नन्हीं का प्रश्न।

   नन्हीं का प्रश्न।   

मैं तेरी नन्हीं सी गुड़िया
मैं झप्पी जादू की पुड़िया
कोख तिहारे मैं आई हूँ
लाखों सपने बन आयी हूँ।

चंदा सी शीतलता मुझमें
औ प्रभात की आभा मुझमें
तारों की छाँवों से चलकर
तेरी बनकर आयी हूँ।

तुमने मुझको शरण दिया है
कोख में अपने वरण किया है
रक्त कणों से सींचा है जब
खुशियां बन कर छाई हूँ।

अपने आने की खुशियां
जीवन में तेरे देखी है
मैंने सपनों की दुनिया
माँ नैनों में तेरे देखी है।

पर जाने क्यूँ मन डरता है
जब जग की बातें सुनती हूँ
कुछ शंकाएं मन में मेरे
माँ तुझसे मैं अब कहती हूँ।

कहते तो सब लोग यहां हैं
बेटा-बेटी एक यहां हैं
पर कुछ आंखों में मैंने
शंका के डोरे देखे हैं।

कुछ ऐसी खबरें हैं जिनको
सुनसुन कर मैं डरती हूँ
क्या दुनिया में आ पाऊंगी
यही सोच में रहती हूँ।

माँ तुम पापा से कहना
उनकी खुशियाँ बन जाऊंगी
जो भी बेटों से मिलता है
ज्यादा सम्मान दिलाऊंगी।

जीने का अधिकार मुझे है
मुझसे इसको मत छीनो
कुछ लोगों की बातों में पड़
मेरा जीवन मत छीनो।

माँ तेरे घर के कोने में
मैं कोयल बनकर कुहकुंगी
उपवन की खुशबू बनकर के
मैं कोने कोने महकुंगी।

वेद पुराण सभी ग्रन्थों ने
जब बेटी को सम्मान दिया
फिर कैसे इस दुनिया ने
ग्रन्थों का अपमान किया।

दुनिया में आने दो मुझको
इक बार जहाँ मैं देखूंगी
बेटी का कुसूर क्या आखिर
मैं सारे जग से पूछूँगी।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      30नवंबर,2020


बात कहने की नहीं है।

 बात कहने की नहीं है।   

बात ये कहने की नहीं है
मौन भी कैसे रहूं मैं
बात जो दिल में दबी है
मौन वो कैसे सहूँ मैं ।।

तकरीर जो तुमने गढ़ी
जब फैसले की रात थी
तब मेरे दिल ने जाना
जो दिल मे तेरे बात थी।।

दिल के सारे मुआमलों को
खत्म मैंने कर दिया था
पर बात तेरी जब भी चली 
तब मौन सब जज्बात थे।।

सांझ का था धुँधलका औ
था घना कुहरा वहां पर
दीप की इक लौ जली थीं
पर बंद रोशनदान थे।।

टिमटिमाया था दिया तब
शायद घनेरी रात थी
दम घुटा जब रोशनी का
तन्हा सभी हालात थे।।

और क्या कहना वहाँ जब
रोशनी ही छुप गयी थी
रात की चादर तनी औ
बादलों में बैठा चाँद था।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       28नवंबर, 2020





सूरज आता होगा।

सूरज आता होगा।  

घना भले हो कुहरा कितना
कुछ तो राह दिखाता होगा
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

रात भले थी घनी अँधेरी
कितने ही तूफान लिए
बिखरा डाला कुछ ही पल में
जाने कितने घाव दिए।

घाव लगे जो दिल पे तेरे
मलहम वहाँ लगाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

सच है उनके दरबानों में
सपनों का स्थान नहीं है
और हमारे अरमानों पे
उनका भी अहसान नहीं है।

क्या फिर उनके दरबारों में
कोई शीश झुकाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

अत्याचारों का अंत यहाँ
हर बार बुरा ही होता है
सत्य निखरता है अकसर
झूठ बिखर कर रोता है।

कर विश्वास यहॉं बस खुद पर
लाख भले भरमाता होगा।
देख रहे क्या मौन गगन में
सूरज अब तो आता होगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26नवंबर, 2020




अनायास।

            अनायास।   

अनायास नहीं आया मैं पास तुम्हारे
इसमें तुम्हारी भी तो मर्जी रही होगी।
आखिर कब तलक जिंदगी यूँ कटती अकेले
शायद तुम्हारी भी तो अर्जी रही होगी।।

जो कहोगे तुम तो फिर मैं चला जाऊंगा
और वापस तेरी गलियों में न आऊंगा
एक बार खुद से ही तुम पूछ लेना जरा
कहीं तिरी ख्वाहिश अधूरी तो नहीं होगी।

यूँ तो हरदम एक खुली किताब थी जिंदगी
पन्ना पन्ना सजी एक गुलाब थी जिंदगी
था दोष किसका तेरा, या कहूँ के मेरा
काश इसे कभी तो शिद्दत से पढ़ी होती।।

अब आईना देख के मुस्कुरा लेता हूँ
कभी अनकहा सा गीत गुनगुना लेता हूँ
फिर भी हरपल यही एक खयाल रहता है
अनायास ही कोई तो पुकारेगा कहीं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25नवंबर, 2020



तन्हाई।

        तन्हाई।    

मेरा सच भले ही तुझे मंजूर नहीं, पर
तेरे झूठ ने तो हर बार तौबा की है।।

कैसे कह दूँ के मेरी कोई खता नहीं 
तुझे चाहना ही जब मेरी खता हो गयी।।

मैंने तो फ़िज़ाओं में महक तेरी ढूंढी
न था मालूम फ़िज़ाओं में जहर भी होंगे।।

अब तो डरता हूँ मैं अपनी तन्हाई से 
कहीं तेरा नाम जुबाँ पे न आ जाये।।

जख्म तूने जो दिया वो तो भर जाएगा
मगर दिल पे लगी जो उसे भुलाऊँ कैसे।।

तुम यूँ ही चले जाते तो गम नहीं होता
नम आंखों ने तेरी बात बहुत कह डाली।।

जिस बात की खातिर तुमने मुझे छोड़ा है
काश मेरी मजबूरी कभी समझा होता।।

चलो अच्छा है के तुमने मुझे छोड़ दिया
वर्ना कुछ इल्जाम तेरे सर पे भी होता।।

अब यादों से कोई भी गिला नहीं मुझको
अब तो यादें हैं मैं हूँ औ तन्हाई है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       25नवंबर,2020

उपहार।

   उपहार।  

मेरे जीवन के बसंत तुम
तुमसे ही त्योहार है
आशाओं के तुम आलिंगन
तुमसे सब श्रृंगार है।

तुम ही जीवन की लतिका के
प्राण वायु संचार हो
मेरे अंतस की वीणा के
मधुर प्रेम झंकार हो।

मैं पुस्तक की एक पंक्ति हूँ
तुम पुस्तक का सार हो
जीवन रूपी इस उपवन का
सर्वोत्तम उपहार हो।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      24नवंबर, 2020





इच्छाओं का आकाश।

इच्छाओं का आकाश।

कदम कदम पर लोग खड़े हैं
ख्वाहिश का अंबार लिए
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

अंधकार से कोसों दूर
यहाँ सभी को जाना है
दूर क्षितिज की सीमा तक
इच्छाओं को पाना है।

इच्छाओं में होड़ मची है
मूक मगर संवाद लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

लगता जीवन सिमट रहा है
निजता के तहखानों में
जैसे चेतना सुप्त पड़ी है
चिंता और अरमानों में।

सिमट रही है मधुर चेतना
उम्मीदों का भार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

वरदानों की ख्वाहिश में
पल पल जीवन लुटा जा रहा
सपनों की यूँ गठरी भारी
मन ही मन सब घुटा जा रहा।

बीत रहे पल छिन जीवन के
कितने ही अवतार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

करने को तो बहुत किया पर
जितना चाहा मिला नहीं
गैरों की बातें क्या करना
अपनों से भी गिला नहीं।

इस छोटे से जीवन में
बड़े बड़े उपकार लिए।
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

सिमट रही है धरती सारी
सिक्कों की आवाजों में
लगता जैसे जंग छिड़ी हो
सारे रीति रिवाजों में।

अरमानों के पैबंदों में
सपनों का आकार लिये
चले जा रहे अपनी धुन में
कितने धूल गुबार लिए।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24नवंबर, 2020

ज़िंदगी- दुश्मन या सहेली।

जिंदगी-दुश्मन या सहेली।  

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो कभी सहेली है।।

तमाम उम्र झाँकती रही
ये ख्वाहिशों के दरीचों से
साधारण लगी कभी तो
कभी लगी अलबेली है

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो कभी सहेली है।।

कभी तो दर्द का आलम मिला
कभी खुशियों का मलहम मिला
कभी चाहत को मंजिल मिली
कभी जज्बातों की होली है।

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो, कभी सहेली है।।

न शिकवा कोइ, शिकायत नहीं
तुझसे मेरी अब अदावत नहीं
इन रास्तों पे मचलती रही
क्या तू भी कहीं अकेली है।

जिंदगी अजब सी पहेली है
दुश्मन तो, कभी सहेली है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      22नवंबर, 2020







दिल ने कुछ कहा।

दिल ने कुछ कहा।    


है आज दिल ने कुछ कहा
मैं कहूँ क्या और तुमसे
कल तक तो था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।

तुम मिले जो आज मुझको
जिंदगी मुझको मिली है
आज तेरी चाहतों में
बंदगी मुझको मिली है।

फिर तेरी दीवानगी ने
है कहा कुछ आज मुझसे
मिल गयी जब दास्तान फिर
मैं कहूँ क्या और तुमसे।

कल तक दिल था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।।

तुमसे मिल कर मैंने जाना
कितनी तन्हा जिंदगी थी
रास्ते कितने अकेले और
न कोई पायंदगी थी।

पर तुम्हारे संग ने आज
मुझको मिलाया है मुझी से
तुमने ही तो जिंदगी दी
मैं कहूँ क्या और तुमसे।

कल तक दिल था बेजुबान
इसे मिली जुबान तुमसे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20नवंबर, 2020



खिलता उपवन देखा है।

   खिलता उपवन देखा है।   

जिसने पग के छालों में भी
हँसता जीवन देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

उपवन की हरियाली खातिर 
जिसने जितना त्याग किया
उसने ही जीवन को समझा
और उसने अंतर्याग किया।

उपवन की हरियाली में ही
जिसने जीवन देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

डटे यहाँ, जो मिटे नहीं
थके मगर, वो रुके नहीं
प्रगतिशील पथ के राही
बाधाओं से झुके नहीं।

पथ के कंटक में भी जिसने
फूलों का हँसना देखा है
उसने ही अवसादों में भी
खिलता उपवन देखा है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      20नवंबर, 2020


दिल तुम्हारा हुआ है।

       दिल तुम्हारा हुआ है।   

मुझे तुमसे बिछड़े जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।

तेरा गुनगुनाना
वो पलकें झुकाना
मुझे याद अब तक 
तेरा मुस्कुराना
वो लहरा के चलना 
वो गिरना संभलना
हैं याद मुझको  
तेरी हर अदाएं।

ये बीते कहानी जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।।

वो बरसात में मुझसे
तेरा लिपटना
शर्मा के वापस
मुझी में सिमटना
बदन काँपना पर
लवों का थिरकना
वो तेरी शरारत
वो तेरी अदायें।

यूँ मुश्किल बहुत वो भुलाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।

मुझे याद अब भी
हैं सारी वफ़ाएँ
मगर कैसे भूलूँ
जो की थी जफाएँ
उस रात पलकों पे
आँसू का रुकना
मगर कैसे भूलोगे
वो सारी दुआएं।

उसे अब तो गुजरे जमाना हुआ है
मगर दिल हमेशा तुम्हारा हुआ है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      19नवंबर,2020

छठी माई के गीत।

    छठी माई के गीत। 

मनवा ई हरदम, करे ला दुहाई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

संकट में संसार घिरल बा
जेहि देखा वहि आज विकल बा
ई संकट के दूर करे के
ई संकट के दूर करे के
अब करा तू ही उपाई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

कइसे जाई गेहुँ पिसाई
कइसे दौरा घाट पहुंचाई
केरा के घरवा अउ उखिया
केरा के घरवा अउ उखिया
अउ फल के डलिया कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

विधि विधि के पकवान चढ़ाइब
डूबत सुरुज के अरघ चढ़ाइब
गेंहू के ठोकुआ डलिया में रखब
भीनसारे फिर अरघ चढ़ाइब।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

हम बालक नादान अही माँ
हम पर तू ही ध्यान धरा माँ
हमके अब आशीष ओढावा
हमरो करा अब तू सुनवाई।
हे छठी माई, घरे कइसे आई
हे छठी माई, घरे कइसे आई।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      17नवंबर,2020




तुम्हारी याद।

           तुम्हारी याद।   

आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है
लुटी जहाँ पर प्यार की कश्ती देख वहाँ ले आयी है।

कितने सावन बीत चुके हैं
अब तक अंबर से रस बरसे
कितनी रैना बीत चुकी है
पर मिलने को जियरा तरसे।

चाह तुम्हारी मेरे दिल को हर पल ही तड़पायी है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहां ले आयी है।।

जीवन की परिभाषा तुम थे
और नेह की अभिलाषा  थे
तुमने ही जीना सिखलाया
औ सपनों की आशा तुम थे।

पर ना जाने कौन चाह ने खुशियाँ सब बिखराई है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहां ले आयी है।।

जग के सारे तानोँ पर भी
सुन सुन तुम मुस्काती थी
कितनी ही बातें थीं ऐसी
बिन कहे यहाँ कह जाती थी 

तेरी उन सारी बातों में भी कितनी गहराई थी
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है।।

ऐसा फिर क्या हुआ वहाँ पर
जो तुम हमसे रूठ गए
जनम जनम का साथ हमारा
पल में कैसे छूट गए।

तुम्हें मुबारक खुशियाँ सारी आँख यूँ ही भर आयी है
आज तुम्हारी याद हमें फिर देख कहाँ ले आयी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     16नवंबर,2020

मैं चमन का फूल हूँ।

   मैं चमन का फूल हूँ। 

चमन के फूल ने कुछ आज है मुझसे कहा
रोशनी हो या अँधेरा मैं सदा खिलता रहा
देख ले संसार मुझको मैं धरा का हार हूँ
और तेरी चाहतों का मैं यहां श्रृंगार हूँ।

ना कोई भेद मुझको हर कोई स्वीकार है
रास्तों के शूल जो हैं सारे मेरे यार हैं
कैसे फिर मैं भूल जाऊँ राह ये मैंने गढ़ी
औ कैसे मैं भूल जाऊँ जिंदगी से प्यार है।।

आओ फिर इस रास्ते को प्रीत से रोशन करें
तेरे मेरे बीच एक दीप फिर रोशन करें
औ चलें उस छोर तक खुशबू जहाँ से आ रही
और नूतन रीत से सारा जहाँ रोशन करें।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
    16नवंबर,2020

सम्मान की खातिर।


    सम्मान की खातिर।   

कौन कहता है यहाँ बस जीत की खातिर लड़ो
कौन कहता है यहाँ बस प्रीत की खातिर अड़ो
एक बस सम्मान तेरा वक्त की पहचान है
जो अड़ो तुम आज तो सम्मान की खातिर अड़ो।

पूर्व पथ चुनने से पहले पथ की पहचान कर
पंथ के सब रोक का तू पूर्व ही अनुमान कर
कौन रोकेगा तुझे जब दृढ़प्रतिज्ञ हो चल पड़ा
पंथ के हर मोड़ का बस तू यहाँ सम्मान कर।

कितनी जवानी त्याग दी आज तक ना लिख सकीं
औ कहानी त्याग की ना पुस्तकों में छप सकीं
शोक क्या करना यहॉं जो कोई सुप्तप्राय है
नक्कारखाने में तूती की व्यथा कब सुन सकीं।

कौन कहता है तुझे आघात सारे भूल जाओ
और दिल ने जो सहा वो घात सारे भूल जाओ
था बुरा या के भला अब ये बात सारी व्यर्थ है
शोक करना क्या यहाँ अब इनका ना कोई अर्थ है।

आज फिर चलने से पहले रास्तों को जान ले
कौन अपना या पराया आज तू पहचान ले
है तेरा अधिकार इनपर ये ही तेरे मीत हैं
और जिंदगी के रास्तों के ये ही तेरे गीत हैं।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
    हैदराबाद
   16नवंबर,2020


जीवन गीत सुनाऊँ।

      जीवन गीत सुनाऊँ।   

बिखरे बिखरे तुम रहते हो
किस विधि बोलो आज मनाऊँ
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।

आखिर ऐसी कौन व्यथा है
जिसने तुमको घेरा है
बोलो कौन बचा है जग में
जिसको दुःख ने छोड़ा है।

सुख-दुःख साथ चले हैं अपने
कैसे अब तुमको समझाऊं।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

जीवन अपना एक सफर है
कभी इधर तो कभी उधर है
थककर बैठ गया जो इसमें
मिली उसे न पुनः डगर है।

कभी डगर में धूप मिले तो
आशाओं के फूल बिछाऊँ।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

तुमने कितना कुछ झेला था
पर जीवन से हार न मानी
कितने शूल चुभे थे पग में
पर कांटों से हार न मानी।

भूल गए क्या सारी बातें
बोलो कैसे याद दिलाऊँ।
कितना कुछ कहना है तुमसे
किस विधि बोलो आज सुनाऊँ।।

चलो आज फिर दोनों मिलकर
उम्मीदों के दीप जलाएँ
अपने सपनों को फिर खोजें
आशाओं के फूल खिलायें।

आशाओं की वीणा पर फिर
सपनों वाले राग सजाऊँ
तुम फिर गीत लिखो जीवन के
मैं फिर तुमको गीत सुनाऊँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     15नवंबर,2020





दीपावली पर मुक्तक।

दीपावली पर मुक्तक।   

जगमगाते दीप हमको, ये इशारे कर रहे
दूर अँधियारा हुआ है, तमस सारे हर रहे
आओ हम सीखें इनसे, उजाले का सलीका
औ जगमगा दें राह जो, अँधेरों में घिर रहे।।

छोड़ कर पथ फूल वाले, कंटक पथ चुन लिए
उमर भर के स्वप्न सारे, धूप में जो बुन लिए
आज उनके त्याग ने ही, सत्य को पहचान दी
आज जिनके प्रेम में दीप लाखों जल रहे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       14नवंबर, 2020

पंचदीप दीपावली का।

पंचदीप दीपावली का।   

चलो वहाँ पर दीप जलाएँ
अब भी जहाँ अँधेरा है
दीप ज्ञान का वहाँ जलाएँ
जहाँ अज्ञान का घेरा है।

पहला दीपक राष्ट्रधर्म का
देश प्रेम की बाती हो
दूजा दीपक आर्यधर्म का
खुशबू जिससे आती हो।

तीजा दीपक नैतिकता का
नारी का स्वाभिमान बढ़े
चौथा दीपक संबंधो का
जिससे सबका मान बढ़े।

और पाँचवाँ मानवता का
भारत की पहचान बने
शिक्षा, संस्कृति औ सभ्यता
में भारत कीर्तिवान बने।

बढ़े राष्ट्र की कीर्तिपताका
जन गण मन का मान बढ़े
विश्वपटल के परिदृश्य पर
भारत का सम्मान  बढ़े।

पंचदीपक जो जला तो
मन निखर कर के रहेगा
मुक्त होगी ये धरा फिर
तम बिखर कर के रहेगा।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      14नवंबर,2020




प्रणय निवेदन।

  प्रणय निवेदन।    

इन नैनों की चितवन ने
मन का मेरे संधान किया
सकुचाई पलकों ने मेरी
इच्छाओं का मान किया।

तेरे संकर्षण ने मुझको
एक नया दिनमान दिया
सकुचित स्तंभित भावों ने
लज्जा को सम्मान दिया।

उर से उठती प्रेम तरंगें
नूतन भाव जगाती हैं
प्रेम मिलन की बेला में
बिन कहे बहुत कह जाती हैं।

अपनी पलकों के साये में
मुझको तुम अब रहने दो
कही गयी ना बातें जो भी
मुझको वो सब कहने दो।

तुम्हें समर्पित जीवन अब ये
तुम इसको स्वीकार करो
अपने अधरों के कंपन से
मस्तक पर उपकार करो।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       13नवंबर,2020



कर्मयोग।

     कर्मयोग।   

ना जीत के उन्माद में
ना हार के अवसाद में
जो मिले स्वीकार मुझको
शिकवा नहीं संसार में।

आज जो अपना यहाँ है
था कल वो किसी और का
मोह कैसा आज है फिर
निश्चित नहीं जब ठौर का।

हैं मुसाफिर सब यहाँ पर
चल रहे अपने सफर में
सबका अपना आसमां है
रुकना फिर क्या डगर में।

जो मिला तुझको सफर में
उसका न तू अभिमान कर
साथ तेरे चल रहे जो
सभी का तू सम्मान कर।

पल भर की है ये जिंदगी
हाथ नहीं कुछ आएगा
बस तेरा सत कर्म ही
बाद यहाँ रह जायेगा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     13नवंबर, 2020

राष्ट्र प्रथम।

     राष्ट्र प्रथम। 

हार जीत का ये अंतर
आज है कुछ कह रहे
सोच औ राहें मुड़ी हैं
अभिव्यंजनाएँ ढह रहे।

है चल रही ऐसी पवन
के राह निश्चित दिख रही
औ भविष्य के बर्ताव की
परिमाण' भी अब लिख रही।

सोचिये अब आज हमसे
चूक कैसी हो रही है
हर घड़ी मन प्राण से अब
भूल कैसी हो रही है।

वर्जनाओं तक को हमने
विजय से आज जोड़ रखा
नैतिकताओं को हमने
ताखों" पर है छोड़ रखा।

परचम धर्म और जाति का
चहुँओर बस लहरा रहा 
राष्ट्रहित का भाव भी अब
क्या गौण होता जा रहा।

वक्त रहते आज हमको
चिंतन यहाँ करना होगा
हिंदुस्तान के पर्याय का 
रक्षण यहाँ करना होगा।

एक सूत्र एक भाव का
सिद्धांत केवल राष्ट्र है
जो प्रगति को मोक्ष दे वो
वृद्धान्त"' केवल राष्ट्र है।।

 ' परिमाण- मापन
" ताखों- दीवार में कुछ रखने हेतु बनाई गई जगह
"' वृद्धान्त- प्रतिष्ठा करने योग्य 

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     12नवंबर,2020


मैं चला हूँ।

  मैं चला हूँ।   

आज जग के ताप को
मैं मिटाने को चला हूँ
बंधनों औ रोक को
मैं हटाने को चला हूँ।

आज नूतन भाव ले
सुर सजाने को चला हूँ
और अपने गीत से
उर रिझाने को चला हूँ।

है सफर मुश्किल मगर
आज तय करने चला हूँ
हार हो या जीत हो
स्वीकारने मैं चला हूँ।

प्यार, करुणा औ दया
का यहाँ पारावार है
रण ये पुण्य पंथ का
जो भी मिले स्वीकार है।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

वेदनाओं का समर।



खुद का खुद से संवाद-अंतर्द्वंद

वेदनाओं का समर।  

वेदनाओं के समर में
मौन मैं चुपचाप ठहरा
और मेरे होंठ पर भी
वर्जनाओं का है पहरा।

उस तरफ हैं लोग अपने
द्वंद जिनसे हो रहा है
मोह, माया से ग्रसित हो
मन विकल सा हो रहा है।

आज उनके वार का मैं
कैसे करूंगा सामना
अपमान के प्रतिकार में
मुश्किल है शस्त्र थामना।

सत्य-असत्य के समर में
सब तर्क गुंफित हो चले हैं
अर्थ ही जब प्रश्न बन गए
पर्याय कुंठित हो चले हैं।

इस समर में आज अपनी
तू भूमिका स्वीकार कर
त्याग सारे मौन अपने
बस सत्य खातिर वार कर।

अब कौन किसका है यहाँ
वक्त का न इससे वास्ता
इस समर का पार्थ है तू
चुन अपना खुद तू रास्ता।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
     हैदराबाद 
     11नवंबर, 2020

जीवन जीना सीख लिया।

जीवन जीना सीख लिया। 

नव पल्लव को शाखों पर
हमने खिलते देखा है
कलियों औ फूलों को भी
अकसर मिलते देखा है।

रश्मि भोर की किरणों से
कुहरा छँटते देखा है
नव प्रभात के शंखनाद से
अँधियारा मिटते देखा है।

नदियों को उद्गम स्थल पर
कल कल चलते देखा है
औ सांझ ढले बेला में
सागर से मिलते देखा है।

अकसर फूलों को हमने
शाखों से गिरते देखा है
और कभी पंखुड़ियों को
फूलों से झरते देखा है।

बसंत ऋतु के आते ही
सारा उपवन खिल जाता है
लेकिन पतझड़ के मौसम में
उनका भी उजड़न देखा है।

मिलना और बिछड़ना दोनों
जीवन की मजबूरी है
पास रहें या दूर रहें हम
आपस में प्रेम जरूरी है।

आंखों का आंसू से अपने
कितना सुंदर नाता है
लेकिन अवसादों के क्षण में
उनका बिछड़न देखा है।

छोटी-छोटी खुशियों में हम
जब इक दूजे से जुड़ते हैं
कोई कैसी राह चले पर
सब इक दूजे से जुड़ते हैं।

जीवन के इस मौसम को
जिसने भी हँसकर देख लिया
उसने ही बस जीवन समझा
औ उसको जीना सीख लिया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
      हैदराबाद 
      11नवंबर, 2020

कविताओं का सम्मान।

कविताओं का सम्मान। 

मैंने अपनी कविताओं में
जीवन का सम्मान किया
सामाजिक मुद्दों पर बोला
समरसता पर मान किया।

कविताएं वो साधन हैं जो
दिल की बातें कहती हैं
मन की सारी पीड़ाओं को
पन्नों पर वो लिखती हैं।

उर में जब भी उठी वेदना
कविताओं ने दिया सहारा
होने लगी जहां सुप्त चेतना
तब गीतों ने दिया सहारा।

जब लोगों ने ताने मारे
कविताएं तारनहार बनीं
छोड़ चले मँझधार में सभी
कविताएं खेवनहार बनीं।

लिए कलम हाथों में मैंने
जब जब दरपन देखा है
मन में नव अहसास जगा है
मरुधर भी खिलते देखा है।

इसके हर बंधों में मैंने
नूतन जीवन पाया है
कदम कदम जो बढ़ीं पंक्तियां
खिलता उपवन पाया है।

जीवन की कविताओं में भी
मैंने कांटों का मान किया
उठी कलम हाथों में जब भी
जीवन का गुणगान किया।।

 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       11नवंबर, 2020

मनमीत।

          मनमीत।  

तुमको मनमीत बनाने को
मैने नवगीत सजाया है
मैंने गीतों में छंदों में
बस तुमको ही पाया है।

है खिला-खिला जीवन अपना
तुम जबसे इसमें आन बसे
सांसों की हर सरगम में
बस तेरे ही अरमान बसे।

तुझसे शुरू हुआ ये जीवन
अब तुझपे ही खत्म करूं
आये जाए कोई मौसम
एक बस मैं तुझको ही जियूँ।

तुमसे ही है चाँद सितारे
तुमसे जीवन की बगिया
तुम ही धरती तुम ही अंबर
तुमसे हैं मेरी खुशियाँ।

जाना जीवन मधुरिम कितना
जबसे तुमसे मेल हुआ
सच कहता हूँ मिलकर तुमसे
जीवन ये परिपूर्ण हुआ।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06नवंबर,2020





पुकार।



पुकार।               

भारत माता के हाथों में
जाने कैसी रेखा है
जब भी देखा है इसको
दो-दो भारत देखा है।

चमक-दमक के पीछे इक भागे
दूजी सीधी राह चले
एक चली है दरबारों में
दूजी बस फुटपाथ चले।

कहीं शब्द की गहराई है
और कहीं है हलकापन
कहीं स्वार्थ की परछाईं है
और कहीं है अपनापन।

कहीं विचारों की टकराहट
और कहीं दीवानापन
कभी किसी से प्रेम निखरता
और कभी बेगानापन।

अवसरवादी राजनीति की
पल पल झलक दिखाती है
मुंह में राम बगल में छूरी
फिर भी खुद पर इतराती है।

शहरों के रस्तों ने अकसर
पगडंडी को घेरा है
गांव शहर की ओर चला पर
शहरों ने मुंह फेरा है।

लोकतंत्र के पैमानों पर
वादों के कितने फ़ेरे हैं
सत्ता के आमद की खातिर
जनता पर कितने घेरे हैं।

इक भारत वादा करता है
दूजा उसकी बाट जोहता
एक इशारा करता जब भी
दूजा उसकी थाह टोहता।

एक चले है अपनी धुन में
दूजा पाँव सँभल कर रखता
एक भरा है चकाचौंध से
दूजा राह सँभल कर चलता।

दोनों के इस अंतर को
आखिर कब तक सहना होगा
पगडंडी के सब वादों को
पूरा अब करना होगा।

वरना इस अंतर की खाई
और यहाँ जो बढ़ जाएगी
अपनी ही छवि धूमिल होगी
मान प्रतिष्ठा खो जाएगी।

लोकतंत्र के सरोकार का
मान यहां  करना होगा
संविधान की प्रस्तावना का
सम्मान यहां करना होगा।।

 
 ✍️©️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        03नवंबर, 2020

कशमकश।

   कशमकश।   

मौन उदासी चेहरे की
कितना कुछ कह जाती है
जिन बातों का मोल नहीं
उन सबको सह जाती है।

कितनी ही खामोश व्यथाएँ
मन में लेकर चलते है
अपने सारे भाव छुपाते
हँसकर सबसे मिलते है।

सब दर्द छुपाते चेहरों के
घाव मगर सब गहरे हैं
कहना चाहे कितना कुछ पर
होठों पर ही पहरे हैं।

कितने सागर डूब गए 
आंखों की अँगड़ाई से
फिर क्यूँ हम पछताते हैं
अपनी ही परछाईं से।

कदम कदम पर ताने कितने
औ कितने हैं धोखे खाये
मजाक सहे हैं जज्बातों के
कितने अपने हुए पराए।

चाहे कितने तूफां आये
लेकिन आस कभी ना छोड़ी
कितनी ही बाधाएं झेलीं
पर उम्मीद कभी ना तोड़ी।

जीवन के घने थपेड़ों ने
बस इतना सिखलाया है
रात अँधेरी भले घनेरी
पर सूरज दिखलाया है।

देख प्रलोभन जीवन पथ में
कभी नहीं झुक जाना तुम
औ घबराकर बाधाओं से
कभी नहीं रुक जाना तुम।

हार-जीत जीवन के पहलू
इनसे मिलकर रहना है
जिसने इन भावों को समझा
ताज उसी ने पहना है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       02नवंबर,2020







नदी और समंदर का संवाद।

नदी और समंदर का संवाद।


माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की इक धारा
माना तुम हो स्थिर, शांत, विरल
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।

कितने ही तूफान समेटे
अपने भीतर रहते हो
चुपचाप देखते हो सबकुछ
ना सुनते ना कहते हो।

चाहे कैसा भी हो मौसम
सबका तुमसे है यारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं चंचल उश्रृंखल धारा।।

दुनिया भर के महाद्वीप के
तट से मिलते रहते हो
पर अपनी ही नदियों से
टुकड़ों में तुम मिलते हो।

तुमसे जब इतनी उम्मीदें
तब जल तेरा  क्यूं खारा।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

राहों के कंकर पत्थर को
हमने भी राह दिखाई है
सूखी बंजर धरती पर भी
हमने फसलें  लहराई है।

हर मौसम से लड़कर हमने
तुमको दिया सहारा है।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

मत इतना अभिमान करो
तुम अपनी इस स्थिरता से
कितने सागर सूख गए हैं
मौसम की अस्थिरता से।

मत भूलो हर मौसम में
हमने ही है तुम्हें संवारा ।
माना तुम हो घना समंदर
मैं नदिया की उश्रृंखल धारा।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
     हैदराबाद
     01नवंबर, 2020

आफताब हो जाऊं।

   आफताब हो जाऊं।    

कभी जो तुम बनो गुलाब तो मैं किताब हो जाऊं
तुम्हें पाकर के पन्नों में आबताब हो जाऊं।

चाहत और नहीं कोई मुझे फिर इस ज़माने से
यही कि तुमसे मिल जाऊं औ आफताब हो जाऊं।

तुम पर ही समर्पित है मेरी सांसें मेरी धड़कन
तुम्हारा जो इशारा हो मैं महताब हो जाऊं।

चाहा है औ गाया है मैंने तुमको गजलों में
तुम्हारा साथ मिल जाये मैं आबाद हो जाऊं।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
     02नवंबर,202





श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...