उर्मिला की वेदना

उर्मिला की वेदना।   

कालचक्र ने  चक्र चलाया
हंसता हुआ कुटुंब बिखराया।
एक वचन के लाज के लिए
अवधनरेश ने खुद को तपाया।

रघुकुल रीति उच्च है सबसे
प्राण जाए पर वचन न टरते।
इक हठ से हो वशीभूत 
प्रिय सुत को वनवास पठाया।

भाई और भार्या संग
श्री राम वन चल दिये
रोते, बिलखते पुरवासी
कुटुंब सारे रह गए।

सीता संग प्रभु राम लक्ष्मण
वन में जाकर रहने लगे।
उर्मिला पत्नी लक्ष्मण की
महल में व्याकुल रह गई।

प्रतिपल नैनों में सूनापन 
नैन ढूंढते थे अपनापन।
सांस सांस में नाम बुलाती
जैसे-तैसे वक्त बिताती।

इक-इक पल उसका भारी था
मन में प्रतिपल उथल-पुथल था।
मन ही मन उदास वो रहती
हंसती, लेकिन कुछ न कहती।

फूलों सी थी कोमल काया
तिस पर पड़ी विरह की छाया।
जी भर भी वो निहार न पाई 
के बिछोह की घड़ी थी आयी ।

कितने  चाहत भरे थे मन में
पिया संग जब आयी घर में।
पर किस्मत ने चक्र चलाया
विरह-वेदना में उलझाया।

वो महलों की रहने वाली 
प्रतिपल थी चहकने वाली ।
इक झंकार वाणी में उसकी 
जो खो गयी विरह में पिय की।

महल भी उसको सूना लगता
रत्न-आभूषण चुभता रहता।
चेहरे की मुस्कान खो गयी
जोगन सी जीने वो लग गयी।

निज सुध उसको नहीं रह गयी
आपस की बातें याद रह गयी ।
करना तुम अपने धैर्य की रक्षा
करूंगा मैं भी वचन की रक्षा।

तनिक न तुम चिंतित रहना
बस करना मेरी सदा प्रतीक्षा।
अग्रज सेवा का भार देती हूँ
निद्रा, चिंता, निज लेती हूं।

तुम्हीं पूज्य, आराध्य हो मेरे
पर प्रभु के हैं आराध्य बहुतेरे।
प्रतिपल उनकी शरण में रहना
निष्काम भाव से सेवा करना।

पर मन था कि नहीं मानता
आखिर उसको क्या समझता।
अंदर-अंदर घुटती रहती
हंसती, आंसू पीती रहती।

निकल न जाएं चित्त से उसके
आह नहीं वो भर पाती थी।
सपने गढ़ती उन्हें बुहारती
मन में पिय की छवि निहारती।

सुनती  सबकी बातें सारी
कुछ न कहती पर सुकुमारी
जड़-चेतन सब उसे निहारते
अपना सब कुछ उसपे वारते।

मुस्कान सदा चेहरे पर रखती
अंदर ही अंदर घुटती रहती।
नियति ने कैसा चक्र चलाया
क्षण भर में जीवन बिखराया।

कैसे रहते होंगे वन में
कितने प्रश्न भरे थे मन में।
जैसे तैसे समय बिताती
अटारी कभी वाटिका में जाती।

सुध-बुध अपनी खो जाती थी
मन ही मन में वो रोती थी।
चैन नहीं था इक पल में
व्याकुलता भरी जीवन में।

शीतलता चंद्र की नश्तर लगते 
बिस्तर  मखमली कंटक लगते ।
अकसर वो खुद को समझाती 
आप ही आप ढांढस वो बंधाती ।

मन ही मन बातें करती थी
पाती लिखती फिर पढ़ती थी।
स्वयं से ही सन्देश बनाती
दर्पण को फिर उसे सुनाती।

रश्मि किरण से बातें करती
अपने मन की बातें कहती।
चौदह वर्ष शीघ्र बीत जाएंगे
खुशियों के पल फिर आएंगे।

पिय छवि मन में ले हंसती रहती
प्रतीक्षा पल-पल करती रहती।
पिय के लिए सदा  रहेगी
उनके आने की राह तकेगी।

धन्य-धन्य है उर्मिला नारी
वचन के लिए खुशियां वारी।
शब्द नहीं है पास हमारे
प्रकट कर जो त्याग तुम्हारा।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
04 मई, 2020





मन का दर्पण

मन का दर्पण। 

मन को अपने दर्पण कर लो
खुद में खुद को अर्पण कर लो।
मन हो जाये पूरणमासी
स्वतः दूर हो जाय उदासी।

खुशियों की रश्मि किरण तब
मद्धम-मद्धम द्वार पे आती।
अद्भुत रूप धरे जीवन का
हर्षित करती छवि झलकाती।

कुछ इठलाती, कुछ इतराती
चुपके-चुपके कदम बढ़ाती।
हंसती, खिलती स्वप्न सँजोती
खुशियों को दामन में पिरोती।

पुलकित करती, भाव जगाती
जीवन की बगिया महकाती।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 मई, 2020

ये समर्पण भूल न जाना

ये समर्पण भूल न जाना

त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
जीवन में कभी भूल न जाना
मानवता का पर्याय यही है
जीवन में कभी भूल न जाना।

अलिखित पीड़ा द्वार खड़ा
जीवन पर संकट आन पड़ा
त्याग, तपस्या और मनोबल
का है इसमें पर, स्थान बड़ा।

इक त्रासदी ने जीवन रोका है
हर चेहरों की रौनक लूटा है
इस त्रासदी में हैं जो संग हमारे
उपकार कभी तुम भूल न जाना।

डॉक्टर, पुलिस, सफाईकर्मी
यथार्थ में हैं स्वाभाविक धर्मी
कदम-कदम पर साथ खड़े हैं
इस विपदा से निपट रहे हैं।

बंद हुए जब मंदिर सारे
मस्जिद, गिरजा और गुरुद्वारे
तब ईश्वर भी वेश बदल कर
इन रूपों में जन कल्याण कर रहे।

अगणित व्याकुल, भूखे-प्यासे
इस  संकट में बाट निहारें
मनुजप्रेमी समाजसेवी सब
निःस्वार्थ बने हैं तारनहारे।

आओ इनका सम्मान करें
सब मिलकर गुणगान करें
डॉक्टर, पुलिस, सफाईकर्मियों का
सर्वोच्च सुनिश्चित स्थान करें।

इस विपदा में जो आज खड़े हैं
बन जीवन रक्षक आज खड़े हैं
उनके सुगठित व्यवहारों का
सम्मान कभी तुम भूल न जाना।

ये त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
जीवन में कभी भूल न जाना।
मानवता का पर्याय यही है
जीवन में कभी भूल न जाना।।

 ©️अजय कुमार पाण्डेय
 हैदराबाद
 27अप्रैल, 2020

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10

गतांक से आगे.......

बहुप्रतीक्षित निर्णायक दिन
युद्ध का आखिर आ गया
अर्जुन की क्षति की खातिर
कर्ण ने भार्गवास्त्र चला दिया।।116।।

भार्गवास्त्र का प्रभाव तेज था
सब छिन्न-भिन्न होने लगे
सेना में हाहाकार मची तब
सब अर्जुन के पास गए।।117।।

भार्गवास्त्र की काट वहां
असंभव था सबके लिए
यदि अर्जुन रण से भागेगा
भार्गवास्त्र कर्ण वापस लाएगा।।118।।

फिर कृष्ण ने अर्जुन के
पलायन का मार्ग बनाया
भागते देख अर्जुन को
भार्गवास्त्र वापस लाया।।119।।

दोनों पक्षों की सेना के
महान शूरवीर थे लड़ रहे
रुक गयी अवनि जैसे
देवलोक भी जड़ गए।।120।।

बाणों की वर्षा से दोनों
इक दूजे को घात रहे
कोई नहीं ढीला पड़ता
वक्त वहीं ठहर गया।।121।।

दोनों का संग्राम बड़ा था
आखिर उनका नाम बड़ा था
बाणों की वर्षा से सारे
अवनि-अंबर ढंक गए।।122।।

अर्जुन के बाण कर्ण के
रथ पर थे बरसने लगे
उन बाणों के फलस्वरूप
रथ कई गज खिसकने लगे।।123।।

पर कर्ण के बाणों से केवल
कुछ बलिश्त ही खिसका पाया
कृष्ण ने करी प्रशंसा उसकी
अर्जुन को हतप्रभ अचंभित पाया।।124।।

क्या उसके वार सभी
मेरे वार पर हावी हैं
ऐसा क्या है किया कर्ण ने
जिससे आप प्रभावित हैं।।125।।

उसके रथ पे भार मात्र शल्य का है
तुम्हारे रथ स्वयं हनुमान विराजे
इतनी शक्ति वारों में उसके
जो उनका भी रथ खिसका दे।।126।।

कितनी ही बार युद्ध में दोनों ने
इक दूजे की प्रत्यंचा काट दिया
नागास्त्र प्रयोग किया जब कर्ण ने
माधव ने अर्जुन का रथ धँसा दिया।।127।।

नागास्त्र विफल होता देख कर
अश्वसेना नाग ने निवेदन किया
पर माता कुंती के वचनस्वरूप 
पुनः प्रयोग को मना किया।।128।।

यद्दपि युद्ध गतिरोध पूर्ण था
पर कर्ण उस पल उलझ गया
जब उसके रथ का पहिया
धरती में जाकर धँस गया।।129।।

वह अपने दैवी अस्त्रों का
प्रयोग नहीं कर पाता था
गुरु के श्राप के कारण
असमर्थ स्वयं को पाता था।।130।।

तब किया निवेदन कर्ण ने
कुछ पल युद्ध को रोक दे
रथ का पहिया निकलने तक
अर्जुन उसको एक मौका दे।।131।।

कृष्ण ने कहा पार्थ से---

युद्ध नियम की बातें करने का
उसको है अधिकार नहीं
अभिमन्यु वध के पल में क्या
नियम उसे  था याद नहीं।।132।।

भरी सभा में जब उसने
पांचाली का अपमान किया
एक नारी के वस्त्र हरण पर
धर्म उसका था  कहां गया।।133।।

अब धर्म की बातें करने
है उसका अधिकार नहीं
कर्ण का वध करना अब
है यहां कोई अपराध नहीं।।134।।

यदि अभी कर्ण को न मारे तो
युद्ध कभी न जीत पाओगे
सत्य पुनः संकट में होगा
धर्म नहीं फिर ला पाओगे।।135।।

तब अर्जुन ने दिव्यास्त्र के द्वारा
सर कर्ण का धड़ से अलग किया
ज्योति कर्ण के धड़ से निकली
जो सूर्य में जाकर समाहित हुआ।।136।।

कर्ण ऐसा योद्धा था जग में
जो कभी-कभी ही आते हैं
कितनी भी विषम स्थिति हो
अपना आत्मबल दिखलाते हैं।।137।।

कर्ण भले ही दानवीर था
शूरवीर था, युद्धवीर था
अनैतिकता का साथ निभाकर
नैतिकता पर आघात किया।।138।।

संघर्षरत मानव की खातिर
कर्ण सदा प्रतिमान रहेगा
सत्य, धर्म जो भी त्यागेगा
कर्ण जैसा परिणाम सहेगा।।139।।

जीवन अपना अमूल्य निधि है
इसका तुम सम्मान करो
सत्य ही शिव, शिव ही सुंदर
इसी भाव का ध्यान धरो।।140।।

                   इतिश्री
           🌷🌷🌷🌷🌷🌷

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद







राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9

गतांक से आगे......

कुरुक्षेत्र के रण में दोनों
सेना जब सामने भयी
एक दूसरे का सामर्थ्य
आंखों से परखने लगीं।।106।।

वीरों से व अतिवीरों से
थी सुसज्जित दोनों सेना
एक ओर दर्प बड़ा था
दूजे धर्मराज की सेना।।107।।

पितामह ने कहा कर्ण से
युद्ध भूमि में नहीं जाएगा
जब तक जीवित भीष्म रहेंगे
सेनापति नहीं बन पाएगा।।108।।

दोनों पक्षों में भीषण 
संग्राम वहां होने लगा
दोनों पक्षों के अगणित
शव नित नित गिरने लगा।।109।।

भीष्म, द्रोण जैसे महारथी
एक एक कर  परास्त हुए
विचलित देख दुर्योधन को
कर्ण उसे ढांढस दिए।।110।।

युद्ध के दौरान सभी
नैतिकता सारे पस्त हुए
अभिमन्यु का वध करने
प्रतिमान सारे ध्वस्त हुए।।111।।


अर्जुन वध के लिए कर्ण ने
आसुर व्रत अनुष्ठान किया
युद्ध के सोलहवें दिन फिर
उसे सेनापति नियुक्त किया।।112।।

अर्जुन के अतिरिक्त कर्ण ने
पाण्डवों को पराजित किया
कुंती के वचन फलस्वरूप
नहीं किसी का वध किया।।113।।

युद्ध में हो पराजित जब
सभी शिविर में चले गए
मद में चूर दुर्योधन तब
डींगें फिर हांकने लगे।।114।।

पर कर्ण को था बोध 
संवाद नही अब रण होगा
अर्जुन से उसके युद्ध का
परिणाम बड़ा भीषण होगा।।115।।

क्रमशः.......

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद





राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-8

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-8

गतांक से आगे......

कर्ण युग का महा दानवीर था
उस जैसा उस क्षण कोई नहीं था
अपनी दानशीलता से उसने
अगणित को सुख पहुंचाया था।।85।।

रवि पूजन पश्चात वहां
जो कोई भी आता था
कर्ण उसे मुँहमाँगा देता
रीते नहीं लौटाता था।।86।।

इंद्र ने धर वेश विप्र का
कुंडल-कवच कर्ण से मांगा
सहर्ष समर्पित किया कर्ण ने
निराश नहीं उनको लौटाया।।87।।

सूरज अपना तेज त्याग दे
शीतलता भी चन्द्र त्याग दे
अटल प्रतिज्ञा थी कर्ण की
निराश न जाये कोई द्वार से।।88।।

इंद्र के व्यवहार से पहले
कर्ण कुछ विचलित हुआ
कवच-कुंडल बिना हराऊँगा
उसने प्रण सुनिश्चित किया।।89।।

दानशीलता देख कर्ण की
इंद्र को भी क्षोभ हुआ
शक्ति वरदान दिया फिर
जो एक प्रयोग में लुप्त हुआ।।90।।

युद्ध निश्चिवत हो जाने पर
कुंती का मन व्याकुल हुआ
पुत्रों के मध्य युद्ध रोकने का
उसने फिर निश्चय किया।।91।।

समझाने कर्ण को फिर
कुंती उसके पास गई
कुंती को देख पास अपने
शीश श्रद्धा से झुक गया।।92।।

प्रथम बार आईं हैं आप यहां
राधेय का प्रणाम स्वीकार करें
हृदय बींध गया बातों से उसकी
ज्येष्ठ कौन्तेय आशीष स्वीकार करें।।93।।

मैं तुम्हारी जननी हूँ
मैंने ही तुमको जाया है
लोकाचार के भयवश
मैंने तुमको त्यागा था।।94।।

भूल हुई मुझसे कौन्तेय
मैं तुम्हारी अपराधी हूँ
सच कहती हूँ याद में तेरी
रात-रात भर जागी हूँ।।95।।

ज्येष्ठ कौन्तेय होने के कारण
साथ नही दुर्योधन का देना
अन्याय के प्रतिकार के लिए
साथ पाण्डवों के तुम रहना।।96।।

मेरी है इच्छा यही अब
निवेदन मेरा स्वीकार करो
युद्ध जीत कर कौरव से
सिंहासन स्वीकार करो।।97।।

कर्ण ने तब बोला मां से
जन्मते ही तुमने त्याग दिया
सूतपुत्र कहलाया जब जब
दुर्योधन ने साथ दिया।।98।।

सूतपुत्र होने के कारण
पग-पग पर अपमान हुआ
जब सबने दुत्कारा मुझको
तुमने भी न मान दिया।।99।।

दुर्योधन के उपकारों पर
आघात नहीं मैं कर सकता
जीवन की लालसा में अपने
कृतध्न नहीं मैं बन सकता।।100।।

मैं वचन बद्ध हूँ दुर्योधन से
जिसने मुझको सम्मान दिया
जग ने अपमान किया जब
बस उसने ही साथ दिया।।101।।

किंतु आना यहां आपका
व्यर्थ नहीं जाने पायेगा
वचनबद्ध होता हूँ आपसे
पाण्डव पांच ही रह जायेगा।।102।।

अर्जुन के अतिरिक्त यहां मैं
नहीं किसी पे वार करूंगा
हार सुनिश्चित हुई देख
मृत्यु का मैं वरण करूंगा।।103।।

इस युद्ध में प्रण है माता
मृत्यु दो में एक की होगी
है यही प्रतिज्ञा मेरी आपसे
माता पांच पुत्रों की रहेंगी।।104।।

सुनकर बातें कर्ण की
कुंती निरुत्तर हो गयी
हृदय में व्यथा लिए
नम आंखों से चली गयी।।105।।

क्रमशः......

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद













राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-7

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-7

गतांक से आगे......

हुआ पूर्ण अज्ञातवास
पाण्डव जब वापस आये
मन में द्यूत का क्षोभ भरे
वीरत्व का उत्साह भी लाये।।71।।

सारी युक्ति विफल हुई 
शांति मार्ग सब बंद हुए
वासुदेव के शांतिप्रयास
पूरी तरह विफल हुए।।72।।

युद्ध अवश्यंभावी देख
माधव ने संज्ञान लिया
मिले कर्ण से तब जाकर
उसका फिर परिचय दिया।।73।।

ज्येष्ठ कौन्तेय हो वीरवर
सूतपुत्र न स्वयं को मानो
दुर्योधन की मति है मेरी
अब उसके दिन हैं भारी।।74।।

दुर्योधन का मन नहीं बदल सकता
विनाश युद्ध का रुक नही सकता
तुम अब स्वयं की पहचान करो
इंद्रप्रस्थ का आसन स्वीकार करो।।75।।

दुर्योधन मित्र है मेरा
उसकी हार देखूँ कैसे
शपथ दी मित्रता की मैंने
स्वार्थी बन तोडूं कैसे।।76।।

माना मैं ज्येष्ठ कौन्तेय हूँ
पाण्डव सहर्ष स्वीकार करेंगे
मुकुट उतार मस्तक से अपने
धर्मराज मेरे शीश धरेंगे।।77।।

पर मेरे वचनों का क्या
जो दुर्योधन को देता आया
मेरे ही सम्मान के लिए
वो जग से है लड़ता आया।।78।।

तन मन धन अर्पित सब उसको
जीवन मेरा समर्पित है उसको
उसको है विश्वास मुझी से
है विजय की आस मुझी से।।79।।

आस मैं उसकी तोडूं कैसे
वचनबद्धता छोडूं कैसे
ये अब है आसान नहीं
कृतध्नता स्वीकार नहीं।।80।।

कहकर रथ से उतर गया
लिए नेत्र में शपथ गया
माधव विस्मित देख रहे
उसके प्रण की सोच रहे।।81।।

किस दोराहे पर लाकर
जीवन ने उसको छोड़ा
वचनबद्धता और रिश्तों ने
उसको भीतर तक झिंझोड़ा।।82।।

वचनबद्धता दृढ़ थी उसकी
उसको न वो तोड़ सका
अपनी वचनों की खातिर
साथ न उसका छोड़ सका।।83।।

जीवन है संग्राम यहां
वचनों का है मान यहाँ
पर अधर्म से वचनबद्धता
देता दुःखद परिणाम सदा।।84।।

क्रमशः.....

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6
गतांक से आगे......

द्रौपदी के स्वयंवर में
फिर उसका अपमान हुआ
सूतपुत्र कह द्रुपदसुता ने
वरण करने से इनकार किया।।60।।

भरी सभा मे अपमानित हो
मन ही मन वो कुपित हुआ
अर्जुन की बर्बादी का फिर
उसने मन मे प्रण लिया।।61।।

द्यूत क्रीड़ा के छल में
वो दुर्योधन का साथी था
शकुनि की कुटिल चाल का
स्वयं वो भी साक्षी था।।62।।

द्यूत क्रीड़ा में पांडव जब
अपना सब कुछ हार गए
द्रौपदी को दांव लगाया
उसको भी जब हार गए।।63।।

भरी सभा में जब दुर्योधन ने
पांचाली का अपमान किया
अट्टहास किया तब उसने
वेश्या उसको नाम दिया।।64।।

दासी है पांचाली यहां
इसको अब निर्वस्त्र करो
हार चुके पाण्डव सब कुछ
इससे ही मन मुदित करो।।65।।

द्रौपदी का चीर हरण 
दुःशासन जब करने लगा
किया ध्यान केशव का 
तब चीर रूप प्रकट हुआ।।66।।

लिया शपथ पाण्डवों ने
सबका वो संहार करेंगे
जिसने भी अपमान किया
नहीं उन्हें वो माफ करेंगे।।67।।

दुर्योधन के अन्याय में
कर्ण भी साथी बन गया
अत्याचारी का साथ निभा
खुद अत्याचारी बन गया।।68।।

कर्ण की सारी शिक्षा
व्यर्थ वहां पर हो गयी
विवेकशून्य हो गया वहां
नैतिकता उसकी गिर गयी।।69।।

इसका परिणाम बहुत भारी था
बोझ नही कोई उठा सका
एक सती के क्रंदन का
मोल कोई कब चुका सका।।70।।

क्रमशः........

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद



राधेय या कौन्तेय-खण्ड काव्य- भाग्य-5

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय - खंड काव्य -भाग-5 

गतांक से आगे। ....... 

परशुराम से शिक्षा खातिर
था उसने आघात किया
छिपाकर परिचय अपना
शिक्षा उनसे प्राप्त किया | | 40 ||

एक दिन कानन में
गुरुवर विश्राम कर रहे
कर्ण के उरु पर सर रख
गुरुवर विश्रान्ति  कर रहे ||41||

विश्राम भंग न हो गुरु की
कर्ण चिंतन में लीन हुआ 
विषकीट कहीं से तभी एक
आसन के नीचे उदित हुआ ||42||

लगा काटने कर्ण के उरु को
बहते रक्त को रोके कैसे
धर्मसंकट बड़ा विकट था
विश्राम गुरु का तोड़े कैसे||43||

बैठा रहा अटल अविचल वो
दर्द, तड़प,पीड़ा को रोके
लहू की गर्म धार बह निकली
परशुराम विस्मित तब जागे ||44||

सहनशीलता इतनी तुझमें
विप्र नहीं तू हो सकता
इतनी असह्य वेदना
क्षत्रिय ही सह सकता ||45||

शीघ्र बता परिचय अपना
वरना इसका फल पायेगा
मेरी क्रोधाग्नि से तत्क्षण
भस्म यहां तू हो जायेगा ||46||

सूतपुत्र कर्ण हूँ मैं
करुणा का आकांक्षी हूँ 
शिक्षा का उद्देश्य लिए
मैं कृपा का अभिलाषी हूँ||47||

जानकर गुरुवर परिचय मेरा 
शिक्षा आप मुझे न देते
झूठा हूँ अपराधी हूँ मैं
क्षमा दान मुझे दे दीजे।।48।।

परशुराम के चरणों में
साक्षात दंडवत हो गया
जीवन चरणों में त्यागूंगा
जीवनदान नहीं मांगूंगा 49||

देख कर्ण की त्याग,तपस्या
गुरु भी विचलित हो बैठे
झूठ बोल विद्या ली उसने
श्राप इसलिए दे बैठे ||50||

प्राणदान दे रहा तुम्हें
पर शिक्षा हर लेता हूँ
विद्या का अंतिम चरण
तेज सभी हर लेता हूँ ||51||

सिखलाया है जो भी विद्या
उचित समय भूल जायेगा
ब्रम्हास्त्र लिया है जो तूने 
काम नहीं तेरे आएगा ||52||

गुरुवर के श्राप से व्याकुल
हतप्रभ कर्ण विकल हुआ
ऐसा श्राप देकर गुरुवर
प्रण मेरा क्यूं हर लिया।।53।।

श्राप अटल है, अविचल है
तुम्हें वहन अब करना है
कवच-कुंडल धारी तुम हो
स्वयं दीप्तीवान रहना है।।54।।

कवच-कुंडल धारी तुम हो
तुम्हें हरा न कोई पायेगा
उच्च व्यवहार किया वरण तो
जीत नहीं कोई पायेगा।।55।।

ऐसा कहकर परशुराम जब
प्रस्थान को तैयार हुए
अश्रुधार से चरण धोकर
गुरुदक्षिणा दान दिए।।56।।

झूठ बोल, कपट ले मन में
शिक्षा प्राप्त न हो सकता
उद्देश्य चाहे जैसा भी हो
मंतव्य सफल न हो सकता।।57।।

ईर्ष्या द्वेष भरा जब मन में 
क्रोध, संताप हावी हृदय में
बुद्धि , विवेक हर लेता है
क्रोध नियंत्रित करता मन को।।58।।

शिक्षा का औचित्य नहीं
तब कोई रह जाता
विवेकहीन हो जाता जीवन
औचित्य नहीं कुछ रह जाता।।59।।

 क्रमशः.........
©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद










राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-4

राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-4

गतांक से आगे.....

कृपाचार्य फिर उठकर बोले
व्यर्थ न अपना रक्त जलाओ
ये रंगभूमि है राजवंशी की
व्यर्थ न सबका वक्त गंवाओ।।28।।

जात-पांत की बातें सुनकर
हृदय क्षोभ से भर आया
निकल सभा में दुर्योधन
आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया।।29।।

अपमान वीर का रंगभूमि में
इसका मैं खंडन करता हूँ
राजवंश यदि पहचान वीर की
अंगदेश अर्पित करता हूँ।।30।।

दुर्योधन का भाव देखकर
राधेय तब विह्वल हुआ
कृतज्ञ भाव भरे हृदय में
स्वयं को पूर्ण समर्पित किया।।31।।

भरी सभा में हाथ बढ़ाकर
तुमने जो मेरा मान बढ़ाया है
निश्चय है, अटल सत्य है, इस
ऋण से उऋण नहीं हो पाऊंगा।।32।।

बढ़ता देख मान कर्ण का
सभाजन तब विचलित हुए
कृपाचार्य के बीचबचाव से
संवाद सभी स्थगित हुए।।33।।

रंगभूमि के आयोजन सारे
तत्क्षण में सभी स्थगित हुए
इक-इक कर उठ चले पुरवासी
क्षोभ-हर्ष हृदय में भरे हुए।।34।।

अंगदेश का शासन पाकर
राधेय तब अंगराज भए
एक वीर का सान्निध्य पाकर
दुर्योधन भी हर्षित हुए।।35।।

तप-त्याग दानवीरता में
नहीं था उसका कोई सानी
पर दुर्योधन से निष्ठा वश
न रोक सका उसकी मनमानी।।36।।

मित्रता निष्ठा मात्र नहीं है
ये इक प्यारा बन्धन है
महके जिससे जीवन सारा
ऐसा सुगन्धित चंदन है।।37।।

कर्ण मगर भूल यही
जीवन भर करता आया
दुर्योधन के कुटिल भाव का
मूक समर्थन करता आया।।38।।

एहसानों का मतलब ये
कभी नही हो सकता
अपराधों पर मौन साधकर
महान नहीं कोई हो सकता।।39।।

 क्रमशः......
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद





राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-3

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग-3
गतांक से आगे......

शस्त्र-शास्त्र की दीक्षा लेकर
राजकुंवर सब महल को आये
कौशल दिखलाने की खातिर
नियत दिन रंगभूमि सब आये।।18।।

रंगभूमि में योद्धा सारे
इक इक कर पौरुष दिखलाये
अर्जुन ने जब प्रत्यंचा साधा
राधेय ने तब उसको साधा।।19।।

इतना गर्व न कर तू खुद पर
इस क्षण कर तू मेरा सामना
जो इतना अभिमान है खुद पर
तो रंगभूमि से नहीं भागना।।20।।

कहकर लक्ष्यों का सारे 
उसने भी संधान किया
इक इक कर सारी विद्या का
फिर उसने परिणाम दिया।।21।।

देख के रणकौशल उसका
जनता सारी दंग रह गयी
गूंजी जब टंकार धनुष की
आंखे सब स्तब्ध रह गयी।।22।।

सुनकर ललकार कर्ण की
शूरवीर सब हतप्रभ हुए
डगमग हुआ तब सिंहासन
राजवंश निःशब्द हुए।।23।।

कृपाचार्य फिर आगे बढ़कर
उससे उसका परिचय पूछा
अर्जुन तो है राजवंश का
उसके कुल का वैशिष्ट्य पूछा।।24।।

रंगभूमि है उन योद्धा की
राजवंश से संबंध जो रखते
जो तुम ठहरे राजवंश के
भागीदार यहां तब हो सकते।।25।।

सूतपुत्र हूँ मैं लेकिन
इसमें मेरा दोष नहीं
शिक्षा तो स्वाभाविक है
इसका कुल से मेल नहीं।।26।।

जो अर्जुन है वीर यहां तो
पास क्यूं नहीं फिर आता
जो भुजबल पर विश्वास उसे है
विश्वास नहीं क्यूं  दिखलाता।।27।।

क्रमशः............
©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य- भाग-2

राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय। 
गतांक से आगे--

बहता बहता वह बालक फिर
उस स्थान पर जा पहुंचा
जहां धृतराष्ट्र का सारथी अधीरथ
अश्व को जल पिला रहा था।।10।।

निस्संतान दंपत्ति था अधीरथ
उसने बालक को गले लगा लिया
पालन पोषण किया दोनों ने
राधेय उसको नाम दिया।।11।।

सूत वंश में पला बढा वो
पग पग पर छला गया वो
तन से जितना शूरवीर था
मन से उतना ही भावुक था वो।।12।।

सूतवंशी होने के कारण गुरु द्रोण ने 
जब शिक्षा देने से इनकार किया
परशुराम से पहचान छिपा कर
शिक्षा उनसे प्राप्त किया।।13।।

था स्वभाव से दानी लेकिन
पौरुष का अभिमानी था वो
हठ उसके स्वभाव में था, पर 
लक्ष्य का सदा आकांक्षी था वो।।14।।

पर तेज कहां किसी पौरुष का
कब तक यहां कहाँ छिपता है
शूरवीर पौरुष हैं जो भी
वो तिरस्कार कब कहाँ सहता है।।15।।

नहीं शिक्षा पर अधिकार किसी का
ये तो है अभ्यास पे निर्भर
युद्ध कला व ज्ञान योग का
कर्मठता से स्वविकास किया।।16।।

अपनी कर्मठता से उसने जग को
आगे बढ़कर ये दृष्टान्त दिया
शिक्षा मात्र कुलीन का अधिकार नही
संधान करे जो भी,उसका है अधिकार सही।।17।।

              क्रमशः..........




राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य भाग-1

प्रणाम मैं अजय कुमार पाण्डेय आप सबके समक्ष एक ऐतिहासिक महाभारत कालीन योद्धा कर्ण पर अपने भाव प्रस्तुत कर रहा हूँ। इतिहास के किसी
पात्र को शब्दों में लिखना हमेशा से दुष्कर रहा है अतः मेरे लिए भी मुश्किल ही रहा, क्योंकि इससे कइयों की भावनाएं जुड़ी रहती हैं। परन्तु फिर भी मैंने उपलब्ध साक्ष्यों, धारावाहिकों में दिखाए गए वृत्तांत के अनुसार, विभिन्न पुस्तकों, गूगल पर उपलब्ध सामग्री, इतिहास व कहानियों एवं जनमानस के लिए उपलब्ध काव्य संग्रहों का अध्ययन कर के इसे लिखने का प्रयास किया है। इसका उद्देश्य न तो किसी व्यक्तित्व का महिमामंडन करना है और न ही किसी को नीचा दिखाना है। अपितु ये के कोई कितना भी दानवीर हो, शूरवीर हो, सहृदयी हो, प्रतापी हो परन्तु यदि वो असत्य, अधर्म,अन्याय,अमानवीयता, अपराधी,अनैतिकता, दुराग्रही, दुराचारी का साथ देता है तो वो भी अपराधी व अधर्म का सहयोगी ही माना जायेगा और उसके लिए वही दंड का विधान सुनिश्चित होगा जो अपराधी के लिए है।
  यह मेरी मौलिक रचना है इसका सर्वाधिकार ©️ सुरक्षित है।
   इसका उद्देश्य किसी की भावना को आहत करना नहीं है और न ही किसी ऐतिहासिक पात्र का उपहास करना, मेरा निवेदन है कि इसे भूतकाल, वर्तमान अथवा भविष्य की किसी व्यक्तिगत घटना से जोड़ कर नहीं देखा जाए, यह एक ऐतिहासिक प्रकरण है ,फिर भी यदि इससे किसी की भावना आहत होती है तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ।

अजय कुमार पाण्डेय
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भाग-1
           राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय।  

यदुवंशी नृप शूरसेन सुुता
कुंती जब सयानी भई
महात्माओं की सेवा में
थी फिर वो रम गई।।1।।

आतिथ्य गृह में ऋषियों 
की मन से सेवा करती
उसके सेवा से प्रसन्न
ऋषि सभी रहा करते।।2।।

एक दिन आतिथ्य गृह में
ऋषि दुर्वासा आ पहुंचे
कुंती की सेवा से विह्वल
एक मंत्र उसे वो दे बैठे।।3।।

जिस भी देव का स्मरण कर
उनका तुम आवाहन करोगी
उनके जैसा ही तेजस्वी
पुत्र बेटी तुम प्राप्त करोगी।4।।

कौतूहल वश एक दिन कुंती ने
उस मन्त्र का जाप किया
सूर्यदेव का स्मरण करके
फिर उनका आह्वान किया।।5।।

सूर्यदेव प्रकट हो पूछे
क्यों मेरा आवाहन किया
पूर्ण होगा मन्तव्य तुम्हारा
जिसका तुमने संधान किया।।6।।

इस वरदान से विवश हो
खाली नहीं मैं जा सकता हूँ
मेरे जैसा पुत्र प्राप्त तुम्हे हो
वरदान तुम्हे मैं देता हूँ।।7।।

वक्त आने पर सूर्यदेव सा
तेजस्वी ने जन्म लिया
कवच-कुंडल देह धरे 
नया अध्याय प्रारंभ हुआ ।।8।।

वो कुंती का कानीन पुत्र था
लोक लज्जा से भयभीत हुई
रख पिटारी में उसको फिर
गंगा धार में बहा गयी।।9।।

भाग 1 समाप्त
©️ अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
--------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग 2

गतांक से आगे.......

बहता बहता वह बालक 
उस स्थान पर जा पहुंचा
धृतराष्ट्र का सारथी अधीरथ
अश्व को जल पिला रहा था।।10।।

निस्संतान दंपत्ति था अधीरथ
उसने बालक को गले लगाया
पालन पोषण किया दोनों ने
राधेय उसको नाम दिया।।11।।

सूत वंश में पला बढा वो
पग पग पर छला गया वो
तन से जितना शूरवीर था
मन से उतना ही भावुक था।।12।।

सूतवंशी के कारण गुरु द्रोण ने 
जब शिक्षा देने से इनकार किया
परशुराम से पहचान छिपा कर
शिक्षा उनसे प्राप्त किया।।13।।

था स्वभाव से दानी लेकिन
पौरुष का अभिमानी था वो
हठ उसके स्वभाव में था, पर 
लक्ष्य का सदा आकांक्षी था वो।।14।।

पर तेज कहां किसी पौरुष का
कब तक यहां कहाँ छिपता है
शूरवीर पौरुष हैं जो भी
वो तिरस्कार कब कहाँ सहता है।।15।।

नहीं शिक्षा पे अधिकार किसी का
ये तो है अभ्यास पे निर्भर
युद्ध कला व ज्ञान योग का
कर्मठता से स्वविकास किया।।16।।

अपनी कर्मठता से जग को
आगे बढ़कर ये दृष्टान्त दिया
शिक्षा कुलीन का ही अधिकार नही
है सबका इसपर अधिकार सही।।17।।

भाग 2 समाप्त
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
-------------------
राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग 3 

गतांक से आगे......

शस्त्र-शास्त्र की दीक्षा लेकर
राजकुंवर सब महल को आये
कौशल दिखलाने की खातिर
नियत दिन रंगभूमि सब आये।।18।।

रंगभूमि में योद्धा सारे
इक इक कर पौरुष दिखलाये
अर्जुन ने जब प्रत्यंचा साधा
राधेय ने तब उसको साधा।।19।।

इतना गर्व न कर तू खुद पर
इस क्षण कर तू मेरा सामना
जो इतना अभिमान है खुद पर
तो रंगभूमि से नहीं भागना।।20।।

कहकर लक्ष्यों का सारे 
उसने भी संधान किया
इक इक कर सारी विद्या का
फिर उसने परिणाम दिया।।21।।

देख के रणकौशल उसका
जनता सारी दंग रह गयी
गूंजी जब टंकार धनुष की
आंखे सब स्तब्ध रह गयी।।22।।

सुनकर ललकार कर्ण की
शूरवीर सब हतप्रभ हुए
डगमग हुआ तब सिंहासन
राजवंश निःशब्द हुए।।23।।

कृपाचार्य फिर आगे बढ़कर
उससे उसका परिचय पूछा
अर्जुन तो है राजवंश का
उसके कुल का वैशिष्ट्य पूछा।।24।।

रंगभूमि है उन योद्धा की
राजवंश से संबंध जो रखते
जो तुम ठहरे राजवंश के
भागीदार यहां तब हो सकते।।25।।

सूतपुत्र हूँ मैं लेकिन
इसमें मेरा दोष नहीं
शिक्षा तो स्वाभाविक है
इसका कुल से मेल नहीं।।26।।

जो अर्जुन है वीर यहां तो
पास क्यूं नहीं फिर आता
जो भुजबल पर विश्वास उसे है
विश्वास नहीं क्यूं  दिखलाता।।27।।

भाग 3 समाप्त
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग 4 

गतांक से आगे.....

कृपाचार्य फिर उठकर बोले
व्यर्थ न अपना रक्त जलाओ
ये रंगभूमि है राजवंशी की
व्यर्थ न सबका वक्त गंवाओ।।28।।

जात-पांत की बातें सुनकर
हृदय क्षोभ से भर आया
निकल सभा में दुर्योधन
आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया।।29।।

अपमान वीर का रंगभूमि में
इसका मैं खंडन करता हूँ
राजवंश यदि पहचान वीर की
अंगदेश अर्पित करता हूँ।।30।।

दुर्योधन का भाव देखकर
राधेय तब विह्वल हुआ
कृतज्ञ भाव भरे हृदय में
स्वयं को पूर्ण समर्पित किया।।31।।

भरी सभा में हाथ बढ़ाकर
तुमने मेरा मान बढ़ाया है
निश्चय है, अटल सत्य है, ये
ऋण से उऋण नहीं हो पाऊंगा।।32।।

बढ़ता देख मान कर्ण का
सभाजन तब विचलित हुए
कृपाचार्य के बीचबचाव से
संवाद सभी स्थगित हुए।।33।।

रंगभूमि के आयोजन सारे
तत्क्षण में सभी स्थगित हुए
इक-इक कर उठ चले पुरवासी
क्षोभ-हर्ष हृदय में भरे हुए।।34।।

अंगदेश का शासन पाकर
राधेय तब अंगराज भए
एक वीर का सान्निध्य पाकर
दुर्योधन भी हर्षित हुए।।35।।

तप-त्याग दानवीरता में
नहीं था उसका कोई सानी
पर दुर्योधन से निष्ठा वश
न रोक सका उसकी मनमानी।।36।।

मित्रता निष्ठा मात्र नहीं है
ये इक प्यारा बन्धन है
महके जिससे जीवन सारा
ऐसा सुगन्धित चंदन है।।37।।

कर्ण मगर भूल यही
जीवन भर करता आया
दुर्योधन के कुटिल भाव का
मूक समर्थन करता आया।।38।।

एहसानों का मतलब ये
कभी नही हो सकता
अपराधों पर मौन साधकर
महान नहीं कोई हो सकता।।39।।

भाग 4 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
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राधेय या कौन्तेय- खण्ड काव्य-भाग 5 प्रारंभ

गतांक से आगे...…

परशुराम से शिक्षा खातिर
था उसने आघात किया
छिपाकर परिचय अपना
शिक्षा उनसे प्राप्त किया | | 40 ||

एक दिन कानन में
गुरुवर विश्राम कर रहे
कर्ण के उरु पर सर रख
गुरुवर विश्रान्ति  कर रहे ||41||

विश्राम भंग न हो गुरु की
कर्ण चिंतन में लीन हुआ
विषकीट कहीं से तभी एक
आसन के नीचे उदित हुआ ||42||

लगा काटने कर्ण के उरु को
बहते रक्त को रोके कैसे
धर्मसंकट बड़ा विकट था
विश्राम गुरु का तोड़े कैसे||43||

बैठा रहा अटल अविचल वो
दर्द, तड़प,पीड़ा को रोके
लहू की गर्म धार बह निकली
परशुराम विस्मित तब जागे ||44||

सहनशीलता इतनी तुझमें
विप्र नहीं तू हो सकता
इतनी असह्य वेदना
क्षत्रिय ही सह सकता ||45||

शीघ्र बता परिचय अपना
वरना इसका फल पायेगा
मेरी क्रोधाग्नि से तत्क्षण
भस्म यहां तू हो जायेगा ||46||

सूतपुत्र कर्ण हूँ मैं
करुणा का आकांक्षी हूँ
शिक्षा का उद्देश्य लिए
मैं कृपा का अभिलाषी हूँ||47||

जानकर गुुरुवर परिचय मेरा
शिक्षा आप मुझे न देते
झूूूठा हूँ अपराधी हूँ मैं
क्षमा दान मुझे दे दीजे||48||

परशुराम के चरणों में
साक्षात दंडवत हो गया
जीवन चरणों में त्यागूंगा
जीवनदान नहीं मांगूंगा 49||

देख कर्ण की त्याग,तपस्या
गुरु विचलित हो बैठे
झूठ बोल विद्या ली उसने
श्राप इसलिए दे बैठे ||50||

प्राणदान दे रहा तुम्हें
पर शिक्षा हर लेता हूँ
विद्या का अंतिम चरण
तेज सभी हर लेता हूँ ||51||

सिखलाया है जो भी विद्या
उचित समय भूल जायेगा
ब्रम्हास्त्र लिया है जो तूने 
काम नहीं तेरे आएगा ||52||

गुरुवर के श्राप से व्याकुल
हतप्रभ कर्ण विकल हुआ
ऐसा श्राप  देेकर गुरुवर
प्रण मेरा क्यूं हर लिया।।53।।

श्राप अटल है, अविचल है
तुम्हें वहन अब करना है
कवच-कुंडल धारी तुम हो
स्वयं दीप्तीवान रहना है।।54।।

कवच-कुंडल धारी तुम हो
तुम्हें हरा न कोई पायेगा
उच्च व्यवहार किया वरण तो
जीत  नहीं कोई पायेगा।।55।।

ऐसा कह परशुराम जब
प्रस्थान को तैयार हुए
अश्रुधार से चरण धोकर
गुरुदक्षिणा दान दिए।।56।।

झूठ बोल, कपट ले मन में
शिक्षा प्राप्त न हो सकता
उद्देश्य चाहे जैसा भी हो
मंतव्य सफल न हो सकता।।57।।

ईर्ष्या द्वेष भरा जब मन में 
क्रोध, संताप हावी हृदय में
बुद्धि, विवेक हर लेता है
क्रोध नियंत्रित करता मन को।।58।।

शिक्षा का औचित्य नहीं
तब कोई रह जाता
विवेकहीन हो जाता जीवन
औचित्य नहीं कुछ रह जाता।।59।।

भाग 5 समाप्त
क्रमशः.......
©️अजय कुमार पाण्डेय
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-भाग-6
गतांक से आगे......

द्रौपदी के स्वयंवर में
फिर उसका अपमान हुआ
सूतपुत्र कह द्रुपदसुता ने
वरण करने से इनकार किया।।60।।

भरी सभा मे अपमानित हो
मन ही मन वो कुपित हुआ
अर्जुन की बर्बादी का फिर
उसने मन मे प्रण लिया।।61।।

द्यूत क्रीड़ा के छल में
वो दुर्योधन का साथी था
शकुनि की कुटिल चाल का
स्वयं वो भी साक्षी था।।62।।

द्यूत क्रीड़ा में पांडव जब
अपना सब कुछ हार गए
द्रौपदी को दांव लगाया
उसको भी जब हार गए।।63।।

भरी सभा में जब दुर्योधन ने
पांचाली का अपमान किया
अट्टहास किया तब उसने
वेश्या उसको नाम दिया।।64।।

दासी है पांचाली यहां
इसको अब निर्वस्त्र करो
हार चुके पाण्डव सब कुछ
इससे ही मन मुदित करो।।65।।

द्रौपदी का चीर हरण 
दुःशासन जब करने लगा
किया ध्यान केशव का 
तब चीर रूप प्रकट हुआ।।66।।

लिया शपथ पाण्डवों ने
सबका वो संहार करेंगे
जिसने भी अपमान किया
नहीं उन्हें वो माफ करेंगे।।67।।

दुर्योधन के अन्याय में
कर्ण भी साथी बन गया
अत्याचारी का साथ निभा
खुद अत्याचारी बन गया।।68।।

कर्ण की सारी शिक्षा
व्यर्थ वहां पर हो गयी
विवेकशून्य हो गया वहां
नैतिकता उसकी गिर गयी।।69।।

इसका परिणाम बहुत भारी था
बोझ नही कोई उठा सका
एक सती के क्रंदन का
मोल कोई कब चुका सका।।70।।

भाग -6 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-7

गतांक से आगे......

हुआ पूर्ण अज्ञातवास
पाण्डव जब वापस आये
मन में द्यूत का क्षोभ भरे
वीरत्व का उत्साह भी लाये।।71।।

सारी युक्ति विफल हुई 
शांति मार्ग सब बंद हुए
वासुदेव के शांतिप्रयास
पूरी तरह विफल हुए।।72।।

युद्ध अवश्यंभावी देख
माधव ने संज्ञान लिया
मिले कर्ण से तब जाकर
उसका फिर परिचय दिया।।73।।

ज्येष्ठ कौन्तेय हो वीरवर
सूतपुत्र न स्वयं को मानो
दुर्योधन की मति है मेरी
अब उसके दिन हैं भारी।।74।।

दुर्योधन का मन नहीं बदल सकता
विनाश युद्ध का रुक नही सकता
तुम अब स्वयं की पहचान करो
इंद्रप्रस्थ का आसन स्वीकार करो।।75।।

दुर्योधन मित्र है मेरा
उसकी हार देखूँ कैसे
शपथ दी मित्रता की मैंने
स्वार्थी बन तोडूं कैसे।।76।।

माना मैं ज्येष्ठ कौन्तेय हूँ
पाण्डव सहर्ष स्वीकार करेंगे
मुकुट उतार मस्तक से अपने
धर्मराज मेरे शीश धरेंगे।।77।।

पर मेरे वचनों का क्या
जो दुर्योधन को देता आया
मेरे ही सम्मान के लिए
वो जग से है लड़ता आया।।78।।

तन मन धन अर्पित सब उसको
जीवन मेरा समर्पित है उसको
उसको है विश्वास मुझी से
है विजय की आस मुझी से।।79।।

आस मैं उसकी तोडूं कैसे
वचनबद्धता छोडूं कैसे
ये अब है आसान नहीं
कृतध्नता स्वीकार नहीं।।80।।

कहकर रथ से उतर गया
लिए नेत्र में शपथ गया
माधव विस्मित देख रहे
उसके प्रण की सोच रहे।।81।।

किस दोराहे पर लाकर
जीवन ने उसको छोड़ा
वचनबद्धता और रिश्तों ने
उसको भीतर तक झिंझोड़ा।।82।।

वचनबद्धता दृढ़ थी उसकी
उसको न वो तोड़ सका
अपनी वचनों की खातिर
साथ न उसका छोड़ सका।।83।।

जीवन है संग्राम यहां
वचनों का है मान यहाँ
पर अधर्म से वचनबद्धता
देता दुःखद परिणाम सदा।।84।।

भाग 7 समाप्त
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©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः....
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-8

गतांक से आगे......

कर्ण युग का महा दानवीर था
उस जैसा उस क्षण कोई नहीं था
अपनी दानशीलता से उसने
अगणित को सुख पहुंचाया था।।85।।

रवि पूजन पश्चात वहां
जो कोई भी आता था
कर्ण उसे मुँहमाँगा देता
रीते नहीं लौटाता था।।86।।

इंद्र ने धर वेश विप्र का
कुंडल-कवच कर्ण से मांगा
सहर्ष समर्पित किया कर्ण ने
निराश नहीं उनको लौटाया।।87।।

सूरज अपना तेज त्याग दे
शीतलता भी चन्द्र त्याग दे
अटल प्रतिज्ञा थी कर्ण की
निराश न जाये कोई द्वार से।।88।।

इंद्र के व्यवहार से पहले
कर्ण कुछ विचलित हुआ
कवच-कुंडल बिना हराऊँगा
उसने प्रण सुनिश्चित किया।।89।।

दानशीलता देख कर्ण की
इंद्र को भी क्षोभ हुआ
शक्ति वरदान दिया फिर
जो एक प्रयोग में लुप्त हुआ।।90।।

युद्ध निश्चिवत हो जाने पर
कुंती का मन व्याकुल हुआ
पुत्रों के मध्य युद्ध रोकने का
उसने फिर निश्चय किया।।91।।

समझाने कर्ण को फिर
कुंती उसके पास गई
कुंती को देख पास अपने
शीश श्रद्धा से झुक गया।।92।।

प्रथम बार आईं हैं आप यहां
राधेय का प्रणाम स्वीकार करें
हृदय बींध गया बातों से उसकी
ज्येष्ठ कौन्तेय आशीष स्वीकार करें।।93।।

मैं तुम्हारी जननी हूँ
मैंने ही तुमको जाया है
लोकाचार के भयवश
मैंने तुमको त्यागा था।।94।।

भूल हुई मुझसे कौन्तेय
मैं तुम्हारी अपराधी हूँ
सच कहती हूँ याद में तेरी
रात-रात भर जागी हूँ।।95।।

ज्येष्ठ कौन्तेय होने के कारण
साथ नही दुर्योधन का देना
अन्याय के प्रतिकार के लिए
साथ पाण्डवों के तुम रहना।।96।।

मेरी है इच्छा यही अब
निवेदन मेरा स्वीकार करो
युद्ध जीत कर कौरव से
सिंहासन स्वीकार करो।।97।।

कर्ण ने तब बोला मां से
जन्मते ही तुमने त्याग दिया
सूतपुत्र कहलाया जब जब
दुर्योधन ने साथ दिया।।98।।

सूतपुत्र होने के कारण
पग-पग पर अपमान हुआ
जब सबने दुत्कारा मुझको
तुमने भी न मान दिया।।99।।

दुर्योधन के उपकारों पर
आघात नहीं मैं कर सकता
जीवन की लालसा में अपने
कृतध्न नहीं मैं बन सकता।।100।।

मैं वचन बद्ध हूँ दुर्योधन से
जिसने मुझको सम्मान दिया
जग ने अपमान किया जब
बस उसने ही साथ दिया।।101।।

किंतु आना यहां आपका
व्यर्थ नहीं जाने पायेगा
वचनबद्ध होता हूँ आपसे
पाण्डव पांच ही रह जायेगा।।102।।

अर्जुन के अतिरिक्त यहां मैं
नहीं किसी पे वार करूंगा
हार सुनिश्चित हुई देख
मृत्यु का मैं वरण करूंगा।।103।।

इस युद्ध में प्रण है माता
मृत्यु दो में एक की होगी
है यही प्रतिज्ञा मेरी आपसे
माता पांच पुत्रों की रहेंगी।।104।।

सुनकर बातें कर्ण की
कुंती निरुत्तर हो गयी
हृदय में व्यथा लिए
नम आंखों से चली गयी।।105।।

भाग 8 समाप्त
--------------
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.....
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-9

गतांक से आगे......

कुरुक्षेत्र के रण में दोनों
सेना जब सामने भयी
एक दूसरे का सामर्थ्य
आंखों से परखने लगीं।।106।।

वीरों से व अतिवीरों से
थी सुसज्जित दोनों सेना
एक ओर दर्प बड़ा था
दूजे धर्मराज की सेना।।107।।

पितामह ने कहा कर्ण से
युद्ध भूमि में नहीं जाएगा
जब तक जीवित भीष्म रहेंगे
सेनापति नहीं बन पाएगा।।108।।

दोनों पक्षों में भीषण 
संग्राम वहां होने लगा
दोनों पक्षों के अगणित
शव नित नित गिरने लगा।।109।।

भीष्म, द्रोण जैसे महारथी
एक एक कर  परास्त हुए
विचलित देख दुर्योधन को
कर्ण उसे ढांढस दिए।।110।।

युद्ध के दौरान सभी
नैतिकता सारे पस्त हुए
अभिमन्यु का वध करने
प्रतिमान सारे ध्वस्त हुए।।111।।


अर्जुन वध के लिए कर्ण ने
आसुर व्रत अनुष्ठान किया
युद्ध के सोलहवें दिन फिर
उसे सेनापति नियुक्त किया।।112।।

अर्जुन के अतिरिक्त कर्ण ने
पाण्डवों को पराजित किया
कुंती के वचन फलस्वरूप
नहीं किसी का वध किया।।113।।

युद्ध में हो पराजित जब
सभी शिविर में चले गए
मद में चूर दुर्योधन तब
डींगें फिर हांकने लगे।।114।।

पर कर्ण को था बोध 
संवाद नही अब रण होगा
अर्जुन से उसके युद्ध का
परिणाम बड़ा भीषण होगा।।115।।

भाग 9 समाप्त
--------------
©️अजय कुमार पाण्डेय
क्रमशः.......
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राधेय या ज्येष्ठ कौन्तेय-खण्ड काव्य-भाग-10

गतांक से आगे.......

बहुप्रतीक्षित निर्णायक दिन
युद्ध का आखिर आ गया
अर्जुन की क्षति की खातिर
कर्ण ने भार्गवास्त्र चला दिया।।116।।

भार्गवास्त्र का प्रभाव तेज था
सब छिन्न-भिन्न होने लगे
सेना में हाहाकार मची तब
सब अर्जुन के पास गए।।117।।

भार्गवास्त्र की काट वहां
असंभव था सबके लिए
यदि अर्जुन रण से भागेगा
भार्गवास्त्र कर्ण वापस लाएगा।।118।।

फिर कृष्ण ने अर्जुन के
पलायन का मार्ग बनाया
भागते देख अर्जुन को
भार्गवास्त्र वापस लाया।।119।।

दोनों पक्षों की सेना के
महान शूरवीर थे लड़ रहे
रुक गयी अवनि जैसे
देवलोक भी जड़ गए।।120।।

बाणों की वर्षा से दोनों
इक दूजे को घात रहे
कोई नहीं ढीला पड़ता
वक्त वहीं ठहर गया।।121।।

दोनों का संग्राम बड़ा था
आखिर उनका नाम बड़ा था
बाणों की वर्षा से सारे
अवनि-अंबर ढंक गए।।122।।

अर्जुन के बाण कर्ण के
रथ पर थे बरसने लगे
उन बाणों के फलस्वरूप
रथ कई गज खिसकने लगे।।123।।

पर कर्ण के बाणों से केवल
कुछ बलिश्त ही खिसका पाया
कृष्ण ने करी प्रशंसा उसकी
अर्जुन को हतप्रभ अचंभित पाया।।124।।

क्या उसके वार सभी
मेरे वार पर हावी हैं
ऐसा क्या है किया कर्ण ने
जिससे आप प्रभावित हैं।।125।।

उसके रथ पे भार मात्र शल्य का है
तुम्हारे रथ स्वयं हनुमान विराजे
इतनी शक्ति वारों में उसके
जो उनका भी रथ खिसका दे।।126।।

कितनी ही बार युद्ध में दोनों ने
इक दूजे की प्रत्यंचा काट दिया
नागास्त्र प्रयोग किया जब कर्ण ने
माधव ने अर्जुन का रथ धँसा दिया।।127।।

नागास्त्र विफल होता देख कर
अश्वसेना नाग ने निवेदन किया
पर माता कुंती के वचनस्वरूप 
पुनः प्रयोग को मना किया।।128।।

यद्दपि युद्ध गतिरोध पूर्ण था
पर कर्ण उस पल उलझ गया
जब उसके रथ का पहिया
धरती में जाकर धँस गया।।129।।

वह अपने दैवी अस्त्रों का
प्रयोग नहीं कर पाता था
गुरु के श्राप के कारण
असमर्थ स्वयं को पाता था।।130।।

तब किया निवेदन कर्ण ने
कुछ पल युद्ध को रोक दे
रथ का पहिया निकलने तक
अर्जुन उसको एक मौका दे।।131।।

कृष्ण ने कहा पार्थ से---

युद्ध नियम की बातें करने का
उसको है अधिकार नहीं
अभिमन्यु वध के पल में क्या
नियम उसे  था याद नहीं।।132।।

भरी सभा में जब उसने
पांचाली का अपमान किया
एक नारी के वस्त्र हरण पर
धर्म उसका था  कहां गया।।133।।

अब धर्म की बातें करने
है उसका अधिकार नहीं
कर्ण का वध करना अब
है यहां कोई अपराध नहीं।।134।।

यदि अभी कर्ण को न मारे तो
युद्ध कभी न जीत पाओगे
सत्य पुनः संकट में होगा
धर्म नहीं फिर ला पाओगे।।135।।

तब अर्जुन ने दिव्यास्त्र के द्वारा
सर कर्ण का धड़ से अलग किया
ज्योति कर्ण के धड़ से निकली
जो सूर्य में जाकर समाहित हुआ।।136।।

कर्ण ऐसा योद्धा था जग में
जो कभी-कभी ही आते हैं
कितनी भी विषम स्थिति हो
अपना आत्मबल दिखलाते हैं।।137।।

कर्ण भले ही दानवीर था
शूरवीर था, युद्धवीर था
अनैतिकता का साथ निभाकर
नैतिकता पर आघात किया।।138।।

संघर्षरत मानव की खातिर
कर्ण सदा प्रतिमान रहेगा
सत्य, धर्म जो भी त्यागेगा
कर्ण जैसा परिणाम सहेगा।।139।।

जीवन अपना अमूल्य निधि है
इसका तुम सम्मान करो
सत्य ही शिव, शिव ही सुंदर
इसी भाव का ध्यान धरो।।140।।

                   इतिश्री
           🌷🌷🌷🌷🌷🌷
स्मरण- ये मेरी मौलिक रचना है, इसका सर्वाधिकार सुरक्षित है।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
03 मई, 2020




































             

मलहम के अवशेष

मलहम के अवशेष।  

जीवन की अंगनाई में
भाव मिले, अतिरेक मिले
घाव मिले अतिरेक मगर
बस मलहम के अवशेष मिले।

व्यंग्य बाण बस सुनता आया
नश्तर दिल पर चुभता पाया
दर्द चिकोटी का सह सह कर
रोता आया, हंसता आया।

आरोप यहां बहुतेरे आये
क्या अपने और क्या थे पराये
जग के तीखे दंश हैं झेले
पग-पग कितने घाव मिटाये।

कहने को बहुतेरे अपने
साथ मगर जाने क्यूं छूटा
जब-जब उनसे हुआ सामना
तब-तब मन का दर्पण टूटा।

इस दर्पण के टुकड़े में ही
अब खुद को मैं खोज रहा हूँ
हर टुकड़े के अवशेषों में
दंश तेरा ही देख रहा हूँ।

इन अवशेषों के एहसासों में
दर्द मिले अतिरेक मिले
घाव मिले अतिरेक यहां
बस मलहम के अवशेष मिले।।

©अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
30अप्रैल, 2020


चलते रहना है



चलते रहना है। 

भले हो मुश्किल राहें कितनी
हमको तो चलते रहना है
लाख अंधेरा घना भले हो
बन दीपक हमको जलना है।

मुश्किल भले हों....
हमको तो चलते......।।

राह सुगम हो या हो दुर्गम
गिरना है संभलना है
अपने नभ की आस लिए
हमको तो चलते रहना है।

मुश्किल भले.....
हमको तो चलते....।।

ईर्ष्या, द्वेष, बैर-भाव के
भाव रहेंगे जब तक सीने में
जीवन उतना दुर्गम होगा
मुश्किल होगा फिर जीने में।

सीने में ले लगन चलो
ले प्रेम भाव की अगन चलो
बन सूरज हमको तपना है
पर चंदा सा शीतल रहना है।

मुश्किल कितनी हो राह मगर
हमको तो चलते रहना है।।

दूर भले हों कितने अपने 
न बिखरें जो बुने हैं सपने
इन सपनो की चाहत ले कर
हमको तो हर पल जगना है।

भले हो मुश्किल राह यहां
हमको तो चलते रहना है।।

जीवन अपना है सुख-दुःख का संगम
त्याग, तपस्या, प्यार, समर्पण
है वेदों का सार यही
हमको इसमें ही पलना है।

भले हो मुश्किल राहें कितनी
हमको तो चलते रहना है,
लाख अंधेरा घना भले हो
बन दीपक हमको जलना है।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
29अप्रैल, 2020

व्यंग्य- राजनीतिक इल्जाम

राजनीतिक इल्जाम।  

एक ढाबे के किनारे मैं खड़ा था
थोड़ी दूर पर मैले कुचैले कपड़ों में
जूठन के ढेर के समीप वो खड़ा था।
मैंने पूछा भूखा है क्या- थोड़ा सब्र कर
आजकल दिल्ली में यही चर्चा आम है
तू नहीं समझेगा नासमझ, क्यूंकि
तू तो स्वार्थी भुखमरा इंसान है।

पिछले कितने ही सालों से 
यही सुनता आ रहा हूँ
पर भूख क्या होती है
मैं उनको नही समझा पा रहा हूँ।
तू चिंता न कर
गोदाम सारे अनाजों से ठसे पड़े हैं
पर क्या करूं तुझसे भी ज्यादा भूखे
वहां की लाइन में पहले से ही खड़े हैं।

तेरा भी नंबर आएगा, तू सब्र कर
जब तक रोटी नही है
तू वादों से ही अपना पेट भर।
सोच तू कितना खुशनसीब है
जो जूठन के ढेर पर पड़ा है
अरे सब बहाने हैं यहां
क्या भूख से भी कोई मरा है।

अब दिल्ली के गलियारों में 
केवल यही चर्चा आम है
भूख से कब कोई मरा है
ये तो महज राजनीतिक इल्जाम है।
तू भी उठ चल, अब राजनीति न कर
जूठन ही सही, यही खाकर अपना पेट भर
वर्ना तू पछतायेगा, जब ये जूठन भी
किसी सरकारी कोष में जमा हो जाएगा।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28अप्रैल, 2020

बचपन

बचपन।  

आओ फिर बचपन हम जी लें
अपनी उन बीती को जी लें
दिल के सब दरवाजे खोलें
आओ फिर बचपन हम जी लें।।

वो मां की लोरी, वो ममता का आँचल
वो दादा की घुड़की, वो दादी का आँचल
वो खिलौनों की खातिर हठ कर मचलना
वो पापा की उंगली पकड़कर मचलना
वो चुपके से पापा का जेबें खंगालना
गुम सुम सी देखती सब ममता बिचारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

वो मम्मी की उंगली थामे स्कूल को जाना
वो दोस्तों से रूठना, पल में मनाना
वो टीचर की डांटें, वो प्यारी सी बातें
बेवजह ही गूंजती हरपल किलकारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

वो बहना की राखी, वो भाई से लड़ना
स्कूलों की छुट्टी, वो बारिश में भींगना
भींगे हुए मां के आंचल में चिपकना
वो प्यारा सा गुस्सा, वो प्यारी सी थपकी।

गलतियों को हमारी सबसे छुपाना
खुद डांट खाना पर हमको बचाना
हर दर्द पे हमार आप ही आंसू बहाना
फिर भी लुटाती ममता वो सारी
बहुत याद आती हैं, बातें वो सारी।।

हमारे लिए ताजी रोटी बनाना
खुद बासी खाकर के सो जाना
गर्मी में ऐ सी से ठंडा था आँचल
ठंडक में गोदी ही था रजाई हमारा
कितना मधुर था वो बचपन हमारा।

खुशियों के लिए हमारी
जिन्होंने किये इतने त्याग
उनके ही चरणों में है काशी-प्रयाग
दुनिया मे नही कोई है तीरथ ऐसा
माता-पिता के चरणों के जैसा।

कहां आ गए पर हम आज चलते चलते
तलाशे हजारों पर फिर वो पल नहीं मिलते
आधुनिकता की होड़ में पल पल है भटकते
पैसों की रफ्तार में है खोया कहीं अपनापन
कितना मधुर था वही अपना बचपन।

कान तरसते हैं कोई तो फिर दुहराए
उन्हीं तुतलाते नामों को फिर से बुलाये
फिर से उन्हीं गलियों में घुमाए
कब तक फिरूं आंखों में आंसू छुपाए
कोई तो हो जो फिर से बचपन लौटाए।
कोई तो हो जो फिर से बचपन लौटाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
28अप्रैल, 2020

संस्कार

संस्कार।  

बीमार हो रही सोच को
जरूरत है पुनः उपचार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

भोग, विलास, भौतिकता ने
मानवीय मूल्यों को भुलाया है
आधुनिकता की होड़ में बेसबब
अपने अध्यात्म को भुलाया है।

स्वच्छंदता को विकास समझ
हम, फूले नहीं समाते हैं
अरे, कितने नादान हैं सभी
अपनी ही मूरखता पे इतराते हैं।

आज जरूरत है हमें, पुनः
दृष्टिकोण में सुधार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

शिक्षा बनी है आज जरूरत
धनार्जन एवं व्यापार की
धनलोलुपता की बलि चढ़ रही
शिक्षा नैतिक व्यवहार की।

विद्यालय अब केंद्र बन रहे
ध्वंस-वृत्ति के व्यवहार की
साये में जिसकी बैठ कुटिलता
साथ दे रही उच्छृंखल व्यवहार की।

आज जरूरत है हमें पुनः
सार्थक, सात्विक बदलाव की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है उचित संस्कार की।।

मानवता में भेद दिख रहा
पथ भटके इंसानों में
स्वार्थी बनी आज प्रतिज्ञा
चंद स्वार्थी सत्ता के दीवानों में।

अराजकता, अन्याय, हीनता को
जरूरत है पुनः मिटाने की
पुनः जरूरत आज हमें है
पुरुषोत्तम व्यवहार की।

आज पुनः है संकल्प जरूरी
श्रद्धा एवं विश्वास की
आज पुनः है संकल्प जरूरी
सात्विक ऋषि प्रदत्त संस्कार की।

इन्ही सात्विक संस्कारों से
राष्ट्रीयता लहरायेगी
राष्ट्र हमारा समृद्ध बनेगा
विलक्षण प्रगति ध्वज लहराएगा।

इसके लिए है आज जरूरी
एक आध्यात्मिक उपचार की
नहीं कोई है दवा जरूरी
जरूरत है आज उचित संस्कार की।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
27 अप्रैल, 2020




मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ

मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।

कलम उठा के मैंने सोचा
मैं भी कुछ श्रृंगार लिखूँ
रोली, कुमकुम, बिंदी, कंगन
वाले कुछ उद्गार लिखूँ।

पर कलम मेरी रुक जाती 
देख के उस तस्वीर को
जिसमें भारत घायल बैठा
विघटनकारी तीर से।

दूर हिमालय मौन खड़ा है
लहरों में ललकार नहीं
इस बेड़ी को तोड़ सकें
क्या इतना अब अधिकार नहीं।

आज स्वार्थी हुई प्रतिज्ञा
राजनीति के साये में
आदर्शों की बोली लगती
राजनीति के साये में।

ऐसी हालत देख के बोलो 
मैं कैसे चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ होने पर भी
मैं कैसे श्रृंगार लिखूँ।

अनादर्शों के हाथों में 
अब आदर्शों की डोर है
स्वार्थ प्रभावी हाथों में
अब राजनीति की डोर है।

भाषाओं को तो खा चुके हैं
संस्कृति को भी खा रहे
भारत की नैतिकता को
दीमक जैसे चाट रहे।

ऐसी असहनीय पीड़ा में
कैसे मैं चुपचाप रहूं
इतना सबकुछ देख के बोलो
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।

आज व्यवस्था बंधक बैठी
ताकतवर के ज़ोर पे
सत्यकाम हो रहा पराजित
झूठों के सिरमौर से।

अभिव्यक्ति के नाम पे देखो
वोटों का बाजार सजा
राष्ट्रहित को गिरवी रखकर
गद्दारों का सम्मान किया।

मैं भारत माँ का बेटा हूँ
कैसे मैं चुपचाप रहूं
जबतक उसका आँचल छलनी है
कैसे मैं श्रृंगार लिखूँ।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
26अप्रैल, 2020



आओ रिश्ते जोड़ें

आओ रिश्ते जोड़ें               

इस लॉकडाउन को सजा न मानो
इसको तुम एक अवसर जानो
अवसर फिर बचपन जीने का
अवसर फिर खुद से मिलने का।

चलो अपनों संग मिल बैठें सारे
सोशल डिस्टेंसिङ्ग, पर अपनाएं
खोलें फिर यादों के एलबम
मिले प्रथम बार जब तुम और हम।

आओ याद सुनहरी खोलें
एक दूजे के मन से बोलें
अपनी हर बीती को विचारें
एक दूजे की बाट निहारें।

ये अवसर है दिल के मिलने का
रिश्तों से रिश्ते जुड़ने का
इस पल में जो दूर बसे हैं
दे दिलासा, ढांढस बंधाएं।

ये सच है, तकलीफें भी बड़ी हैं
कल-कारखाने बंद पड़े हैं
कामगारों पर आफत है आयी
व्याकुल, विह्वल आंखें भर आईं।

कितने घर चूल्हा बंद हुआ है
हंसी-ठिठोली मंद हुआ है
बच्चों के चेहरे उदास हैं
सागर समीप, फिर भी प्यास है।

ये अवसर है उनसे मिलने का
उनके रिसते घावों को भरने का
जोड़ें मानवता के रिश्ते
प्यार, वेदना, सम्मान के रिश्ते।

जो पीड़ित हैं इस त्रासदी से
उनका स्वास्थ्य निरीक्षण करना
बेहतर सुविधा देकर उनको
उनके हर घावों को भरना।

ऐसे ही व्यवहारों से हम
सतयुग की शुरुआत करें
प्रेम, समर्पण, भावप्रवणता से
सुघड़ भविष्य निर्माण करें।।

 ©️ अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 अप्रैल,2020
        

एक वोट

एक वोट।   

न मैं मंदिर हूँ, न मस्जिद हूँ
न मैं अमीर हूँ, न गरीब हूँ
न मैं ताकतवर हूँ, न मजलूम हूँ
मैं इस लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

मैं घायल हूँ लोकतंत्र में,स्वार्थी हाथों की शमशीरों से
मैं घायल हूँ नित नूतन,वोट बैंक की तदबीरों से।
लगता जैसे चंद स्वार्थी ,नेताओं की जागीर हूँ
मैं लगता है जैसे टूटते,ख्वाबों की चीत्कार हूँ।
मैं खुद से खुद को ,पहुंचाने वाली चोट हूँ
जी हां, मैं लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

सत्ता के गलियारों ने,पल पल मुझको तोला है
कभी अस्मत से खेला,कभी भावनाओं से खेला है।
सत्ता के बाजार में-
कभी अयोध्या, कभी मुजफ्फरनगर
 कभी गोधरा, कभी कासगंज बनाया है,
तो कभी चुनावी मंचों से 
जायकेदार चाबुक से ललचाया है।
निज स्वभाव से वशीभूत
मैं खुद के स्वभाव की खोट हूँ,
जी हां, मैं लोकतंत्र में सिर्फ एक वोट हूँ।।

यूँ तो मैं आजाद देश का वाशिंदा हूँ,पर
डरता हूँ निर्भया की दम घोंटती चीखों से।
मैं ऐसी व्यवस्था का हिस्सा हूँ
जहां पढ़ाई महंगी, इंटरनेट व नशा सस्ता है,
मैं सियासतदानों के अनगिनत,
चालों का परिणाम हूँ,
मैं स्वार्थी राजनीतिक महारथियों की
अतृप्त वासना की हंसी चाह हूँ,
मैं चुनावी जाड़े की गर्म हसीन कोट हूँ
जी हां,मैं स्वार्थी लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

जब सत्ता के गलियारों में नोट दिखाए जाते हैं
जब चुनावी भाषण में संवाद गिराए जाते हैं
जब जाति-धर्म देख, सिद्धांत मिटाए जाते हैं
जब रोटी की चाहत में, दूर बच्चा कोई रोता है
अनसुनी करके चीखें,कोई सुदूर देश में सोता है।
जब आतंकी मंसूबों को ,बिरयानी खिलाई जाती है।
जब सीमा पर कोई वीर,तिरंगे में लपेटा जाता है
जब उसकी नव यौवन विधवा
टूटे सपनों को खोजा करती है।
सत्ता लोलुपता की खातिर
जब बात सबूतों की चलती है,
जब बातें अपनी मनवाने को
संपत्ति, सार्वजनिक जलती है
इतने पर भी मैं मौन पड़ा हूँ
क्योंकि मैं नोटों के 
बंडल की एक नोट हूँ
जी हां, मैं स्वार्थी होते इस
लोकतंत्र में एक वोट हूँ।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25अप्रैल, 2020







कायरता स्वीकार नही


कायरता स्वीकार नहीं।   

आधुनिकता का प्रभाव तेज है
इच्छाओं का प्रवाह तेज है
इच्छाओं को वश में करना
ध्यान रहे इतना इस रण में
स्वीकार यहां है सब कुछ, लेकिन,
स्वीकार नहीं कायर बनना।

इक युद्ध खड़ा है द्वारे पर
हट मत जाना पीठ फेर कर
युद्ध तेरा निर्णायक है ये
पग पग पर खुद नायक है
या जीत तुम्हारा माथा चूमे
या बलिदानों का द्वार खुले।
स्वीकार यहां है सब कुछ, 
बस, कायरता स्वीकार नहीं।

छद्म युद्ध क्यों, कब तक सहना
घुट-घुट कर यूँ, कब तक जीना
मानवता का पर्याय यहां बन
खुशियों का अभिप्राय यहां बन
बहुत बह चुका खून-पसीना
क्यों, कब तक अश्रु पीना।
स्वीकार यहां है सबकुछ, लेकिन
स्वीकार नहीं कायर बन जीना।

जीवन ये अनमोल है तेरा
मानवता का न मोल है तेरे
मिट-मिट कर हर बार बना है
सत्य हरदम सीना तान खड़ा है
सत्य का तू अवधारण करना
बनना कुछ भी, बस कायर न बनना।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24 अप्रैल, 2020




कैसा तंत्र मनाएं हम।

कैसा तंत्र मनाएं हम।   

राजतंत्र, भीड़तंत्र या गणतंत्र
कैसा तंत्र मनाएं हम।

कदम कदम सिसकता भारत
हर चौराहे पर लुटता भारत
घर में नहीं सुरक्षित भारत
कोख में भी बिलखता भारत
किसको क्या समझाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

जातिवाद में बिखरा भारत
अवसरवाद में जकड़ा भारत
स्वार्थी समाजवाद में ललचाता भारत
इससे मुक्ति कैसे पाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

हर घटना से टूटती भावनाएं
धर्म को वोट से जोड़ती भावनाएं
राजनीति की चाल में फंसकर
खण्ड खण्ड टूटती भावनाएं
ऐसे में कुछ तुम ही बोलो
कौन सा गीत गुनगुनाएं हम
कैसा तंत्र मनाएं हम।

भ्र्ष्टाचार में जकड़ा भारत
नैतिकता से गिरता भारत
भूख, गरीबी, अवसरवादी
उन्मादी व्यवहारों में लिपटा भारत।
क्या नेता, क्या आम-ओ-खास
लगता मौके की बाट जोह रहे
ऐसे में अपना दर्द छुपा कर
कैसे अब मुस्काएं हम
कोई अब तो जतन बताए
कैसा तंत्र मनाएं हम।

इंतज़ार है उस पल का
जब भारत फिर से मुस्कायेगा
जाति-धर्म की तोड़ गुलामी
नई सुबह फिर लाएगा।
राजनीतिक अधिकार के संग संग
उत्तरदायित्वों का ध्वज फहराएगा।
जब चंहुओर स्वाभिमानी भारत
व फसल राष्ट्रवाद की लहरायेगी
जब भारत की आधी आबादी
निडर भाव से मुस्कायेगी।
सच कहता हूँ तब भारत माता
खुश होकर मुस्कायेगी
लाल किले पर लहरा के तिरंगा
गीत खुशी के गायेगा।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24अप्रैल, 2020



मजबूर

मजबूर।  

कागज के टुकड़े पे 
तुमने कुछ लिखा था
कुछ तो मैने पढा
कुछ अधूरा रह गया
जब तलक तुम्हे समझा पाते
अपनी खामोशी का सबब
तुम्हे बतला पाते
तुम्हारी आंसू की बारिश में
सारा एहसास बह गया
हम तो ठहरे रहे वहीं पर
मगर वक्त निकल गया।।

ये जरूरी नही के
हर राह को मंजिल मिले
ये जरूरी नही के
हर लहर को साहिल मिले
कुछ लहरें दरिया के साथ बहती हैं
ख्वाहिश यही इतनी है बस
वो जा के समुंदर में मिलें।।

एक खामोश सी मोहब्बत थी 
शायद, हम दोनों के दरम्यान
कभी हम ये कह न सके
तुम भी कहीं समझ न सके
कुछ ख़ता तुम्हारी भी तो रही होगी
कुछ हम भी मजबूर हो गए
ये तो वक्त का ही फैसला था
मगर, मजबूर हम क्या हुए
तुम तो दूर हो गए।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद
   23अप्रैल,2020



धरती का कर्ज

विश्व पृथ्वी दिवस 22 अप्रैल पर मेरी पुत्रियों द्वारा निर्मित चित्र पर चिंतन करती मेरी रचना-

धरती का कर्ज।  

आओ धरती का कर्ज चुकाएं
प्रदूषण मुक्त करें धरती को
सब मिल इसको स्वच्छ बनाएं
आओ धरती का कर्ज चुकाएं।

इस धरती से क्या कुछ पाते हैं
बदले में हम क्या देते हैं
स्वार्थ लोभ वश पैसे बो कर
सबने इसका अस्तित्व नकारा।

शस्य श्यामला धरती सोने सी
इसकी क्षमता दाने बोने की
पर दूषित व्यवहारों से
इसको हमने ध्वस्त किया
रत्न प्रसविनी धरती का
हम सबने है विध्वंस किया।

पशु, पक्षी, खग, मृग सारे
सब रहते धरती के सहारे
दम घुटता है सब जीवों का
हिमाद्रि, जल-थल, अवनी, अंबर का
यदि धरती को सम्मान न हम दे पाएंगे
तो फिर जीवन कहां से पाएंगे।

जो न समझे आज महत्व को
फिर तरसेंगे शुद्ध पवन को
शुद्ध व्यवहार, नैतिकता तरसेगी
बादल बदले नैना बरसेंगी
आओ सब मिलकर प्रण ये उठाएं
प्रदूषण मुक्त इस धरा को बनाएं।

नैतिक व्यवहारों से ही हम
जब चंहुदिश को जगा पाएंगे
तब ही मुक्त होगी धरती
सुघड़ जीवन हम जी पाएंगे।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
   हैदराबाद
   22अप्रैल, 2020

भीड़ हत्या

भीड़ हत्या।           

सुना देश में घात हुआ है
भीड़ द्वारा आघात हुआ है
भीड़ का कोई धर्म नही है
पर सजा भीड़ दे, धर्म नही है।

मौन पड़ी है सृष्टि सारी
बस रो रही संस्कृति बेचारी
ये मानवता का कर्म नही है
हत्या कोई धर्म नही है।

यदि अपराधी लगता है कोई
तो न्याय व्यवस्था करती है
व्यवस्था ही जब कुंद पड़ जाए
न्याय कहां फिर मिलती है।

संज्ञान स्वतः जो लेते हैं
आत्ममुग्धता में मौन पड़े हैं
तख्ती, मोमबत्ती, मोर्चे वालों
की जिह्वा पर ताले बंद पड़े हैं।

भारत वो देश है प्यारों
अन्याय नहीं जो सहता था
निरपराधों की रक्षा हेतु
हर अपराधों से लड़ता था।

पर क्या हो गया है भारत को
खुद भारत ने क्यूँ डँसा भारत को
अपराध की हर मानसिकता का
सब मिल कर परित्राण करें।

शस्य श्यामला इस धरती को
प्यार समर्पण का अभिप्राय करें
धर्म व्यवस्था स्थापन हेतु
न्याय का उचित सम्मान करें।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21अप्रैल, 2020

ध्यानार्थ- मैंने अपनी ये कविता अपने मित्र श्री रमाकांत श्रीवास्तव जी/ हैदराबाद को प्रकाशनार्थ दी है। कॉपीराइट मेरे पास ही रहेगा -21:28, दिन- 21 अप्रैल, 2020

गंगा की पुकार


गंगा की पुकार।   

चीख रही है श्रद्धा सारी
पीड़ित है विश्वास हमारा
अंधकार चहुंओर दिख रहा
खतरे में पड़ा मोक्ष का सहारा।

गोमुख से निकली गंगा
निर्मल, कल कल बहती गंगा
मैदानों को उपजाऊ करती
जीवन का प्रतिपालन करती।

जन हंसता तो हंसती गंगा
जन रोता तो रोती गंगा
माता कहते इसको हम सारे
गंगा हम सबकी पालनहारी।

स्वयं तो पल पल विष है पीती
पर जन जन को मोक्ष है देती
भयातुर हूँ खो न जाये, वेदों और पुराणों में
सिमट न जाये पाटों में, स्वार्थ सिद्ध व्यवहारों से।

किस दर्पण में देखूँ अपना मुखड़ा
जब जल तेरा गन्दगी का मारा
मलिन हुई है जब से गंगा
मलिन हुआ है मन हमारा^
(^- नज़ीर बनारसी जी की दो पंक्ति)

मोक्षदायिनी, जीवदायिनी, पतितपावनी
के प्रति है क्या सोचो फ़र्ज़ हमारा
मां कहते हैं यदि सब इसको
सोचो फिर क्या है कर्तव्य हमारा।

अश्रुपूरित नैनों से आज निहारती
चीखती, कलपती, भागीरथी पुकारती
मुक्त करो, गन्दगी से मुझको
मां हूँ मैं, ममता है तुमसे
मैं ही हूँ स्वाभिमान तुम्हारा।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
21 अप्रैल, 2020

हार नहीं मानूंगा


हार नहीं मानूंगा।   

जीवन इक संग्राम यहां है
वरदान नही मांगूंगा
जब तक समर शेष जीवन का
मैं हार नहीं मानूंगा।

आंधी आयें तूफां आयें
या कितनी विपदाएँ आयें
मोड़ बड़े या रोक बड़े हों
या फिर आशंकाएं आएं।

मैं हार नही मानूंगा
वरदान नहीं मांगूंगा।

जन  मन की प्रचंड वेदना
मैं तुम तक पहुंचाऊंगा
इन नैनों में छिपी यंत्रणा 
मैं तुमको दिखलाऊंगा।

मैं सत्ता के महाशीर्ष तक
दर्द जन जन का पहुंचाऊंगा
राज धर्म रक्षित होने तक
मैं नित नित लिखता जाऊंगा।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

धर्म के रक्षक भयाक्रांत हो
भक्षक से जब मिल जाएंगे
धर्म की रक्षा मुश्किल है तब
न्याय कहां मिल पाएंगे।

ये मत सोचो कि लघु मात्र हूँ
निर्बल, दुर्बल, दया पात्र हूँ
मैं स्याही की अमिट बूंद हूँ
मस्तक पर छप जाऊंगा।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

किंचित यदि विजय मिल जाये
अस्मित को कभि अर्थ मिल जाये
मैं तनिक  नहीं सुस्ताऊंगा
अविचल चलता जाऊंगा।

नव जीवन मार्ग प्रशस्त तक
मैं हार नहीं मानूंगा
अविरल, चलता जाऊंगा
पर वरदान नहीं मांगूंगा।।

समर शेष है जब तक
मैं हार नहीं मानूंगा।।

अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
20 अप्रैल, 2020






संभरण करो


संभरण करो।  

दूर क्षितिज दृष्टिगोचर होता
दिनकर छिपता, रोज निकलता
शाश्वत सत्य के इस पाठ्य से
सकल विश्व को सत्यापित करता।

जीवनपथ चाहे जैसा भी हो
सम हो या विषम पथ हो
समभाव हृदय में लेकर
प्रेम-शांति का धरता बन, संचरण करो।

युग का पथ कण्टकाकीर्ण भले हो
घनघोर भले तम का बादल हो
कलम साधक हो सत्य पुजारी
नवकांति का उपकरण धरो।

कथनी-करनी का भेद त्याग कर
जात-पांत का भेद त्याग कर
कटुताओं का विष त्याग कर
आओ जग संभरण करो।
आओ जग संभरण करो।।

©️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
19 अप्रैल, 2020

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