्ताक्षरित
उपस्थिति के निशान हैं बनते।

कोटि चरण है, कोटि बाहु है
कोटि भाव है, कोटि मार्ग है
पर मानवता के इस पथ में
लक्ष्य सुनिश्चित, प्राप्य एक है।

गढ़ते जाना है नवजीवन
भरते जाना है सूनापन
भाव जो पुण्य श्लोक लिखेंगे
जीवन तब होगा मनभावन।

दूर क्षितिज तक है जाना 
ले उम्मीदों का ताना बाना
सुगठित, मधुरिम भाव लिए
उम्मीदों के नवपुष्प खिलाना।

कर सुनिश्चित ध्येय चलेंगे
अनवरत, अविराम चलेंगे
कर्तव्यपथ पर चलते चलते
पदचिन्हों के छाप बनेंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2020

बटोही


बटोही।                                                            
चिर सजग बटोही, व्यस्त है बाना
न ठहर अभी तू, दूर है जाना।।

सरिता की लहरों सा चलना
पल-पल कल कल बहते रहना
अचल हिमगिरि के हृदय से निकल
निर्वाध गति से बहते रहना।।

अगणित पथिक मिलेंगे पथ में
संग-संग तेरे चलेंगे पथ में
उन पथिकों पर ध्यान धरो तुम
पथ की अपने पहचान करो तुम।।

पथ में कंटक, शूल मिलेंगे
पथ में मौसम प्रतिकूल मिलेंगे
हर मौसम में ढलते रहना
पुण्य मार्ग पर चलते रहना।।

सफल पंथ हो, ध्यान करो तुम
असंभाव्य भाव से दूर टरो तुम
परिणामों के न फेर में पड़ना
निर्बाध, निरंतर चलते रहना।।

न ठहर अभी तू, दूर है जाना।
न ठहर अभी तू, दूर है जाना।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल, 2020


सूरज जैसा बन मिलाकर

सूरज जैसा बन मिलाकर।                                 
सूरज जैसा बनना है तो
सूरज जैसा ही चलाकर
सम दृष्टि सब जन पर डाले
सूरज जैसा बन मिलाकर।।

हर कोना उज्ज्वल कर देता
मिटा आलस्य मुस्कान है भरता
दिन समग्र खुद जलता रहता
सांझ ढले फिर घर को जाता।।

कड़ी धूप हो, अग्निकुंड हो
अंजुली भर कर अर्ध्य मिलेगा
स्वयं तपाया जो जीवन अपना
तब जाकर तम दूर हटेगा।।

है कितना कुछ सीखने को उससे
यही चाहता बस वो हमसे
छोड़ दर्प पद ताप तेज का
निश्छल, निष्कपट, निर्विकार मिलाकर।।

सूरज जैसा बनना है तो
सूरज जैसा ही चलाकर।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल, 2020


उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य


           उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य।                                        
कितने पल आते जीवन में
कुछ हर्षित, कुछ करते अस्थिर
प्रतिपल रंग बदलता रहता
जीवन चक्र यूँ चलता रहता।।

आस-निराश क्षणों मेंं चिन्हित
अपनी इच्छाओं का प्रतिबिंबित
पल-पल व्याकुल करता रहता
जीवन चक्र यूँ चलता रहता।।

सपनों का व्योम बड़ा है
कर्तव्यों का बोध बड़ा है
आंख-मिचौली खेलूं कैसे
उम्मीदों का परिप्रेक्ष्य बड़ा है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         01अप्रैल, 2020

श्री राम प्रार्थना

      श्री राम प्रार्थना।                                         
कर जोड़ खड़ा जो द्वार तिहारे
निश्छल मनमोहक रूप निहारे
कहे, हृदय जो शुद्ध कर लीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

पढ़े भागवत , सुमिरे प्रभु को
शुद्ध भाव हो, करे निर्मल मन को
जो धर्म मार्ग पे खुद को अर्पित कीन्हा
उन्हें प्रभु फिर शरण में लीन्हा।।

परम् कृपा सुरूप हैं प्यारे
जन उद्धारक वो पाप सँहारे
परम् पुण्य तब आनन्दित कीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

लोभ, मोह, माया, अभिमानी
मिटे पाप बन जाये ज्ञानी
ज्ञान शक्ति जब अन्वेषण कीन्हा
प्रभु राम हृदय में दर्शन दीन्हा।।

सहस्र कमल हो, दया शक्ति हो
सत्य ज्ञान हो, परम् धाम हो
पाप हरो प्रभु मंगल करना
शुद्ध भाव जन जन में भरना।।

बार बार करूं विनती प्रभु से
सुगुण-गण विस्तारित हो फिर से
राम नाम जप अमृत दीन्हा
ज्योतिर्मय निश्चय जग कीन्हा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
02अप्रैल 2020


श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...