रात की मदहोशियाँ।

रात की मदहोशियाँ।  

नींद की आगोश में वो चाँद देखो खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

काली घटाएं केश की
कर रही मदहोश मुझको
तेरी चितवन और अदायें
खींचती तेरी ओर मुझको।

अधरों के कंपित निमंत्रण में होश मैं खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

फैली हुई है रोशनी
चहुँओर तेरे प्यार की
साँस की सरगम सजी है
है रात ये बाहर की।

मुक्त आलिंगन में तेरे होश देखो खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

आज मेरी आवारगी को
जब तेरा आलिंगन मिला
दूर वो सारे भ्रम हुए
औ प्रीत को स्पंदन मिला।

इस मधुर मधुमास में मैं होश अपने खो रहा
रात की आगोश में मदहोश मैं भी हो रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31दिसंबर, 2020








नवगीत सजायें।

     नवगीत सजायें।   

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

फिर ना हों वो सारी बातें
बिखरे दिन औ सुनी रातें
फिर से दोनों साथ चलें
फिर इक दूजे में खो जायें।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

उर की अभिलाषाएं संचित
भाव रहे ना कोई कुंठित
फिर पलकों के छाँव तले
वही नेह के दीप जलाएँ।।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

खोल हृदय के बंद द्वार को
बीती सारी बात भुलाएं
मोह बढ़े सम्मान बढ़े औ
फिर से हम नवगीत सजायें।

आओ हम तुम फिर मिल जायें
गीत प्रणय के फिर से गायें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       31दिसंबर, 2020

सँवर गए।

    सँवर गए।  

तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए
स्पंदित भावों से छनकर
खुशबू बनकर बिखर गए।

कोरा कागज था ये जीवन
तुमने इसमें रंग भरा
अहसासों के फूल खिलाकर
गीतों में नवरंग भरा।

तेरे अधरों के नरम छुवन से
भाव हमारे सँवर गए।
तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए।।

मेरे तन की तप्त धरा को
तेरे तन की छाँव मिली
तेरे आलिंगन में मुझको
उम्मीदों की नाव मिली।

मेरे जीवन के माँझी तुम
दूर सभी वो भँवर हुए।
तेरे होठों से लगकर
गीत लिखे जो निखर गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30दिसंबर, 2020







प्रणय गीत गाया न गया।

प्रणय गीत गाया न गया।   

हम भी थे राहों में लेकिन
हमको अपनाया न गया
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

हम जाने कितनी बार मिले
सुनी राहों पर साथ चले
पर अंतस के भावों को
हमसे समझाया न गया।

गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

हर मुश्किल में साथ रहे
सुख दुःख मिलकर साथ सहे
तुमने तो मन की कह डाली
हमसे बतलाया न गया।

गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

जीवन के चौसर पर हमने
हरदम दिल की बाजी खेली
इक इक मुस्कानों की खातिर
कितनी ही पीड़ाएँ झेलीं।

उल्ल्लासों के बीच रहे पर
हमसे मुस्काया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

पीड़ाओं का जीवन हमने
बस अपने गीतों में डाला
लोगों ने तो गीत सुने बस
मन के भावों को कब जाना।

मन के उन भावों को हमसे
जग को समझाया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया।।

भले अँधेरा घना बहुत था
दीपक रोज जलाया हमने
कंठ रुँधे थे भले हमारे
दबे स्वरों में गाया हमने।

रुँधे कंठ के घावों को पर
जग को दिखलाया न गया।
गीत प्रणय के लिखे बहुत
लेकिन हमसे गाया न गया। 

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       30दिसंबर, 2020

शायद किस्मत खुल जाए।

शायद किस्मत खुल जाए।   

राजनीति के महासमर में
कितने आये और गए
कुछ ने दिया सहारा सबको
कुछ भवसागर पार गए।

कुछ ने मान बढ़ाया सबका
कुछ लोकतंत्र को तार गए
कुछ शुचिता को सम्मान दिए
कुछ शुचिता को मार गए।

चेहरों पे चेहरे कितने
कौन यहाँ पहचानेगा
दिल मे किसके भाव छुपा क्या 
कैसे कोई जानेगा।

 बेनकाब चेहरों के पीछे
असली चेहरे छिपे हुए हैं
कितने भाव उजागर होते
औ कितने दबे हुए हैं।

है तिलस्म सा बना हुआ 
सच जिससे डर जाता है
राजनीति का खेल अजब है
ताकतवर भय खाता है।

अपने जैसे सारे लगते
अपना लेकिन कौन यहाँ
शीशे के घर रहने वाले
दूजे पर करते वार यहाँ।

लगने को सब अच्छे लगते
दिखते सारे चंगे हैं
लेकिन हमाम में जैसे देखा
दिखते सारे नंगे हैं।

मुँह में राम बगल में छूरी
बात यहाँ सच लगती है
हांडी चाहे जिसकी भी हो
खिचड़ी सबकी पकती है।

खड़ा ठंड में कांप रहा वो
देख दीप की बाती को
एक हाथ उम्मीदें थामे
दूजे में थामे लाठी को।

कभी आँच उसतक भी पहुँचे
उसकी भी खिचड़ी पक जाए
कोई बीरबल उसे मिल जाये
उसकी भी किस्मत खुल जाए।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     28दिसंबर, 2020





जिंदगी मुस्कुराती है।

जिंदगी मुस्कुराती है।  

उम्र की दौड़ से कौन बचा है भला
वक्त रुकता कहाँ वो सदा ही चला
चलते चलते आखिर घड़ी आ गयी
औ जुदाई में भी ज़िंदगी छा गयी।।

क्या कहूँ आपसे जो सहारा मिला
आपके साथ चल कर किनारा मिला
जब जरूरत हुई साथ हमको मिला
हर कदम आपका हाथ हमको मिला।

मुश्किल जो मिली सारे हल हो गए
खुशनुमा जिंदगी के वो पल हो गए
आपके रूप में एक साथी मिला
राहों में आपसे ही गुल खिल गए।

बिछड़ तो रहे पर खुशी भी छा रही
मायूसी में भी इक हँसी आ रही
नव जीवन की आपकी शुरुआत है
आपको देख जिंदगी मुस्कुरा रही।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27दिसंबर, 2020



शतरंज की बिसात।

शतरंज की बिसात।   

आज अजब सी बात यहां पर देखी है
कितनी ही सौगात यहां पर देखी है।
जिसको देखो वही सूर्य को तकता है
बस उसकी ताकत के आगे झुकता है।
फिर ताकत का प्रभाव वो दिखलाता है
और तेज से अपने सबको बहलाता है।
फिर एक अलग मंजर पैदा होता है
जो बस इच्छाओं का प्रभाव होता है।
बहुत नहीं बस थोड़े ऐसे होते हैं
औरों के खेतों में सपने बोते हैं।
फिर अपनी इच्छा का वो भार थोपते
शर्तें सभी मनवाने को राह रोकते।
फिर तय करते सारे क्या खाए गायें
किसे कहें पराया औ किसको अपनाएं।
फिर चलता खेल स्वार्थ की बेदी पर
बिकते प्यादे शतरंजों की बेदी पर।
औ छुपा रुस्तम फिर सरताज हो गया
प्यादे से बढ़ कर उसका राज हो गया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     26दिसंबर, 2020





मध्यमवर्ग की रोटी।

मध्यमवर्ग की रोटी।   

आज बहस फिर होते देखा
ताकतवर की कोठी में
देख रहे भविष्य सब अपना
मध्यमवर्ग की रोटी में।

सारे मिलकर राह सुझाते
एक एक कर बात बताते
सबको लेकिन एक ही चिंता
मध्यमवर्ग की रोटी में।

कैसे सत्ता से मिल जायें
कैसे सत्ता में मिल जायें
एक मगर उद्देश्य सभी का
मध्यमवर्ग की रोटी में।

सब्जबाग का घेर बनाते
कितने ही सपने दिखलाते
दूरदृष्टि की बातें सारी
मध्यमवर्ग की रोटी में।

कभी मुफ्त की बातें होतीं
नजर मगर चोटी पर होती
और इशारा होता हर पल
मध्यमवर्ग की रोटी में।

पोथी पढ़ सब ज्ञान सुझाते
कितने ही अनुमान लगाते
अनुमान ठहर जाते सारे
मध्यमवर्ग की रोटी में।

पांचसितारा बैठक में तो
बात गरीबी की होती है
जाने आँख ठहर जाती क्यूँ
मध्यमवर्ग की रोटी में।।

मध्यमवर्ग की हिस्से में बस
चर्चाओं का बाजार गर्म है
आखिर क्या सुकूं मिलता है
मध्यमवर्ग की रोटी में।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26दिसंबर, 2020



तुमने सम्मान लिखा।

तुमने सम्मान लिखा।   

मेरे मन मंदिर में तुमने
कैसा सुंदर योग लिखा
मेरे दिल के दरवाजे पर
मधुर प्रेम संयोग लिखा।

नैनों का सम्मान लिखा
युग युग का आह्वान लिखा
सतयुग से लेकर कलयुग तक
प्रेम का नूतन गान लिखा।

सदियों की है प्रीत भावना
मन में अनहद नाद लिखा
ऊष्मित से मेरे जीवन में
मधुर प्रेम अनुवाद लिखा।

श्वेत पृष्ठ सा जीवन मेरा
तुमने ही अनुमान लिखा
भटक रहा था यहाँ अकेला
तुमने ही सम्मान लिखा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      25दिसंबर, 2020

बेफिक्री में जीवन।

बिफ़िक्री में जीवन।  

स्वच्छंद श्वास ले उड़ रहा मन
बेफिक्री में साथ तेरे
डूब रहा है अहसासों में
मूक मगर संवाद लिए।

दिल करता है सब कह दूँ
तुमसे मैं दिल की बातें
और रोक कर चपल वक्त को
भेंट करूँ मैं सौगातें।

हर पल साँस समाहित तुझमें
उर स्पंदित प्रणय भाव है
बेफिक्री के स्वच्छंद पलों में
लगता बस तेरा प्रभाव है।

उलझन से उन्मुक्त हुई मैं
मिला सुकूं यादों में तेरी
पल पल जीवन मुखरित मेरा
अहसासों वादों में तेरी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25दिसंबर, 2020

शरद ऋतु का आगमन।

शरद ऋतु का आगमन।  

फेनिल कुहरे की चादर औ
मौसम की ये ठंडी रातें
बैठ किनारे हाथ सेंकते
खत्म न होने वाली बातें।

रात ठिठुरती ओढ़ रजाई
बिस्तर पर सिलवट बनती
लिखती नई कहानी मिलकर
खुद कहती औ खुद सुनती।

विहग उनिंदें मूक स्वरों से
यूँ मीठी तान सुनाते हैं
शरद ऋतु के एहसासों को
वो संकेतों में गाते हैं।

ठंड सिमटने लगी रातभर
बैठ अलावों की छाँवों में
इक नूतन आरंभ दिखा है
शरद आगमन से गांवों में।

खेतों की क्यारी में देखो
रात ओस बन बिछी हुई है
बादल के झुरमुट में देखो
रश्मि सूर्य की छिपी हुई है।

नूतन फसलों के अंकुर से
खेतों का रूप सँवरता है
हरियाली की ओढ़े चादर
धरती का रूप सँवरता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24दिसंबर, 2020





कर तू जतन।

कर तू जतन।  

उद्विग्न भाव ले खड़ा 
निहार रहा भोर को
दिव्य आस्था लिए वो
नापता है छोर को।

भविष्य पर रखे नजर
सँभल रहा डगर डगर
कर रहा जतन वो सब
त्याग यहाँ अगर मगर।

कह रही है राह सब
प्रयास तो करो जरा
मंजिलों की दौड़ में
दो पग तो चलो जरा।

तेरा हर जतन यहाँ
सुदृढ कर रहा गमन
त्याग तू शंका सभी
लक्ष्य का तू कर मनन।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      23दिसंबर, 2020

प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।

प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।  

भूल गए या याद अभी है
वो अनुरागी शीतल फेरे
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

सूनी पलकों के आँगन में
सपनों का संचार किया
सूने अंतस के दामन में
प्रीत-प्रेम व्यवहार किया।

हिय मकरंद सुमन महके
नैनों में पावस के डेरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

प्रेम हमारा पावन ऋतु सा
महकी जिससे क्यारी क्यारी
त्याग समर्पण पुण्य भाव से
प्रतिपल पुलकित फुलवारी।

उर के हर्षित स्पंदन और
नैनों के अनुरंजित डोरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

स्मृतियों के स्वप्न सुनहरे
जीवन में मधुरस भरते
साथ तुम्हारे बीते जो पल
अब तक हैं आनंदित करते।

सपनों की सुंदर रेखाएं
औ उन यादों के फेरे।
भूल गए या याद अभी है
प्रणय बिम्ब के सुंदर घेरे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22दिसंबर, 2020



कब तक बँधता।

कब तक बँधता।   

क्या करता कब तक सहता
था कभी मुझे कुछ कह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

खामोश यहाँ कब तक रहता
कब तक औरों की सहता
कब तक शर्तों पर जीता औ
कब तक ना मन की कहता।

ओढ़ी जो खामोश दिवारें
उनको तो था ढह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

कितने ही लम्हों में मैंने
अहसासों के फूल सजाये
पथरीली राहों से मैंने
जाने कितने शूल हटाये।

जब शूल चुभाया दामन में
तब आँसू का था बह जाना।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

मौन सफर में चला अकेले
इंतज़ार कब तक करता
तुम बिन कोइ नहीं था मेरा
जो मेरे मन की पीड़ा हरता।

छोड़ चले जब मुझे अकेले
मुझको भी तो था जाना ।
दरिया हूँ मैं कब तक बँधता
मुझको भी था बह जाना।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22दिसंबर, 2020


तुमसे सब जज्बात हैं।

तुमसे सब जज्बात हैं।  

तुम इस कदर खामोश हो क्यूँ
कुछ तो कहो क्या बात है
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

है कौन सी वो बात जिसने
आघात तुमको है किया
वो कौन से हालात जिसने
घाव तुमको है दिया।

कुछ तो कहो ना चुप रहो अब
दिल में छुपी जो बात है।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

कल चले थे हम जहाँ से
वो रास्ते अब भी वहीं हैं
और बिछड़े थे जहाँ से
वो मंजिलें अब भी वहीं हैं।

मुड़ के जो एक बार देखो
वही यादों की बारात है।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

जो इंतज़ार तुमको है मेरा
इक बार दिल से बोल दो
तोड़ दो बंधन सभी औ
दिल की गिरह को खोल दो।

और क्या तुमसे कहूँ मैं
तुमसे ही दिन और रात हैं।
तुमसे ही खुशियाँ हैं सारी
और तुमसे सब जज्बात हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      21दिसंबर, 2020

न्याय का पक्ष।

न्याय का पक्ष।  

झील के तट पर बिखरती
दिख रही तनहाइयाँ
साथ उसके चल रही हैं
आज बस परछाइयाँ।

वक्त का है खेल ये सब
वश नहीं है किसी का
काल जिसका साथ देता
वक्त चलता उसी का।

भूल जा हर बात वो जो
रात दुख का सार थी
और तेरी चाहतों पर
जो कर रहीं वार थी।

रात का अंतिम पहर अब
बीतने की ओर है
भोर की पहली किरण में
दिख रहा नव छोर है।

झील के उस पार देखो
इक किरण है दिख रही
चल चलें उस पार देखो
रोशनी है दिख रही।।

अब तू ही कर निर्णय स्वयं
तू संगी है किसका
सत्य के जो साथ चलता
न्याय लेता पक्ष उसका।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       19दिसंबर, 2020

वो तारण हारे।

वो तारण हारे। 

भटक रहे मन की पीड़ा ले
आया हूँ मैं द्वार तिहारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।

विह्वल है मन का हंसा
इच्छाओं का भार लिए
इत उत मन भटक रहा है
सपनों का अंबार लिए।

भटक रहे मन के भावों को
बिना तुम्हारे कौन सम्हारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

बुद्धिहीन ये ज्ञानहीन ये
तुम बिन कौन इसे समझाए
गुण क्या है अवगुण है क्या
तुम बिन कौन इसे बतलाए।

काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह
के जंजालों में भटका रे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

सुप्त हो रही आज चेतना 
प्रभु फिर से इसे जगा जाओ
हिय में सबके प्रेम बसे प्रभु
कुछ ऐसी रीत चला जाओ।

मन का सारा मैल मिटा दो
जगपालक हो तारण हारे।
राह सूझती कुछ ना मुझको
तुम बिन किसको आज पुकारें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       17दिसंबर, 2020

अहसासों के आँगन में।

अहसासों के आँगन में।   

शैय्या पर लेटे हुए पितामह
जब पीछे देखा जीवन में
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।

लोभ मोह जिद के आगे
कैसे जीवन उलझ गया
थे चले कभी संग संग जो
कैसे बिखरा औ विलग हुआ।

गिरी वहाँ जब शुचिता सारी
टूटी नैतिकता जीवन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

सिंहासन के इर्द गिर्द जब
गिद्ध बहुत मँडराते हैं
नीति ज्ञान सब सूने होते
घाव बहुत दे जाते हैं।

छोटे छोटे झगड़े कैसे
आग लगाते जीवन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

अनैतिकता जब करे नियंत्रण
नैतिकता के पैमानों को
बिखर सभी ढह जाती खुशियाँ
ध्वस्त करे सब अरमानों को।

बिखरी इच्छाओं में रहकर
उलझा जीवन अनबन में।
मन मे तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

विदुर नीति की बातें सारी
जब रिश्तों पर लगती भारी
जब झूठ प्रभावी होने लगता
और सत्य पर चलती आरी।

ज्ञान ध्यान सब व्यर्थ हुआ तब
अंधकार बढ़ा अंतर्मन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

सिद्धांतों की जब बलि चढ़ेगी
अनीतियों के आंगन में
तब छायेगा काला बादल
प्रलय मचेगी जीवन में।

अंत समय पछताना होता
लेती मौत जब आलिंगन में।
मन में तब अहसास हुआ
क्या खोया सबने उपवन में।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15दिसंबर, 2020



मैं हर पल गंभीर रहा।

मैं हर पल गंभीर रहा।   

कदम कदम पर जाने कितने
वारों का मैं पीर सहा
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

सूरज की पहली किरणों सह
मैं रोज सवेरे उठा किया
अपना जीवन जीने से पहले
औरों की खातिर जिया किया।

किया कभी औरों की खातिर
लेकिन कुछ भी नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

प्रेम नहीं तो फिर क्या था जो
इक दूजे को परख रहे
बिना कहे दूजे से कुछ भी
मन ही मन मे निरख रहे।

किया उजागर मैंने जब सब
क्या कुछ सबने नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

आँसू की कितनी ही बूंदें
पलकों पे आकर सूख गईं
कुछ आँसू को मिला सहारा
औ कुछ दामन से छूट गईं।

छूटे आँसू पलकों से जब
क्या कुछ दिल ने नहीं सहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

क्या कुछ करने की चाहत थी
सब जाने कैसे छूट गया
बहुत सँभाला मैैंने सबसे
देखा आईना, टूट गया।

घाव सहे मैंने टुकड़ों से
खुद से भी लेकिन नहीं कहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

शायद मैंने उम्मीदों से
ज्यादा का अनुमान किया
रिश्तों को जीने की खातिर
जीवन का अवसान किया।

अपनी शायद भूल यही थी
गुंचे में केवल फूल गुहा।
जितना सबने हलका समझा
उतना ही गंभीर रहा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       14दिसंबर 2020





जब देखा मैंने बचपन को।

जब देखा मैंने बचपन को।   

मोड़ कदम पीछे जब देखा
मैंने अपने बचपन को
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

वो माँ की गोदी उसका आँचल
श्वेत फेनिल रुई सा बादल
वो उसकी हल्की प्यारी थपकी
मुझे आज भी करती पागल।

अहसासों के आँगन में जब
देखा आज लड़कपन को
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

उँगली थामे चला पिता की
मन में ढेरों आस लिए
छोटी सी अपनी मुट्ठी में
सपनों का आकाश लिए।

रहा पिता के साये में जब
कोइ तोड़ सका ना बंधन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

देखा जब स्कूल पुराना
याद आ गया वही जमाना
कंधों पर बस्तों को टाँगें
कुछ अनजाना कुछ पहचाना।

श्याम पट के धुँधले अक्षर
याद दिलाते बचपन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

वो मित्रों के साथ घूमना
खुली राह में साथ झूमना
कभी मचलना, कभी झगड़ना
अगले ही पल साथ ढूंढना।

कितने भाव छुपे होते थे
उस झुठलाते अक्खड़पन को।
भूल गया इस जीवन के 
ना जाने कितनी अनबन को।।

जैसे जैसे उमर बढ़ रही
हम उलझ गए इस जीवन में
हमको ये मालूम ना हुआ
हम छोड़ चले क्या उपवन में।

आज स्वार्थ में उलझा जीवन
तोड़ रहा इस मधुवन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

कहीं पुराने दिन मिल जाते
उन्हें समेटता दामन में
औ मीठी मीठी यादों को
पुनः सहेजता आँगन में।

काश वही बचपन मिल जाता
फिर से जीता अल्हड़पन को।
भूल गया इस जीवन के
ना जाने कितनी अनबन को।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13दिसंबर, 2020



कबीर फिर से आ जाओ।

कबीर फिर से आ जाओ।  

भटक रही है दुनिया सारी
घिरी हुई है जंजालों में
बिखर रही है आज चेतना
लोभ मोह और सवालों में।।

ढाई आखर प्रेम यहाँ पर
भारी भरकम लगता है
घिसी पिटी पोथी में देखो
कैसा जीवन दिखता है।

आज भावना भटक रही है
वादों और खयालों में
लगता जीवन घिरा हुआ है
अवसादों के ज्वालों में।

बीनी कभी जो तुमने चदरिया
पैबंदों में लिपट रही है
ओढ़ के मैली वही चदरिया
कितनी साँसें सिमट रही है।

जाने ऐसा क्यूँ लगता है
भूख यहाँ पर सस्ती है
पत्थर वाली चकरी भी
उसे देख कर हँसती है।

रोज जगाने की खातिर
शोर यहाँ सब करते हैं
इक इक पल जीने की खातिर
रोज यहाँ सब मरते हैं।।

आज वक्त भी बाट जोहता
प्रश्नों का अंबार लिए
अब है कहाँ खड़ा कबीरा
मन में यही गुहार लिए।

भटक रहे इस जीवन को
राह दिखाने आ जाओ
जीवन का वो गुढ़ ज्ञान
फिर से समझाने आ जाओ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     12दिसंबर, 2020




बादलों के झुरमुट से।

बादलों के झुरमुट से।   

बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।
अलसाई सुबह का तब
रूप ये बदलता है।।

दूर इक कोने पर 
देखो लालिमा दिखती है
और दूजे कोने पर 
कालिमा भी छिपती है
आंखमिचौली का 
ये खेल देख कर 
दिल ये मचलता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।

तुम भी कभी देखो तो
निकल कर बगीचों को
और कभी खोल कर के
देखो मन के दरीचों को।
जाने कितनी चाहतों का
मन में सागर उमड़ता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।

आओ चलो मिल जाएं 
छोड़ सारे अँधियारे
और फिर खिलखिलायें
सुने पड़े गलियारे।
ज़िंदगी चहकती है तब
जब प्रेम ये पनपता है।
बादलों के झुरमुट से
जब सूरज निकलता है।।
अलसाई सुबह का तब
रूप ये बदलता है।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      10दिसंबर,2020


तुम्हीं कहो कि क्या करता।

तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

जीवन को जीने की खातिर
मैं जाने कितनी बार मरा
कभी सँभाला है खुद को
औ चक्रव्यूह में कभी घिरा।

चक्रव्यूह में उलझ गया जब 
लड़ूँ नहीं तो क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

मोड़ मोड़ पर नई कहानी
सुनी सुनाई कुछ अनजानी
कुछ ने कितने घाव दिए हैं
और सही कितनी मनमानी।

मलहम की आस नहीं जब
घाव दिखा मैं क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

गीत लिखे जितने भी मैंने
सब पन्नों में दबे रह गए
औरों ने तो सब कह डाले
मन की मन में घुटे रह गए।

बिखरी जब गीतों की दुनिया
साज सजा कर क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

संबंधों के अनुबंधों की
सब शर्तों को स्वीकार किया
लेकिन जीवन की चौसर पर
संबंधों को ही हार गया।

हार गया जब अपनों से ही
आस किसी से क्या करता।
निज जीवन रक्षण हेतु मैं
तुम्हीं कहो कि क्या करता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       09दिसंबर, 2020






ख्वाहिशें उम्र भर छलती रहीं।

ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।   

रास्ते भर ये जिंदगी स्वप्न में पलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

हम भी चले उस राह पर
जिस राह सारा जग चला
हम भी पले उस ख्वाब में
जिस ख्वाब सारा जग पला।

फिर हुई क्या चूक जो मंजिलें छलती रहीं।
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

हमने तो हर फर्ज अपना
सहज शिद्दत से निभाया
और कितने घाव झेले
पर नही किसको दिखाया।

अपनों की पर उँगलियाँ उम्रभर खलती रहीं
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

यूँ जले जिसके लिए हम
निज ख्वाहिशें सब खो पड़ीं
सुन के उसके प्रश्न सभी
मिरी आत्मा भी रो पड़ी।

थी अपनी भूल कोई आत्मा जलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्रभर छलती रहीं।।

अब वक्त को क्या दोष दूँ
ये कोइ अपनी भूल थी
और सीने में चुभी जो
अपनी जनी वो शूल थी।

शाम के इस धुंध में गलतियाँ खलती रही
साथ कितनी ख्वाहिशें उम्र भर छलती रहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       08दिसंबर, 2020



बचपन फिर से मिल जाता।

बचपन फिर से मिल जाता।   

काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।

फिर से वो तुतलाती बोली
फिर से वो मस्ती की टोली
इक दूजे संग साथ मे चलना
आंख मिचौली, हँसी ठिठोली।

फिर से भोलापन मिल जाता
फिर वो अल्हड़पन मिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

तृष्णाओं का भार नहीं था
दूषित कुछ व्यवहार नहीं था
दुग्ध समान श्वेत भाव भरे
रहस्यमय संसार नहीं था।

काश वही चेहरे मिल जाते
स्कूलों के दिन आ जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

शुद्ध सरस जीवन था अपना
मृदुल शरद सा उपवन अपना
अधरों पर मुस्कान सजी थी
नैनों में बस सुन्दर सपना।

काश वही सपने मिल जाते
और वही अपने मिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

अब तो ऐसी होड़ मची है
बचपन की वो डोर छुटी है
हर चेहरा कुम्हलाया है
संबंधों की डोर टुटी है।

डोर छुटी जो फिर मिल जाते
मुरझाईं कलियाँ खिल जाते।
काश पुराने दिन आ जाते
बचपन फिर से मिल जाते।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07दिसंबर, 2020


मधुयामिनी।

मधुयामिनी।

एक सुनहरी चाँदनी
बिखरी यहॉं चहुँओर है
पाश में तेरे मुझे
आकर मिला इक ठौर है।

है सुनहरी रात जब
फिर कौन सोएगा यहाँ
संग अपने देखना
ये रात जागेगी यहाँ।

प्रीत की ये वो घड़ी 
जो रोज आती है नहीं
और इसकी खुशबुएँ
अवसान तक जाती नहीं।

आज अपनी रात के
चाँद तारे हैं बराती
और उनकी रश्मियाँ
भावनाओं को जगाती।

पूर्णिमा का चाँद भी
यूँ देख फीका हो रहा
और तेरे रूप के
इस तेज में वो खो रहा।

पर मुखर होकर यहाँ
इक छाँव हमको दे रही
ग्रीष्म की प्रचंड धूप 
जैसे कि ठंडी हो रही।

नीड़ में सब पखेरू
भर रात चहकेंगे यहाँ
और पुष्पावली से
ये रात महकेगी यहाँ।

डूब जाएं हम यहाँ
एक दूजे को सौंपकर
एक हो जाएं यहाँ
बंधनों को तोड़कर।

आज अपनी प्रीत से
नवगीत का निर्माण हो
झूम उठे चाँदनी
नव रीत का प्रमाण हो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07दिसंबर,2020

तुम आये जीवन में मेरे।

तुम आये जीवन में मेरे।    

लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।
और भटकते भावों को
इक नूतन अध्याय मिला।

मुक्त विहग पंछी था मैं तो
तुम आये आकाश मिला
शीतल छाया मिली गगन में
जीवन को विश्वास मिला।

शून्य हृदय में उल्लास जगा
खुशियों का अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

उर से उर की बँधी डोर जब
जीवन को एहसास मिला
पावस के प्यासे पपिहे को
बूंदों का मधुमास मिला।

पंख लगे भावों को मेरे
शब्दों को अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

तेरे अधरों के थिरकन से
जीवन ये संगीत हुआ
तेरे उर के स्पंदन से
पूर्ण मेरा ये गीत हुआ।

प्रेमपुंज जीवन के मेरे
राहों को अध्याय मिला।
लक्ष्यहीन जीवन था मेरा
तुम आये पर्याय मिला।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      06दिसंबर, 2020

मन मधुप है डोलता।

मन मधुप है डोलता।    

बात छोटी है मगर
कैसे कहूँ दिल सोचता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

संग तेरा हर घड़ी
पाथेय मेरी बन खड़ी
और मेरी राह में
जुड़ने लगी नूतन कड़ी।

उस कड़ी के पाश को
प्रति पल यहां मैं खोजता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

तिरी ये अनुरागियाँ
हर पल खिली मधुमास सी
और वो आसक्तियाँ
प्राणों में उच्छ्वास सी।

गीत का वो राग तुम
हर पल जिसे मैं सोचता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

सूक्ष्म जीवन की घड़ी
औ दीर्घ सपने हैं यहाँ
जो मिला साथ तेरा
तो जीत लूंगा मैं जहॉं।

तुमसे स्मृतियाँ मेरी
पाथेय बन दिल जोहता
संग तेरे प्राप्ति को
ये मन मधुप है डोलता।।

✍️©अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05दिसंबर, 2020



एक तेरा साथ।

एक तेरा साथ।   

चल दिए जब साथ तेरे
मुझे फिक्र की क्या बात है
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

हमने तेरी राहों में ही
स्वप्न फूलों के बुने हैं
और तेरी प्रीत में ही
फूल खुशियों के चुने हैं।

कांटों से फिर कैसा डरना
जब हाथ में ये हाथ है।
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

मैंने अपनी जिंदगी अब
नाम तेरे है लिखी
मुझको तेरी राहों में ही
राह अपनी है दिखी।

तेरे चेहरे की चमक से
रोशन मेरी हर रात है।
क्या करूंगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।। 

मेरे जीवन में तुम आये
हसरतें सब खिल गईं
जिंदगी की सारी खुशियां
चाहतें सब मिल गईं।

दिन रात मेरी है दुआ अब
जन्मों का अपना साथ हो।
क्या करूँगा जानकर मैं
अब दिन है या कि रात है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04दिसंबर,2020


सागर की लहरें।

   

सागर की लहरें।   

शांत समंदर की लहरें
कितना कुछ जाती हैं
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।

जाने कितना द्वंद लिए वो
अपने भीतर रहता है
आती जाती लहरों से भी
ना सुनता ना कहता है।

कभी टूटता है जब भी
तब ही ज्वार उठाती है।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

जाने कितनी ही नदियों को
आकर मिलते देखा है
नदियों का मीठा जल हमने
खारा होते देखा है।

शायद नदियाँ सागर से मिल
आँसू की धार बहाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

नील गगन के छाँव तले
देखो तो नया सवेरा है
क्यूँ सागर की लहरों पर
रातों का दिखे बसेरा है।

तूफान छुपाए भीतर अपने
हमको जीना सिखलाती हैं।
ऊपर चाहे नीरवता हो
भीतर संग्राम मचाती हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       04दिसंबर, 2020


राह अकेली।

राह अकेली।     

आज चली है राह अकेले
मिलने इक दीवाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

मुझको रोक नहीं सकते हैं
राहों में कोई बाधाएं
मुझको टोक नहीं सकते हैं
संवादों की अब सीमाएं।

किंतु-परन्तु से ऊपर उठकर
बस खुद को बहलाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

दुनिया ने कितने दांव चले हैं
धूप जली है पांव जले हैं
बनकर कितने हमराही
पग पग पर हर बार छले हैं।

छल कपट औ षडयंत्र को
पथ से आज मिटाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

दिल से दिल का मेल नहीं जब
इच्छाएं फिर क्या करना
आपस में हो प्रेम नहीं जब
उम्मीदें फिर क्या करना।

ऐसे सारे संबंधों को
चला आज भुलाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

लोभ, मोह, माया की दुनिया
से दूर बहुत मुझको जाना है
नहीं किसी से रही कामना
अब खुद को ही अपनाना है।

बहुत तपा औरों की खातिर
अब खुद को अपनाने को।
आज चला हूँ फिर से लिखने
दिल के इक अफसाने को।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03दिसंबर, 2020

प्रेम ग्रंथ।

प्रेम-ग्रंथ।    

तुम्हीं मेरे जीवन की सुबह
तुमसे ही मेरी शाम है
तुमसे सारा दिवस खिला है
खिली तुम्हीं से रात है।

तुम्हीं मेरे साँसों की सरगम
मन के वीणा की तान हो
प्राणवायु तुम मेरे प्रियवर
तुम ही जीवन का गान हो।

संग तेरा काशी सा पावन
कण कण मथुरा औ वृंदावन
तेरे आलिंगन में मुझको
पतझड़ भी लगता है सावन।

तुम बिन कुछ भी सोचूं मैं
ये मुझको मंजूर नहीं है
आओ कह दें सारे जग से
प्रेम हमारा मजबूर नहीं है।

इस दुनिया में जब जब भी
कोई प्रेम ग्रंथ लिखा जाएगा
सच कहता हूँ हर पन्नों में
नाम हमारा ही आएगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      02दिसंबर, 2020








सफल साधना।

सफल साधना।   

घना अँधेरा दिल में जब तक
उगता सूरज क्या करता
चाहे जितनी किरण बिखेरे
कुहरा धीरे ही हरता।

मन में जैसा भाव बने है
वैसा ही फल मिलता है
शूल बिखेरे पथ में दूजे
अपना पथ भी छलता है।

कोरी कोरी बातों से
बदलाव नहीं है आ पाता
तपे आग में सोना जब ही
सारे जग को तब है भाता।

प्रेम भावना त्याग समर्पण
जीवन की मौलिक पूंजी हैं
इनमें ही संस्कार पले हैं
यही सत्कारों की कुंजी हैं।

शुद्ध भाव जब मन में होगा
कुशल आराधना हो पाएगी
जीवन को सम्मान मिलेगा
सफल साधना हो पाएगी।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      01दिसंबर, 2020




व्हाट्सएप्प सत्संग।

व्हाट्सएप्प सत्संग।  

देख मची सत्संग वहां भी
लोभ जहां पर देखा है
और शिकन उन माथों पर भी
जिनकी किस्मत की रेखा है।

इक दूजे को ज्ञान बाँटते
कितनों को हमने देखा है
खुद के भीतर उनको लेकिन
नहीं झांकते देखा है।

आज भर रहे फोन सभी
कितनी ही प्यारी बातों से
फिर न जाने क्यों उड़ रही
रातों को नींदें आंखों से।

फ़ेसबुक व व्हाट्सएप्प मंच
ज्ञान बहुत ही देते हैं
लेकिन जाने अनजाने में
वक्त बहुत ले लेते हैं।

जिन लम्हों में परिवारों सह
वक्त बिता सकते हैं सारे
उन लम्हों में देखो अब तो
बैठे केवल फोन सहारे।

जिन बातों से यहाँ प्रभावित
हो ज्ञान मुखर सब भेज रहे
जो उनको अपना लें सारे
तो आपस में बस नेह रहे।

वक्त फोन से थोड़ा कम कर
परिवारों में जो मिलते हैं
उनका जीवन सुखमय रहता
संस्कारों से वो खिलते हैं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01दिसंबर, 2020






प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...