उम्मीदों की लाली

उम्मीदों की लाली।  

मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली
उदास दिवस रहेगा कब तक
क्यूँ रात रहेगी काली।।

देख रहा सूरज को मैं भी
हर रोज गगन में तपते
रातों को भी देखा हमने
बस सूरज को ही तकते।
रातों के सूनेपन की भी
करती किरणें रखवाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

शब्द शब्द अधरों से छनकर
गीत सुनहरे बन जाते
भावों का परिधान पहनकर
रूप मनहरे बन जाते।
मनहर गीतों ने महकाई
है मन उपवन की डाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

ढूँढ़ रहा भावों में जीवन
भटक रहा मारा मारा
घनी अँधेरी इन रातों में
किरणें ही बनीं सहारा।
रातों के इस सूनेपन ने
किरणों से आशा पाली
मुक्त गगन में खोज रहा हूँ
इक उम्मीदों की लाली।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       31मई, 2021

अधरों का पुष्प।

अधरों का पुष्प।   

तुम जब भि साथ रहते हो मुझे कोई गम नहीं होता
मिला जो कुछ भी मुझे तुमसे कभी भी कम नहीं होता
कहे कुछ भी कोई लेकिन यही समझा है मैंने की
मोहब्बत करने के लिए कोई मौसम नहीं होता।।

तुम्हारा साथ मुझे पल पल यही अहसास देता है
सुरक्षा का समर्पण का हरपल मुझे आभास देता है
तुम्हारे साथ हि अब हमने लिखी अपनी कहानी है
तुम्हें देखूँ मैं जब जब भी मुझे विश्वास होता है।।

तुम्हारी चाह का दीपक हमेशा दिल में जलता है
तुम्हारे जिक्र से हरपल सुकून दिल को मिलता है
खिलते होंगे हजारों पुष्प भले ऋतुओं की मर्जी से
मगर अधरों का ये पुष्प तेरे अधरों से खिलता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मई, 2021

उम्र का सफर।

उम्र का सफर। 

हाय मुझे ऐसे मत देखो
ये दिन तुम पर भी है आना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

उम्र से अपनी होड़ मची है
कदम कदम पर डोर जुड़ी है
चला जा रहा हूँ राहों पर
मुड़ा जहाँ पर छोर मुड़ी है।
मेरे बालों की चाँदी में
छुपा जहाँ का मुक्त खजाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

माथे पर ये खिंची लकीरें
और चेहरों की रेखाएँ
पल पल कहती एक कहानी
अनुभव की गाती गाथाएं।
माथे की सिलवट से ही
मैंने जग को है पहचाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

माना मेरे दाँत गिर रहे
और कमर में दर्द उठ रहा
अब पैरों में भी कंपन है
और आंखों से कम दिख रहा।
तन की सुंदरता से ज्यादा
मन को मैंने है पहचान
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

रात दिवस का खेल सभी है
एक उगा तो एक ढली है
माना अलग अलग राहें हैं
इक दूजे से सभी मिली हैं।
मिली जुली इन्हीं राहों पर
जीवन का है ताना बाना
गुजर रहा मैं जिन राहों पर
इक दिन तुमको भी है जाना।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मई, 2021

दीवाना।

दीवाना। 

ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा
कहा कुछ भी नहीं लेकिन ये कब अफसाना बन बैठा।।

तुम्हीं आते हो नजर मुझको के इन कलियों नजारों में
तुम्हारी खुशबू है फैली इन फिजाओं में बहारों में
जो यहाँ तुम हो शमा इक तो मैं भी परवाना बन बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

तुम्हारी चाहतों का दीपक जलाकर दिल में बैठा हूँ
तुम्हारे स्वप्नों से मैं स्वप्न मिलाकर अपने बैठा हूँ
ये मेरा दिल भी जाने कब भरोसा तुमपे कर बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

तुम्हीं से हो शुरू तुम तक ये कहानी मेरी जाती है
मेरी हर साँस की सरगम बस तुम्हारे गीत गाती है
तुम्हीं हो इस साँस की वीणा तुम्हें धड़कन बना बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

कहूँ अब और क्या तुमसे के फकत इतनी ही कहानी है
कि अब तुमसे ही मेरे जीवन की दरिया में रवानी है
जो तुम सागर की लहर हो तो किनारा मैं भी बन बैठा
ना जाने कब तेरी नजरों का मैं दीवाना बन बैठा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मई, 2021

वक्त कब ठहरा है।

वक्त कब ठहरा है।   

गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब, जो ठहरेगा
रहा अधूरा गीत कोई तो
नया गीत कैसे पनपेगा।।

काली घटा घिरी गगन में
रिमझिम तेज फुहारें आईं
अगले ही पल बादल में
किरणों की सौगातें आईं।
रुके नहीं काले बादल जब
तूफान यहाँ कब ठहरेगा
गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब जो ठहरेगा।।

सही वक्त को शस्त्र बनाओ
गीत रचो नव गीत बनाओ
सुखन किरण मिले कहीं जब
आशाओं के दीप जलाओ।
माना सुख के पल छोटे थे
तो दुख भी कितने दिन ठहरेगा
गीत सुनाते चलो बटोही
वक्त रुका कब जो ठहरेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मई, 2021






पहचान।

पहचान।  

किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो
सबकी अपनी बातें हों औ
सबकी एक कहानी हो।।

जीवन का पथ चाहे मुश्किल
या कितनी ही बाधा हो
चलें निरंतर विश्वासों से
पूर्ण सभी अभिलाषा हो
जिस जिस पथ पर कदम पड़े हों
सब पर अमिट निशानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

बीते पल की सारी बातें
छोड़ पुरानी आघातें
बनकर दीप जले राहों में
रोशन हों अँधियारी रातें
छँटे अँधेरा उम्मीदों से
सस्मित सभी कहानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

यहाँ समर में सभी डटे हैं
जीवन का अहसास लिए
सभी अड़े हैं तूफानों में
मुट्ठी में आकाश लिए
सबकी अपने कर्तव्यों की
गुंजित सदा कहानी हो
किसने कब चाहा है जग में
के पहचान पुरानी हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021


संगिनी।

संगिनी।   

रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए
उर में अपने मधुर स्वप्न ले
खुशियों का आकाश लिए।।

छोटे छोटे पल की सारी
यादों को अनुशासित कर
अपने हृद के मृदु भावों को
दूजे में विस्थापित कर
मन में भरकर सपन सुहाने
पलकों में मधुमास लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

सखियाँ छूटी गलियाँ छूटी
अल्हड़पन की बतियाँ छूटी
खेल खिलौने हुए पुराने
बीती सारी बतियाँ छूटी
नूतन शब्दों की आहट ले
प्रीत रीत का अनुप्रास लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

जीवन के हर इक पथ पर 
एक दूजे संग चलना है
फूल मिले या काँटे पथ में
हँसकर आगे बढ़ना है
एक हाथ कर्तव्य निभाते
दूजा मधु आकाश लिए
रीत निभाने चली संगिनी
भावों का विन्यास लिए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021


व्याकुल मन।

व्याकुल मन।  

ऐ मेरे मन मुझे बता दो तुझमें छिपा जो राज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

कितनी गहरी दुनिया तेरी
थाह कहाँ से मैं पाऊँ
कैसे समझूँ दर्द तेरा मैं
और तुझे क्या समझाऊँ।।
तुम ही बोलो मौन हुआ क्यूँ पपीहे का वो राग
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

कई बार टकराया तुझसे
पर राज समझ ना आया
कितने ही पल तुझे पुकारा
पर पास तुझे ना पाया।।
कैसा दर्द मिला है तुझको ये मुझे बता दो आज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

नैनों के कोरों पर कितनी
तरल तरंगें विचलित हैं
भावों को कहने को कितनी
मौन लकीरें मुखरित हैं।।
आज मुखर हो मुझसे कह दो तुझमें छिपा जो राज
क्यूँ व्याकुल हो रहा चित्त और मौन पड़ा क्यूँ साज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मई, 2021
       



प्रणय भाव।

प्रणय भाव।  

मेरे सूने अंतर्मन पर सुधि बनकर छा जाता 
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

पलकों में अपने भर करके नवल नेह का काजल
आँचल में अपने भरकर के आशाओं के बादल
स्मृतियों के सूनेपन को हौले से सहला जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

कभी सजाता सपन सलोने कभी आस की ज्योती
कभी मधुर मधुमास जगाता कभी प्रेम के मोती
नैनों की चितवन से फिर नूतन राह दिखा जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता।।

मूक वेदना को स्वर देता श्वाशों में मृदु कंपन
अधरों पर मुस्कान जगाता दे हौले से चुंबन
मधुर स्वरों में गीत सजा अंतस को बहला जाता
ऐसा कोई होता जो प्रणय भाव समझा जाता। 

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24मई, 2021


एक दर्द।

एक दर्द। 

दर्द आँखों में छुपा जो दिखाऊँ कैसे
बात जो दिल में चुभी है बताऊँ कैसे।।

तुम भी हो हम हैं औ जमाने का चलन भी
घाव पर जिससे मिला है निभाऊँ कैसे।।

तुम तो कहते थे के ना रूठोगे कभी
अब जो रूठे हो तुम तो मनाऊँ कैसे।।

गीत कितने ही लिखे हैं तुम्हारी खातिर
बिन तेरे कह दो तुम्हीं कि गाऊँ कैसे।।

कैसे कह दूँ के अब मुझे कुछ याद नहीं
पल जो गुजरे तिरे संग मैं भुलाऊँ कैसे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23मई, 2021

प्रभु की आराधना।

प्रभु की आराधना।  

छोड़ दी मँझदार में ये नाव अब तेरे सहारे
है ये तेरे हाथ में कैसे मुझको तू उबारे
तू ही मेरी आस है औ तू मेरा विश्वास है
अब डुबो दे तू मुझे या पार मुझको तू उतारे।।

इस जिंदगी के युद्ध में हरपल तू मेरे साथ है
जो तू कह दे दिन हैं मेरे तू कहे तो रात है
तेरे दया के दीप से जगमगा रही है जिंदगी
मुझको क्या चिंता के मेरे सर पे तेरा हाथ है।।

आप ही हो अर्चना और आप ही आराधना हो
आप ही चिंतन हो मेरा औ आप ही साधना हो
आपसे ही हैं जुड़ी हर श्वासें जीवन की मेरे
जब उठे हाथ मेरे प्रभु बस आपकी अरचना हो।।

छोड़ दी मँझदार में ये नाव अब तेरे सहारे
है ये तेरे हाथ में कैसे मुझको तू उबारे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19मई, 2021

अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।

अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

गा लिए तुमने सभी क्या गीत थे जी भी सुरीले
शब्दों के तूणीर में क्या बस बचे तेरे शोले
है ये कैसी वेदना और कैसा ये उन्माद है
आरती के क्षण ने देखे युग विरह के क्यूँ हठीले।
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

हैं आज फिर बरसे नयन से शब्द की क्यूँ वेदना
और विस्मृत हो गयी क्या वो मुक्तिकामी चेतना
प्रेम के इस मौन क्षण में व्योम हैं कैसे हठीले
खो गए अवसाद में क्या रूप जो तेरे सजीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

ज्वार के क्षण में भी तुमने बस प्रेम आलिंगन दिए
औ नेह का वटवृक्ष बनकर छाँव आवंटन किये
खो गए क्यूँ नेह के सब ओस सारे जो रसीले
और विस्मृत हो गए क्यूँ कंठ के वो स्वर सुरीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

जिस अहसास के स्पर्श से मधुमास था जागा कभी
जिस हृदय के अंक में मृदु श्रृंगार था जागा कभी
और जिसके अनुराग का संसार नतमस्तक रहा
उस हृदय के अंश में क्यूँ आज आये अश्रु गीले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

बाँट कर आकाश सारा जो स्वयं किंचित में रहे
पंथ के हर शूल को भी जो स्वयं पुलकित हो सहे
वेदना का भार सभी मौन जिसने हो के झेला
उसके अंतस में जगे क्यूँ दर्द के ये मौन शोले
अर्चना के क्षण चुभे हैं शब्द ये कैसे नुकीले।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

व्यथा रात की।

व्यथा रात की।   

जो व्यथा थी रात की कब भोर ने समझा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।

बाँचती अपनी व्यथा कब रात जाने सो गयी
भोर की आगोश में घिर स्वयं को ही खो गयी।
खो गए संकल्प सारे जो किये उसने कभी
रात के अवशेष में ही आस नूतन फिर जगी।

छिप गये ख्वाब कितने मौन इन परछाइयों में
खो गए संवाद क्या वक्त की गहराइयों में
मौन के उस घाव को फिर कौन समझेगा यहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

दर्द मिला जो रात को सब दिवस का ही दंश है
और टूटी आस जो निज गलतियों का अंश है
छोड़ कर अफसोस सारे आस का दीपक जला
औ तिमिर के ज्वार में भी ज्ञान का दीपक जला।

है समय की बात ये सब बीतता जीवन यहाँ
और उसके तेज से कुछ छूटता है कब यहाँ
पर घुटी जो मौन में अब चीख है जाने कहाँ
जो जली थी रात भर वो मोम है जाने कहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18मई, 2021

कैसे समझाओगे।

कैसे समझाओगे।   

जीवन रचने वाले बोलो 
कैसे अब समझाओगे
भटक चुकी राहों को बोलो
क्या नूतन राह दिखाओगे।।

युगों युगों में लगकर तुमने
सुंदर जीवन निर्माण किया
औ कितनी ही आशाओं से
फिर उसमें नूतन प्राण दिया।
खग, मृग, और पशु पक्षी सारे
सब नव जीवन की आशा हैं
इक दूजे से सभी जुड़े हैं
जुड़ी सभी की अभिलाषा है।
अभिलाषा के मूल तत्व को
फिर फिर क्या बतलाओगे
नूतन जीवन रचने वाले
कैसे अब समझाओगे।।

गगन बनाई धरा बनाये
दरिया औ सागर मिलवाये
झील ताल और पर्वत कितने
झरने मीठे गीत सुनाए।
दिवस बनाई रात बनाये
ऋतुओं का मधुमास खिलाये
जन जन का जीवन पुलकित कर
उपवन का वनवास मिटाए।
घाव मिल रहे जो उपवन को
बोलो कैसे दिखलाओगे
नूतन जीवन रचने वाले
कैसे अब समझाओगे।।

पाप और पुण्य बनाकर के
जीवन को इक रूप दिया है
कभी दिए हैं छाँव कहीं पर
और कहीं पर धूप दिया है।
पर निज इच्छा की खातिर 
गहन अंध में डूब रहे जो
प्रकृति के सभी उपहारों को
रह रह करके लूट रहे जो।
लूट रहे इन उपहारों को
फिर बोलो कौन बचाएगा
जो आवरण में छुप गये तुम
फिर दीपक कौन जलाएगा।।
गहन अंध में डूबे मन को
तुम ही राह दिखाओगे
जीवन रचने वाले बोलो
कैसे अब समझाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मई, 2021




अवरोधों का राही।

अवरोधों का राही।  

मुश्किल हैं राहों में माना 
पर तुझको तो चलना होगा।।

मन की भाषा पढ़ने को
मन से मन को आज मिला लो
गुजर रही इस बेला में
पुष्प नया फिर आज खिला लो।
हो मनुज तो मनुजता का
भाव हृदय में आज जगा लो
गीत रागनी छेड़े जब जब
अपनी भी आवाज मिला लो।

त्याग, समर्पण, प्रेम, भाव
संवाद हृदय में पलना होगा
मुश्किल हैं राहों में माना
पर तुझको तो चलना होगा।।

ये जिंदगी एक गीत है
औ रागिनी है प्यार की
साथ तेरे कट रही जो
है रुत वही बहार की
राग में जो बीतती है
उस जिंदगी का अर्थ है
औ रात वो जो घट चुकी
अब शोक उसका व्यर्थ है।

हैं भाव हृदय में जो तेरे
आज उसे कहना होगा
मुश्किल हैं राहों में माना
पर तुझको तो चलना होगा।।

सहज भाव है अभिव्यक्ती है
जीवन ही तेरी शक्ती है
होंगे अगणित मार्ग सभी के
उद्द्यम ही तेरी भक्ती है।
दूर शिखर तक जाना तुझको
तरुणाई अभि बाकी है
दुर्गम राहों को गढ़ने में
तू ही तेरा साथी है।

अपना साथी बनकर तुझको
अवरोधों से लड़ना होगा
मुश्किल है माना राहों में
पर तुझको तो चलना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021




जंग अभी भी बाकी है।

जंग अभी भी बाकी है।  

थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है
अभी तो केवल चित्र बने हैं
रंग अभी भी बाकी है।

छोटी छोटी उम्मीदों का
है भार तुम्हारे काँधों पर
कितनी ही आशाओं का
अनुमान तुम्हारे काँधों पर।

अगणित पलकों में सपने हैं
इंतजार अभी भी बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

तुमने जो उद्देश्य चुने हैं
दुष्कर हैं अत्यंत माना
दृढ़ इच्छाशक्ती ने तेरे
अवरोधों को कब पहचाना।

मार्ग के सभी अवरोधों का
आलिंगन अब भी बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

बने बिगड़ते इस जीवन में
तेरा भी तो हिस्सा है
होगी सबकी लाख कहानी
तेरा भी कुछ किस्सा है।

अपने हिस्से के किस्से की
पहचान बनाना बाकी है।
थक कर बैठ नहीं तुम जाना
जंग अभी भी बाकी है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021


तीन बाल कविताएँ।

तीन बाल कविताएँ

बिल्ली बोली म्यायूँ म्यायूँ
कौआ बोले काँव काँव
हाथी बोला सूंढ़ उठाकर
चलो घूमने गाँव गाँव।।1।।

बंदर मामा चले घूमने
ले झोला शॉपिंग मॉल में
देख मिठाई जी ललचाया
बैठ गए वहीं हॉल में।।

एक मिठाई उठा लिए जब
मालिक ने पैसा माँगा
मुँह चिढ़ा कर बंदर मामा
फिर झोला लेकर भागा।।2।।

लोमड़ मौसी चली घूमने
आज शहर की ओर
सूट बूट औ चश्मा पहने
लगीं खूब मचाने शोर।।

सुनकर शोर आयी पुलिस
डंडा लेकर हाथ में
और पकड़कर पुलिस ले गयी
उनको अपने साथ में।।

उठक बैठक उन्हें कराई
और फिर वसूली फीस
बेचारी कुछ कह ना पाईं
चुपचाप निपोरी खीस।।3।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मई, 2021


नूतन जीवन।

नूतन जीवन।  

साँसों पर कैसा पहरा है
संताप यहाँ क्यूँ गहरा है
क्यूँ जंजीरें है पैरों में
ये सन्नाटा क्यूँ पसरा है।

उम्मीदों के आकाशों पर
ये आशंका क्यूँ भारी है
क्यूँ सहमे सहमे लोग पड़े
है कैसी ये लाचारी है।

सन्नाटे अब चीख रहे हैं
आवाजें अब मौन पड़ी हैं
मंजिल मंजिल राह चली जो
अवरोधों में रुकी पड़ी है।

रुकी कहानी मध्यांतर में
उसको फिर से कहना होगा
अवसादों से बाहर आकर
नूतन जीवन रचना होगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021


मौन मुसाफिर मेले में।

मौन मुसाफिर मेले में।  

इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।

इन राहों में भीड़ बहुत है
कहने को तो नीड़ बहुत है
बहुत दूर तक सफर घनेरे
मंजिल तक कितने हैं फेरे।
इन फेरों के चक्रव्यूह में
संग संग सबके मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

इच्छाओं का भार लिए सब
मंजिल मंजिल भटक रहे हैं
कुछ को छाँव मिली राहों में
कुछ तापों में चिटक रहे हैं।
धूप छाँव के खेल में घिरा
छोटी अभिलाषा मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

होंगे सबके लाखों सपने
है अपना बस अरमान यही
रहती दुनिया के गीतों में
हो छोटा सा ही नाम सही।
आशाओं के इस मेले में
इक दीप जलाए मैं भी हूँ
इस दुनिया के मेले में
इक मौन मुसाफिर मैं भी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        15 मई, 2021

नूतन इतिहास रचना है।

नूतन इतिहास रचना है।  

नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा
नहीं जानने की चाहत है
साथ हमारे कौन पलेगा।

अनजानी उन राहों में भी
कुछ तो सत्य छिपा होगा
राह भले दुर्गम हो कितनी
मौन कोई चला तो होगा।
दुर्गम देख राह जो बदली
फिर बोलो के कौन चलेगा।
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

अगणित प्रश्नों के नश्तर से
रुख अपना मोड़ नहीं सकता
नाकामी से डरकर के मैं
ये रस्ता छोड़ नहीं सकता।।
छोड़ दिया जो राहों को फिर
तुम ही बोलो कौन चलेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

माना राहें ये मुश्किल हैं
पर इनपर तो चलना होगा
लोग चले हों पदचिन्हों पर
पदचिन्ह नया रचना होगा
इतिहासों को दोहराएँ तो
इतिहास नया कौन रचेगा
नहीं जानने की इच्छा है
साथ हमारे कौन चलेगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14मई, 2021

दिल का दर्द।

दिल का दर्द।  

जग के तानों से आहत हो
पलकों से सागर बहता है
जब चोट हृदय पर लगती है
औ दंश हजारों सहता है
जब मन के भीतर शब्दों का
इक सागर मंथन करता है
तब दर्द उमड़ कर जगता है
दिल खुद से बातें करता है।।

अपने जब नाते तोड़ चलें
औ बीच राह जब छोड़ चलें
जब उम्मीदें बेमानी हों
जब बीती सभी कहानी हों
जब नींद आँख को छोड़ चले
सपने भी पलकें छोड़ चलें
मन गीत नया फिर रचता है
दिल खुद से बातें करता है।।

विरह वेदना के सागर में
अंतस का दीपक रोता है
जब चोट कहीं भी लगती है
और दर्द हृदय में होता है
जब शब्दों की फुलवारी से
कोइ मौन शब्द बिछड़ता है
तब पीड़ा सहने की खातिर
दिल खुद से बातें करता है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13मई, 2021


तराना प्रेम का।

तराना प्रेम का।  

प्यार में दो कदम तुम चलो तो सही
बात दिल की कभी तुम कहो तो सही।
है ये वादा मेरा हर घड़ी साथ हूँ
कभी यूँ ही जरा तुम मिलो तो सही।।

प्रीत की रीत कितनी सुहानी यहाँ
लोकगीतों में सुनी कहानी यहाँ
हीर राँझा कहो सोहनी महिवाल
याद सबके लवों पर जुबानी यहाँ।।

चलो हम तुम गढ़ें इक नया प्रेम ग्रंथ
चलो हम तुम रचें इक नया प्रीत पंथ
जिसपे चल कर जहाँ ये सुहाना लगे
और गूंजे दिलों में नया प्रीत मंत्र।।

तुम चलो हम चलें फिर उसी राह पर
गीत नूतन लिखें हम उसी राह पर
हर लवों पर हमारे फसाने रहें
सदियों तलक गूँजते  तराने रहें।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
        13मई, 2021

पिता।

पिता।  

जिंदगी की धूप में चुपचाप कोई चल रहा है
देकर के हमको छाँव ताप में खुद जल रहा है।
चट्टान सा है सख्त पर भीतर से वो मोम है
पुण्यता का है प्रतीक और मंदिरों का ॐ है।
अनुभवों का ज्ञान है और प्रेम है विश्वास है
नन्हीं नन्हीं उँगलियों के आस का आकाश है।
रास्तों की धूप में वटवृक्ष की शीतल छाँव है
तूफानों को चीर दे उम्मीद की वो नाव है।
हालात कैसे भी रहे उफ नहीं करते यहाँ
पैर के छालों को हरदम फूल वो समझे यहाँ।
बैठ कर काँधों पे जिनके देखा है हमने जहाँ
स्वेद बूंदों से भी जिनके मृदुलता बरसे यहाँ।
मंजिलों को नापने को ताउम्र जो चलते रहे
औ जिनके काँधों पर मासूम स्वप्न पलते रहे।
जिनके पलकों की नमी देव भी न देख पाए
औ जिनके हौसलों को मुश्किलें न रोक पाए।
जिसने सिखलाया हमें के क्या बुरा है क्या भला
अनुभवों के छाँव तले वक्त जिनके हरदम पला।
जिसने सबको है सिखाया पंथ प्रतिपल जीत का
पाठ प्रतिपल है पढ़ाया मनुष्यता से प्रीत का।
जिसने सिखलाया है सदा मूल मंत्र बस कर्म का
जिसने दिखलाया है हमें राह प्रतिपल धर्म का।
उपनिषद हैं वेद हैं गीता का पूरा सार हैं
कहने को बस पंक्ति है पर शब्दों का संसार है।
संतान के सुख के लिए जो हर दर्द भूल जाते हैं
वो पिता ही हैं जो जिम्मेदारियाँ निभाते हैं।
जिसकी इक मुस्कान से ही खिल उठे सारे चमन
पिता के निश्छल प्रेम को शत शत है अपना नमन।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
         हैदराबाद
         12मई, 2021




अजनबी रात अपनी हो गयी।

अजनबी रात अपनी हो गयी।  

अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है
ख्वाब में थी बात की जो
बात अपनी हो गयी है।।

तुम जो आये जिंदगी में
ख्वाब में उड़ने लगे हम
साथ तेरे गीत कितने
प्रीत के बुनने लगे हम।
कल तलक जो दूर हमसे
साज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

दो नैनों ने कह डाली
मन की वो सारी बातें
तुम बिन कैसे दिवस ढले
कैसे काटी हैं रातें।
कल तलक जो बेगानी थी
रात अपनी हो गयी है।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

चाहता है दिल हमारा
ये रात यूँ सजती रहे
चाँदनी का ये सफर अब
यूँ साथ ही चलती रहे।
दिल में अभी तक जो छुपे
राज अपने हो गए हैं।
अजनबी थी रात कल जो
आज अपनी हो गयी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        10मई, 2021

राहों की धूल।

राहों की धूल।   

कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं
कभी न कहना उन बातों को
जिनका कोई मूल नहीं।।

सुन कर जन की विरह वेदना
मूक शब्द रह जाएं जब
और देख कर जन की पीड़ा
मौन नयन रह जाएं जब 
ऐसे व्यवहारों का जग में
रहता कोई मोल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जग के सारे संतापों में
जिनको अवसर दिखता है
और जहाँ के अवसादों में
मौका अकसर दिखता है
उन लोगों से बचना जिनके
हृद में चुभती शूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

समय चक्र का खेल है सारा
कौन यहाँ कब रुकता है
आज चढ़े जो आकाशों पर
उनका सिर भी झुकता है
झुका शीश जो कभी कहीं तो
उसको समझो भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

जीवन की गोधूली बेला 
कितना अनुभव देती है
पथ के सारे किंतु परन्तु को
वो संभव कर देती है
धूल नहीं माथे का चंदन
समझो इसको भूल नहीं।
कभी न चलना उन राहों पर
जिन पर उड़ती धूल नहीं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मई, 2021

इक सरल अनुवाद

इक सरल अनुवाद।   

ढूँढता हूँ पंक्तियों में मोक्ष का संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

यूँ लिखी सबने बहुत है जिंदगी की गीतिका
राह भी सबने दिखाई संग सबके प्रीत का
सत्य हैं सबके अलग पर मार्ग सबके एक हैं
चल रहे जिस पर सभी वो पंथ है पर जीत का।

ढूँढता हूँ पंथ में उस प्रीत का अनुनाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

सबकी अपनी है व्यथा सबके अपने रास्ते
कोई लिखता औरों पर कोई खुद के वास्ते
और कितनी बात कह दी छंद के आकार में
गीतों गज़लों में कही और कही व्यवहार में।

ढूँढता हूँ पंक्तियों में वो सकल संवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

मौन मैं भी लिख रहा हूँ पंक्ति में अपनी व्यथा
सत्य मानो तुम इसे या फिर इसे मानो कथा
रोज लिखता हूँ यहाँ मैं जिंदगी की एक गजल
और देखा खुद को जब पलकों को पाया सजल।

ढूँढता हूँ पलकों में गीतों का अभिवाद मैं
और जीवन की व्यथा का इक सरल अनुवाद मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08 मई, 2021

नूतन प्रतिमान।

नूतन प्रतिमान।   

नवयुग का साक्षी बनने को
मौन अकेले आज चलाचल
स्थापित प्रतिमानों से आगे
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

मानवता की व्यापक दृष्टी
भावों में तू छलकाए जा 
संकीर्ण भाव परे त्यागकर
सबको हँसकर अपनाए जा।।

कालखंड का उद्देश्य यही
तू नूतन पथ गढ़े चलाचल
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

जन जन की पीड़ा को अपने
शब्दों में संयोजित करना
स्मृतियों के पुण्य लकीरों को
भावों में सुनियोजित करना।

हर हृद के भावों को पढ़कर
पुण्यश्लोक सम्मान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

नित प्रति जीवन संघर्षों की
विराट कहानी लिखता है
जैसी दृष्टी डालो जग पर
वैसा ही जग दिखता है।

तोड़ यहाँ के किंतु परंतु सब
तू नूतन अनुमान गढ़े चल।
नवयुग का साक्षी बनने को
तू नूतन प्रतिमान गढ़े चल।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मई, 2021







चूल्हे में उल्लास।

चूल्हे में उल्लास।  

मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ 
घर की चकरी बंद पड़ी है
कैसा है वनवास यहाँ।।

पल पल कानों में जैसे
पदचाप सुनाई देती है
दूर दूर तक राहों में
बस आस दिखाई देती है।

आशाओं का झुरमुट है पर
सपनों का अवकाश यहाँ
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

भूखी प्यासी सड़क चली है
बंद गली थी आज खुली है
नन्हें नन्हें पैरों में भी
उम्मीदों की ओस घुली है।

पर पलकों के छाँव तले अब
आँसू को विश्राम कहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

साँसों को आराम कहाँ अब
रह रह कर आती जाती हैं
इधर उधर फिरती रहती है
आराम कहाँ वो पाती है।

कितने घाव छुपा सीने में
राह चली अब मौन यहाँ।
मौन हुई है घर की चिमनी
चूल्हे में उल्लास कहाँ।।

इसका अंत कहीं तो होगा
मुक्त कंठ कभी तो होगा
कहीं मिलेगा ठौर ठिकाना
कोई तंत्र कहीं तो होगा।

जहाँ मिलेंगी खुशियाँ सारी
उम्मीदें औ उल्लास जहाँ
वहीं हँसेगी फिर से चिमनी
चूल्हे में उल्लास वहाँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021





छोटी सी अरज।

छोटी सी अरज।  

आकाशों पर रहने वाले
चरण धूलि हम धरती के
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

युग जाने कितने बीत गए
हम भरे कहाँ जो रीत गए
युग युग का बस दरद यही है
हम लड़े यहाँ तुम जीत गए।।

तुम राजनीति के शीर्षपुंज
हम अदना दीपक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के 
हम रहने वाले बस्ती के।।

बरसों से हमने वादों पर
पल पल विश्वास जताया है
तुम साथ चले या छोड़ दिये
हमने तो साथ निभाया है।।

तुम वादों के व्यापारी हो
हम अदना याचक धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

यूँ लोकतंत्र के मंदिर में
संवाद बहुत ही गहरे हैं
पर बरसों से लगता ऐसा
होठों पर कितने पहरे हैं।

व्योम पटल पर मुक्त प्रवाहक
हम मौन नियंत्रित धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

कभी हमारे साथ चलोगे
तब दरद हमारा समझोगे
मुक्त हृदय से कभी मिलोगे
तब मरम हमारा समझोगे।

विपुलता के शीर्ष बिंदु तुम
औ अकिंचन हम हैं धरती के।
तुम राजा हो भूमंडल के
हम रहने वाले बस्ती के।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मई, 2021



श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...