प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है, समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

बाट जोहते युग-युग बीता
मन का घट रहा-रह रीता
रही प्रतीक्षा कठिन मगर ये
मन कब हारा, बस जीता।।

जगती में फिर हार-जीत की
छोड़ व्यथा आ खुलकर मिल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

यही समय है जिसकी प्रतिपल
करते थे हम प्रत्याशा
मधुर निशा के इस इक पल में
जीवन की सब अभिलाषा।।

सोच रहे क्या इस बेला में
हाथ धरे संग-संग चल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

प्रिय वादों की रात यही है
देखो शशि साथ जग रहा
पुण्य प्रभावी हों सदियों के
हमको आशीष दे रहा।।

वादों का आलिंगन कर लें
होने दो जो होगा कल
प्रिये मिलन की पुण्य घड़ी है
समय तनिक थम-थम कर चल।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        31मार्च, 2022

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के, मन वीणा के तार कसो।।

मन गुंजित हो उठा गगन में
मृदु भावों ने मोह लिया
अब परवाह यहाँ क्या करना
सही किया या गलत किया।।

पुष्पित हो मन मृदुल पलों में
हिय में ऐसे आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

क्या खोऊँ क्या पाऊँ जग में
मुझको कुछ परवाह नहीं
जग केवल मेरे गीत सुने
रत्ती भर भी चाह नहीं।।

तुमसे पर सब राग सजे हैं
साँसों में यूँ आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

जगती का पथ कठिन, अकेला
मौन पंथ कब तक चलता
कब तक पलता संकेतों पे
कब तक मन खुद को छलता।।

आलिंगन भर लो भावों को
पलकों में फिर आन बसो
पिय स्वर मधुरिम हो अधरों के
मन वीणा के तार कसो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2022

पीर पुरानी।


 पीर पुरानी।  

शब्द रुके आकर अधरों पर
आयी याद कहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

जन्म-जन्म की बातें लेकर
कोर नैन के भींगे
उमड़-उमड़ भावों का सागर
रह-रह कर के रीते।।

नयन कोर तक आ आकर के
अश्रु की रुकी रवानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

मैंने जीवन भर गीतों में
कितने भाव सजाया
किंतु पलट कर पृष्ठ जो देखा
क्या खोया क्या पाया।।

मिलन पलों में लिखे गीत जो
बिछड़ी याद सुहानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

शब्दकोश में सिमटा जीवन
पर शब्दों में दूरी
कुछ समझा कुछ समझ न पाया
कैसी है मजबूरी।।

भावाकुल मन बहक-बहक कर
गाये प्रीत पुरानी
धमनी में फिर हुई प्रवाहित
खोयी पीर पुरानी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मार्च, 2022


चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

ले मिलन की आस मन में है राह भी खुद चल पड़ी
दूर देखा जब क्षितिज पर मृदु कामनाएं थी खड़ीं
कल्पना करने लगे नव पंथ खुशियों के बुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चन्द्र किरणों ने गगन से तप्त उर में प्रीत भर दी
तारों की परछाईयों अंक में नव रीत भर दी
व्योम से छनकर गिरे फिर गात पर स्नेहिल फुहारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

अवरोध का फिर प्रश्न क्या मधुमास की जब रात हो
क्या अँधेरा क्या उजाला जब गुनगुनाती रात हो
भाव मन में क्यूँ रुके फिर गात बोलो क्या विचारे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

चाँदनी निखरी हृदय में व्योम का अहसास पाया
गात का उपवन खिला अरु प्रीत ने श्रृंगार पाया
कह रहीं पलकें झपक कर प्रीत अधरों पर खिला रे
चाँदनी फैली गगन में रूप का पथ है सँवारे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       25मार्च, 2022

कब तक आँसू से पग धोयें।

कब तक आँसू से पग धोयें।   

मन की सारी आशायें अब
रह-रह कर के विकल हो रहीं
उमड़-घुमड़ कर भाव सभी अब
पलकों में आ विकल हो रहीं
सूने मन का बोझ हृदय ये
कहो कहाँ तक ये अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

समझ नहीं पाया जीवन को
क्यूँ जीवन ने किया किनारा
जिससे भाव समझना था सब
नहीं रहा जब वही सहारा
समझाते मन को कैसे फिर
दुविधाओं में खोये-खोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

दुर्बलता का भाव लिये फिर
कहो कहाँ तक मन ये चलता
अवसादों की बंद गली में
कहो कहाँ तक मन ये पलता
अवसादों को लिये हृदय में
आस भला ये कब तक रोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

जो पग चलता नहीं वहाँ से
था मुश्किल जीवन खिल पाना
आभासी इस दुनिया में फिर
था मुश्किल खुद से मिल पाना
आभासी जीवन का बोझा
कहो कहाँ तक मन अब ढोये
कब तक मन ये भाव सँभाले
कब तक आँसू से पग धोयें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2022

कविता क्या है।

कविता क्या है।  

जब हृदय मचलकर शब्द चुने
और लिखे समझना कविता है
जब भाव पिघलकर शब्द बुने
छंद सजे समझना कविता है।।

जब मिलन पलों में पलकों से
बहे खुशी समझना कविता है
विरह गीत नैनों से छलके
नीर बहे समझना कविता है।।

बिन कहे बात दिल तक पहुँचे
मोह जगे समझना कविता है
अधरों से मृदु मधुरस छलके
पुष्प झरे समझना कविता है।।

पतझड़ के मौसम में भी जब
मन बहके समझना कविता है
मरुथल में मन झंकृत हो जब
साज सजे समझना कविता है।।

खुद से खुद की प्रीत जगे, मन
नाच उठे समझना कविता है
बरबस ही हिय झूम उठे जब
पग थिरके समझना कविता है।।

जब भाव सँभलना मुश्किल हो
एहसास समझना कविता है
मधुमास जगे जीवन में अरु
अंक भरे समझना कविता है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2022

यादों के गीत।

यादों के गीत।  

मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो
बीत रहा कैसा ये जीवन
कैसे इसे बताऊँ बोलो।।

नदिया तरसे सागर तरसे
जाने कैसी रुत आयी है
तरस रहे हैं सभी किनारे
जाने कैसी रुसवाई है
तन-मन के सब भाव उमड़ते
कैसे इसे जताऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

प्यासी यादें पनघट पर हैं
राह जोहती आ जाओ तुम
सदियों से प्यासी साँसों की
बुझती आस जगा जाओ तुम
बीत रहे दिन कैसे-कैसे
किसको घाव दिखाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

भूल गये क्या बातें सारी
या मेरी परवाह नहीं है
भूल गये सपनों की रातें
या कोई परवाह नहीं है
बरस-बरस दिन बीत गये जो
कैसे उसे बुलाऊँ बोलो
मेघा छाये नैना बरसे
कैसे गीत सुनाऊँ बोलो।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

होली।

होली।   

रंग बिरंगे भाव सजायी
आज दिवानों की टोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं गूँजते गीत सुरीले
कहीं मृदुलता छाई है
कहीं मचलते भाव सुनहरे
कहीं चपलता छाई है
सजधज कर के नाचे मौसम
फैली सूरज की रोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

कहीं बना है कान्हा कोई
कहीं राधिका रानी है
रास-रंग के इस मौसम में
नूतन राग सुनानी है
झूम-झूम कर नाच रहे सब
खुशियों ने बाहें खोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

आज अपरिचित रहे न कोई
सबको तुम अपना कर लो
भूले भटके, दूर बसे जो
सबको पलकों में भर लो
खुली पलक में स्वप्न सजे हों
बनी रहे ये रंगोली
मस्ती का मौसम आया है
खेल रहे सब मिल होली।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20मार्च, 2022

अंतस की आशायें।

अंतस की आशायें।  

स्मृतियों के द्वार खड़ी थीं कुछ उम्मीदें पहचानी सी
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं ।।

कितने भाव मचल बैठे इक पत्र तुम्हारा जब आया 
कितने स्वप्न सजे पलकों पर कितने भाव सजा लाया
चारों तरफ छँटी उदासी छंद मचल कर नाच उठे
तेरे अधरों पर मैंने जब अपने गीतों को पाया।।

चारों तरफ रागिनी गूँजी भोर सुहानी मधुर हुई
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

इक तेरे संबोधन से नहीं अपरिचित रहा स्वयं से
उलझे थे अब लगे सुलझने प्रश्न सभी इस जीवन के
समृतियों ने राह सजाई पुष्प खिलाये मरुथल में
लगा महकने जीवन सारा अहसासों में मधुवन के।।

मधुमासों के आभासों से सब आशायें निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

मन ने जब लिखना चाहा केवल नाम तुम्हारा लिखा
दर्पण में जब भी देखा मुझको रूप तुम्हारा दिखा
हर शब्दों में छवि तुम्हारी गीतों में तेरी बातें
अंतस के श्वेत पट्ट पर मुझको रंग तुम्हारा दिखा।।

मन के वातायन से यादें अरमानों में निखर गयीं
पिय द्वार खुले जब अंतस के आशायें तब मुखर हुईं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20 मार्च, 2022

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।

क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।  

क्यूँ कर जिंदगी इस मोड़ से उस मोड़ तक जाती नहीं
क्या मेरी आवाज तेरी आवाज तक जाती नहीं।।

कहने को तो दिवारों के कान होते हैं सुना है
जाने दर्द की आवाज फिर उस पार क्यूँ जाती नहीं।।

कहो बादलों ने कब छुपाई रोशनी जो आ रही
क्यूँ फिर इस मकाँ से उस मकाँ तक रोशनी जाती नहीं।।

ये पैर भी थकने लगे जब मंजिलें गुमनाम हों
फिर रास्तों की क्या खता जो दूर तक जाती नहीं।।

इक अदावत ने न जाने कितने घर-बेघर किये हैं
पर न जाने दोष उस पर क्यूँ मढ़ी जाती नहीं है।।

कितने दीपक बुझ गये हैं इस गरीबी से यहाँ पर
कहो मुफलिसी फिर कटघरे में क्यूँ कभी जाती नहीं।।

मुड़ के देखे वक्त अब फुरसत कहाँ इतनी सफर में
शायद उम्र से लंबी सड़क है, आवाज अब जाती नहीं।।

अब खुदा भी पत्थर सा हुआ जाता है शायद "अजय"
लगता है कि अरदास कोई अब उस तक जाती नहीं।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       19मार्च, 2022

होली के रंग।

होली के रंग।  

होली के रंगों में हुई है धरा सराबोर
रूप खिला प्रकृति का है खुशहाली चहुँओर।।

टेसू के रंगों ने है दिया धरा को रूप
मीठी लागे छाँव भी मीठी लागे धूप।।

रंग-बिरंगे लोग हैं रंगी हैं परिधान 
जब दिल सबके मिल गये फिर कैसे व्यवधान।।
***************

रंगों के भाव लिए गीतों में
तेरे गलियारे में आया हूँ
कुछ अपनापन कुछ दीवानापन
पल-पल भाव सुनहरे लाया हूँ।।

कुछ भाव समर्पित तुम भी कर दो
कुछ भाव समर्पित मैं भी कर दूँ
प्रिय सपनों का आलिंगन कर के
आशाओं को अनुरंजन कर लूँ।।

अधरों पर मुस्कान मधुर हो
हर दिल मे अरमान मधुर हो
कोई नहीं अछूता हो अब
हर दिल की पहचान मधुर हो।।
************

जिस होली में रंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा
चाल चलन और ढंग न हो अंजाम भला फिर क्या होगा।।

नित संसद में देख कर नेताओं की हुड़दंग
रोये जनता फूट-फूट जैसे मिला हो दंड।।

यूपी खोये गोवा खोये खोये उत्तराखंड
योगी जी का देखा जलवा उड़ा है सबका रंग।।

इक-इक रोये माथ पकड़ कर अरु दूजा नोचे बाल
इक बाबा के फेर में देखो कैसा हो गया हाल।।

सायकिल की पैडल टूटी हाथी हुआ बेहाल
पंजा झाँके अगल-बगल बाबा ने किया कमाल।।

जोड़-तोड़ हरदम किया नहीं जमीं पर पैर
चाय वाले के सामने नहीं बची अब खैर।।

साल-साल भर बैठ कर के खूब लगाये नारा
गयी किसानी राजनीति में, नहीं मिला सहारा।।

जनता को बहलाये के जो हो गए मालामाल
समय की चकरी देखिए वही नोचे अपने बाल।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        17मार्च, 2022

कहाँ छुपे हो कान्हा।

कहाँ छुपे हो कान्हा।  

रुके हुए कदमों ने फिर से
इक आवाज लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

मन मेरा तुम पर ही ठहरा
तुमसे मिला सहारा है
इस अनजानी सी दुनिया में
तुम बिन कौन हमारा है।।

तुमसे सब रिश्ते नाते हैं
तुमसे ही रुसवाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

इस जीवन के हर इक पल को
मैंने अन्तरहीन किया
रागों-अनुरागों को सारे
तेरे ही आधीन किया।।

बिखर न जाये जीवन कान्हा
कैसी अगन लगाई है
कहाँ छुपे हो या जाओ अब
चुभती ये तन्हाई है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        16मार्च, 2022


क्या पथ रोकेंगे।

क्या पथ रोकेंगे।  

जीवन मे अगणित बाधायें
बढ़ते का क्या पग रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।

किस-किस के तू आगे रोता
झुकता क्यूँ, नतमस्तक होता
समय एक कब रहा किसी का
बीती का क्यूँ बोझा ढोता।।

वीथी पर अगणित विपदायें
अनुमानों को कब रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


जीवन का क्या धर्म बताऊँ
तुम बोलो क्या मर्म बताऊँ
किस भाँती जीवन बहलाया
क्या-क्या बोलो कर्म बताऊँ।।

कर्म प्रबंधित जिसका भी है
व्यवधान उसे क्या रोकेंगे
संकल्प सुनिश्चित जिसका भी
दुर्दिन फिर क्या पथ रोकेंगे।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

है कठिन अब मेल साथी।

है कठिन अब मेल साथी।  

शब्द का आशय बदल कर
मौन संशय में बदल कर
प्रश्न का आश्रय बदल कर
अब न कर तू खेल साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

घन सघन है धूम्र बनकर
कह रहे हैं अश्रु गिरकर
चुभ गये पल वो पलक में
अश्रु के बने रेख साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

दामिनी तड़की वहाँ तब
काँपती धरती वहाँ तब
मेघ भटके तर बतर से
थे प्रलय संकेत साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

आह थी उठती लहर में
घाव था हर इक पहर में
चल पड़े तम के सफर में
रो रही है रात साथी
है कठिन अब मेल साथी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        14मार्च, 2022

सांध्य के घाव गहरे।

सांध्य के घाव गहरे।  

शब्द के संचार सूने भाव के व्यवहार सूने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने। 

दूर जा कर छुप गयी वो रोशनी जो थी सजीली
आ रही थी रुक गयी अब रागिनी जो थी सुरीली
छा गयी देखो गगन में फिर धुंध की कुछ बदलियाँ
थम गयी सहसा गगन में रात बन कर के हठीली।।

यूँ रुक गयी सागर लहर ज्यूँ तटों के पंथ भूले
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

नैनों के कोरों पे सहसा मौन सी हलचल हुई
अश्रु पलकों पे यूँ ठहरे ज्यूँ भाव की दस्तक हुई
भावनाओं ने पलों में कह अधर के पाटलों से
गिर पड़े सब अश्रु नयन से यूँ चोट कुछ पल-पल हुई।।

छिप गयी संध्या क्षितिज में रात के ओढ़े बिछौने
चल पड़ी सांध्य गगन से दे के गहरे घाव सूने।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       13मार्च, 2022

किरदार- स्वयं के आइने में।

किरदार-स्वयं के आइने में।   

दूर सागर के क्षितिज पर इक लहर है चूमती
सौम्यता, मृदु भाव हिय में मस्त होकर झूमती।।

चल पड़ा उस ओर खिंचकर मस्त मधुमय गीत गाता
पार अँधेरों के जो देखा एक दीपक झिलमिलाता
कह रही हैं दस दिशायें पिय आज मधु का पान कर लो
त्यागो सारे किन्तु अपने पिय आज खुद का ध्यान कर लो।।

हो कुपथ या फिर सुपथ हो, है कौन चल पाया अकेला
मौन रहकर भाव हिय के, है कौन कह पाया अकेला
गीत भी तब तक अधूरा जब तक के उसमें साज न हो
रागिनी भी है अधूरी जब तक के उसमें राग न हो।।

होता बहुत मुश्किल बताना घाव किससे है मिला तब
रिसते हुये कुछ जख्म देखे आइने में स्वयं के जब
क्या लिखे कविता किसी पर अरु किस विधा पर गीत लिखें
उँगलियाँ उठती रही हों स्वयं के ही किरदार पर जब।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        12मार्च, 2022

संघर्षों का मान।

संघर्षों का मान।  

बस नारों अरु वादों से सम्मान कहाँ मिल पाया है
पग-पग संघर्ष किया जिसने मान उसी ने पाया है।।

संघर्षों ने इस जीवन की लिख डाली है नई कहानी
शाम उसी की शीतल है जिसने तपाई अपनी जवानी
केवल नारों उद्गारों से अधिकार नहीं मिल जाता है
कर्तव्यों की देहरी चलकर ही जीवन सुख पाता है।।

इतिहास मुखर है भारत का पग-पग कितना संघर्ष किया
अमरत की प्याली छोड़ी है घूँट-घूँट है गरल पिया
नीलकंठ जो बना उसी ने जीवन में पुष्प खिलाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

जाने कितने ही बलिदानों को इतिहासों ने भुला दिया
वो जाने क्या कुटिल व्यवस्था थी जिसने ऐसा काम किया
स्वार्थ शिखर पर बैठे सारे ऐसे सत्ता मद में झूल गये
जो भी, पथ सींचे स्वेद बूँद से उनका ही कद भूल गये।।

मत भूलो, जिनके बलिदानों ने वर्तमान पथ खिलाया है
काँटों का आलिंगन कर के, पुष्पों से पंथ सजाया है
बलिदानों के गीत लिखे जो पंथ-पंथ जिन्हें गाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

इक दो जीत-हार से जग में संघर्ष यहाँ कब बदला है
सिंहासन तक आ जाने से संपर्क कहो कब बदला है
जो भूल गये अपना अतीत तो मान नहीं टिक पायेगा
इतिहास हुआ जो धूमिल तो अस्तित्व सभी मिट जायेगा।।

संकल्पों के यग्य कुंड में कुछ आहुती सुनिश्चित कर लो
कर्तव्यों की ड्योढ़ी से पहले अपना प्रण निश्चित कर लो
कर्तव्य मार्ग पर चला वही, संकल्प वही जी पाया है
पग-पग संघर्ष किया है जिसने मान उसी ने पाया है।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11मार्च, 2022


मन के सूनेपन को भाये ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

मन के सूनेपन को भाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

व्यर्थ नहीं हो जाये जीवन
मन का आँगन तन का उपवन
जगना रातों को घुट घुट कर
लिखना पलकों का सूनापन
पलकों के सूना मिट जाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

सुनना जग की बातों को क्यूँ
जिनका कुछ आधार नहीं है
चलना उन राहों पर क्यूँकर
जिनसे कुछ व्यवहार नहीं है
नयी राह जो स्वयं बनाये
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

दूर क्षितिज पर अपनी मंजिल
साथ-साथ चलना जब हमको
दूजे से नादान रहें क्यूँ
पग-पग मिलना है जब हमको
उपालंभ जग के त्यज जायें
ऐसा गीत चलो रच जायें।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।

दो बूँद प्रीत की छलकाओ।  

बहुत कह चुका अपनी बातें
तुम भी तो कुछ बात सुनाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

उल्लासित लहरें सागर की
इक बूँद तरंगित धारा हूँ
आसमान में अनगिन तारे
माना मामूली तारा हूँ।।

तारों के भी रूप सुनहरे
ये चंदा को भी बतलाओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

बीत रहा पल पल ये जीवन
कहीं क्रंदन कहीं है गायन
कहीं बंद जीवन कोठर में
कहीं खुला मन का वातायन।।

सुख-दुख, क्रंदन अरु गायन का
जीवन में उद्देश्य बताओ
भावों के गहरे सागर से
दो बूँद प्रीत की छलकाओ।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09मार्च, 2022


नारी।

नारी।   

कितनी रचनाओं से शोभित
भावों उद्गारों में मोहित
नारी तुम जग की आशा हो
नभ-तल की पुण्य जिज्ञासा हो।।

प्रतिपल अमृत का दान किया
अमरत्व सुयश प्रतिदान किया
तुमने जीवन के पग पग में
निज आशा का बलिदान दिया।।

तुम देवों की अमृत वाणी
तुम गंगा का निरमल पानी
तुम भाव प्रवण अनुशासन हो
तुम नैतिकता का शासन हो।।

जीवन के इस कुरुक्षेत्र में
पग-पग पर चलता युद्ध रहा
कितनी ही घड़ियाँ ऐसी थीं
अंतस में नित्य विरुद्ध रहा।।

जीवन के भोजपत्र पर किन्तु
बस मृदु गीतों का गान लिखा
वेदों की सभी ऋचाओं ने
भी नारी का सम्मान लिखा।।

आँचल में आँसू के बदले
निज भाव मुखर रखना होगा
तुमको जीवन के संधिपत्र पर
अब प्रखर भाव लिखना होगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08मार्च, 2022

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।

चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।  

रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

सिलवटें थीं कुछ हमारे बीच में उस रोज कैसी
चाह कर जिसको नहीं हम दूर कर पाए अभी तक
तारिकाओं ने गगन में उस रोज लिखा गीत एक
चाह कर उस गीत को अधरों पर न ला पाये अभी तक।।

पास रह कर दूरियों के कैसे थे बादल घनेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

अधजगी सी रात अपनी लिख रही थी इक कहानी
नींद पलकों पर रुकी थी ढूँढती अपनी निशानी
थी कही वो रात जग कर शब्द अंतस को छुये जो
टूटते तारों ने लिखी थी अनकही इक कहानी।।

जग रहे थे स्वप्न सारे पलकों पे कैसे अँधेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

और तुमको क्या लिखूँ मैं वेदना अपने हृदय की
न लिख सकूँगा पंक्तियों में दर्द के वो भाव सारे
रात भी अब सो चली है चाँदनी मद्धम हुई अब
चुभ रही हैं रश्मियाँ भी मौन है सारे सितारे।।

चाह कर भी लिख न पायीं पंक्तियाँ भी घाव मेरे
रात आधी, चाँदनी भी जग रही थी साथ मेरे।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07मार्च, 2022




संवेदनाएँ।

🌹🌹🌹🌹गीत 🌹🌹🌹🌹

                 संवेदनाएँ।  

छोड़ कर के जा रहे हो मुझको यहाँ इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

दर्द के हर इक पलों में बस तुम्हारा साथ पाया
भीड़ हो या फिर अकेले इक तुम्हारा हाथ आया
छोड़ पर मुझको गए तुम काल के इस गाल में 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

श्वास में अब भी महकता प्रीत का रस जो पिया था
आज भी अधरों पै ठहरा गीत जो तुमने दिया था
है बहुत मुश्किल कि गाऊँ  गीत मैं इस हाल में
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

गीत से अपने यहाँ ना कर सका कोई इशारा
दे सका ना मैं तुम्हें अहसास का कोई सहारा
वेदना के इन पलों ने कर दिया बेहाल मैं 
बोलो फिर मैं क्या करूँगा ले के ये संवेदनाएँ।।

 ©✍️अजय कुमार पाण्डेय 
        हैदराबाद 
        05मार्च, 2022

नीर मेरे मन को छलता है।

मेरे मन को नीर छलता है।  

जिसको तुमने गीत समझकर गाया गाकर मन बहलाया
गीत नहीं बस, भाव हृदय का पग-पग संग-संग चलता है
बूँद-बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

अनुवादों में घुली जा रही कितनी अमिट कहानी बोलो
अहसासों में मिली जा रही सपनों की रजधानी बोलो
सपनों की रजधानी में कुछ डंक हृदय को खलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

जीवन के प्रतिपल में हमने फैलायीं हैं अपनी बाहें
प्रतिपल सबसे न्याय किया है सम्पद हो या हो विपदाएँ
जाने फिर भी कसक हृदय में पल पल क्यूँ कर पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

निज पलकों ने कब चाहा है अश्रु गिरें अकारथ बह जायें
अधरों ने कब चाहा बोलो शब्द कंठ में दब रह जायें
पैबंद लगे भावों में बोलो रिश्ता कब तक चलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।

कहीं दिलासा कोई होता, निज भाव हृदय के कह पाता
कोई रखता शीश अंक में मेरे भावों को सहलाता
लम्हों के कुछ शब्दों से, शायद घाव हृदय के भर जायें
सदियों से बस यही भाव मन की गलियों में पलता है
बूँद बूँद बन कर पलकों से नीर मेरे मन को छलता है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2022

लेखन से व्यवहार करूँगा।

लेखन से व्यवहार करूँगा।  

इस जीवन के महासमर में ऐसे धैर्य धरूँगा मैं
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

और नहीं कुछ पास हमारे
जिसका मैं गुणगान करूँ
अँजुरी में कुछ शब्द पड़े हैं
जिन पर बस अभिमान करूँ
इन शब्दों की ढाल बना गीतों में व्यवहार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

धन-दौलत का जोर नहीं है
स्याही ही बस ताकत है
होगी धन की चाहत सबको
अपनी बस ये चाहत है
शब्दों अरु स्याही में घुल जीवन का उद्धार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

कलम नहीं ये शस्त्र हमारा
इसने केवल न्याय किया
जीवन के सब अध्यायों को
इसने ही अभिप्राय दिया
शब्दों में सिहरन भर कर भाव सभी स्वीकार करूँगा
अस्त्र-शस्त्र के वारों का लेखन से व्यवहार करूँगा।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022


युद्ध की विभीषिका।

युद्ध की विभीषिका।  

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

एक छोर पर इक दुनिया है
दूजी बैठी अलग छोर पर
धमकी देती एक खड़ी है
दूजी भी ताकत के जोर पर
दोनों के संवादों ने कहो कैसी आग लगाई है
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

अपने शर्तों पर हर कोई
दूजे को आदेश दे रहा
ऐसा लगता है वो मानो
दुनिया को संदेश दे रहा
सुनो, संदेशों में दोनों के शब्द भरे रुसवाई के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

मानवता की बातें सारी
बेमानी सी हुई जा रहीं
स्वार्थ शिखर पर बैठी दुनिया
पल पल जैसे गिरी जा रही
लगता जैसे होड़ लगी है ताकत के आजमाइश के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

नहीं कोई क्या बहुव्यापी
जिसको इस विष का भान नहीं
कलयुग के देवों को सच का
क्या सचमुच कुछ अनुमान नहीं
ऐसे ही कुछ और चला तो दृश्य दिखेंगे तबाही के
सदियाँ बिलखेंगी रह रह कर लम्हों में तन्हाई के।।

कैसे कैसे दृश्य दिख रहे देखो यहाँ तबाही के
जैसे नस में खून दौड़ रहा सबके तानाशाही के।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2022

एक बूँद- निजता के पल का दर्द।

एक बूँद-निजता के पल का दर्द।

अंक में इक बूँद गिर कर भाव कैसे दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

क्या कहें अब शब्द खुलकर और क्या आवाज दें
खोई खोई जिंदगी को अब कहो क्या साज दें
तुम कहो थी चीज क्या हमको दगा जो दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

रात की गुमनामियों में साँझ का पल खो गया
बादलों के बीच जैसे चाँद जाकर खो गया
गा सके न गीत कोई एक कसक सी रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

कुछ घाव हैं दिल पर लगे चाहा पर न कह सका
अरु घाव के उस दर्द को चाहा बहुत, न सह सका
दर्द की वो टीस मन पर बोझ कितने दे गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

फिर रहा हूँ, अकेले मैं यहाँ तन्हाइयों में
खोजता हूँ स्वयं को स्वयं की परछाइयों में
था न जाने कौन सा पल आह दब कर रह गयी
और निजता के पलों के चैन भी सब ले गयी।।

©✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       01मार्च, 2022

प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें

 प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें एक दूजे को हम इतना अधिकार दें, के प्यार में पीर लें पीर को प्यार दें। एक कसक सी न रह जाये दिल में कहीं, ...