प्रीत बनकर छा गए।

प्रीत बनकर छा गए।    

शब्द जो निकले हृदय से, गीत बनकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

भाव दुल्हन से सजे हैं, चाँदनी इस रात में
गीत अधरों ने बुने हैं, प्यार की बारात में
रात की पावन छँटा में, प्रीत पुलकित हो रहे
श्रृंगार में डूबे सभी, गीत मुखरित हो रहे।

प्यार के उद्गार सारे, रीत बनकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

स्वप्न पलकों पर सजे हैं, कामनाओं की तरह
और हिय में जा बसे हैं, भावनाओं की तरह
रूप की मंदाकिनी में, वेदनाएं घुल गयीं
ये जिस्म तो थे दो मगर, आतमायें मिल गयीं।

आतमाओं के मिलन के, गीत नभपर छा गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

रागिनी का हाथ थामे, गीत नव रचते रहे
पंथ के कंटक सभी बन, जीत पथ सजते रहे
स्वप्न जब आकार पाया, अंक अपना भर लिया
अरु प्रीत के मृदु पंख से, रंग मन में भर लिया।

प्रीत का चुंबन मिला जब, रंग खुलकर आ गए
और अधरों पर सजे जो, प्रीत बनकर छा गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       27सितंबर, 2021

सुधियों के बादल बरस गए।

सुधियों के बादल बरस गए। 

नभ के सूने गलियारे में
कितने ही मौसम तरस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

भावों ने इक राह चुनी थी
चले मगर ना जा पाए
मन ने कुछ नवगीत बुने थे
मिले मगर ना गा पाये
बिछड़े मन की पीर लिये हम
मिलने तक को तरस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गये।।

ये जाने कैसी हवा चली
संशय के बादल गहराये
थमे पाँव कुछ दूर तलक जा
बदरंग कुहासे भरमाये
असमंजस के श्यामपट्ट पर
जो शब्द लिखे सब झुलस गये
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गये।।

रहे सँजोते बीते पल के
भूली बिसरी यादों को
पलकों बीच हम रहे छुपाए
कितनी ही बरसातों को
बरसातों में बूँद गिरी पर
भींगा मन ले तरस गए
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

अब कहें भाव क्या इस दिल के
बस मौन छुपाए बैठे हैं
कैसे कह दें अपने दिल में 
क्या-क्या दर्द छुपाए बैठे हैं
लिए दर्द हम सन्नाटों का
आवाजों को तरस गए
मन बेचैन रहा सावन में
सुधियों के बादल बरस गए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
25सितंबर, 2021

दिल का दर्द।

दिल का दर्द।  

कहा दिल ने मुझे बस आज इतना तू बता देना
रहते हो कहाँ मुझको फकत अपना पता देना
नहीं आऊँगा मैं मिलने जब तक तुम न चाहोगे
मगर पूछे कभी तो बस मुझे अपना बता देना।।

लगी जो चोट इस दिल पर छुपाना भी बहुत मुश्किल
दिए जो घाव तानों ने बताना भी बहुत मुश्किल
के फिर भी जी रहे थे हम भुला कर दर्द वो सारे
मिला जो भी जमाने से जताना है बहुत मुश्किल।।

चला जाऊँगा मैं तुमसे नहीं मिलने फिर आऊँगा
गाये गीत जो संग संग नहीं फिर मैं गाऊँगा
तुम्हे अफसोस न होगा कभी मेरी वफ़ा पर दिल
लगी क्या चोट इस दिल पर नहीं तुमको दिखाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       24सितंबर, 2021

मुक्तक।

मुक्तक-

अंजन-

लगाकर आँख में अंजन इशारों से बुलाती हो
लरजते होठों की थिरकन से दिल को लुभाती हो
तुम्हारे रूप के सौंदर्य में यूँ डूब जाता हूँ
उतर कर आँख से मेरे हृदय को बींध जाती हो।।

अनुबंध-

प्रीत के एहसास पर संबंधों के हैं नींव सारे
और करते हैं हृदय में मृदुल भाव के प्रबंध सारे
हों नयन में स्वप्न या के साँसों में सरगम कोई
नेहों की निधियों में संचित प्रेम के अनुबंध सारे।।

अंकित-

मेरे गीतों में अंकित हर शब्दों का विस्तार तुम्हीं हो
मेरी साँसों में सुरभित नव यौवन का संचार तुम्हीं हो
तुमसे जीवन की आशा और तुमसे ही अभिलाषा सारी
मेरी पलकों में संचित नव सपनों का संसार तुम्हीं हो।।


©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद
24सितंबर, 2021


मैं गीत नया कोई गाउँगा।

मैं गीत नया कोई गाउँगा।   

जब यादों की बदली छाएगी
जब बूँदें पलकें भर जायेंगीं
हर आहट तुमको तड़पायेगी
जब नजरें खुद ही झुक जायेंगी 
जब हिचकी तुमको आएगी
जब खुद से प्रीत छुपाओगी
तब यादों में तेरी आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब भौंरे गुन गुन गुन गायेंगे
जब जीवन के राग सुनायेंगे
दूर कली कोई मुस्कायेगी
छुई मुई कोई शरमायेगी
जब गालों पर लाली छाएगी
जब खुद ही खुद से शरमाओगी
मैं तब तुम्हें बुलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब सूरज दिन चढ़ जाएगा
जब वक्त नहीं मिल पायेगा
जब स्वेद बूँद माथे से गिरकर
नख से शिख तक नहलायेगा
उँगली में लपेट आँचल अपना
जब कहीं कभी तुम घबराओगी
तब तुमको फुसलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाउँगा।।

जब साँझ ढले तुम थक जाओगी
जब चलते चलते रुक जाओगी
जब कभी अकेले में बैठोगी
जब यादों में तुम खो जाओगी
ये सूनापन जब तड़पायेगा
अरु पास नहीं कोई आयेगा
तब तुमको बहलाने आऊँगा
मैं गीत नया कोई गाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        23सितंबर, 2021




तब तुम आना पास प्रिये।

तब तुम आना पास प्रिये।   

जब मन में सुंदर भाव बनें
पुष्प सुगंधित खिल जाएंँ
जब दिल के उस सूनेपन में
निष्कपट ज्योति सी बल जाये
जब प्रेम मधुर हो गीत बने
साजों में रागिनी घुल जाये
जब गीत कभी गाना चाहो
खुद से जब मिलना चाहो
जब भी चाहो मधुमास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

जब याद पुरानी तड़पाये
सिहरन कोई मन छू जाये
जब चले वहाँ पिय पुरवाई
आँचल फिर से ढलका जाये
जब तारों की बारात सजे
मन चाहे गाये गीत नये
जब स्वप्न नया बुनना चाहो
रीत नई  गढ़ना चाहो
अरु चाहो जब आकाश प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

जब ठंड दुपहरी तक जाये
धूप सुनहरी खिल जाये
जब बारिश का भीगा मौसम
मन भावों को ललचा जाये
जब ऋतुओं के भँवर जाल में फँस
डूब डूब मन उलझाए
जब उलझन से बचना चाहो
खुलकर तुम हँसना चाहो तब
अरु चाहो जब विश्वास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

स्मृतियों का पावन गंगाजल
आँचल अपने भर लेना
एकाकी में घिरो कभी तो
याद मुझे तुम कर लेना
स्मृतियों के उस पुण्य भाव को
पलकों बीच सजा लेना
स्मृतियों से जब मिलना चाहो
खुद से कुछ कहना चाहो
अरु जब चाहो अहसास प्रिये
तब तुम आ जाना पास प्रिये।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       22सितंबर, 2021

इस पर चलूँ उस पर चलूँ।

इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

हैं सभी अपने यहाँ पर
तुम ही कहो किससे टलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

है नहीं दुविधा मुझे तब
तुम साथ मेरे जब प्रिये
क्यूँ रुकूँ मैं राह में तब
हम साथ में हों जब प्रिये।।

फिर राह के कंटकों से
बोलो भला कैसे टलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

जब रात का आँचल मधुर
वियोग की सोचूँ मैं क्यूँ
जिस घड़ी जीवन पले
बिछोह की सोचूँ मैं क्यूँ।।

पलकों में हो प्रभात जब
मैं स्वयं को फिर क्यूँ छलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

जो है दुखों की भीड़ तो
सुखों का मेला यहाँ पर
है कौन सा जीव जिसने
कष्ट ना झेला यहाँ पर।।

मौन के उस पार सुख जब
संताप में फिर क्यूँ पलूँ
पंथ सारे मुक्त हैं अब
इस पर चलूँ उस पर चलूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22सितंबर, 2021






तक्षक- भारत का गौरव।

तक्षक- भारत का गौरव।  

भारत की माटी का गौरव
चीख चीख कर बोल रहा है
कान खोल कर सुन लो प्यारों
बातें सच्ची खोल रहा है।।

भूल ना जाना तक्षक को तुम
प्रतिकार यहाँ सिखलाया था
जो जैसी भाषा में समझे
उसको वैसा समझाया था।।

कासिम के वारों से बीती
यहाँ सदी थी वो चौथाई
टूट चुके थे मंदिर मठ सब
धरती की आँखें भर आयीं।।

अपने अभियानों में उसने
एक युवा ना जीवित छोड़ा
जो भी सम्मुख खड़ा हुआ था
उसका शीश झुका कर छोड़ा।।

आठ बरस का था बालक वो
जिसने देखा मनुज का भक्षक
वही कथा का मुख्य पात्र है
प्यारों उसका नाम है तक्षक।।

सिंधु नरेश दाहिर के सैनिक
थे पिता वीरगति को पाया
उस अरब सेना ने गाँव में
फिर जमकर उत्पात मचाया।।

खींच खींच कर महिलाओं का
मनमाना अपमान किया था
रोने लगी मनुजता सारी
आतंकी ने काम किया था।।

भयाक्रांत हो सारे जन जन
स्थिति को जैसे भाँप चुके थे
देखा रौद्र रूप मृत्यू का
अंदर तक सब काँप उठे थे।।

क्रमशः--

देख परिस्थिति, युद्ध वहाँ की
उसकी माँ सब समझ चुकी थी
चिपकाया छाती से उसने
एक निर्णय पर पहुँच चुकी थी।।

और क्षत्राणी ने इक पल में
तलवार म्यान से खींच लिया
काटा शीश बेटियों का अरु
छाती में अपने घोंप लिया।।

एकाएक घटित घटना से
बालक ने जैसे सीख लिया
मौन हो गया उस क्षण से यूँ
ज्यूँ जीवन का रण सीख लिया।।

देख भूमि पर मृत अपनों को
धीरे से फिर आँखें पोंछीं
निकल पड़ा फिर वहाँ गाँव से
बात नहीं कुछ रुककर सोची।।

मुख पर कोई भाव नहीं था
आँखें लाल रहा करती थीं
ऐसा लगता मानो उसकी
आँखें कुछ खोजा करती थीं।।

नागभट्ट कन्नौज का शासक
इक महा प्रतापी राजा था
जिसने अपने रण कौशल से
धरती का आँचल साजा था।।

वीर तक्षक के किस्से कितने
जन जन में गाये जाते थे
एक वार में हाथी मारा
सबको बतलाये जाते थे।।

अतुल पराक्रम के किस्से भी
नागभट्ट के मशहूर हुए थे
अरबों के अगणित मंसूबे
रण कौशल से तोड़ चुके थे।।

नियम सनातन का माना था
पीछे से ना वार किया था
उसकी इस एक विनम्रता ने
हरदम कितना वार सहा था।।

क्रमशः--

आज सभा थी लगी वहाँ पर
संकल्प वहाँ कुछ होना था
दुश्मन के हमलों के आगे
वहाँ उत्तर कैसा देना था।।

इतने सारे वाद विवाद में
उत्तर कुछ जब समझ ना आया
अंत में तक्षक खड़ा हुआ फिर
अपनी शैली में समझाया।।

नियमों से यदि युद्ध लड़े तो
फिर जीत नहीं हम पाएंगे 
भागेगा वो पीठ दिखाकर
रण से हमको भरमाएँगे।।

मर्यादा जो नहीं जानता
मर्यादा वो क्या समझेगा
जिसकी जैसी शैली है वो
वैसी ही भाषा समझेगा।।

याद करिये देवल मुल्तान
जब दाहिर पराजित हो गए 
निरीह प्रजा के साथ न जाने
कैसे कैसे व्यवहार हुए।।

है शत्रू अपना बर्बर इतना
धोखा होगा जो बात करेंगे
जो शत्रु पर विश्वास किया तो
जनता से हम घात करेंगे।।

नैतिकता की बातें सारी
बेमानी तब हो जाती हैं
दुश्मन जब हो सम्मुख अपने
विजय मात्र ही रह जाती है।।

मर्यादा का निर्वाह किया तो
धोखा हम फिर से खायेंगे
दुश्मन को यदि छोड़ दिया तो
फिर से हम सब पछतायेंगे।।

शत्रु का कोई धरम नहीं है
न है उसकी मर्यादा कोई
मूल सनातन को मानेगा
नही उसका इरादा कोई।।

उसका तो बस धरम यही है
के शत्रु का शीश झुकाना है
लूट पाट कर त्रास मचाना
जन जन में भय फैलाना है।।

नैतिकता उनसे करते हैं
मर्यादा को जो समझते हैं
जैसा जो भी व्यूह रचेगा
हम भी वैसा ही रचते है।।

सोचो यदि जो हार मिली तो
परिणाम यहाँ कैसा होगा
औरत अरु बच्चों से सोचो
व्यवहार यहाँ कैसा होगा।।

अच्छा होगा यदि हम सब भी
दुश्मन जैसा ही सोचेंगे
उसके जैसा वार करेंगे
तब ही उसको हम रोकेंगे।।

राजा ने जब नजर उठाई
बस मौन सभा में पसरा था
लगता था जैसे लोगों का
विश्वास वहाँ पर गहरा था।।

उस मौन सभा ने सोच लिया
इतिहास नया रचने वाला
आने वाला वक्त वहाँ पर
नूतन था कुछ करने वाला।।

क्रमशः---

अगले दिन दोनों सेनाएँ
सीमाओं पर पहुँच चुकी थीं
इक दूजे के व्यवहारों को
जैसे वो सब समझ चुकी थीं।।

युद्ध मात्र अब विकल्प था बस
नहीं कहीं अब माफी होगा
आने वाला जो प्रभात था
भीषण रण का साक्षी होगा।।

रात अँधेरी गहराई थी
अरिदल में सारे सोये थे
अपने बल के मद में डूबे
सब सुख सपनों में खोये थे।।

तक्षक के नेतृत्व में सेना
अरिदल पर फिर टूट पड़ी
अरु सोये शत्रु के खेमे में
वो यम की भाँती टूट पड़ी।।

हो सकता है ऐसा हमला
शत्रु ने कभी नहीं सोचा था
रात्रि बनेगी काल वहाँ पर
सपने में भी ना सोचा था।।

बड़ी भयानक निशा वहाँ थी
तक्षक मौत बन टूट पड़ा था
अरिदल के सीने पर जैसे
मौत बना वो झूल पड़ा था।।

उसका तेज जहाँ जहाँ पड़ा
अँधियारा छँटता जाता था
जिस रास्ते से वो गुजरा था
अरिदल से पटता जाता था।।

रात वहाँ थी घोर अँधेरी
नहीं कहीं सुनने वाला था
लगता था ऐसा अरिदल में
भोर नहीं होने वाला था।।

क्रमशः--

हुई भोर जब निज सीमा पर
शत्रू नहीं देखा राजा ने
ऐसा क्या था हुआ रात में
मन ही मन सोचा राजा ने।।

लिए सैनिकों को फिर राजा
अरिदल के खेमे में पहुँचा
देखा जब वो दृश्य वहाँ का
मन ही मन में फिर वो चौंका।।

अरिदल के सारे सैनिक सब
इधर उधर को भाग रहे थे
राजा की सेना के आगे
भीख प्राण की माँग रहे थे।।

तनिक देर ना की राजा ने
अरु अरिदल पर वो टूट पड़े
रौद्र रूप देखा सेना का
अरिदल के बल सब टूट पड़े।।

मिली विजय जब सेना को तब
राजा का मन फिर हरषाया 
तक्षक को जब न पाया उसने
सारे सैनिक को बुलवाया।।

इक इक कर सब लगे खोजने
भीड़ में चेहरा चमक रहा था
यम की गोदी में सोया था
मौन पड़ा वो दमक रहा था।।

उस नीरवता के क्षण में भी
मौन तक्षक कुछ बोल रहा था
उसने जो कुछ त्याग किया था
कण कण में रस घोल रहा था।।

वीरता के शिखर पुंज हो तुम
आर्यावर्त अभिमान करेगा
जब वीरों की बात चलेगी
वहाँ तक्षक का नाम रहेगा।।

मातृभूमि के रक्षण हेतु अब
नया पाठ सिखलाया तुमने
प्राण देना ही विकल्प नहीं
लेना भी सिखलाया तुमने।।

उसके एक वार के कारण
वर्षों तक दुश्मन सो ना सके
ऐसा पाठ पढ़ाया उसने
सदियों तक दुश्मन छू न सके।।

धन्य धन्य है मातृभूमि ये
भारत को अगणित वीर दिया
दूर किये जन जन के संकट
अरु दूर सभी के पीर किया।।

अगणित वीरों का रक्त मिला
तब ये धरती मुस्काई है
खून पसीने से सींचा जब
ये फसलें तब लहराई हैं।।

कितने जीवन बलिदान हुए
माँ का आँचल तब लहराया है
आकाशों में दूर दूर तक
ये ध्वज अपना फहराया है।।


©✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        20सितंबर, 2021


जीवन की मधुमय प्याली।

जीवन की मधुमय प्याली।  

बढ़ती उम्र के साथ ढल रही मेरे यौवन की लाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जैसे जैसे कदम बढ़ रहे आशाएँ सब मचल रहीं
पर दायित्वों के बोझ तले लगता है कुछ कुचल रहीं
मचले मन के भाव सँभालूँ जैसे उपवन का माली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

गया बालपन यौवन आया कितने सावन बीत गए
कुछ समझा कुछ समझ न पाया पल भर में सब रीत गए
आज उमर के मोड़ पर खड़ा देखूँ बस रस्ता खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

कितना कुछ सुलझाया लेकिन खुद में इतना उलझ गया
रिश्तों के इस भँवर जाल में जीवन जैसे उलझ गया
उलझन सुलझन भरी राह में हाथ रह गए हैं खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

जीवन की वीथी ने कितने गीत सुनहरे रच डाले
भावों का ले मधुर सहारा प्रीत मनहरे लिख डाले
लिखे गीत जीवन के पथ के फिर भी है वीथी खाली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

बीती रातों के कितने ही याद सँभाले बैठा हूँ
और लरजते अधरों की फरियाद सँभाले बैठा हूँ
रुँधे गले, पर बोल रहा हूँ पलकों की भर कर प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

आ जाओ मिल जाओ जैसे रात दिवस में घुल जाती
रश्मि भोर की किरणों से ज्यूँ अगणित कलियाँ खिल जाती
खुल जाता आकाश हृदय का भरती जीवन की प्याली
रह रह ऐसे रीत रही है जीवन की मधुमय प्याली।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        19सितंबर, 2021

चिंतन हर बार किया।

चिंतन हर बार किया।   

जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया
अरु कितना कुछ अपनाने को
हमने जीवन हर बार जिया।।

क्या कभी मिलेगा उचित सहारा
नहीं कभी भी देखा हमने
देगा कोई साथ हमारा
नहीं कभी भी सोचा हमने।।

फिर भी जग को अपनाने को
कुछ समझौता हर बार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

कदम कदम पर घातें गहरी
घनी अँधेरी रातें पसरी
दूर भले था सूरज लेकिन
अपनी नजरें जाकर ठहरीं।।

नए उजाले खातिर हमने
रातों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

आशाओं के बाग सजाओ
जीवन उपवन बन जाएगा
सपनों को साकार बनाओ
हिय मृदु मधुवन बन जायेगा।।

मधु का रस चखने की खातिर
काँटों को भी स्वीकार किया
जीवन में स्वाद बचाने को
हमने चिंतन हर बार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        18सितंबर, 2021



कोटि कोटि सुख पावत।

कोटि कोटि सुख पावत।  

कमल नयन पद पंकज उपमा
छवि अतुलित मन भावत
शोभा अति विशाल मन मोहत
साची कह गुन गावत
अंग अंग पिय प्रेम सजत हौ
देखी जबहि लुभावत
कहे अजय छवि देख प्रभू की
कोटि कोटि सुख पावत।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       16सितंबर, 2021

सूरदास: काव्य रस एवं समीक्षा।

जीवन-परिचय- महाकवि सूरदास का जन्‍म 'रुनकता' नामक ग्राम में सन् 1478 ई. में पं. रामदास घर हुआ था । पं. रामदास सारस्‍वत ब्राह्मण थे और माता जी का नाम जमुनादास।

सूरदास को हिंदी साहित्य का सूरज कहा जाता है।

भक्‍त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा-लाख पदों की रचना की थी। 'काशी नागरी प्रचारिणी सभा' की खोज तथा पुस्‍तकालय में सुरक्षित नामावली के अनुसार सूरदास के ग्रन्‍थों की संख्‍या 25 मानी जाती है।
  • सूरसागर 
  • सूरसारावली 
  • साहित्‍य-लहरी 
  • नाग लीला
  • गोवर्धन लीला
  • पद संग्रह
  • सूर पच्‍चीसी
  • सूरदास ने अपनी इन रचनाओं में श्रीकृष्‍ण की विविध लीलाओं का वर्णन किया है। इनकी कविता में भावपद और कलापक्ष दोनों समान रूप से प्रभावपूर्ण है। सभी पद गेय है, अत:उनमें माधुर्य गुूण की प्रधानता है। इनकी रचनाओं में व्‍यक्‍त सूक्ष्‍म दृष्टि का ही कमाल है कि आलोचक अब इनके अनघा होने में भी सन्‍देह करने लगे है।


सूरसागर सूरदास जी का प्रधान एवं महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। 'सूरसागर' में लगभग एक लाख पद होने की बात कही जाती है। किन्तु वर्तमान संस्करणों में लगभग पाँच हज़ार पद ही मिलते हैं। विभिन्न स्थानों पर इसकी सौ से भी अधिक प्रतिलिपियाँ प्राप्त हुई हैं, जिनका प्रतिलिपि काल संवत् 1658 विक्रमी से लेकर उन्नीसवीं शताब्दी तक है इनमें प्राचीनतम प्रतिलिपि नाथद्वारा, मेवाड़ के 'सरस्वती भण्डार' में सुरक्षित पायी गई हैं।

यह इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।

2. इसका मुख्य उपजीव्य (आधार स्त्रोत) श्रीमद्भागवतपुराण के दशम स्कंध का 46 वाँ व 47 वाँ अध्याय माना जाता है।

3. इसका सर्वप्रथम प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा, काशी द्वारा करवाया गया था।

4. भागवत पुराण की तरह इसका विभाजन भी बारह स्कन्धों में किया गया है।

5. इसके दसवें स्कंध में सर्वाधिक पद रचे गये हैं।

6. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा हैं – ’’सूरसागर किसी चली आती हुई गीतकाव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।’’

  • इसमें प्रथम नौ अध्याय संक्षिप्त है, पर दशम स्कन्ध का बहुत विस्तार हो गया है। इसमें भक्ति की प्रधानता है। इसके दो प्रसंग 'कृष्ण की बाल-लीला' और 'भ्रमर-गीतसार' अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
सूरदास जी वात्सल्यरस के सम्राट माने गए हैं। उन्होंने श्रृंगार और शान्त रसो का भी बड़ा मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। बालकृष्ण की लीलाओं को उन्होंने अन्तःचक्षुओं से इतने सुन्दर, मोहक, यथार्थ एवं व्यापक रुप में देखा था, जितना कोई आँख वाला भी नहीं देख सकता। वात्सल्य का वर्णन करते हुए वे इतने अधिक भाव-विभोर हो उठते हैं कि संसार का कोई आकर्षण फिर उनके लिए शेष नहीं रह जाता।
सूर ने कृष्ण की बाललीला का जो चित्रण किया है, वह अद्वितीय व अनुपम है। 
 
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इनकी बाललीला-वर्णन की प्रशंसा में लिखा है – “”गोस्वामी तुलसी जी ने गीतावली में बाललीला को इनकी देखा-देखी बहुत विस्तार दिया सही, पर उसमें बाल-सुलभ भावों और चेष्टाओं की वह प्रचुरता नहीं आई, उसमें रुप-वर्णन की ही प्रचुरता रही।

सूर के शान्त रस वर्णनों में एक सच्चे हृदय की तस्वीर अति मार्मिक शब्दों में मिलती है।

सूरसागर में जगह जगह दृष्टिकूटवाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है। “सारंग’ शब्द को लेकर सूर ने कई जगह कूट पद कहे हैं। विद्यापति की पदावली में इसी प्रकार का एक कूट देखिए –
सारँग नयन, बयन पुनि सारँग,
सारँग तसु समधाने ।
सारँग उपर उगल दस सारँग
केलि करथि मधु पाने ।।

सूरसागर' में नन्द यशोदा तथा अन्य वयस्क गोपियों का बालकृष्ण के प्रति प्रेम, आकर्षण, खीझ, व्यंग्य, उपालम्भ आदि सब कुछ वात्सल्य रस की ही सामग्री है।

सूरसागर के वर्ण्य विषय का आधार 'श्रीमद्भागवत' है। भक्ति को भव्य एवं उदात्त रूप में चित्रित करते समय श्रृंगार और माधुर्य का जैसा वर्णन सूर ने अपने सूरसागर में ब्रजभाषा में किया है , वैसा उनसे पूर्व किसी लोकभाषा में नहीं हुआ है।

सूरसागर का सबसे मर्मस्पर्शी और वाग्वैदग्ध्यपूर्ण अंश भ्रमरगीत है जिसमें गोपियों की वचनवक्रता अत्यंत मनोहारिणी है। ऐसा सुंदर उपालंभ काव्य और कहीं नहीं मिलता। उद्धव तो अपने निर्गुण ब्रह्मज्ञान और योग कथा द्वारा गोपियों को प्रेम से विरत करना चाहते हैं और गोपियाँ उन्हें कभी पेट भर बनाती हैं, कभी उनसे अपनी विवशता और दीनता का निवेदन करती हैं –
उधो ! तुम अपनी जतन करौ
हित की कहत कुहित की लागै,
किन बेकाज ररौ ?
जाय करौ उपचार आपनो,
हम जो कहति हैं जी की ।
कछू कहत कछुवै कहि डारत,
धुन देखियत नहिं नीकी ।
इस भ्रमरगीत का महत्त्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरुपण बड़े ही मार्मिक ढंग से, हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्कपद्धति पर नहीं – किया है। सगुण निर्गुण का यह प्रसंग सूर अपनी ओर से लाए हैं। जबउद्धव बहुत सा वाग्विस्तार करके निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश बराबर देते चले जाते हैं, तब गोपियाँ बीच में रेककर इस प्रकार पूछती हैं –
निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर हँसि समुझाय,
सौह दै बूझति साँच, न हाँसी।
और कहती हैं कि चारों ओर भासित इस सगुण सत्ता का निषेध करक तू क्यों व्यर्थ उसके अव्यक्त और अनिर्दिष्ट पक्ष को लेकर यों ही बक बक करता है।
सुनिहै कथा कौन निर्गुन की,
रचि पचि बात बनावत ।
सगुन – सुमेरु प्रगट देखियत,
तुम तृन की ओट दुरावत ।।
उस निर्गुण और अव्यक्त का मानव हृदय के साथ भी कोई सम्बन्ध हो सकता है, यह तो बताओ –
रेख न रुप, बरन जाके नहिं ताको हमैं बतावत ।
अपनी कहौ, दरस ऐसे को तु कबहूँ हौ पावत ?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत ?
नैन विसाल, भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत ?
तन त्रिभंग करि, नटवर वपु धरि, पीतांबर तेहि सोहत ?
सूर श्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यौं तुमको सोउ मोहत ?
अन्त में वे यह कहकर बात समाप्त करती हैं कि तुम्हारे निर्गुण से तो हमें कृष्ण के अवगुण में ही अधिक रस जान पड़ता है –
ऊनो कर्म कियो मातुल बधि,
मदिरा मत्त प्रमाद ।
सूर श्याम एते अवगुन में
निर्गुन नें अति स्वाद ।।

(1) सूरदास ने अपने भ्रमर गीत में निर्गुण ब्रह्म का खंडन किया है।
(2) भ्रमरगीत में गोपियों के कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम को दर्शाया गया है।
(3) भ्रमरगीत में उद्धव व गोपियों के माध्यम से ज्ञान को प्रेम के आगे नतमस्तक होते हुए बताया गया है, ज्ञान के स्थान पर प्रेम को सर्वोपरि कहा गया है।
(4) भ्रमरगीत में गोपियों द्वारा व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग किया गया है।
(5) भ्रमरगीत में उपालंभ की प्रधानता है।
(6) भ्रमरगीत में ब्रजभाषा की कोमलकांत पदावली का प्रयोग हुआ है। यह मधुर और सरस है।
(7) भ्रमरगीत प्रेमलक्षणा भक्ति को अपनाता है। इसलिए इसमें मर्यादा की अवहेलना की गई है।
(8) भ्रमरगीत में संगीतात्मकता का गुण विद्यमान है।

प्रवासजनित वियोग के संदर्भ में भ्रमरगीत-प्रंसग तो सूर के काव्य-कला का उत्कृष्ट निदर्शन है। इस अन्योेक्ति एवं उपालंभकाव्य में गोपी-उद्वव-संवाद को पढ़ कर सूर की प्रतिभा और मेधा का परिचय प्राप्त होता है। सूरदास के भ्रमरगीत में केवल दार्शनिकता और अध्यात्मिक मार्ग का उल्लेख नहीं है, वरन् उसमें काव्य के सभी श्रेष्ठ उपकरण उपलब्ध होते हैं। सगुण भक्ति का ऐसा सबल प्रतिपादन अन्यत्र देखने में नहीं आता।

इस प्रकार सूर-काव्य में प्रकृति-सौंदर्य, जीवन के विविध पक्षों, बालचरित्र के विविध प्रंसगों, कीङाओं, गोचारण, रास आदि का वर्णन प्रचुर मात्रा में मिलता हैं। रूपचित्रण के लिए नख-शिख-वर्णन को सूर ने अनेक बार स्वीकार किया है। ब्रज के पर्वों, त्योहारों, वर्षोत्सवों आदि का भी वर्णन उनकी रचनाओं में है।

सूर की समस्त रचना को पदरचना कहना ही समीचीन हैं। ब्रजभाषा के अग्रदूत सूरदास ने इस भाषा को जो गौरव-गरिमा प्रदान की, उसके परिणामस्वरूप ब्रजभाषा अपने युग में काव्यभाषा के राजसिंहासन पर आसीन हो सकी। सूर की ब्रजभाषा में चित्रात्मकता, आलंकारिता, भावात्मकता, सजीवता, प्रतीकत्मकता तथा बिंबत्मकता पूर्ण रूप से विद्यमान हैं।

रंग दो कान्हा                                                    

मोहे रंग दो कान्हा
अपने ही रंग में
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराए जाऊं
रम जाऊं तुझमें आज।।

जो रंग रंगी राधा रानी
जिसमें झूमी मीराबाई
जो रंग में कबीरा नाचा
नाचे खुसरो और रसखान।
मोहे भी रंग दो ऐसे सांवरिया
डूब जाऊं मैं जिसमें आज।।

तुम बिन है अब कौन सहारा
तुम ही करो उद्धार
कौन है आपन कौन पराया
तुम ही सबका आधार।
अपनी भक्ति का वरदान मोहे दो
बन  जाऊं चैतन्य जैसा आज।।

मोहे रंग में ऐसे रंगों कान्हा
रंग जाऊं तुझमें आज
सुध बुध अपनी बिसराय जाऊं सब
रम जाऊं तुझमें आज।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
हैदराबाद


कितने रावण यहाँ जलाओगे।

कितने रावण यहाँ जलाओगे।  

सोचो कैसे दशहरा मनाओगे
बुराई से कैसे पार पाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

माना सीता का हरण किया मैंने
और प्रभू को लाख दुख दिया मैंने
मैं तो रावण था दुष्ट पापी था
आज किस किस से तुम बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

भारत माता भी आज रोती है
उसकी आवाज ना सुनाई देती है
कहीं आतंक और कहीं बुराई है
कैसे इससे इसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

क्यूँ सुनसान यहाँ की सड़कें है
आधी आबादी यहाँ पे डरते हैं
लाखों रावण छिपे हैं खालों में
उसके डर से कैसे बचाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

कहीं पे चोरी है कहीं घोटाला है
जैसे लोकशाही पे डाका डाला है
वोट के लिए धर्म को भूले हैं
कैसे सबको यहाँ जगाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहॉं जलाओगे।।

सोचो इक दिन मुझे जलाने से
क्या मिलेगा खुशी मनाने से
कदम कदम पे कितने रावण हैं
इतने तुम राम कहाँ से लाओगे
सोचो भारत में कितने रावण हैं
किस किसको यहाँ जलाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       15सितंबर, 2021





तेरी मेरी कहानी।

तेरी मेरी कहानी।   

चलेंगे हम साथ जब मिलकर हवायें गुनगुनाएँगी
ये अंबर झूम कर गाएगा धरती मुस्कुराएगी
कभी काँटे मिलेंगे और कभी फूलों की बरसातें
हों चाहे जैसा भी मौसम फिजायें गीत गाएंगी।।

बनूँ मैं गीत जीवन का तुम्हारे दिल में बस जाऊँ
के जो भी गीत तुम गाओ बस वो ही गीत मैं गाऊँ
नहीं मुझको तमन्ना चाँद की तारों की बरातों की
तुम्हारा साथ जो पाऊँ मैं नूतन प्रीत लिख जाऊँ।।

मैं अपने गीत गजलों में तुम्हारा नाम लिखता हूँ
हो भले कितनी तपिश मैं तो सुहानी शाम लिखता हूँ
मचलती हैं हवाएँ जब भी छूकर मेरे भावों को
तुम्हें राधा मैं लिखता हूँ और खुद श्याम लिखता हूँ।।

के जितने गीत हैं लिखे सभी में तेरी कहानी है
बना जो मैं दीवाना तो बनी तू भी दीवानी है
तुम्हारे प्रीत में बसकर यही बस मैंने है जाना
मैं कान्हा तुम्हारा हूँ तू मेरी राधा रानी है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       14सितंबर, 2021

नव प्रभात।

नव प्रभात।   

घोर निराशा के क्षण में भी
जीवन का प्रकाश देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

जीवन के झंझावत में मैं
जाने कितनी बार घिरा हूँ
कदम कदम चलने की खातिर
पथ में कितनी बार गिरा हूँ
जग के सारे झंझावत में
आशा अरु हुलास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

सकुचित भावों से निकले जब
आशा को विस्तार मिला है
अरु जीवन में नव प्रभात के
भावों को संसार मिला है
पग पग जीवन में कितने ही
उल्लास मचलते देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है

पग पग पथ भटकाने खातिर
घृणा द्वार पर आन खड़ी थी
अंतस को बहकाने खातिर
दुविधाएँ हर बार खड़ी थीं
दुविधाओं के पार निकल कर
हमने नव प्रभास देखा है
बादल के उस पार वहाँ पर
मैंने नव प्रभात देखा है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        13सितंबर, 2021

मेरे मनमीत।

मेरे मनमीत।  

पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेंरे मनमीत तुम्हीं हो।।

निज पलकों के स्वप्न सुनहरे
मैं जिसे समर्पित करता हूँ
मृदु हिय के सब भाव मनहरे
मैं जिस पर अर्पित करता हूँ
हृदय हुआ सम्मोहित जिससे
भावों की वो प्रीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

मृदुल कल्पना के पाँखों पर
दोनों दूर तलक जाएँगे
इक दूजे को पाने खातिर
परबत से भी टकराएंगे
जिसने मन में प्रीत जगाया
भावों का वो गीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

गंगा की पावन धारा सा
निरमल निश्छल जीवन अपना
कलियों सा सम्मोहन जिसमें
पुष्पित पुलकित उपवन अपना
जिसने मन उपवन महकाया
कलियों का वो रूप तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

रचें चलो हम गीत सुनहरा
जो नीरवता में भरे प्राण
सारा जग गुंजित हो जिससे
दे प्राणों को जो अकुल तान
भावों को जो मुखरित कर दे
जीवन का संगीत तुम्हीं हो
पलक निहारें अपलक जिसको
वो मेरे मनमीत तुम्हीं हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       12सितंबर, 2021

राम नाम महिमा।

राम नाम महिमा।  

राम नाम अति सुंदर एका देखहिं भालहिं रूप अनेका
एकहि नाम जगत के तारा जिन पर है विश्वास हमारा
प्रभु राम कृपा जिनपर होई सकल काज संपूरण होई
देखि विचारि सोचि जब कहहू राम कृपा 
तब मिलही सबहू
दया धरम नृप धर्म है एका करहु काज विचारी विवेका
हानि लाभ मद मोह अनेका जे जपै नाम छूटहि सोका
कहत अजय मन सुंदर राखा मिलहि भक्ति फल सुंदर चाखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       11सितंबर, 2021


खुद का खुद से मेल।

खुद का खुद से मेल।  

मन का सूना अंधकार ले
कैसे तुम मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

कदम कदम पर चोटें कितनी
जाने कितनी आघातें 
कहीं घनेरे दुख के बादल
कहीं खुशी की बारातें
उलझे मन के फेर में कहीं
खुद से क्या मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो 
कैसे फिर चल पाओगे।।

हानि लाभ जीवन के पहलू
इक आता इक जाता है
पथ भूला जो इसमें पड़कर
चैन कहाँ फिर पाता है
हर्ष विषाद में पड़े कहीं तो
पथ में क्या चल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

पल पल बीत रहा है जीवन
कितने ही आकाश लिए
घट घट रीत रहा ये क्षण क्षण
मन में अगणित आस लिए
क्षण भंगुर इस जीवन में
रोक भला क्या पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

क्षण भर को बादल ढँकने से
सूरज क्या छिप जाता है
मन के दरपन में देखा जो
खुद से वो मिल पाता है
खुद को यदि पहचान लिए तो
जग से फिर मिल पाओगे
अवसादों के बीच रहे तो
कैसे फिर चल पाओगे।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       10सितंबर, 2021




मैंने बस प्यार किया।

मैंने बस प्यार किया।   

जो कुछ भी तुमने दिया मुझे
सब मैंने स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैने तो बस प्यार किया।।

मत पूछो के मौन रुदन के
पल हिस्से में क्यूँ आये
कुछ तो ऐसे कल्मष होंगे
जिसने पथ से भटकाये
अपने उस कल्मष की खातिर
मैंने पश्चाताप किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मेरे दीवानेपन को भी
तुमने पागलपन माना
जग ने तो था किया पराया
तुमने बेगाना जाना
तेरे बेगानेपन को भी
हँसकर के स्वीकार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

मैंने जग के तानों को भी
समझ पिया जैसे हाला
ये अश्रू बने मेरी मदिरा
अरु पलक बनी मधुशाला
पर जो अश्रू गिरे पलकों से
उनका भी सत्कार किया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

हिय बंधन में बँध कर सोचा
दो पल खुद को भी जी लूँ
पा लूँ मैं भी सुख जीवन का
हिय मृदु मधुरस मैं भी पी लूँ
जीवन ज्वाला में जिया किया
उर में पर मधुमास जिया
तुमने चाहे जो भी समझा
मैंने तो बस प्यार किया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        09सितंबर, 2021





स्वर्ग बनाने आया।

मन की अभिलाषा- स्वर्ग बनाने आया।  

मैं कोई अवतार नहीं हूँ
इक तिनका हूँ महासमर में
जीवन के इस महासमर में
अपना पात्र निभाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

पाप पुण्य के खेल में यहाँ
कितने जीवन झूल रहे हैं
निज भावों के पलने खातिर
पुण्य पंथ को भूल रहे हैं
पग पग सबका पंथ सुखद हो
कंटक सभी हटाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

जन भावों को सम्मान मिले
निजता का अधिकार मिले
विकल विवश अरु दीन हीन को
जीने का अधिकार मिले
अरु कर्तव्यों की पृष्ठ भूमि का
आदर्श यहाँ बताने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

वेद पुराणों की वाणी को
जन मन उच्चारित कर दो
राष्ट्र प्रेम की स्वस्थ भावना
जन गण जन के हिय में भर दो
गूँजे गिरी कानन सिन्धु पवन
ऐसा भाव जगाने आया
एक स्वर्ग है नील गगन पर
दूजा यहाँ बनाने आया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        08सितंबर, 2021

अनजान सफर इस दुनिया का।

अनजान सफर इस दुनिया का।  

अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर, चल पाया
हालातों को स्वीकार किया 
वो ही इसमें है पल पाया।।

घनघोर अँधेरी रातों में
दीपक बन कर जला किया
उम्मीदों अरु आशाओं का
बना सितारा जिया किया
वो ही अँधियारों से लड़ कर
दूर क्षितिज तक जा पाया
अनजान सफर इन दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

बादल कितने पलकों में ले
चला कदम जो सँभल सँभल
यादों की बारातों में भी
मुस्काया है जो पल पल
वही सँजोया यादों को भी
वही स्वयं को जी पाया
अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

आकाश चूमता परबत हो
या सागर की गहराई
तूफानों का शोर बहुत हो
या फिर नीरवता छाई
काँटों की परवाह नहीं की
वही पंथ पर चल पाया
अनजान सफर इस दुनिया का
जो बना मुसाफिर चल पाया।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        07सितंबर, 2021

प्रेम का बंधन।

प्रेम का बंधन।  

हो भले ही स्वर्ण का ही पर रास कब आता है बंधन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

हानि लाभ से मुक्त हृदय तो
फिर पुण्य पावन ये धरा है
भौरों के गुंजन से समझो
उपवन परागों से भरा है।।
शुष्क यदि उपवन यहाँ तो मन को तड़पाता है क्रंदन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

रात की वो गुमनामियाँ भी
इस रोशनी में गुम हुईं तब
अधरों से बरसे जो मोती
ये ताप भी शीतल हुये तब।।
शब्दों में आक्रोश ना हो मौन भी करता है नरतन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

है कौन ऐसा जो जगत में
प्रिय प्रेम से कुंठित हुआ हो
जो भी स्वयं से दूर भागा
प्रिय प्रेम से वंचित हुआ वो।।
प्रीत, पावन, पुण्य करता पतझड़ को करता है सावन
प्रेम से जो बाँध लो तो मन को भी भाता है बंधन।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2021

मन के गीत।

मन के गीत।  

मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा
कुछ गीतों को तुम गाना
कुछ गीतों को मैं गाऊँगा।।

जग की सारी रीत सुनाना
जो कुछ बीती हमें बताना
कुछ तुम मेरे मन की सुनना
कुछ अपनी तुम मुझे सुनाना।।

अपने दिल पर जो बीती है
उसको गीतों में गाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

मन के भावों को लिखना है
मन के गीतों को गाना है
मन के भाव समझने खातिर
खुद को भी तो समझाना है।।

मन से कोई चूक हुई तो
मन को भी मैं समझाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

इस पार खड़ा जो जीवन है
उस पार न जाने क्या होगा
साँझ ढले अपने जीवन का
आकाश न जाने क्या होगा।।

लेकिन जो कुछ मुझे मिलेगा
हँस कर के मैं अपनाऊँगा
मन के द्वार खुले तुम रखना
मन के गीत लिए आऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        06सितंबर, 2021

पग पग हमको राह दिखाए।

पग पग हमको राह दिखाए।  

( शिक्षक दिवस पर गुरु को समर्पित रचना )

ऊँची नीची इन राहों में
जब जब भी पाँव लड़खड़ाए
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

घनी अँधेरी रातों में भी
बनकर दीप हरा अँधियारा
ज्ञान दिया सम्मान दिलाया
पथ  पथ फैलाया उजियारा

जब जब हम भटके राहों में
और जहाँ भी हम घबराए 
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

राष्ट्र धर्म और मानवता का
राह प्रमुख है ये बतलाया
ऊँच नीच का भेद गलत है
जीवन में हमको समझाया।।

जब जब भी बेचैन हुए हम
अरु जब जब भी हम भरमाये
तब तब ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

लिखूँ शब्द क्या मैं महिमा में
इतना मुझमें सामर्थ्य कहाँ
वहीं लेखनी मुस्काती है
मिले गुरू का आशीष जहाँ।।

लेखनी जब भी घबराई है
ज्ञान योग के दीप जलाए
पल पल ज्ञान दिया है गुरु ने
पग पग हमको राह दिखाए।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        04सितंबर, 2021



हिंदी की अभिलाषा।

हिंदी की अभिलाषा।   

हिंदी ने कब ये चाहा है बस उसका ही सम्मान करो
लेकिन भाषा के झगड़े में इसका ना अपमान करो।।

हिंदी ऐसी भाषा है जो भारत के दिल में बसती है
जब सब भाषाएँ हँसती हैं तब जाकर ये भी हँसती है।।

था रहा क्रांति का दौर यहाँ जब हिंदी ही पहचान बनी
एक सूत्र में बाँधा भारत और क्रांति का आह्वान बनी।।

पग पग कितने कष्ट सहे हैं तब जाकर ये मुस्काई है
बँधी बेड़ियाँ जब टूटी हैं अधरों पर रौनक आयी है।।

रीति काल हो भक्ति काल हो सबने इसका गुणगान किया
छायावादी, आधुनिक काल कितने ही काव्य महान दिया।।

भारतेंदु, प्रेमचंद, जयशंकर, दिनकर जी का साथ मिला
अगणित राष्ट्रकवि कवियत्री की कलमों से इसका रूप खिला।।

वेद, पुराण, गीता, उपनिषद कितने ग्रंथ लिखे हिंदी में
तुलसी, कबीर, सूर, रसखान सबने मंत्र दिए हिंदी में।।

कितना कुछ पाया हिंदी से हिंदी से ही पहचान बनी
पर जाने क्यूँ अपने घर में यूँ लगता ये मेहमान बनी।।

हिंदी दिवस मनाने को क्यूँ तारीखों में बँध जाते हैं
ऐसा क्यूँ लगता है जैसे हम हिंदी से शरमाते हैं।।
 
बात समझना आवश्यक है बिन हिंदी कुछ पहचान नहीं
जिसकी अपनी भाषा ना हो दुनिया में उसका मान नहीं।।

चलो बनाएं ऐसा भारत सब भाषा को सम्मान मिले
लेकिन अपनी प्रिय हिंदी को हर हृदय में उचित स्थान मिले।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03सितंबर, 2021


मैं आशा के गीत लिखूँगा।

मैं आशा के गीत लिखूँगा। 

घना अँधेरा चाहे जितना
भले निराशा पग पग में हो
भले पराजय द्वार खड़ी हो
या फिर बिखरा बिखरा पथ हो
बिखरा पथ कितना भटकाये
फिर भी अपनी जीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

भले रात हो कितनी काली
घनी अमावस बन कर छाये
भले दामिनी तड़ तड़ तड़के
या घनघोर घटायें छायें
पंथ पटे हों बाधाओं से
नहीं रुका हूँ नहीं रुकूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

शत्रु कौन है मित्र कौन है
करना क्या है मुझे जानकर
बढ़ता हूँ कर्तव्य मार्ग पर
हार जीत को धर्म मानकर
मन के सारे अँधियारों को
बन कर दीपक दूर करूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

घोर विपत्ति के पल, चाहे
विकट विवशता राहें रोकें
अवरोधक हों चाहे जितने
या फिर पग पग कोई टोके
असफलता के कलि कपाल पर
आशाओं की जीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

जीवन की मुश्किल राहों में
मैं पग पग हँसता जाऊँगा
दूर क्षितिज तक जाना  है तो
परबत से भी टकराऊँगा
लहराऊँगा परबत परबत
सागर सागर प्रीत लिखूँगा
मैं आशा के गीत लिखूँगा।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       03सितंबर, 2021

आशा ने करवट बदली हैं।

आशा ने करवट बदली हैं।  

उम्मीदें फिर नई सजी हैं
रातों की सिलवट बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आश ने करवट बदली हैं।।

कितने ही प्रतिमान गढ़े हैं
बीते इतिहासों ने अब तक
अरु नूतन अनुमान गढ़े हैं
कितनी आशाओं ने अब तक।।

सपनों वाली भोर हुई है
इच्छाएं घट घट बदली हैं
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली हैं।।

नई उमंगें नया मंत्र है
नई तरंगें नया तंत्र है
नवयुग है ये नव प्रभाव है
नव प्रभात है पुण्य पंथ है।।

लोलुपता के महल ढह रहे
भोगवाद भावना बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली है ।।

राष्ट्र भावना हुई बलवती
षड्यंत्रों का नाश सुनिश्चित
दुनिया के कोने कोने में
भारत का सम्मान सुनिश्चित।।

स्वस्थ भाव से स्वच्छ भाव से
जनतन ने करवट बदली है
पाकर भोर किरण की रश्मी
आशा ने करवट बदली हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2021



मौन के सम्मान में हूँ।

मौन के सम्मान में हूँ।  

ये मत कहो के मुग्ध हूँ मैं
सच कहूँ तो ध्यान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

जो तुम मुखर हो शब्द से
तो भाव से मैं भी मुखर
जो तुम प्रखर निर्माण से
तो कर्म से मैं भी प्रखर।।

तुमसे यहाँ किसने कहा के
मान के अभिमान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

प्यार का आकार हूँ मैं
स्वप्न इक साकार हूँ मैं
पंक्तियों में हैं गढ़े जो
आस का संसार हूँ मैं।।

उस आस के आकाश का मैं
मौन इक अभियान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

रात की किसको फिकर है
भोर पर अपनी नजर है
हूँ मुसाफिर चल रहा मैं
मंजिलों की ये डगर है।।

कुछ छूट ना जाये कहीं पर
हर कदम इस ध्यान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

अब क्यूँ डरूँ मैं शाप से
इस शोक से संताप से
क्यूँ करूँ मैं व्यर्थ जीवन
अवसादों में विलाप से।।

छंदों में बँधा इक गीत हूँ
अरु उसी के गान में हूँ
वक्त के संग संग बीतते
मौन के सम्मान में हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01सितंबर, 2021

सपनों का उपहार

सपनों का उपहार मेरी सुधियों में पावनता भर दे जाती हो प्यार प्रिये, मेरे नयनों को सपनों का दे जाती हो उपहार प्रिये। मैं पीड़ा का राजकुँवर हूँ ...