दुख में सुख को पलते देखा।

दुख में सुख को पलते देखा।

डगर डगर में नव प्रभात ले
उम्मीदों का सत्य सनात ले
आशाओं को खिलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

पृथक पृथक भावों को लेकर
भिन्न भिन्न परिभाषा लेकर
अभिलाषा को चलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

नूतन सपनों की आस लिए
प्रशस्त पुण्य आकाश लिए
अनुमानों को खिलते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

धूप छाँव प्रकृति नियम है
चले जहाँ पथ वही सुगम है
कंटक पथ भी हँसते देखा
दुख में सुख को पलते देखा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2021

विनय दान।

विनय दान।  

मुखर सत्य है प्रखर कृत्य है
गुंजित भ्रमर रच रहे प्राण
अवनी अंबर पुण्य मिलन से
कर रहे नूतन निर्माण।

पुलकित मुखरित तपन छुअन की
सहसा भर जाते प्रणय गान
कुसुमित विंबित उत्कंठित मन
कर जाते हैं सर्वस्व दान।

सांध्य समय कर रहा प्रतीक्षित
नव निर्माणों का कर सम्मान
चुम्बित कर नव किसलय का
विस्तारित हो विनय दान।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        30मार्च, 2021

नव किसलय नव पुष्प।

नव किसलय नव पुष्प।

नव आशा नव पुष्प खिले हैं
नीले नीले कुंज निलय में
स्फूर्ति संचार भर रही है
जीवन के हर आशय में।
नई दिशाएं नई विधाएं
अंग अंग नई उमंग जगी
मुस्काते नव किसलय देखो
जागृत अंतस पुण्य विनय है।।

ऋतु परिवर्तन की अँगड़ाई
नव संवत्सर की बेला आई
नूतन भाव विचार नित्य ले
आह्लादित करती पुरवाई।
पंखुड़ियों पर नर्तन करती
पुण्य श्लोक उच्चारित करती
भाव सुरंजित नूतन अंकन
वात वात संचारण करती।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        29मार्च, 2021

नारी- सब सह लेती है।

नारी- सब सह लेती है।  

जब चाहे हँस लेती है
पर चुपके से रोती है
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।

सूरज कभी कभी अलसा जाए
उसको अलसाते नहीं देखा
उठ जाती है सबसे पहले वो
कभी खुद को फुसलाते नहीं देखा
खुद का खयाल नहीं करती वो
पर वो सबको फुसलाती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

रसोई के गर्म मौसम में भी
वो शीतल बयार सी लगती
बाहर हो चाहे जैसा मौसम
वो तो बसंत बहार सी लगती
माथे पर भले हो गर्म पसीना
पर अबको शीतलता देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मुझसे ज्यादा क्या मेरी पसंद है
उसको  सब पहले से पता है
मेरे मन के सूनेपन  में भी
उसको लगता उसकी खता है
माँ, बहन, बेटी, पत्नी 
कितने ही किरदारों में ढल
सब पीड़ाएँ हर लेती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

उसका भी तो दिल सोचता होगा
उसका भी कहीं आसमाँ होगा
इस छोटी सी दुनिया में थोड़ा सही
उसका भी कहीं नामोनिशां होगा
नहीं कभी वो कहती  कुछ भी
पर सर्वस्व समर्पण कर देती है।
और नहीं वो नारी ही है
जो सब कुछ सह लेती है।।

मैं भी सोचता हूँ कभी
ना जाने किस मिट्टी की बनी है
धूप, ताप, बारिश या ठंडक
चुटकी में ही वो ढल लेती है
इतनी सहज प्रवृत्ति है उसकी
शायद इसीलिए सब कर लेती है।
जी हाँ वो नारी ही तो है
जो सब कुछ सह लेती है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021




फागुन का रंग।



फागुन का रंग।

नयनन की भूल भुलइया में
पिय अइसन तुमरे खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

रात रात भर जागत हैं 
इन अँखियन में अब नींद नहीं
इक तुमरो संग सुहात इसे
दूजा अब कउनो मीत नहीं।

अंग लगा लो अब तो हमको
रंग में तुमरे खोय गयी।
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

यहि फागुन फाग रचो अइसन
मन मोहन मोय श्रृंगार करो
रँग जाऊँ तुमरे रंगन में
मोहे कछु अइसन प्यार करो।

अइसन रंग लगा हिय पर
सब रंगन को मैं खोय गयी
सुध बुध बिसराय गयी मैं तो
बिन बंधन तुमरी होय गयी।।

 ©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        28मार्च, 2021

तूफानों का आदी हूँ।

तूफानों का आदी हूँ।   

मुक्त गगन का पंछी हूँ मैं
सीमाहीन क्षितिज मेरा है
आशाओं का पोषक हूँ मैं
धरती मेरी गगन मेरा है
बाँध सकेगा क्या मुझको
मैं तो इक अनुरागी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

मुझको कब तक बाँधेंगे 
झूठे रिश्तों के ये बंधन
कब तक मुझको रोकेंगे
स्वार्थयुक्त ये झूठे क्रंदन
परे छोड़ सब बाधाओं को
मैं परिवर्तन का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

नहीं छाँव का मोह मुझे
वरदानों को क्या तकना
निकल पड़ा जब अपनी धुन में
बीच डगर फिर क्या रुकना
चलते फिरते इस जीवन में
मैं रफ्तारों का साथी हूँ
मैं तूफानों का आदी हूँ।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        27मार्च, 2021





पहचान।

पहचान।  

इस आभासी दुनिया में तुम
प्रिय मेरी मुस्कान बने हो
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

धूप छाँव के सफर घनेरे
शाम तुम्हीं हो तुम्हीं सवेरे
अभिलाषा के शीर्ष तुम्हीं
प्रेम पंथ ने पुष्प बिखेरे।

प्रेम पथिक मैं जिन राहों का
तुम उसकी वरदान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

तुम शीतलता की परिभाषा
चाँद चाँदनी की अभिलाषा
तुम नैनों की दिव्य ज्योति हो
तुम अधरों की कंपित आशा।

मेरे मन की इस वीणा के
मदिर मधुर सुर तान बने हो।
नजर नजर में डगर डगर में
तुम मेरी पहचान बने हो।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        26मार्च, 2021 


साथ तुम्हारा।

साथ तुम्हारा।  

मौसम के अनुमानों ने
इस दिल के अरमानों ने
मुझमें कितने रंग भरे हैं
जो साथ चलो तो कह दूं मैं।।

तुमसे मैं तो मिला अभी ही
और अभी ही देखा है
तुमसे मिलकर लगा मुझे यूँ
तुझमें जीवन रेखा है।
मेरे जीवन में तुम क्या हो
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

पल भर के इस नेह मिलन ने
स्वप्न अनेकों बुन डाले
और तुम्हारे अपनेपन ने
गीत अनेकों रच डाले।
गीतों ने क्या कुछ रच डाला
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

कहने को हैं कितनी बातें
नई पुरानी कितनी घातें
दिल ने कितना दरद सहा है
पलकें जागी कितनी रातें।
इस पल में तुमसे क्या पाया
जो साथ चलो तो कह दूँ मैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       26मार्च, 2021
जो साथ तुम्ह
उम्मीदों के फूल खिले तो








मुस्कानों का साथी।

मुस्कानों का साथी।   

खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।

आशाओं ने करवट बदली
उम्मीदों ने राह पकड़ ली
सपनों को इक पंथ मिला
विश्वासों ने अँगड़ाई ली।

मुक्त पंख आकाश खुला है
दूर क्षितिज तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

गिरने का कहीं भय नहीं
तारों से बातें करता हूँ
अपनी हर इच्छाओं से
झोली हर खाली भरता हूँ।

आशाओं के संयोजन तक
पल पल पलते जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

बहुत किया पछतावा अब तक
अब कोई अफसोस नहीं
बीती सारी बातों पर अब
मुझको कोई रोष नहीं।

मुस्कानों का साथी हूँ मैं
मुस्कानों तक जाना है।
खोने को क्या पास हमारे
अब मुझको बस पाना है।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        25मार्च, 2021


कैसे गाऊँगा।

कैसे गाऊँगा।   

यादों में मेरी बसी हो
गीतों में मेरे रची हो
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

साथ चले कितने ही सावन
कुछ झुलसाए कुछ मनभावन
कुछ में पीर मिली थी हमको
कुछ पूजा से भी थे पावन।

बीती सारी बातों को मैं
कैसे कहो भुलाऊंगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुम बिन मेरा यौवन सूना
तुम बिन सूनी रातें सारी
तुम बिन मेरी राह अधूरी
तुम बिन मेरी प्रीत बिचारी।

तुम बिन चलना मुश्किल है
कैसे मैं समझाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

तुमसे मेरे गीत जुड़े हैं
तुमसे मेरे सपने सारे
तुमसे सारी रीत जुड़ी है
तुमसे मेरे अपने सारे।

तुम ही गीतों की सरगम
मैं तुमको ही गाऊँगा।
तुम बिन ना रह पाऊँगा
बोलो कैसे गाऊँगा।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        24मार्च, 2021

सफर।

सफर।  

चलो कुछ सपने देखते हैं
यूँ ही तुम मुझमें मैं तुझमें
चलो मिलकर कुछ खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

कुछ मैं तुमको बतलाऊँ
कुछ तुम मुझको समझाना
कुछ मैं तुमको दिखलाऊँ
कुछ तुम मुझको बतलाना।

वक्त की दहलीज पर हम
एक दूजे को खोजते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

एक उम्र चली है राहों पर
थामे दूजे की बाहों को
इस धड़कन से उस धड़कन तक
थामे दूजे की साँसों को।

थामे साँसों की वही डोर
चलो बाहों में भींचते हैं
चलो रिश्तों को सींचते हैं।।

दूर क्षितिज तक चलें साथ मे
राह मुड़े तो मुड़े साथ में
अस्तांचल तक चलना है
भोर खिले जब खिले साथ में।

सूर्योदय से अस्तांचल तक
उम्र को दरीचों में देखते हैं
चलो कुछ सपने देखते हैं।।

©️✍️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        22मार्च, 2021

काशी।

काशी।  

जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

कष्ट सभी मिट जाते हैं
खुद से खुद मिल जाते हैं
लगा भभूत माथ पर अपने
देवों का दर्शन पाते हैं।

अल्हड़ गंगा की धारा में
वक्त यहाँ सिमटा जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

गलियों में नवरंग यहाँ पर
बरसे हैं सब रंग यहाँ पर
रस की धार बना-रसिया
जज्बातों को पंख यहाँ पर।

जज्बातों की धारा में मन
खुद को बहता पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

दुनिया के सब रौनक फीके
शानो शौकत सारे झूठे
जिस पर इसका रंग चढ़े है
रंग लगे सब उसको फीके।

काशी की गलियों में कोई
नहीं कभी तन्हा पाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

अंतिम सत्य यहाँ मिलता है
सृष्टि का पल पल पलता है
जीवन मृत्यु मोक्ष कामना
उम्मीदों को पथ मिलता है।

जन्म मरण के सब बंधन से
जीवन मुक्त हुआ जाता है।
जग के ठाठ भूल सारे
मन काशी हो जाता है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        21मार्च, 2021

गंगा के उस पार।

गंगा के उस पार।   

जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे
सब सपनों की छोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

छिटक छिटक कर सूर्य रश्मियाँ
जल थल पर क्रीड़ा करती
नित नूतन संदेशों से वो
मन में भाव प्रवणता भरतीं।

उम्मीदों की कोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

भीतर है तूफान समेटे
ऊपर, पर शांत लहर है
पल पल छिन छिन बीत रही
सिमटाये मौन प्रहर है।

शांत लहर की पोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

साँझ ढले जीवन बेला में
घाटों पर इक हलचल है
नवजीवन की उम्मीदों से
निशा जागती पल पल है।

पुनर्जन्म की भोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।
जीवन की इक डोर दिखी है
गंगा के उस पार मुझे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       21मार्च, 2021




पहचान।

पहचान।   

सत्ता के गलियारों में सब अरमान खिलौने हो गये
तकती नजरें सूनी सूनी सम्मान खिलौने हो गये।।

काजू की प्लेटों में दिखी जिनके सपनों की परछाईं
उनकी इच्छाओं के सारे अनुमान खिलौने हो गये।।

नैतिकता अपने घर में हि बंधक बनकर आज रो रही
इसके गिरते किरदारों से पहचान खिलौने हो गये।।

आम आदमी सपनों को अपने ही काँधों पर ढो रहा
जाने फिर नजरों में कैसे किरदार खिलौने हो गये।।

खून पसीने से जिनके, महलों में लाखों दिए जले
महलों के आँगन में उनकी पहचान घिनौने हो गये।।

दोष मढ़ें अब किसके ऊपर, शिकवा किसी से क्या करना
पहचान दिये जिसको हमने अहसान खिलौने हो गए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       20मार्च, 2021


आम की बालियाँ।

आम की बालियाँ।  

मैंने घर के आँगन में
कुछ पेड़ लगाए आमों के
स्वप्न में देखा मधुर रसीले
उम्मीदों को आमों में।

खट्टा मीठा जीवन अपना
आम सरीखा लगता है
जबतक कच्चा, खट्टा है
पके तो मीठा लगता है।

बौर लगे पेड़ों पर देखो
ऋतु परिवर्तन बतलाती हैं
खेतों की ये पकी बालियाँ
तन मन को हर्षाती हैं।

बीत रहा मधुमास माह अब
किरणें भी ताप बढ़ाती हैं
खेतों खलिहानों में पग पग
उम्मीदें मुस्काती हैं।

लगन मुहूरत, नव संबंधों
का नूतन मौसम आया 
उम्मीदों को पंख मिले हैं
कलियों का मन हरषाया।

मौसम के इन संकेतों ने
जीवन को आयाम दिया
पेड़ों पर खिलते आमों ने
इक नूतन अभियान दिया।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
       20मार्च, 2021


प्रीत ने पंथ निखारा।

प्रीत ने पंथ निखारा।  

रात की मद्धम गति औ तेरा मुस्काना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

तू मुस्कुरा दे फूल खिलते
बातों में जादू तेरे
जबसे देखा मैंने तुझको
दिल पर नहि काबू मेरे।

यूँ लगे ज्यूँ पुष्प पर भ्रमर का मँडराना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

मचल रही अधरों पे तेरे
यूँ सूर्य की ये लालिमा
मदमस्त होकर चूमती हैं
कपोलों को ये बालियाँ।

यूँ लगे ज्यूँ भोर का अहसास मिल जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

ये केश तेरे यूँ घनेरे
ज्यूँ मेघ के गुम्फे लगें
मैं देखूँ जब जब रुप तेरा
मृदु भाव, हिय प्रियतम जगे।

यूँ लगे ज्यूँ रूप की चादरों का छाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

सुंदरता की मूरत है तू
भावों में मधुरस धारा
जीवन में तेरे आने से
समृद्धि ने पंथ निखारा।

यूँ लगे ज्यूँ अंक में नभ का सिमट जाना यहाँ
बादलों की ओट से ज्यूँ चाँद का आना यहाँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       18मार्च, 2021


देव दर्शन।

देव दर्शन।  

औरों ने बस पत्थर माना
मैंने देवों के दर्शन देखे
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

नदिया, परबत, मेघ घनेरे
कल कल छल छल भाव सुनहरे
प्रकृति ने है रूप निखारा
सुघड़, सुभग भाव मनहरे।

कितना सुंदर दृश्य पटल पर
अंकित मन अनुरंजन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

किरण प्रभाती पुण्य भाव से
कण कण रूप सजाती है
हरित कांति से सजी धरा
देवों का रूप दिखाती है।

अवनी अंबर साथ चले हैं
पुलकित मन अभिनंदन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

शुद्ध चित्त औ शुद्ध भाव से
सहज सरल बन सकता जीवन
अंतस के पुष्पित भावों से
पुष्पाच्छादित तन मन उपवन।

शुद्ध चित्त औ पवित्र भाव ने
कितने ही परिवर्तन देखे।
सबने ने बस रूप निहारा
मैंने भाव सुदर्शन देखे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
      17 मार्च, 2021




अपनापन।

अपनापन।   

पात टूट कर गिरे डाल से
फिर से उसको कौन मिलाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सुखद सपन सी लगती दुनिया
नई नवेली दिखती दुनिया
चमक दमक के पीछे लेकिन
एकाकी सी कितनी दुनिया।।

जीवन के एकाकीपन को
अपनापन ही दूर भगाए
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

मतभेदों में जला उजाला
मनभेदों ने निगला जीवन
जाने कैसे पवन चल रही
उजड़ा जाता हरपल जीवन।।

निज जीवन के अनुमानों ने
अहसासों को दूर भगाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

विखर गए कितने ही उपवन
अहंकार के तूफानों में
बिछड़ गए कितने ही जीवन
हीनभाव वश अनुमानों में।।

ऐसे अनुमानों के कारण
जीवन पल पल ठोकर खाये।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

सफर सुहाना लगता तबतक
जबतक अपने साथ चले हैं
पग-पग खुशियाँ मिलती तबतक
उम्मीदों के फूल खिले हैं।।

अपनेपन की उम्मीदें ही
जीवन को नव राह दिखाए।
भटक गये जो कभी मूल से
उसे मूल से कौन मिलाए।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      15मार्च, 2021



नई सुबह नई भोर।

नई सुबह नई भोर।  

भोर रश्मि की मुस्कानों से
वरदानों की डोर जुड़ी है
हँस कर जब भी देखा मैने
नई सुबह की भोर दिखी है।।

दूर क्षितिज से किरण प्रभाती
उम्मीदें बनकर आती 
अपने स्वर्णिम अहसासों से
मन में मधुरिम भाव जगाती।
मधुरिम मधुरिम अहसासों में
नूतन सपनों की छोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

शीतल चंदा की किरणों ने
रातों का श्रृंगार किया है
रजनी के नीले आँचल को
तारों ने गुलजार किया है।
खिली चाँदनी की किरणों में
प्रेम की सुंदर डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

सुंदर मन के व्यवहारों से
खुशियों की कलियाँ खिलती हैं
मन में जैसा भाव यहाँ हो
वैसी ही दुनिया मिलती है।
मन की सुंदरता से देखा
खुशियों की इक डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने 
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मैंने जीवन के हर इक पल को
हँसकर के सम्मान दिया है
सोम समझ कर गरल पिया है
नहीं कभी अपमान किया है।
जीवन के हर पल में मुझको
अमृत की रसधार दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

मेरा प्रण है इस जीवन को
ऐसे ही गाता जाऊँगा
जीवन के हर पहलू में मैं
ऐसे ही हँसता जाऊँगा।
मुस्कानों में हरपल मुझको
साँसों की नव डोर दिखी है।
हँस कर जब भी देखा मैंने
नई सुबह नई भोर दिखी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      14मार्च, 2021

मजबूरी।

मजबूरी।   

मेरे औ मंजिल के बीच
बस थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।

मौन पंथ का मूक पथिक हूँ
उम्मीदों ने पाला मुझको
जीवन पथ के तूफानों ने
अपनेपन में ढाला मुझको।

निकल गया सब तूफानों से
पर थोड़ी सी दूरी है
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

जी करता है सपनों में मैं
अपने हरपल गीत सजाऊँ
तुम सम्मुख प्रतिपल बैठो
अविरल मैं  गाता जाऊँ।

मेरे गीतों की महफ़िल में
तेरी मुस्कान जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

उम्मीदों ने रात ओढ़ ली
पर मैंने स्वीकार किया
दिए तुम्हारे सब घावों को
मैंने तो हर बार जिया।

कहने को मैं भी कह देता
पर चुप रहना भी जरूरी है।
तुमको क्या बतलाऊँ मैं
मेरी क्या मजबूरी है।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       12मार्च, 2021

सम्मान कइसे मिली।

सम्मान कइसे मिली।  

एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली
नारी जबले नारी के ही
सम्मान नाहीं देली।।

कोख में ज लइकी सुनिके
आँसू गिरे लागे
मनवा में कइसन कइसन
भाव जागे लागे
कोखी में बराबर जबले
अधिकार नहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

जनमते ही लईकीन खातिर
दहेजवा सतावेला
यही देश में नारी ही खुद
नारी के जलावेला
जबले कुरीतिन के असली
अंजाम नाहीं मिली
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

दुनिया में जिधरो देखा
अत्याचार बढ़त बा
नारी की शुचिता देखा
कइसे कइसे कुढ़त बा
नारी अपराधन के जबले
परिणाम नहीं मिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

माई, बहिन, बेटी, पत्नी अउर सहेली
कितना ही रूप नारी, हरपल धरेली
कइसन भी मुश्किल हो, उफ्फ ना करेली
चेहरा पे खुशी रखिके दुखवा छुपावेळी।

भगवान के देखली नाहीं,
तुहके ही देखली हम
बिना तोहरे चली नाहीं
सृष्टि ई एक्को कदम।

जवने घर में नारी के उचित 
स्थान नाहीं मिली
वहि घर मा खुशियन के
फूल नाहीं खिली।
इहे बात अजय कहे 
आज सबसे मिल के
सोच जबले बदली नाहीं
एहसास नाहीं खिली।
एक दिन खुशी मनवले
मान नाहीं मिली।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
      हैदराबाद
      09मार्च, 2021

स्वयं का विस्तार कर।

स्वयं का विस्तार कर।  

आस्था के फूल सारे स्वार्थ में बिखर रहे
निजता, प्रमुखता अहसास कैसे पल रहे
संबंधों की सोच संकीर्ण हो रही है, क्या
भान ही नहीं के खुद ही खुद को छल रहे।।

स्वप्न का श्रृंगार कर ये रास्ते बुहार कर
वासनाओं पर यहाँ अपने तू प्रहार कर
शूल पथ के सभी खुद फूल हो जाएंगे 
बन के सत्यकाम तू स्वयं विस्तार कर।।

एक दिन सभी यहाँ, खुद ही जान जाएंगे
तेरे पदचिन्हों पर खुद शीश वो नवाएँगे
व्यर्थ का प्रलाप जो भी कर रहे हैं यहाँ
संबंधों की भीड़ में खुद को तन्हा पाएंगे।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       07फरवरी, 2021

कभी मानूँगा ना हार।

कभी मानूँगा ना हार।   

जीवन के विस्तृत प्रसार में
मनोभावों के विस्तार में
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।

तेज भले कितनी हो लहरें
सम्मुख सागर भले अपार
तूफानों से डरना कैसा
जब तक हाथों में पतवार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

कभी कभी मिलता है जीवन
पुण्य कर्म का फल है जीवन
हैं असीम निज इसकी इच्छा
उम्मीदों का है ये मधुवन।

इस मधुवन से आज मिला है
मुझे जीवन का सब सार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

तूफानों में जोर भले हो
जूझ गया जो, कब थकता है
ऊँची सागर की लहरों में
माँझी कभी कहाँ रुकता है।

सागर की अपनी सीमा है
औ मन की असीम अपार।
कण कण चुगता बन चातक
कभी मैं मानूँगा ना हार।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       06मार्च, 2021

रंगमंच।

रंगमंच।   

जीवन ये इक रंगमंच है
सबका है अपना अभिनय
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।

पात्र, पात्रता, आवश्यकता
पग पग पर मंचन होती है
जिसकी जैसी यहाँ भूमिका
वैसी ही अंकन होती है।

सबके अपने पात्र सुनिश्चित
धर्म कर्म है सबका संचय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

वचनबद्धता, भाव, प्रार्थना
सब इच्छाओं में चिन्हित हैं
औ अंतस की समग्र कामना
प्रत्यक्ष यहाँ पर प्रतिबिंबित है।

इच्छाओं की मधुर कल्पना
हिय संबंधों का है मधुमय ।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

रुपहले पर्दे पर चित्रित
सबकी अपनी भाव भंगिमा
जिसकी जैसी प्रस्तुति है
वैसी बनती उसकी गरिमा।

भावों की प्रस्तुति से होता
सबके जीवन में अरुणोदय।
संवाद कहीं है मौन कहीं
सबका है अपना परिचय।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       05मार्च, 2021





मौन पीड़ाएँ।

मौन पीड़ाएँ।  

जीवन के नीरव निशीथ में
मौन उमड़ते अंधकार में
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

कितने छल कितनी पीड़ाएँ
मौन बींधते रहते मन को
उमड़ घुमड़ कितनी इच्छाएँ
मौन खीझते रहते मन को।

मुक्त कंठ की इच्छा लेकर
आखिर कब तक मौन तड़पता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

व्याकुल व्याकुल रहते प्रतिपल
अंतस की अभिलाषा कितनी
नयनों में फिरती हैं प्रतिपल
जीवन की आशाएँ कितनी।

पलकों में संचित आशा ले
आखिर कब तक भाव सुलगता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।

पृथक पृथक हों भाव सभी जब
पृथक पृथक सब राह चलें जब
कांटों से भी मुश्किल लगती
सहज भले हों राह यहाँ तब।

अपनी डाली के काँटों का
दंश कोइ कब तक सहता।
व्यग्र हृदय कब तक रहता
कब तक ये पीड़ाएँ सहता।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
       हैदराबाद
       04मार्च, 2021






मनमीत।

मनमीत।   

मेरे मन के मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

अधरों पर हो प्रेम का अंकन
उर में मधुर मधुर स्पंदन
अंक में भर लूँ स्वप्न तुम्हारे
जीवन ये हो जाये नंदन।

मुक्त गगन की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

संवादों में गीत मधुर हो
अहसासों में प्रीत मधुर हो
शब्द शब्द में थिरकन जागे
नई तरंगें, रीत मधुर हो।

नई रीत की गीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

ताप तरंगें इस जीवन को
रह रह कर झुलसाती हैं
जाने कितने भाव हृदय को
रह रह कर हुलसाती हैं।

मेरे अंतस की मीत बनो तुम
मैं प्रीत तुम्हारी बन जाऊँ।
शब्द बनूँ मैं गीत बनो तुम
संगीत तुम्हारी बन जाऊँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        03मार्च, 2021

मौन अब खोल दो।

मौन अब खोल दो।   

कभी तो बैठो पास मेरे
औ कभी तुम कुछ बोल दो
मौन क्यूँ बैठे हो यहॉं पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

जानता हूँ दिल में दबी हैं
तिरे भावनाएँ प्यार की
और कितनी चाहतें हैं
इस प्यार के संसार की।

आज दिल में जो दबी है
सभी भावनाएँ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

क्या याद अब तुमको नहीं
मुझसे था क्या क्या कहा
साथ मिलकर जब चले थे
हमने था क्या क्या सहा।

भूल तुम कैसे गए सब
कुछ तो कहो कुछ बोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

बाद अपने प्रेम की बस
रह जायेंगी निशानियाँ
गीत अपने प्रीत की
गूंजेंगी बन कहानियाँ।

फिर हमारे गीत में तुम
प्रीत के रस घोल दो।
मौन क्यूँ बैठे हो यहाँ पर
दिल की गिरह को खोल दो।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        02मार्च, 2021

दर्द।

दर्द।   

जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने मुझको प्रीत सिखाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

सूना जीवन था ये मेरा
तुम आये आकाश मिला
सदियों से प्यासी धरती को
बूँदों का मधुमास मिला।

जिन बूंदों ने मधुमास खिलाया
उन बूंदों का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

कभी खिली थीं कलियाँ मुझमें
जाने कब कैसे बिखर गयीं 
कभी मिली थीं खुशियाँ मुझको
जाने कब कैसे बिछड़ गयीं।

जिस दर्द ने मुझको पास बिठाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

आज मिले जो जीवन पथ में
तन्हा छोड़ नहीं तुम जाना
मेरे गीतों में शब्द तुम्हीं हो
मुश्किल है इनका जी पाना।

जिस फर्ज ने तुमसे मुझे मिलाया
उस फर्ज का शुक्रिया करता हूँ।
जिस दर्द ने तुमसे मुझे मिलाया
उस दर्द का शुक्रिया करता हूँ।।

✍️©️अजय कुमार पाण्डेय
        हैदराबाद
        01मार्च, 2021



श्री भरत व माता कैकेई संवाद

श्री भरत व माता कैकेई संवाद देख अवध की सूनी धरती मन आशंका को भाँप गया।। अनहोनी कुछ हुई वहाँ पर ये सोच  कलेजा काँप गया।।1।। जिस गली गुजरते भर...